Jagannathapuri

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Puri district Map

Jagannathapuri (जगन्नाथपुरी) is an important Hindu temple dedicated to Lord Jagannath, a form of Lord Vishnu, located on the eastern coast of India, at Puri in the state of Odisha.

Origin

Variants

Mention in Pujaripali Stone Inscription of Gopaladeva

Pujaripali Stone Inscription of Gopaladeva[2] is one of a king named Gopāladeva (गोपालदेव). The object of it apparently is to record the charitable deeds of Gôpâladêva, especially the construction of the temple where it was put up. Pujaripali (पुजारीपली) is village in Sarangarh tahsil in Raigarh district in Chhattisgarh.

(Verse: 38-40) - On the earth the Kirti of the brave Gôpâla shines like the autumnal moon at the famous Kedara (केदार) (L.20), Prayaga (प्रयाग) (L.20), Pushkara (पुष्कर) (L.20), Purushottama (पुरुषोत्तम) (L.20), Bhimeshvara (भीमेश्वर) (L.20), on the Narmada (नर्मदा), at the famous Gopalapura (गोपालपुर) (L.20), (वाराणसी) (L.20), Prabhasa (प्रभास) (L.21), at the junction of the Gangâ and the sea, Varalī (वरली), the famous Vairagyamatha (वैराज्ञमठ) (L.21), the Ashtadvara (अष्टद्वार) (L.21), Shauripura (शौरिपुर) (L.21), [and) the village Peḍara (पेडरा) (L.21).

As for the geographical names mentioned in the present inscription,

  • Prabhâsa is identified by R B Hiralal with Pabhosi near Allahabad, but in the period to which the present inscription belongs, the latter does not seem to have been so famous. Prabhasa is more likely to be the tirtha of that name in Saurashtra.
  • Gôpâlapura, as per R B Hiralal's conjecture, was founded by Gopaladeva himself is plausible, but his identification of it with the village Gopalpur near Tewar cannot be upheld, for Gôpâladëva's sway could not have extended so far in the north. It must have been situated not very far from Pujaripali. I would identify it with the Gôpâlpur which has on the right bank of the Mānd river (मांड नदी), about 10 miles north-west of Pujaripali.
  • Pedarāgrāma (पेडरा ग्राम) is likely to be Pendri, 8 miles north by east of Sarangarh.
  • The other places cannot be identified.

History

The temple was built by the Ganga dynasty king Anantavarman Chodaganga in the 12th century CE, as suggested by the Kendupatna copper-plate inscription of his descendant Narasimhadeva II.[3] Anantavarman was originally a Shaivite, and became a Vaishnavite sometime after he conquered the Utkala region (in which the temple is located) in 1112 CE. A 1134–1135 CE inscription records his donation to the temple. Therefore, the temple construction must have started sometime after 1112 CE.[4]

According to a story in the temple chronicles, it was founded by Anangabhima-deva II: different chronicles variously mention the year of construction as 1196, 1197, 1205, 1216, or 1226.[5] This suggests that the temple's construction was completed or that the temple was renovated during the reign of Anantavarman's son Anangabhima.[6] The temple complex was further developed during the reigns of the subsequent kings, including those of the Ganga dynasty and the Suryvamshi (Gajapati) dynasty.[7]

The temple annals, the Madala Panji records that the Jagannath temple at Puri has been invaded and plundered eighteen times.[8] In 1692, Mughal emperor Aurangzeb ordered to close the temple until he wanted to reopen it otherwise it would be demolished, the local Mughal officials who came to carry out the job were requested by the locals and the temple was merely closed. It was re-opened only after Aurangzeb’s death in 1707.

पुरुषोत्तम क्षेत्र

पुरुषोत्तम क्षेत्र (AS, p.567) : पुरुषोत्तम क्षेत्र पुराणों में प्रमुख तीर्थ माना गया है। पुराणों के अनुसार इस तीर्थ के क्षेत्र का विस्तार उड़ीसा में दक्षिण कटक, पुरी तथा वेंकटाचल तक है। (इंडियन हिस्टोरिकल क्वार्टरली 7, पृष्ठ 245-253.)[9]

जगन्नाथपुरी

विजयेन्द्र कुमार माथुर[10] ने लेख किया है ...जगन्नाथपुरी (AS, p.352) पूर्वी भारत का प्रसिद्ध तीर्थ है. कहा जाता है कि पुरी में पहले एक प्राचीन बौद्ध मंदिर था. हिंदू धर्म के पुनरुत्कर्षकाल में इस मंदिर को श्रीकृष्ण के मंदिर के रूप में बनाया गया. मंदिर की मुख्य मूर्तियां शायद तीसरी सदी ई. की हैं. ययातिकेसरी ने 9 वीं सदी में पुराने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया और तत्पश्चात चौड़ गंगदेव ने 12वीं सदी ई. में इसका पुन:नवीकरण किया. इस मंदिर का आदि निर्माता कौन था, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता. 12 वीं सदी में मंदिर का अंतिम जीर्णोद्धार गंगवंशीय राजा आनंग भीमदेव ने करवाया था. इसी रूप में यह मंदिर आज स्थित है.

इस मंदिर पर मध्यकाल में मुसलमानों ने कई बार आक्रमण किए थे. कालापहाड़ नामक मुसलमान सरदार ने जो पहले हिंदु था - इस मंदिर को पूरी तरह नष्टभ्रष्ट किया था. मंदिर का पुनर्निर्माण कई बार हुआ जान पड़ता है. 15वीं शती में चैतन्य महाप्रभु ने इस मंदिर की यात्रा की थी. तीन सौ वर्ष पूर्व मराठों ने (भौंसला नरेश ने) मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था. यह मंदिर दक्षिणात्य शैली में निर्मित है. जान पड़ता है कि पुरी की महाभारत या पूर्वपौराणिक काल तक तीर्थरूप में मान्यता नहीं थी. चीनी यात्री युवानच्वांग ने संभवत: पुरी को ही चरित्रवन नाम से अभिहित

[p.353]: किया है. शाक्तों के अनुसार जगन्नाथपुरी के क्षेत्र का नाम उड्डियानपीठ है. इसे शंखक्षेत्र भी कहा जाता था. दक्षिण के प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य है रामानुज ने पुरी की यात्रा 1122 ई. और 1137 ई. में की थी. उनकी यात्रा के पश्चात यह मंदिर उड़ीसा में हिंदू धर्म का प्रबल एवं प्रमुख केंद्र बन गया था.

उड्डियानपीठ

विजयेन्द्र कुमार माथुर[11] ने लेख किया है ... उड्डियानपीठ (AS, p.88) शाक्तों के अनुसार जगन्नाथपुरी, ओडिशा के क्षेत्र का नाम था। उड्डियानपीठ को शंखक्षेत्र भी कहते थे।

जगन्नाथपुरी परिचय

जगन्नाथ मंदिर उड़ीसा के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है। यह मंदिर भगवान जगन्नाथ ([Krishna|श्रीकृष्ण]]) को समर्पित है। 'जगन्नाथ' शब्द का अर्थ "जगत का स्वामी" होता है। इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है। इस मंदिर को हिन्दुओं के चार धाम में से एक गिना जाता है। यह वैष्णव सम्प्रदाय का मंदिर है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण को समर्पित है। मंदिर का वार्षिक रथयात्रा उत्सव प्रसिद्ध है। इसमें मंदिर के तीनों मुख्य देवता- भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा, तीनों तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं। मध्य काल से ही यह उत्सव अति हर्षोल्लस के साथ मनाया जाता है। इसके साथ ही यह उत्सव भारत के ढेरों वैष्णव कृष्ण मंदिरों में मनाया जाता है एवं यात्रा निकाली जाती है।

इस मंदिर का सबसे पहला प्रमाण महाभारत के वनपर्व में मिलता है। कहा जाता है कि सबसे पहले सबर आदिवासी विश्ववसु ने नीलमाधव के रूप में इनकी पूजा की थी। आज भी पुरी के मंदिरों में कई सेवक हैं, जिन्हें दैतापति के नाम से जाना जाता है।

मंदिर निर्माण: राजा इंद्रद्युम्न मालवा का राजा था, जिनके पिता का नाम भारत और माता सुमति थीं। राजा इंद्रद्युम्न को सपने में जगन्नाथ के दर्शन हुये थे। कई ग्रंथों में राजा इंद्रद्युम्न और उनके यज्ञ के बारे में विस्तार से लिखा है। उन्होंने यहां कई विशाल यज्ञ किए और एक सरोवर बनवाया। एक रात भगवान विष्णु ने उनको सपने में दर्शन दिए और कहा नीलांचल पर्वत की एक गुफा में मेरी एक मूर्ति है, उसे नीलमाधव कहते हैं। ‍तुम एक मंदिर बनवाकर उसमें मेरी यह मूर्ति स्थापित कर दो। राजा ने अपने सेवकों को नीलांचल पर्वत की खोज में भेजा। उसमें से एक था ब्राह्मण विद्यापति। विद्यापति ने सुन रखा था कि सबर कबीले के लोग नीलमाधव की पूजा करते हैं और उन्होंने अपने देवता की इस मूर्ति को नीलांचल पर्वत की गुफा में छुपा रखा है। वह यह भी जानता था कि सबर कबीले का मुखिया विश्ववसु नीलमाधव का उपासक है और उसी ने मूर्ति को गुफा में छुपा रखा है। चतुर विद्यापति ने मुखिया की बेटी से विवाह कर लिया। आखिर में वह अपनी पत्नी के जरिए नीलमाधव की गुफा तक पहुंचने में सफल हो गया। उसने मूर्ति चुरा ली और राजा को लाकर दे दी।

विश्ववसु अपने आराध्य देव की मूर्ति चोरी होने से बहुत दु:खी हुआ। अपने भक्त के दु:ख से भगवान भी दु:खी हो गए। भगवान गुफा में लौट गए, लेकिन साथ ही राजा इंद्रद्युम्न से वादा किया कि वह एक दिन उनके पास ज़रूर लौटेंगे बशर्ते कि वह एक दिन उनके लिए विशाल मंदिर बनवा दे। राजा ने मंदिर बनवा दिया और भगवान विष्णु से मंदिर में विराजमान होने के लिए कहा। भगवान ने कहा कि तुम मेरी मूर्ति बनाने के लिए समुद्र में तैर रहा पेड़ का बड़ा टुकड़ा उठाकर लाओ, जो द्वारिका से समुद्र में तैरकर पुरी आ रहा है। राजा के सेवकों ने उस पेड़ के टुकड़े को तो ढूंढ लिया, लेकिन सब लोग मिलकर भी उस पेड़ को नहीं उठा पाए। तब राजा को समझ आ गया कि नीलमाधव के अनन्य भक्त सबर कबीले के मुखिया विश्ववसु की ही सहायता लेना पड़ेगी। सब उस वक्त हैरान रह गए, जब विश्ववसु भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए।

अब बारी थी, लकड़ी से भगवान की मूर्ति गढ़ने की। राजा के कारीगरों ने लाख कोशिश कर ली, लेकिन कोई भी लकड़ी में एक छैनी तक भी नहीं लगा सका। तब तीनों लोक के कुशल कारीगर भगवान विश्‍वकर्मा एक बूढ़े व्यक्ति का रूप धरकर आए। उन्होंने राजा को कहा कि वे नीलमाधव की मूर्ति बना सकते हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी शर्त भी रखी कि वे 21 दिन में मूर्ति बनाएंगे और अकेले में बनाएंगे। कोई उनको बनाते हुए नहीं देख सकता। उनकी शर्त मान ली गई। लोगों को आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें आती रहीं। राजा इंद्रद्युम्न की रानी गुंडिचा अपने को रोक नहीं पाई। वह दरवाजे के पास गई तो उसे कोई आवाज सुनाई नहीं दी। वह घबरा गई। उसे लगा बूढ़ा कारीगर मर गया है। उसने राजा को इसकी सूचना दी। अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी तो राजा को भी ऐसा ही लगा। सभी शर्तों और चेतावनियों को दरकिनार करते हुए राजा ने कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया। जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति गायब था और उसमें तीन अधूरी ‍मूर्तियां पड़ी मिलीं। भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं गए थे। राजा ने इसे भगवान की इच्छा मानकर इन्हीं अधूरी मूर्तियों को स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक तीनों भाई बहन इसी रूप में विद्यमान हैं।

वर्तमान में जो मंदिर है, वह 7वीं सदी में बनवाया था। हालांकि इस मंदिर का निर्माण ईसा पूर्व दो में भी हुआ था। यहां स्थित मंदिर तीन बार टूट चुका है। 1174 ईस्वी में ओडिशा के शासक अनंग भीमदेव ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। मुख्‍य मंदिर के आसपास लगभग 30 छोटे-बड़े मंदिर स्थापित हैं।

महत्त्वपूर्ण तथ्य: जगन्नाथ मंदिर के शिखर पर स्थित झंडा हमेशा हवा की विपरीत दिशा में लहराता है। मंदिर के शिखर पर एक सुदर्शन चक्र भी है। इस चक्र को किसी भी दिशा से खड़े होकर देखने पर ऐसा लगता है कि चक्र का मुंह आपकी तरफ़ है। मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए 7 बर्तन एक-दूसरे के ऊपर रखे जाते हैं। यह प्रसाद मिट्टी के बर्तनों में लकड़ी पर ही पकाया जाता है। इस दौरान सबसे ऊपर रखे बर्तन का पकवान पहले पकता है फिर नीचे की तरफ़ से एक के बाद एक प्रसाद पकता जाता है। सिंहद्वार से पहला कदम अंदर रखने पर ही भक्त समुद्र की लहरों से आने वाली आवाज को नहीं सुन सकते। आश्चर्य में डाल देने वाली बात यह है कि जैसे ही मंदिर से एक कदम बाहर रखेंगे, वैसे ही समुद्र की आवाज सुनाई देने लगती है। यह अनुभव शाम के समय और भी अलौकि‍क लगता है। ज्यादातर मंदिरों के शिखर पर पक्षी बैठे और उड़ते देखे जा सकते हैं। जगन्नाथ मंदिर की यह बात चौंकाने वाली है कि इसके ऊपर से कोई पक्षी नहीं गुजरता। यहां तक कि हवाई जहाज भी मंदिर के ऊपर से नहीं निकलता। मंदिर में हर दिन बनने वाला प्रसाद भक्तों के लिए कभी कम नहीं पड़ता। साथ ही मंदिर के पट बंद होते ही प्रसाद भी खत्म हो जाता है। दिन के किसी भी समय जगन्नाथ मंदिर के मुख्य शिखर की परछाई नहीं बनती। एक पुजारी मंदिर के 45 मंजिला शिखर पर स्थित झंडे को रोज बदलता है। ऐसी मान्यता है कि अगर एक दिन भी झंडा नहीं बदला गया तो मंदिर 18 वर्षों के लिए बंद हो जाएगा। आमतौर पर दिन में चलने वाली हवा समुद्र से धरती की तरफ़ चलती है और शाम को धरती से समुद्र की तरफ़। चकित कर देने वाली बात यह है कि पुरी में यह प्रक्रिया उल्टी है।

रथयात्रा: भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास में शुक्ल द्वितीया को होती है। यह एक विस्तृत समारोह है। जिसमें भारत के विभिन्न भागों से आए लोग सहभागी होते हैं। दस दिन तक यह पर्व मनाया जाता है। इस यात्रा को 'गुण्डीय यात्रा' भी कहा जाता है। गुण्डीच का मन्दिर भी है।

संदर्भ: भारतकोश-जगन्नाथ मंदिर पुरी

दंतपुर = दंतपुरनगर

विजयेन्द्र कुमार माथुर[12] ने लेख किया है ...दंतपुर अथवा 'दंतपुरनगर' (AS, p.422) बंगाल की खाड़ी पर स्थित प्राचीन बंदरगाह था। कुछ विद्वानों ने वर्तमान जगन्नाथपुरी को ही दंतपुर बताया है। मलय प्रायद्वीप के लिगोर नामक प्राचीन भारतीय उपनिवेश को बसाने वाले राजकुमार के विषय में परंपरागत कथा है कि वह मौर्य सम्राट अशोक का वंशज था। वह मगध से भाग कर दंतपुर के बंदरगाह से एक जलयान द्वारा यात्रा करके मलय देश पहुँचा था। वर्तमान जगन्नाथपुरी ही प्राचीन दंतपुर है।

समुद्रतटपुरी

समुद्रतटपुरी (AS, p.936): समुद्रतटपुरी का उल्लेख विष्णुपुराण में हुआ है। सम्भवत: यह उड़ीसा की जगन्नाथपुरी है- 'कोशलान्ध्र पुंड्रताम्रलिप्तिसमुद्रतटपुरीं च देवरक्षितो रक्षिता।' विष्णुपुराण 4,24,64. उपरोक्त उद्धरण में उल्लिखित समुद्रतटपुरी शायद वर्तमान जगन्नाथपुरी ही है। यहाँ के देवरक्षित नामक राजा का इस स्थान पर उल्लेख है।

External links

References

  1. Corpus Inscriptionium Indicarium Vol IV Part 2 Inscriptions of the Kalachuri-Chedi Era, Vasudev Vishnu Mirashi, 1905. pp. 588-594
  2. Corpus Inscriptionium Indicarium Vol IV Part 2 Inscriptions of the Kalachuri-Chedi Era, Vasudev Vishnu Mirashi, 1905. pp. 588-594
  3. Suryanarayan Das (2010). Lord Jagannath. Sanbun. ISBN 978-93-80213-22-4., pp. 49-50.
  4. Suryanarayan Das 2010, p. 50.
  5. Suryanarayan Das 2010, pp. 50-51.
  6. Suryanarayan Das 2010, p. 51.
  7. Suryanarayan Das 2010, pp. 51-52.
  8. Dash, Abhimanyu (July 2011). "Invasions on the Temple of Lord Jagannath, Puri" (PDF). Orissa Review: 82–89.
  9. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.567
  10. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.352
  11. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.88
  12. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.422