Gaya

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(Redirected from Kia-ye)
Author: Laxman Burdak IFS (R)

Gaya District Map
Vishnupad Temple Gaya
Falguni River Gaya

Gaya (गया) is a city and district in Bihar. It is a place sanctified by the Hindu, the Muslim and the Buddhist religions. Author (Laxman Burdak) visited Gaya on 11.11.2010 and has provided content and images here.

Variants

Location

Gaya is 100 kilometers south of Patna, the capital city of Bihar. It is situated on the banks of Falgu River also called Niranjana in Ramayana). It is surrounded by small rocky hills (Mangla-Gauri, Shringa-Sthan, Ram-Shila and Brahmayoni) by three sides and the river flowing on the fourth (eastern) side.

Origin of name

Gaya derives its name from the mythological Asura named Gayasura. Lord Vishnu killed Gayasura by using the pressure of his foot over him. This incident transformed Gayasura into the series of rocky hills that make up the landscape of the Gaya city. Gaya was so holy that he had the power to absolve the sins of those who touched him or looked at him; after his death many people have flocked to Gaya to perform Shraddha sacrifices on his body to absolve the sins of their ancestors. Gods and goddesses had promised to live on Gayasura's body after he died, and the hilltop protuberances of Gaya are surmounted by temples to various gods and goddesses. These hilltop temples at Rama Shila, Mangla Gauri, Shringa Sthan and Brahmayoni are part of the pilgrimage circuit, and grand staircases have been built up to most of them.

Mention by Panini

Gaya (गया), is name of a place mentioned by Panini in Ashtadhyayi under Varanadi (वरणादि) (4.2.82) group. [1]

Sub Divisions

Gaya District comprises 4 Sub-divisions:

Blocks: Gaya Sadar, Manpur, Bodh Gaya, Wazirganj, Belaganj; Khizarsarai, Atri, Nimchakbathani, Muhra; Sherghati, Amas, Mohanpur, Fatehpur, Barachatti, Imamganj, Dumaria, Bankey Bazar, Dobhi, Tankuppa, Gurua, Guraru, Paraiya, Tekari, Konch,

Jat clans

Gaya is a Gotra of the Anjana Jats in Gujarat.

History

Gaya was a part of the ancient state Magadha. Documented history of Gaya dates back to the enlightenment of Gautam Buddha. About 11 km from Gaya town is Bodh Gaya, the place where Gautam Buddha attained enlightenment. Since then the places around Gaya (Rajgir, Nalanda, Vaishali, Patliputra) had been the citadel of knowledge for the ancient world. These centers of knowledge further flourished under the rule of dynasties like the Mauryans who ruled from Patliputra (modern Patna) and covered the area beyond the boundaries of the Indian subcontinent. During this period, Gaya was a part of the Magadh region.

गया

विजयेन्द्र कुमार माथुर[2] ने लेख किया है ...गया (AS, p.279): यह है गौतम बुद्ध के संबोधि-स्थल तथा हिंदुओं के प्राचीन तीर्थ के रूप में सदा से प्रसिद्ध रहा है. महाभारत वन पर्व 84,82 में गया का तीर्थ रूप में वर्णन है--'ततो गयां समासाद्य ब्रह्मचारी समाहित:। अश्वमेधमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत्'।

वन पर्व 95,9 में पांडवों की तीर्थ यात्रा के प्रसंग में भी गया का उल्लेख है-- 'ततो महीधरं जग्मुर्धर्मज्ञेनाभिसत्कृतम्। राजर्षिणा पुण्यकृता गयेनानुपमद्युते। इससे यह भी सूचित होता है कि राजर्षि गय के नाम पर ही गया का नामकरण हुआ था. गयशिर की पहाड़ी का उल्लेख इससे अगले श्लोक में है जो विष्णुपद पर्वत है. पुराणों की एक कथा के अनुसार गया, गयासुर नामक राक्षस का निवास स्थान था. विष्णु ने इसे यहां से निकाल दिया था (देखें बिहार थ्रू दि एजेज़, पृ. 114).

संभव है इस क्षेत्र में अनार्य लोगों का निवास रहा हो (देखें वही पृ. 114). बुद्ध के समय यह स्थान नगर के रूप में विख्यात नहीं था. तब उरुवेला नामक ग्राम यहां स्थित था जिस के निकट बुद्ध ने पीपल वृक्ष के नीचे समाधिस्थ होकर संबुद्धि प्राप्त की थी. उरुवेल में ही वहां के ग्रामणी की पत्नी सुजाता (या नंदबाला) की दी हुई पायस खाकर बुद्ध ने अपना कई दिनों का उपवास भंग किया था और वे इस परिणाम पर पहुंचे थे कि काया को उपवास आदि से क्लेस देकर मानुष्य सर्वोच्च सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता.

अश्वघोष (प्रथम या द्वितीय शती ई.)ने बुद्ध-चरित में गया का उल्लेख किया है जिससे सूचित होता है कि कवि के समय में गया को राजर्षि गय की नगरी माना जाता था-- 'ततो हित्वाश्रमं तस्य, श्रेयोअर्थी कृत्यनिश्चय: भेजे गयस्य राजर्षेर्नगरी संज्ञमाश्रमम्' सर्ग 12,89. बुद्ध के पश्चात गया का नाम संबोधि भी पड़ गया था जैसा कि अशोक के एक अभिलेख से सूचित होता है. मौर्य सम्राट अशोक ने इस स्थान की पावन-यात्रा अपने शासनकाल के दसवें वर्ष में की थी. चीनी यात्री फाह्यान चौथी सदी ई. तथा युवानच्वांग सातवीं सदी में गया आए थे. इन यात्रियों ने इस स्थान पर अशोक के बनवाए हुए विशाल मंदिर का उल्लेख किया है. जनरल

[p.280]: कनिंघम तथा परवर्ती पुरातत्वविदों ने गया में विस्तृत उत्खनन किया था. इस खुदाई में अशोक के मंदिर के चिन्ह नहीं मिल सके. कहा जाता है कि यह मंदिर सातवीं शती तक स्थित था. वर्तमान मंदिर बाद का है यद्यपि उसका आस्थान अवश्य ही प्राचीन है. यह मंदिर नौ तालों स्तूपाकार बना हुआ है. इसकी ऊंचाई 160 और चौड़ाई 60 फुट है. फर्गुशन का विचार है कि नौतला मंदिर बनवाने की प्रथा, जो चीन या अन्य बौद्ध धर्म से प्रभावित देशों में प्रचलित थी, वह मूल रूप से इसी मंदिर की परंपरा की अनुकृति थी (देखें हिस्ट्री आफ इंडियन एण्ड ईस्टर्न र्किटेक्चर, जिल्द,79).

बिहार पर जब मुसलमानों का आक्रमण हुआ अवश्य ही गया के मंदिर का भी विध्वंस किया गया होगा. इससे पूर्व ही हिंदू धर्म के पुनरुत्थान के समय बौद्ध मंदिर का महत्व समाप्तप्राय: हो चला था और हिंदू मंदिर ने उसका स्थान ले लिया था. महाभारत में वर्णित है कि संभवत: छठी शती ई. में सिंहल नरेश महानामन् ने गया के बुद्ध मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था. विष्णु पुराण में गया को गुप्त नरेशों के राज्य के अंतर्गत बताया गया है-- 'अनुगंगां प्रयागं गयायाश्च मागधा: गुप्ताश्च भोक्ष्यंति' 4,24,63.

कहा जाता है कि मूल बोधिद्रुम अथवा पीपलवृक्ष को गौड़ नरेश शशांक ने, जो महाराज हर्ष का समकालीन था (सातवीं शती ई.), अधिकांश में विनष्ट कर दिया था किंतु यह भी संभव है कि वर्तमान वृक्ष मूलवृक्ष का ही वंशज हो. इसी वृक्ष की एक शाखा अशोक की पुत्री संघमित्रा ने सिंहलदेश में ले जाकर अनुराधापुर में लगाई थी. यह वृक्ष वहां अभी तक स्थित बताया जाता है. इसी सिंहलदेशीय वृक्ष की एक शाखा वर्तमान सारनाथ के जीर्णोद्धार के समय कुछ वर्षों पूर्व वहां विरोपित की गई थी. यह भी मनोरंजक तथ्य है कि महाभारत वन पर्व है 84,83 में गया में अक्षयवट का उल्लेख है और उसे पितरों के लिए किए गए सभी पुण्य कर्मों को अक्षय करने वाला वृक्ष बताया गया है-- 'तत्राक्षयवटो नाम त्रिषुलोकेषु विश्रुत: तत्र दत्तं पितृभ्यस्तु भवत्यक्षयमुच्यते ' तथा 'महानदी तत्रैव तथा गय शिरॊ नृप, यत्रासौ कीर्त्यते विप्रैर अक्षय्यकरणॊ वटः वन पर्व 87,11. अवश्य ही यह अक्षयवट (वट = बरगद या पीपल) बौद्धों का संबोधि वृक्ष ही है जिसे हिंदू धर्म के पुनर्जागरण काल में हिंदुओं ने अपनाकर अपनी पौराणिक परंपरा में सम्मिलित कर लिया था. गया आजकल भी हिंदुओं का पवित्र स्थल है तथा यहां हुए पिंडदान का महत्व माना जाता है.

फल्गु गया की प्रसिद्ध पुण्य नदी है जिसका निर्देश महाभारत वन पर्व 95,9 में गयशिर की पहाड़ी के निकट बहने वाली 'महानदी' के रूप में है (देखें गयशिर) बौद्ध साहित्य में [p.281]: फल्गु की सहायक नदी वर्तमान नीलांजना को नैरंजना कहा गया है-- 'स्नातो नैरांजनातीरादुत्ततार शनै: कृश:' (बुद्धचरित 12,108) अर्थात गौतम (बोधिद्रुम के नीचे समाधिस्थ होने के पहले) नैरंजना नदी में स्नान करके धीरे धीरे तट से चढ़कर ऊपर आए. यह गया से दक्षिण 3 मील दूर महाना अथवा फल्गु में मिलती है. वर्तमान महाना अवश्य ही महाभारत की महानदी है जिसका ऊपर उद्धतुत श्लोक वन. 87, 11 में उल्लेख है.

अक्षयवट इलाहाबाद

अक्षयवट इलाहाबाद में गंगा-यमुना संगम के पास क़िले के भीतर स्थित एक वृक्ष है। यह सनातन विश्ववृक्ष माना जाता है, इस वृक्ष का पुराणों में वर्णन है कि कल्पांत या प्रलय में जब समस्त पृथ्वी जल में डूब जाती है उस समय भी वट का एक वृक्ष बच जाता है जिसके एक पत्ते पर ईश्वर बालरूप में विद्यमान रहकर सृष्टि के अनादि रहस्य का अवलोकन करते हैं। अक्षय वट के संदर्भ कालिदास के रघुवंश तथा चीनी यात्री युवान्‌ च्वांग के यात्रा विवरणों में मिलते हैं। असंख्य यात्री इसकी पूजा करने के लिए आते हैं। काशी और गया में भी अक्षयवट है, जिनकी पूजा-परिक्रमा की जाती है। अक्षयवट को जैन भी पवित्र मानते हैं। उनकी परम्परा के अनुसार इसके नीचे ऋषभदेव जी ने तप किया था। यह बट का वृक्ष प्रयाग में त्रिवेणी के तट पर आज भी अवस्थित कहा जाता है।[3]

गया परिचय

गया झारखंड और बिहार की सीमा और फल्गु नदी के तट पर बसा बिहार का एक प्रमुख नगर है। वाराणसी की तरह गया की प्रसिद्धि मुख्य रूप से एक धार्मिक नगरी के रूप में है। पितृपक्ष के अवसर पर यहाँ हज़ारों श्रद्धालु पिंडदान के लिये जुटते हैं। गया सड़क, रेल और वायु मार्ग द्वारा पूरे भारत से अच्छी तरह जुड़ा है। नवनिर्मित 'गया अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा' द्वारा यह थाइलैंड से भी सीधे जुड़ा हुआ है। गया से 17 किलोमीटर की दूरी पर बोधगया स्थित है जो बौद्ध तीर्थ स्थल है और यहीं 'बोधिवृक्ष' के नीचे भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।

गया बिहार के महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थानों में से एक है। यह शहर ख़ासकर हिन्दू तीर्थ यात्रियों के लिए काफ़ी मशहूर है। यहाँ का 'विष्णुपद मंदिर' पर्यटकों के बीच लोकप्रिय है।

ऋग्वेद के दो सूक्तों के रचयिता प्लति के पुत्र गय थे। ऋग्वेद (10।63।17 एवं 10।64।17) में आया है 'अस्तवि जनो दिव्यो गयेन'। (दैवी पुरोहित गय द्वारा प्रशंसित हुए) ये ऋग्वेद के एक ऋषि हैं। ऋग्वेद में 'गय' शब्द 'अ य' अर्थों में भी आया है जिनका यहाँ उल्लेख असंगत है। अथर्ववेद 1।14।4 में असित एवं कश्यप के साथ गय नामक एक व्यक्ति जादूगर या ऐन्द्रजालिक के रूप में वर्णित है। वैदिक संहिताओं में असुरों, दासों एवं राक्षसों को जादू एवं इन्द्रजाल में पारंगत कहा गया है। (ऋग्वेद 7।99।4, 7।104।24—25 एवं अथर्ववेद 4।23।5) संभव है कि 'गय' आगे चलकर 'गयासुर' में परिवर्तित हो गया हो।


निरूक्त 12।19 ने 'इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्' (ऋग्वेद 1।22।17) की व्याख्या करते हुए दो विश्लेषण दिये हैं, जिनमें एक प्राकृतिक रूप की ओर तथा दूसरा भौगोलिक या किंवदन्ती पूर्ण मतों की ओर संकेत करता है- 'वह (विष्णु) अपने पदों को तीन ढंगों से रखता है।' शाकपूणि के मत से विष्णु अपने पद को पृथिवी, अन्तरिक्ष एवं स्वर्ग में रखते हैं, और्णवाभ के मत से समारोहण, विष्णुपद एवं गय-शीर्ष पर रखते हैं (त्रेधा निधत्ते पदम्। पृथिव्यामन्तरिक्षे दिवीति शाकपूणि:। समारोहणे गयाशिरसि-इति और्णवाभ:। निरूक्त (12।19)।) वैदिक उक्ति का तात्पर्य चाहे जो हो, किन्तु यह स्पष्ट है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व इसके दो विश्लेषण उपस्थित हो चुके थे, और यदि बुद्ध के निर्वाण की तिथियाँ ठीक मान ली जायँ तो यह कहना युक्तिसंगत है कि और्णवाभ एवं यास्क बुद्ध के पूर्व हुए थे।

जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में ऐसा आया है कि राजा गय का राज्य गया के चारों ओर था। उत्तराध्ययनसूत्र में आया है कि वह राजगृह के राजा समुद्रविजय का पुत्र था और ग्यारहवाँ चक्रवर्ती हुआ। अश्वघोष के बुद्धचरित में आया है कि ऋषि गय के आश्रम में बुद्ध आये, उस सन्त (भविष्य के बुद्ध) ने नैरञ्जना नदी के पुनीत तट पर अपना निवास बनाया और पुन: वे गया के कश्यप के आश्रम में, जो उरूबिल्व कहलाता था, गये। इस ग्रन्थ में यह भी आया है कि वहाँ धर्माटवी थी, जहाँ वे 700 जटिल रहते थे, जिन्हें बुद्ध ने निर्वाण-प्राप्ति में सहायता दी थी।


महाभारत, वनपर्व अध्याय 82 ने भीष्म के तीर्थ-सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर पुलस्त्य द्वारा दिलाया है। सर्वप्रथम पुष्कर (श्लोक 20-40) का वर्णन आया है और तब बिना क्रम के जम्बूमार्ग, तन्दुलिकाश्रम, अगस्त्त्यसर, महाकाल, कोटितीर्थ, भद्रवट ( स्थाणुतीर्थ), नर्मदा, प्रभास एवं अन्य तीर्थों का विवेचन हुआ है।

वनपर्व (84।1।89) में धौम्य द्वारा 57 तीर्थों (यथा नैमिष, शाकम्भरी, गंगाद्वार, कनखल, गंगा-यमुना-संगम, कुब्जाभ्रक आदि) के नाम गिनाकर गया के तीर्थों के विषय में विवेचन उपस्थित किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि प्रस्तुत लेखक को अन्य तीर्थों के विषय में अधिक वर्णन करना अभीष्ट नहीं था।

फाहियान (399-413 ई.) ने लिखा है कि उसके समय में हिन्दू धर्म का नगर गया समाप्त प्राय था। यह सम्भव है कि चौथी शताब्दी के पूर्व भूकम्प के कारण गया नगर के मन्दिर आदि नष्ट-भ्रष्ट हो चुके होंगे। प्राचीन पालि ग्रन्थों एवं ललितविस्तर में गया के मन्दिरों का उल्लेख है। गया कई अवस्थाओं से गुजरा है। ईसा की कई शताब्दियों पूर्व यह एक समृद्धिशाली नगर था। ईसा के उपरान्त चौथी शताब्दी में यह नष्ट प्राय था। किन्तु सातवीं शताब्दी में ह्वेनसाँग ने इसे भरा-पूरा लिखा है जहाँ ब्राह्मणों के 1000 कुल थे। आगे चलकर जब बौद्ध धर्म की अवनति हो गयी तो इसके अन्तर्गत बौद्ध अवशेषों की भी परिगणना होने लगी। वायु पुराण में वर्णन आया है कि गया प्रेतशिला से महाबोधि वृक्ष तक विस्तृत है। (लगभग-13 मील)

डॉ. बरूआ ने डॉ. कीलहार्न द्वारा सम्पादित शिलालेख के 12वें श्लोक (मौनादित्यसहस्त्रलिंगकमलार्धागींणनारायण,-- द्विसोमेश्वरफल्गुनाथविजयादित्याह्वयानां कृती। स प्रासादमचीकरद् दिविषदां केदारदेवस्य च, ख्यातस्योत्तरमानसस्य खननं सत्रं तथा चाक्षये॥ इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, जिल्द 16, पृ. 63) का अर्थ ठीक से नहीं किया है। श्लोक का अनुवाद यों है-'उस बुद्धिमान (राजकुमार यक्षपाल) ने मौनादित्य एवं अन्य देवों की प्रतिमाओं के लिए एक मन्दिर बनवाया, उसने उत्तर 'मानससर' (मानस सरोवर) बनवाया और अक्षयवट के पास एक सत्र (भोजन-व्यवस्था के दान) की योजना की।' नयपाल के राज्यकाल का यह शिलालेख लगभग 1040 ई. में उत्कीर्ण हुआ। डॉ. बरूआ का कथन है कि उत्तरमानस तालाब उसी समय खोदा गया, और वह 1040 ई. से प्राचीन नहीं हो सकता, अत: यह तथा अन्य तीर्थ पश्चात्कालीन हैं तथा गयामाहात्म्य, जिसमें उत्तर मानस की चर्चा है, 11वीं शताब्दी के पश्चात् लिखित है। किन्तु डॉ. बरूआ का यह निष्कर्ष अति दोषपूर्ण है। यदि तालाब शिलालेख के समय पहली बार खोदा गया था तो इसे ख्यात (प्रसिद्ध) कहना असम्भव है। खोदे जाने की कई शताब्दियों के उपरान्त ही तालाब प्रसिद्ध हो सकता है। उत्तरमानस तालाब वायु पुराण ( वायु पुराण 77।108, और यह श्लोक कल्पतरू द्वारा 1110 ई. में उद्धृत किया गया है, पुन: वायु पुराण (82।21) एवं अग्नि पुराण (115।10)) में वर्णित है। इससे स्पष्ट है कि उत्तर मानस 8वीं या 9वीं शताब्दी में प्रख्यात था। केवल इतना ही कहा जा सकता है कि यह तालाब मिट्टी से भर गया था अत: यह पुन: सन् 1040 के लगभग खोदा गया या लम्बा-चौड़ा बनाया गया। इसका कोई अन्य तात्पर्य नहीं है।


महाभारत के वनपर्व के अध्याय 87 एवं 95 में आया है कि पूर्व की ओर (काम्यक वन से, जहाँ पर पाण्डव लोग कुछ समय तक रहे थे) बढ़ते हुए यात्री नैमिषवन एवं गोतमी के पास पहुँचेंगे। तब कहा गया है कि गया नामक पवित्र पर्वत है, ब्रह्मकूप नामक तालाब है।

इसके उपरान्त वनपर्व (अध्याय 87) ने पवित्र नदी फल्गु (महानदी), गयशिर अक्षयवट का उल्लेख किया है, जहाँ पितरों को दिया गया भोजन अक्षय हो जाता है। वनपर्व अध्याय 95 में ब्रह्मसर (जहाँ अगस्त्य धर्मराज अर्थात् यम के पास गये थे, श्लोक 12), और अक्षयवट (श्लोक 14) का उल्लेख है। इसमें आया है कि अमूर्तरय के पुत्र राजा गय ने एक यज्ञ किया था, जिसमें भोजन एवं दक्षिणा पर्याप्त रूप में दी गयी थी। यह ज्ञातव्य है कि रामायण (1।32।7) के अनुसार धर्मारण्य की संस्थापना ब्रह्मा के पौत्र, कुश के पुत्र असूर्तरय (या अमूर्तरय) द्वारा हुई थी।

कीकट

विजयेन्द्र कुमार माथुर[4] ने लेख किया है ...कीकट (AS, p.192) गया (बिहार) का परिवर्ती प्रदेश था. पुराणों के अनुसार बुद्धावतार कीकट देश में ही हुआ था. कीकट का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में है-- ' किंते कृण्वंति कीकटेषु गावो नाशिरं दुहे न तपन्ति धर्मं आनोभरप्रमगंदस्य वेदो नैचाशाखं के मधवत्रन्ध्यान:' 3,53, 14. इस उद्धरण में कीकट के शासक है प्रमगंद का उल्लेख है. यास्क के अनुसार (निरुक्त 6,32) कीकट अनार्य देश था. पुराण काल में कीकट मगध ही का एक नाम था तथा इससे सामन्यत: अपवित्र समझा जाता था; केवल गया और राजगृह तीर्थ रूप में पूजित थे-- 'कीकटेषु गया पुण्या पुण्यं राजगृहं वनम्' वायु पुराण 108,73. बृहद्धर्मपुराण में भी कीकट अनिष्ट देश माना गया है किन्तु कर्णदा और गया को अपवाद कहा गया है-- 'तत्र देशे गया नाम पुण्यदेशोस्ति वुश्रुत:, नदी च कर्णदा नाम पितृणां स्वर्गदायिनी' 26,47. श्रीमद्भागवत में कतिपय अपवित्र अथवा अनार्य लोगों के देशों में कीकट या मगध की गणना की गई है. महाभारत काल में भी ऐसी ही मान्यता थी. पांडवों की तीर्थ यात्रा के प्रसंग में वर्णन है कि वे जब मगध की [p.193] सीमा के अंदर प्रवेश करने जा रहे थे तो उनके सहयात्री ब्राह्मण वहां से लौट आए. संभव है कि इस मान्यता का आधार वैदिक सभ्यता का मगध या पूर्वोत्तर भारत में देर से पहुंचना हो. अथर्ववेद 5,22,14 से भी अंग और मगध का वैदिक सभ्यता के प्रसार के बाहर होना सिद्ध होता है. पुराण काल में शायद बौद्ध धर्म का केंद्र होने के कारण ही मगध को अपुण्य देश समझा जाता था.

Visit by Fahian

James Legge[5] writes that From this place, after travelling to the west for four yojanas, (the pilgrims) came to the city of Gaya;1 but inside the city all was emptiness and desolation. Going on again to the south for twenty le, they arrived at the place where the Bodhisattva for six years practised with himself painful austerities. All around was forest.

Three le west from here they came to the place where, when Buddha had gone into the water to bathe, a deva bent down the branch of a tree, by means of which he succeeded in getting out of the pool.2

Two le north from this was the place where the Gramika girls presented to Buddha the rice-gruel made with milk;3 and two le north from this (again) was the place where, seated on a rock under a great tree, and facing the east, he ate (the gruel). The tree and the rock are there at the present day. The rock may be six cubits in breadth and length, and rather more than two cubits in height. In Central India the cold and heat are so equally tempered that trees will live in it for several thousand and even for ten thousand years.

Half a yojana from this place to the north-east there was a cavern in the rocks, into which the Bodhisattva entered, and sat cross-legged with his face to the west. (As he did so), he said to himself, “If I am to attain to perfect wisdom (and become Buddha), let there be a supernatural attestation of it.” On the wall of the rock there appeared immediately the shadow of a Buddha, rather more than three feet in length, which is still bright at the present day. At this moment heaven and earth were greatly moved, and devas in the air spoke plainly, “This is not the place where any Buddha of the past, or he that is to come, has attained, or will attain, to perfect Wisdom. Less than half a yojana from this to the south-west will bring you to the patra4 tree, where all past Buddhas have attained, and all to come must attain, to perfect Wisdom.” When they had spoken these words, they immediately led the way forwards to the place, singing as they did so. As they thus went away, the Bodhisattva arose and walked (after them). At a distance of thirty paces from the tree, a deva gave him the grass of lucky omen,5 which he received and went on. After (he had proceeded) fifteen paces, 500 green birds came flying towards him, went round him thrice, and disappeared. The Bodhisattva went forward to the patra tree, placed the kusa grass at the foot of it, and sat down with his face to the east. Then king Mara sent three beautiful young ladies, who came from the north, to tempt him, while he himself came from the south to do the same. The Bodhisattva put his toes down on the ground, and the demon soldiers retired and dispersed, and the three young ladies were changed into old (grand-) mothers.6

At the place mentioned above of the six years’ painful austerities, and at all these other places, men subsequently reared topes and set up images, which all exist at the present day.

Where Buddha, after attaining to perfect wisdom, for seven days contemplated the tree, and experienced the joy of vimukti;7 where, under the patra tree, he walked backwards and forwards from west to east for seven days; where the devas made a hall appear, composed of the seven precious substances, and presented offerings to him for seven days; where the blind dragon Muchilinda8 encircled him for seven days; where he sat under the nyagrodha tree, on a square rock, with his face to the east, and Brahma-deva9 came and made his request to him; where the four deva kings brought to him their alms-bowls;10 where the 500 merchants11 presented to him the roasted flour and honey; and where he converted the brothers Kasyapa and their thousand disciples;12 — at all these places topes were reared.

At the place where Buddha attained to perfect Wisdom, there are three monasteries, in all of which there are monks residing. The families of their people around supply the societies of these monks with an abundant sufficiency of what they require, so that there is no lack or stint.13 The disciplinary rules are strictly observed by them. The laws regulating their demeanour in sitting, rising, and entering when the others are assembled, are those which have been practised by all the saints since Buddha was in the world down to the present day. The places of the four great topes have been fixed, and handed down without break, since Buddha attained to nirvana. Those four great topes are those at the places where Buddha was born; where he attained to Wisdom; where he (began to) move the wheel of his Law; and where he attained to pari-nirvana.


1 Gaya, a city of Magadha, was north-west of the present Gayah (lat. 24d 47s N., lon. 85d 1s E). It was here that Sakyamuni lived for seven years, after quitting his family, until he attained to Buddhaship. The place is still frequented by pilgrims. E. H., p. 41.

2 This is told so as to make us think that he was in danger of being drowned; but this does not appear in the only other account of the incident I have met with — in “The Life of the Buddha,” p. 31. And he was not yet Buddha, though he is here called so; unless indeed the narrative is confused, and the incidents do not follow in the order of time.

3 An incident similar to this is told, with many additions, in Hardy’s M. B., pp. 166-168; “The Life of the Buddha,” p. 30; and the “Buddhist Birth Stories,” pp. 91, 92; but the name of the ministering girl or girls is different. I take Gramika from a note in Beal’s revised version; it seems to me a happy solution of the difficulty caused by the {.} {.} of Fa-hien.

4 Called “the tree of leaves,” and “the tree of reflection;” a palm tree, the /borassus flabellifera/, described as a tree which never loses its leaves. It is often confounded with the pippala. E. H., p. 92.

5 The kusa grass, mentioned in a previous note.

6 See the account of this contest with Mara in M. B., pp. 171-179, and “Buddhist Birth Stories,” pp. 96-101.

7 See chap. xiii, note 7.

8 Called also Maha, or the Great Muchilinda. Eitel says: “A naga king, the tutelary deity of a lake near which Sakyamuni once sat for seven days absorbed in meditation, whilst the king guarded him.” The account (p. 35) in “The Life of the Buddha” is:—“Buddha went to where lived the naga king Muchilinda, and he, wishing to preserve him from the sun and rain, wrapped his body seven times round him, and spread out his hood over his head; and there he remained seven days in thought.” So also the Nidana Katha, in “Buddhist Birth Stories,” p. 109.

9 This was Brahma himself, though “king” is omitted. What he requested of the Buddha was that he would begin the preaching of his Law. Nidana Katha, p. 111.

10 See chap. xii, note 10.

11 The other accounts mention only two; but in M. B., p. 182, and the Nidana Katha, p. 110, these two have 500 well-laden waggons with them.

12 These must not be confounded with Mahakasyapa of chap. xvi, note 17. They were three brothers, Uruvilva, Gaya, and Nadi-Kasyapa, up to this time holders of “erroneous” views, having 500, 300, and 200 disciples respectively. They became distinguished followers of Sakyamuni; and are — each of them — to become Buddha by-and-by. See the Nidana Katha, pp. 114, 115.

13 This seems to be the meaning; but I do not wonder that some understand the sentence of the benevolence of the monkish population to the travellers.

Gaya Copper-plate Inscription of Samudragupta Year 9

Ref- Corpus Inscripionum Indicarum, Vol. III by John Faithful Fleet p.254

Places of importance around Gaya

  • Gaya Museum - The Gaya Museum is worthvisiting because of its large collection of stone sculptures and other artifacts. Highlight of the museum are the bronze statues. The small collection of the Buddha statues and pillars are also attractive. The museum is maintained by ASI, Archaeological Survey of India and is open between 10 am to 5 pm everyday except Monday.
  • Mangla Gauri shrine - It is marked by two rounded stones that symbolize the breasts of the mythological Sati, the first wife of Lord Shiva.
  • Vishnupad Temple - The most popular temple in Gaya is Vishnupad Temple, a place along the Falgu River, marked by a footprint of Vishnu incised into a block of basalt, that marks the act of Lord Vishnu subduing Gayasura by placing his foot on Gayasura's chest. Buddhist tradition regards the footstep in the Vishnupad Temple as a footstep of Buddha.
Akshayavat Gaya
  • Akshyavata - Sita blessed a banyan tree to be immortal at Gaya. This tree is known as Akshyavat. Akshyavat is combination of two words Akshya (which never decay) and Vat (Banyan tree). Once a year banyan trees shed leaves, but this particular tree never sheds its leaves which keeps it green even in times of drought.
Brahmyoni Gaya
  • Brahmayoni hill - For Buddhists, Gaya is an important pilgrimage place because it was at Brahmayoni hill that Buddha preached the Fire Sermon (Adittapariyaya Sutta) to a thousand former fire-worshipping ascetics, who all became enlightened while listening to this discourse. At that time, the hill was called Gayasisa. At a distnace of 1 km southwest of the Vishnupada Temple, this hill offers some fantastic views of city from its top. Also, on the top are two narrow caves – Brahmayoni and Matreyoni – Passing through these caves, it is believed, no one will experience rebirth. A temple dedicated to the Asthabujadevi and other goddesses is at the top too. To reach the top, you need to take an arduous 40 to 60 minutes walk up 424 high stone steps.
  • Tankitamancha - A place of Buddhist interest, it is now a huge tank known as Sujikind. Here, at this place, it is believed, the Buddha met and conversed with evil spirit, Suchiloma. Reference regarding Suchiloma cam be found in Sutta Nipata, discourse No 5. The tank is surrounded by huge walls of stone block and at its northern end are quiet a few Buddhist stupas and statues.
  • Bitho Sharif - 10 km from main city situated on Gaya-Patna route, is one of the notable pilgrimage place. The great Sufi saint of Chishtia-Ashrafi order Hazrat Makhdoom Syed Shah Durwesh Ashraf settled here in around Ninth Century Hijri and established Khanqah-e-Ashrafia. A large number of Muslims and people from other faith, from all over the Globe visit the Dargah of this great Sufi Saint. Urs of Hazrat Makhdoom Durwesh Ashraf is celebrated every year from 10th-12th of Islamic month of Shabaan.Prof. Syed Shah Shahid Hussain Ashraf is the present Sajjada Nashin of Khanquah Durweshiya Ashrafia Chishtia,Dargah Bitho Sharif.
  • Barabar Caves - 20 kms from Gaya, Barabar Caves are amongst the earliest Buddhist rock cut caves. The caves were initially constructed during the reign of Emperor Ashoka in the 3rd century and additions were made later on. The Barabar Caves basically comprise three types of caves – Nagarjuna caves, caves of the five Pandavas and the Hut caves. The first one is the largest one and portray Jataka tales. The second one, as per its name, served as the residence of the five Pandava brothers during their exile. The Hut Caves, again, as per their name, are shaped like hut, three sides have stone walls while the rest is open.
  • Ramshila Hill - Located 5 kms from the Vishnupad temple, the Ramshila Hill has a Sita Ram Lakshman Temple and Paleswara temple at its top. At Ramkund, pinda is offered.
  • Pretshila Hill - 3 kms ahead of the Ramshila Hill is the Pretshila Hill with a kund at the bottom. Here, pind-dan of those who died in accidents is performed.
  • Deo Sun Temple - Deo is located north of the Vishnupada temple on the banks of the Sone river, around 20 km from Gaya.The Sun temple here is extremely famous. During the Chhat puja celebration (6 days after Dipawali), pilgrims stand waist deep in the water of the river and offer prayers as well as newly harvested grains, fruits and home made sweets to Sun god. A fair is also held here during this puja.
  • Gandhi Mandap - This is a pavilion that was constructed to honour the father of the nation, Mahatma Gandhi.
  • Bodh Gaya - Bodhgaya is one of the most important and sacred Buddhist pilgrimage center in the world. 12 kms from Gaya, Bodh Gaya is one of the four holy spots for Buddhists. It was here that prince Siddharta found enlightenment under the Bodhi Tree and became the Buddha. The Bodhi Tree, Maha Bodhi Temple, a number of Buddhist Monasteries and the Bodh Gaya Museum are the main attractions for the Buddhist.
  • Kurkihar : Located 22 km from Gaya, Kurkihar is a small village located on a site that was earlier a monastery. Excavation work carried out in the 1930 unearthed 148 Buddhist bronze artefacts from this area. A whole lot of these artefacts are now placed in the museums of Patna and Kolkata.
  • Gurpa - Gurpa is the place where the Maha Kassapa, the successor of [[Lord Buddha[[, spent his last days in meditation. The mountain, at that point of time, was known as Kukkutapadagiri and was quiet a favourite with Maha Kassapa.
  • Nalanda - Nalanda is 95 km away from Gaya and is famous for its ruins of Buddhist University that existed during the 5th century. The Nalanda Archaeological Museum, the Nava Nalanda Mahavihara and Hieun Tsang Memorial Hall are other attractions of Nalanda.
  • Rajgir : Rajgir is just 12 km from Nalanda and is known for being the place where the first Buddhist Council was convened after the death of the Buddha. Also, during His lifetime, the Buddha spent 12 years teaching here on the Griddhakuta Hill. The Vishwa Shanti Stupa Temple is amongst the attractions of this small town.

Pindadana at Gaya

Gaya is significant to Hindus from the point of view of salvation to the souls of ancestors (a ritual called pinda daan). According to Ramayana, when Lord Rama came to Gaya along with Sita for pitripaksha (or to perform pindadanam), Sita cursed the Falgu River following some disobedience on the part of the river. The mythology states that on account of this curse, Falgu River lost its water, and the river is simply a vast stretch of sand dunes.

In Mahabharata

Gaya (गय) (King) in Mahabharata (II.48.15), (II.82.71), (XIII.116.65),

Gaya (गय) (M)/(T) in Mahabharata (III.85.6)

Gayashira M)/(T) (गयशिर) is mentioned in Mahabharata (III.85.8)


Sabha Parva, Mahabharata/Book II Chapter 48 describes Kings who presented tributes to Yudhishthira. Gaya (गय) King is mentioned in Mahabharata (II.48.15). [6]....the Shundikas, the Kukkuras, the Sakas, the Angas, the Vangas, the Pundras, the Sanavatyas, and the Gayas--these good and well-born Kshatriyas distributed into regular clans and trained to the use of arms, brought tribute unto king Yudhishthira by hundreds and thousands.



Anusasana Parva/Book XIII Chapter 116 gives the List of Kings who had abstained from flesh in Karttika month. Gaya (गय) King is mentioned in Mahabharata (XIII.116.65).[7]....They were Nabhaga and Ambarisha and the high-souled Gaya and Ayu and Anaranya and Dilipa and Raghu and Puru


Vana Parva, Mahabharata/Book III Chapter 85 mentions sacred asylums, tirthas, mountans and regions of eastern country. Gaya (गय) is mentioned in Mahabharata (III.85.6). [8]....In that quarter also is that best of hills called Gaya (गय) (III.85.6), which is sacred and much regarded by royal ascetics. There on that hill, is the auspicious lake called Brahmasara (ब्रह्मसर) (III.85.6) which is adored by celestial Rishis. It is for this that the ancients say that one should wish for many sons, so that even one among them may visit Gaya (गय) (III.85.8), celebrate the horse-sacrifice or give away a nila bull, and thereby deliver ten generations of his race up and down.


Gayashira (गय शिर) is mentioned in Mahabharata (III.85.8).[9] ...There, O monarch, is a great river, and spot called Gayashira (गय शिर) (III.85.8). In Gayasira is a banian, which is called by the Brahmanas the Akshaya vata (अक्षय वटः) (III.85.8).

Gallery of images of Gaya and Bodhgaya

References

  1. V. S. Agrawala: India as Known to Panini, 1953, p.506
  2. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.279-281
  3. भारतकोश-अक्षयवट
  4. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.192
  5. A Record of Buddhistic Kingdoms/Chapter 31
  6. शौण्डिकाः कुक्कुराश चैव शकाश चैव विशां पते, अङ्गा वङ्गाश च पुण्ड्राश च शानवत्या गयास तदा (II.48.15)
  7. नाभागेनाम्बरीषेण गयेन च महात्मना, आयुषा चानरण्येन दिलीप रघुपूरुभिः (XIII.116.65)
  8. तस्यां गिरिवरः पुण्यॊ गयॊ राजर्षिसत्कृतः, शिवं बरह्मसरॊ यत्र सेवितं तरिदशर्षिभिः (III.85.6)
  9. महानदी च तत्रैव तथा गय शिरॊ ऽनघ, यथासौ कीर्त्यते विप्रैर अक्षय्य करणॊ वटः (III.85.8)

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