Rama

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(Redirected from Rama Dashrathi)

Rama (राम) Rāmachandra or Śrī Rāma (श्रीराम), was a king of ancient Ayodhya whose grand story is portrayed in the epic Ramayana. Suryavanshi Vaivasvat Manu's son was Ikshvaku, king of Ayodhya. Ikshvaku's son was Vikukshi and Vikukshi's son was Purjanya. Purjanya defeated Asuras in Deva-asura war as a result of which he was popular as Kakustha.

Some facts from Ramayana

Sugriva was the king in exile of the state in which Ravana carried Sita away. Rama sought the help of the great Vanaras Sugriva, and the four other monkeys that dwelt on the mountain Rishyamuk. There Sugriva told Rama that he had seen Sita carried away by Ravana and how she had dropped her veil and jewels, and he showed these tokens to Rama and Lakshmana. Rama fared with Sugriva to Vali's city, and overcame Vali and established Sugriva on the throne. Sugriva sent out his marshals to summon the monkey host. They came from Himalaya, Vindhya, Kailash, from east and from west, from far and near, from caves and forests, in hundreds and thousands and millions, and each was captained by a veteran leader. Then Sugriva placed them under the command of Rama. [1]

Rama and Sugriva relied on Hanuman, and gave him his signet ring to show for sign to Sita when he should discover her. A month had passed and Vanaras did not find Sita. But there dwelt a mighty and very aged vulture named Sampati in a neighbouring cave, and he, hearing the name of his brother Jatayu, Sampati answered that he had seen Sita carried away by Ravana and that Ravana dwelt in Lanka, a hundred leagues across sea. [2]

Jat republics of Ramayana period

The marshals Sugriva sent out in search of Sita were all from Jat republics. [3] The republics involved were 1. Videhi 2. Malav 3. Magadh 4. Pudru 5. Dasharna 6. Vidarbha 7. Prishika 8. Vanga 9. Matsya 10. Andhra 11. Vain 12. Chol 13. Pandya 14. Parsen 15. Bhadra 16. Shaka 17. Naga 18. Vahika 19. Daratha 20. Sindhu 21. Kusha 22. Bhoktipur. In addition following Jat republics were also also there namely Panchal, Vrishni, Bhoj, Kshudrak, Taxak, Kaler, Maan, Punia, Aulakh, Bain (Beniwal), which were in Nagavansh sangha. The nagavansha was very powerful at that time. [4]

Connections of Kakrana Jats with Rama

From 'Kakustha' started a Jat vansha known as 'Kusth' or Kakvansh. This later changed due to language variations to 'Kakustha', Kāk, Kāktīya, Kakka, Kuk, Kukkur, Kak and Kākarāṇ. In this very clan was born Dashratha's grandfather Raghu who started Raghuvansh. Raghuvanshi Jats are also descendants of him who are also known as 'Raghuvanshi Sikarwar’. During Ramayana period, in Balmiki Ramayana, Deva Samhita, Vishnu Puran, Shiv Puran, Vedas etc there is mention of Jats and their republics at various places. Jatvansha joined his army of Vashishtha Rishi in his support and fought war with Vishvamitra. This was a very severe war in which thousands of Jat soldiers were killed. [5]


Bhaleram Beniwal has produced evidence from ‘Bala Kanda (ekonavish sarga shloka-16, dvavish sarga shloka-6’, dvavish sarga shloka-20, panchvish sarga shloka-15, pratham sarga shloka-56) to prove that Dashratha and his son Rama were ‘kakustha’ and Raghuvanshi Jats. Rama has been addressed by the names Raghunandan, Raghukul, Kakasthkul, and Raghuvanshi. Later Lava, elder son of Rama started Lamba gotra in Jats and Kusha started Kachhavahi or kushavansha whose descendant Brahdala was killed by Abhimanyu, son of Arjuna. Suryavanshi kushavansha Jats ruled Ayodhya from 3100 BC to 500 BC. In the 21st generation of Ikshvaku was born Mandhata who has been written and proved as Gaurvanshi Jat in genealogy of Suryavanshi kings. [6] One of sons of Mandhata was Ambarish. His son was Yuvanashva and his son was Harit, who was a great Rishi. The descendants of this king became Brahman who were known as Gaur Brahmans. [7]

In Supreme Court of India while deciding Ayodhya Case

The following historical facts about Rama's lineage were submitted in Supreme Court of India through Civil Appeal 4739/2011, Akhil Bharat Hindu Mahasabha Vs Bhagwan Sri Ram Lala Virajman. The judgement on this appeal was passed along with Civil Appeal Nos 10866-10867 of 2010, M Siddiq (D) Thr Lrs (Appellants) Versus Mahant Suresh Das & Ors (Respondents), of which Civil Appeal 4739/2011 was an integral part, while deciding Ayodhya Case. The Hindi translation of these pages was rendered by Prof. H R Isran.

सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया

सिविल अपील नंबर 4739/2011

अखिल भारत हिंदू महासभा --- पिटीशनर

बनाम

भगवान श्री रामलला विराजमान -- प्रतिवादी


पिटीशनर की ओर से लिखित निवेदन:

1. उक्त वर्णित सिविल अपील की सुनवाई माननीय सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ में हो रही है। तथापि अपीलकर्ताओं द्वारा अवलोकित किया गया है कि कुछ समुदाय/जातियां अपनी जाति का महिमामंडन करने के उद्देश्य से ऐसे तर्क पेश कर रहे हैं कि श्री रामजी जाति से राजपूत थे। विनम्रतापूर्वक निवेदन है कि यह तर्क तथ्यात्मक रूप से पूर्णतया असत्य है और अपीलकर्ता ऐतिहासिक तथ्य और साक्ष्य आगे के पैराग्राफ में यह सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत करेगा कि श्री राम जी राजपूत नहीं थे। इसे साबित करने और इसे तथ्य से पुष्टि करने हेतु इतिहास की पुस्तकें, टीकाएं, राजस्थान का इतिहास, राजस्थान के राजपूतों का इतिहास, बीकानेर का इतिहास (वर्तमान में राजस्थान राज्य का एक जिला ) और कुछ अन्य सुसंगत साहित्य विद्यमान है।

p.2

2. अपीलकर्ता यह प्रार्थना पत्र इंटरवीनर (अन्तरायक/दस्तंदाज़) बनने के लिए मात्र इस ध्येय से दाखिल कर रहे हैं कि ऐतिहासिक बेंच के निर्णय में अगर कोई गलती अनजाने में हो जाती है तो यह समाज को गलत और विकृत/तोड़ी-मरोड़ी सूचना देगा। इसलिए इस उद्देश्य से यह सविनय प्रार्थना है कि अपीलकर्ताओं को उक्त वर्णित सिविल अपील में इंटरवेनर्स के रूप में शामिल किया जाए और उन्हें अपने मौखिक दलीलें रखने का कुछ समय दिया जाए ताकि इस माननीय न्यायालय को केस के तथ्यात्मक मैट्रिक्स (सांचे) से अवगत करवाया जा सके।

3. कि अपीलकर्ता सुशिक्षित व्यक्ति हैं, और जिस विषय का फैसला माननीय न्यायालय द्वारा किया जाना है, उसके बारे में व्यापक व गहन ज्ञान रखते हैं। ऐसे संवैधानिक बेंच निर्णय भारतीय संविधान के आर्टिकल 141 के तहत आने वाले सालों के लिए नज़ीर होते हैं। अतः यह प्रार्थना पत्र समाज और न्याय के व्यापक हित के लिए स्वीकार किया जाना चाहिए।

4. कि लेखक रामदास रोड (Roaor) ने अपनी पुस्तक 'भारत का गौरवशाली इतिहास', संस्करण 15. 8. 2006 में पृष्ठ 81 व 82 के नीचे स्पष्ट रूप में लिखा है:

p.3

" राजपूतों का 747 एडी में उद्भव/ उत्पत्ति।".

भारत का अध्ययन, लेखक Harman Cool K. और Dytmar Shether Mund , पृष्ठ संख्या 117, ऑस्ट्रेलिया लंदन, दिल्ली आदि में प्रकाशित।

ऐतिहासिक रिवाज/दस्तूर के आधार पर जो कि 747 एडी में शंकराचार्य की अध्यक्षता में माउंट आबू पहाड़ी (जो कि अब राजस्थान राज्य में है) पर यज्ञ (अग्नि धामिर्क मीटिंग) किया गया, उसमें सभी राज-कुलों का अग्नि के समक्ष शुद्धिकरण किया गया और क्षत्रिय का दर्जा दिया गया।

उपर्युक्त ब्यौरे के अनुसार, 747 एडी के यज्ञ में अग्नि के समक्ष शपथ ली गई सभी चारों वंश एकजुट होंगे और राष्ट्र की रक्षा करेंगे। इसके अतिरिक्त कश्यप राजपूत, मेड राजपूत, ओड़ राजपूत समुदायों को क्षत्रिय का दर्जा दिया गया।

क्षत्रिय राजाओं के लिए राजपूत शब्द का उल्लेख सन 1318 में लिखी पुस्तक में मिलता है। (Dr Arya 'Examination by Thakur Force')

राजपूत शब्द का प्रारंभ सन 1397 में प्रकाशित पुस्तक 'चंदायान' (Chandayan) में हुआ।

5. कि लेखक कर्नल टॉड ने अपनी पुस्तक 'राजस्थान का इतिहास' के पृष्ठ संख्या 42 और 43 पर निम्नानुसार लिखा है:

p.4

हुवानसेंग, चीनी यात्री ने 686 से 702 के दौरान भारत की यात्रा की और अपनी इस यात्रा की झलकियों के बारे में लिखा है जो कि भूगोल, इतिहास, संस्कृति, धर्म, भारत के लोगों के रहन-सहन के बारे में जानने के लिए बेहद सुसंगत हैं। उस पुस्तक में उसने कुछ राजाओं के बारे में उल्लेख किया है, हालांकि उसने उनका केवल क्षत्रिय के रूप में वर्णन किया है। उसने उनका कहीं पर भी राजपूत नाम से वर्णन नहीं किया है।

मुस्लिम शासन के दौरान क्षत्रियों के राज्य समाप्त हो गए थे और अगर कुछ टिके रह भी गए थे तो वे मुस्लिम शासकों के अधीन हो गए थे। इसलिए वे राजा नहीं होकर महज 'सामंत' रह गए थे। मुस्लिम शासन के दौरान की ऐसी परिस्थितियों में वे राजवंशी होने के कारण उनके लिए राजपूत नाम प्रयुक्त हुआ। उसके बाद, वक्त गुजरने के साथ मुगल शासन के दौरान या फिर 'सामंत' शब्द प्रचलन में आने से पहले यह राजपूत शब्द जातिसूचक बन गया।

अतः वस्तुतः आठवीं/नौवीं सदी से पहले के किसी साहित्य या इतिहास की पुस्तक में राजपूत शब्द नहीं पाया जाता है।

6. कि पृष्ठ संख्या 21 हरियाणा लोक सेवा आयोग (एचपीएससी) द्वारा नायब तहसीलदार परीक्षा के लिए सामान्य अध्ययन/ प्राचीन भारत की पुस्तक का हिस्सा है। इसमें यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि 9 वीं सदी से पहले राजपूतों का उद्गम नहीं हुआ था।

p.5

ऐसी प्रामाणिक पुस्तक से यह स्पष्ट है कि 2500 ईसा पूर्व, वह काल जिसमें इतिहास के अनुसार श्री राम शासक थे, में कोई राजपूत जाति अस्तित्व में नहीं थी।

7. कि कुछ अन्य पुस्तकों और माननीय न्यायालय द्वारा पारित निर्णय में भी उल्लेख मिलता है कि जाट आर्य हैं। कुछ सुसंगत साहित्य और फैसले निम्नानुसार हैं:

(अ) कि भारतीय इतिहास की यूपीएससी सिविल सर्विसेज प्रारंभिक परीक्षाओं की पुस्तक पृष्ठ 341 पर उल्लेख है कि आठवीं सदी से पूर्व राजपूतों का कोई अस्तित्व नहीं था।
(ब) माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जाटों को ओबीसी के रूप में केंद्रीय सेवाओं में आरक्षण प्रदान करने की केंद्र सरकार की अधिसूचना को दिनांक 20. 3.15 को निरस्त करते हुए फैसले में सुस्पष्टतः उल्लेख किया था कि जाट आर्य हैं।
(स) भगवान राम के बारे में ऐतिहासिक साहित्य और साक्ष्य हैं कि राम जाट राजा हैं।

8. कि भलेराम बेनीवाल द्वारा लिखी जाट योद्धाओं का इतिहास पुस्तक के पृष्ठ 48 से 50 तक में भगवान राम की वंशावली का उल्लेख है।

p.6

इस पुस्तक में ये निम्नानुसार लिखा है:

सूर्यवंशी राजाओं की वंशावली

कश्यप (Kashyapa) --------- (जाट वंश)
नरहरी (Narhari) --------- (जाट वंश)
मेहरा (Mehra) --------- (जाट वंश)
मान्धाता (Mandhata) --------- (जाट वंश)
रघु (Raghu) ------------ (सूर्यवंशी राजवंश)
पृष्ठ 131 से 134

जाट क्षत्रिय हैं।

इस पुस्तक से स्पष्ट है कि भगवान राम काकराण गोत्र के जाट थे। इस बात का उल्लेख तुलसीदास जी ने अपनी रामायण में किया है। भारतीय शब्दकोश में 13 वीं व 14 वीं सदी तक राजपूत नाम का शब्द नहीं है। वाल्मीकि रामायण में भी इसी बात का उल्लेख मिलता है कि भगवान राम जाट थे।

9. यह बात 'राजपूत जाति का इतिहास' की पुस्तक में भी स्पष्ट है:

(अ) स्वर्गीय जयचंद विद्यालंकार ने लिखा है कि वस्तुतः राजपूत कोई जाति नहीं थी। राजा के पुत्र के लिए राजपूत शब्द प्रयुक्त होने लगा।
(ब) 11 वीं सदी के बाद तो अगर कोई बेटा शासन नहीं करता था तो भी उसे राजपूत कहा जाने लगा, और
p.7
(स) वस्तुतः राजपूत नाम से जानी जाने वाली जाति का मेल-मिलाप/ एकता और विकास मुख्यतः गुजरात, राजस्थान और मालवा में हुआ।

10 . कि उपयुक्त निवेदन से अपीलकर्ता एकदम सुस्पष्ट तरीके से स्थापित करने में सफल हुआ है कि भगवान राम राजपूत नहीं थे, जैसे कि शब्द 'राजपूत' भारतीय शब्दकोश में 13वीं और 14 वीं सदी तक नहीं था, जबकि 'जाट' शब्द शब्दकोश में इससे बहुत पहले से मौजूद था। यह बात वाल्मीकि जी और तुलसीदास जी जैसे लेखकों ने प्रमाणित की है, जिनकी रामायण की भगवान राम पर प्रामाणिकता है और उनमें स्पष्ट है कि भगवान राम जाट थे। इसलिए कुछ पक्षकारों की यह दलील कि भगवान राम राजपूत थे, अभिलेख के सामने गलत है और स्वीकार्य नहीं है। अतः विनम्र निवेदन है कि यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि भगवान राम राजपूत नहीं थे, बल्कि वस्तुतः जाट थे।

11. कि अपीलकर्ताओं को इंटरविनर्स (दस्तंदाज़) के रूप में दर्शाया जाना चाहिए ताकि वे अपनी मौखिक दलीलों से संवैधानिक बेंच को बेहतर सहायता प्रदान कर सकें। यह वास्तव में महत्वपूर्ण है क्योंकि कुछ पक्षकारों के वकील न्यायालय को गुमराह करने के लिए अपनी दलीलों में भगवान राम का मिथ्या निरूपण करते हुए जोर देकर कह रहे हैं कि भगवान राम राजपूत थे।

p.8

इनमें से किसी ने भी प्रत्यक्ष और सुसंगत साहित्य न्यायालय के सामने नहीं रखा है जो कि अपीलकर्ता रख सकता है, यदि यह माननीय न्यायालय उनके प्रार्थना पत्र को स्वीकार करता है। अतः ये रिट पेश है।

दाख़िलकर्ता

(वीरेंद्र कुमार शर्मा )

एडवोकेट- याचिका-कर्ता

Animal depiction of warriors

When Rama invaded Lanka, many of his supporters like Kishkindha king Sugriva and his commanders like Hanuman, Jatayu, Jamvanta etc were Jat warriors. Bhaleram Beniwal has pointed out that these characters have been depicted as monkeys or animals out of jealousy by the manuvadis, who never wanted to narrate the real history of Jats. [8]

The historian Thakur Deshraj has explained about the reasons of animal depiction of people prevalent in India during Ramayana period. During this period all four varnas had come into existence in Aryans. The duties of each varna were defined but they could change varna. Brahmans had come into a dominant position and had full control over kings and the society. Some kshatriyas like Kartaviryarjuna had become rebellions against the increased influence of Brahmans. In Sarswati ashrama a big organization under the leadership of Parsurama was constituted by Brahmans to penalize such kshatriyas. Brahmans suppressed kshatriyas like Kartaviryarjuna and deprived these kshatriyas from their status. The Aryans by this time had crossed Vindhyas and moving towards south. Vanars were inhabitants in southwest Vindhyas. Pampa sarovar was their main center. Vanars were not monkeys but either aboriginal inhabitants of that area or people of Aryan groups who had come from Iran via Bombay and reached south of Vindhyas. The term Vanara has been used for the forest dwellers.[9]

Some historians have also treated Hanuman as a Jat warrior of Maan gotra. [10] Some other historians treat Vanar as a gotra of jats found in Haryana in India. Lord Hanuman of Ramayana was a kshatriya of Vanar clan. He was not a monkey as is depicted in Ramayana. [11]

श्री रामचन्द्र जी महाराज जाट थे

कैप्टन दलीप सिंह अहलावत लिखते हैं -

प्रमाण - सूर्यवंशी वैवस्वतमनु का पुत्र इक्ष्वाकु था जो कि वैवस्वतमनु द्वारा बसाई भारत की प्रथम नगरी अयोध्या का शासक हुआ था। इक्ष्वाकु के विकुक्षी नामक पुत्र से पुरञ्जय हुआ जिसने देवासुर युद्ध में असुरों को जीत लिया, जिससे वह ‘काकुस्थ’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके इस नाम से सूर्यवंशी क्षत्रियों का एक समुदाय काकुस्थ, काकवंश प्रचलित हुआ जो कि जाटवंश है। भाषा भेद से यह काकुस्थ जाटवंश काक, काकतीय, कक्क, कुक, कुकर, कुक्कुर, कक और काकराणा कहलाता है जो आज इस गोत्र के जाट भिन्न-भिन्न प्रांतों में विद्यमान हैं। जाटों के अलावा यह गोत्र किसी दूसरी जाति में नहीं है, यदि कोई मिल भी जाए तो वह जाटों में से निकली जाति है। इसी परम्परा में बहुत युगों के पश्चात् महाराज दशरथ का राजा रघु हुआ जो कि बड़ा प्रतापी सम्राट् था जिसके नाम पर इस काकुस्थवंश का एक समुदाय रघुवंशी प्रचलित हुआ जो कि जाट वंश है। (काकुस्थ या काकवंश का वर्णन पिछले पृष्ठों पर देखो)।

रघुवंशी जाट जो बाद में रघुवंशी सिकरवार कहलाये। इस गोत्र के जाटों की बहुत बड़ी संख्या आज भी अनेक स्थानों पर आबाद है। (इसका वर्णन देखो एकादश अध्याय में)।

  • 1. राजा दशरथ एवं उनके पुत्र श्री रामचन्द्र जी इसी काकुस्थ और रघुवंश के जाट थे। वाल्मीकीय रामायण में इसके अनेक उदाहरण हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार से हैं -
(1) विश्वामित्र राजा दशरथ को कहते हैं - ककुत्स्थनन्दन! यदि वशिष्ठ आदि आपके सभी

1. यह कैलाशपुर रियासत, जो जिला सहारनपुर में थी, के पठान काकज़ई हैं जो कि सिन्ध और बिलोचिस्तान से यहां आये थे।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-230


मन्त्री आपको अनुमति दें तो आप श्रीराम को मेरे साथ विदा कर दीजिए। (बालकाण्डे एकोनविंशः सर्गः श्लोक 16)।
(2) आगे-आगे विश्वामित्र, उनके पीछे काकपक्षधारी महायशस्वी श्रीराम तथा उसके पीछे सुमित्राकुमार लक्षमण जा रहे थे। (बालकाण्डे द्वाविंशः सर्गः श्लोक 6)।
(3) विश्वामित्र श्रीराम से कहते हैं - ककुत्स्थनन्दन! मैंने तुम्हें इन दोनों विद्याओं को देने का विचार किया है। (बालकाण्डे द्वाविंशः सर्गः श्लोक 20)।
(4) रघुनन्दन ! तुम गौओं और ब्राह्मणों का हित करने के लिए दुष्ट पराक्रमवाली इस परम भयंकर दुराचारिणी यक्षी (ताटका) का वध कर डालो। (बालकाण्डे पंचविंशः सर्गः श्लोक 15)।
(5) कबन्ध नामक राक्षस ने बतलाया - रघुनन्दन ! आप धर्मपरायण संन्यासिनी शबरी के घर जाइये (बालकाण्डे प्रथमः सर्गः श्लोक 56)।

इसी प्रकार श्री रामचन्द्र जी को रघुनन्दन, रघुकुल, काकुत्स्थकुलभूषण, रघुवंशी अनेक स्थानों पर इस वाल्मीकीय रामायण में लिखा हुआ है जो कि इनके जाट होने के ठोस प्रमाण हैं।

  • 2. मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र के ज्येष्ठपुत्र लव से सूर्यवंशी लाम्बा जाटवंश का प्रचलन हुआ। (अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, लाम्बा सूर्यवंशी-लववंशी प्रकरण)। यह भी श्री रामचन्द्र जी व लव के जाट होने का प्रमाण है।
  • 3. मासिक पत्र हरयाणा जाट सभा समाचार व सुझाव, मुख्य कार्यालय 6-B जाट धर्मशाला हिसार 10 दिसम्बर 1987 के पृष्ठ 1 पर लेख है - भगवान् राम जाट थे। मध्यप्रदेश जाट सभा के चौधरी रामलाल जी डोगोवार निवासी ग्राम व डाकघर हरवार मन्दसौर (म० प्र०) का पत्र इस कार्यालय में प्राप्त हुआ है कि आपने लिखा है भगवान् श्रीराम व भगवान् श्रीकृष्ण जाट क्षत्रिय थे। ये राजपूत नहीं थे। राजपूत जाति का प्रादुर्भाव तो सातवीं शताब्दी से होता है एवं वह सोलहवीं शताब्दी के आसपास बोलचाल में आई। इसे आपने इतिहास के प्रमाणों द्वारा प्रमाणित भी किया है।
  • 4. श्री रामचन्द्र जी के दूसरे पुत्र कुश से कुश जाटवंश प्रचलित हुआ। कुश को दक्षिण-कौशल का राजा बनाया गया। उसने विन्ध्याचल पर्वत पर कुशवती (कुशस्थली) नगर बसाया और उसे अपनी राजधानी बनाया। (वा० रा० उत्तरकाण्ड, सर्ग 107)| श्रीकृष्ण जी ने मथुरा को छोड़कर कुशस्थली को अपनी राजधानी बनाया और उसका नाम द्वारका रखा।

यह हमने प्रथम अध्याय में सूर्यवंशी राजाओं की वंशावली में लिख दिया है कि महाराज कुश के वंशज राजा बृहद्वल महाभारत युद्ध में लड़ते हुए अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु द्वारा मारे गये थे। बृहद्वल अयोध्या का प्रसिद्ध राजा था। सूर्यवंशज कुशगोत्र के जाटों का अयोध्यापुरी में बृहद्वल से प्रसेनजित् तक 27 राजाओं का शासन 3100 ई० पू० से 500 ई० पू० तक (2600 वर्ष) रहा। कुछ समय बाद प्रसेनजित् ने अयोध्यापुरी राजधानी को छोड़कर इसे 58 मील उत्तर में श्रावस्ती नगरी


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-231


को अपनी राजधानी बना लिया। वहां पर इसके समेत 5 कुशवंशज जाट राजाओं ने राज्य किया जिनमें अन्तिम सुमित्र था। इन जाट राजाओं का वहां पर लगभग 150 वर्ष राज्य 500 ई० पूर्व से 350 ई० पू० तक रहा। आज भी कुशवंशज के जाट बड़ी संख्या में विद्यमान हैं। (अधिक जानकारी के लिए देखो, पंचम अध्याय, सूर्यवंशीय कुशवंश जाट राज्य)।

इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि श्री रामचन्द्र जी महाराज जाट थे।[12]

Genealogy of Ikshvaku (Suryavansha)

Following Genealogy of Ikshvaku (Suryavansha) is from book Bhaleram Beniwal:Jat Yauddhaon Ka Itihas, pp.133-137

References

  1. Sister Nivedita & Ananda K.Coomaraswamy: Myths and Legends of the Hindus and Bhuddhists, Kolkata, 2001 ISBN 81-7505-197-3
  2. Sister Nivedita & Ananda K.Coomaraswamy: Myths and Legends of the Hindus and Bhuddhists, Kolkata, 2001 ISBN 81-7505-197-3
  3. Balmiki Ramayana sarga 40-43
  4. Bhaleram Beniwal: Jāt Yodhaon ke Balidān, Jaypal Agencies, Agra 2005 (Page 38)
  5. Bhaleram Beniwal: Jāt Yodhaon ke Balidān, Jaypal Agencies, Agra 2005 (Page 38)
  6. Vishnu Puran part IV Chapter 2-3
  7. Bhaleram Beniwal: Jāt Yodhaon ke Balidān, Jaypal Agencies, Agra 2005 (Page 39-40)
  8. Bhaleram Beniwal: Jāt Yodhaon ke Balidān, Jaypal Agencies, Agra 2005 (Page 40-41)
  9. Thakur Deshraj: Jat Itihas (Hindi), Maharaja Suraj Mal Smarak Shiksha Sansthan, Delhi, 1934, 2nd edition 1992 (Page 15-19)
  10. Dr Mahendra Singh Arya, Dharmpal Singh Dudi, Kishan Singh Faujdar & Vijendra Singh Narwar: Ādhunik Jat Itihas (The modern history of Jats), Agra 1998 (Page 289)
  11. Jat Samaj: Agra November 1999
  12. Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter III

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