भारतीय सविंधान के मिथक और खाप

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मिथकों की दुनिया

मिथकों की अजब दुनिया है। पूंजी के साम्राज्य में हर भले मनुष्य की त्रासदी है कि वह अब मिथकों में जीता है जिनको उसे घेरने के लिए घड़ा जाता है। त्रासदी यह भी है कि जब मिथकों में जीने का मनुष्य आदी बन जाए तो पता ही नहीं चलता कि वह घिर चुका है। जैसे भगवान! कभी विचार ही नहीं आता कि इतनी पूजा-अर्चना व मिन्नतों के बाद भी दिक्कतों के मारे इंसान पर भगवान का दिल नहीं पसीजता और उसकी एक भी समस्या हल नहीं करता! चोरी के माल पर बने धनवान का मामला अलग है!

बात दूसरी हैः आधुनिक शासन प्रणाली मिथकों से जीवन पाती है। राजा-रजवाडों के शासन को मिथकों की इतनी जरूरत नहीं थी जितनी अब चार सौ साल से हर तरह के शासकों को रहती है। कारण यह है कि जनतन्त्र के नाम पर यह प्रणाली अल्पसंख्यक मुट्ठीभर लोगों की हितसाधना का औजार बन चुकी है, हालांकि दावा बहुसंख्यक जनता के समर्थन का रहता है। इसलिए शासन का काम पर्दे के पीछे चलता है और जनता को बेवकूफ बनाने के लिए नित नये तरीके शासक खोजते रहते हैं। इसके लिए शासन का एक हिस्सा निपट ‘‘अंधेरे का उद्योग’’ है जो निरन्तर अपना काम करता है, कभी नहीं सोता! समय के अनुसार नये नये मिथक घड़ कर रखता है जिसके लिए शिक्षा विभाग से लेकर पूरी अखबारी दुनियां इसकी मददगार है। दोनों के तर्क इन्हीं मिथकों पर चलते हैं ताकि जनता भ्रमित रहे, अंधेरे की अभ्यस्त बने।

मिसाल सामने हैः चुनाव के समय जनता के प्रतिनिधि बन पेश आने वाले नेताओं व दलों के वायदों का जाल चकराने वाला हो उठता है, चुनाव जीतने के बाद उसी नेता व दल की सरकार अगले दिन ही अल्पसंख्यक सेठिया तबके के हित में काम करती मिलती है और पांच साल तक लोगों को बरगलाने का खेल बेरोकटोक चलता है। सरकार व नेतागण नारा जनता की एकता का लगाते हैं और काम उन्हें किसी न किसी बहाने लडाने का करते हैं! अखबार इन्हीं बहरुपियों और दोगलों को महान नेता बताने व इनका गुणगान करने में ताकत लगाते रहते हैं। इस अंधकार के व्यापारियें के कारनामों की तह में जा कर न समझा जाए तो भ्रमजाल के ताण्डव को पकड़ना कठिन है जिसकी क्षमता जनता में न सरकार ने मिथकों के जरिये छोड़ी है और न उनके पास इसके लिए समय बचता है। खाप के सवाल पर भी यही होता आ रहा है। जनता के साथ यह अंधकार-उद्योग का खेल इतना व्यापक व असरदार दायरे का है कि अनेक नेकदिल इंसान भी जाने-अनजाने इसमें फंसे रहते हैं।

ऐसा एक मिथक देश के संविधान को लेकर खड़ा किया गया है जो इसे धर्म ग्रंथ का दर्जा देता लगता है। ऐसा ही कानून-व्यवस्था को लेकर है। इन पर अंध आस्था स्थापित करने की शुरुआत स्वयं पंडित जवाहरलाल नेहरू के जमाने से होने लगी थी हालांकि संविधान सभा में बात अलग हट कर हुई। जिन्हें देखना है वे संविधान सभा की कार्यवाही पर नजर डाल लें, विशेष कर 24 नवम्बर 1949 को संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद वह प्रधानमन्त्री नेहरू के बोल। फिर भी संविधान पास हो जाने के बाद आश्वासन के उल्ट इसका दर्जा धर्म ग्रंथ जैसा बना दिया गया है ताकि जनता इसपर अंधभक्ति का भाव लेकर चले; इसमें बदलाव कीं बात न हो, मनुष्य को ही इसके अनुरूप बदलने की नसीहत होती है। खाप को असंवैधानिक व गैर कानूनी बताने वाले इसी मिथक का सहारा लेकर बात कर रहे हैं। उनके कहने का अर्थ है कि कानून के लिए मनुष्य बना है वह उसमें फिट हो, मनुष्य के लिए कानून नहीं है कि मनुष्य की जरूरत के लिए उसे बदला जाए, जबकि सरमायेदारों के हितो में मामूली अडचन होते ही स्वयं शासकों ने 67 सालों में इसी संविधान को न जाने कितनी बार बदला है। अनेक मामलों में संविधान का चेहरा ही बदल डाला और उसे जनता के गले की फांस बना दिया। खुलासा अगली किसी कड़ी में होगा।

संविधान पर मिथक अतना गहरा हो गया है कि कोई इन महानुभावों से यह सवाल नहीं करता और मान लेता है कि सरकार की हर घोषणा जायज है! जबकि सभी सरकारें बीते 67 साल से मात्र सेठियागिरी करती आ रही हैं जिसका नुक्सान जनता को होता है। संविधान की धारा 38, 39, 40 को सरकारों ने पलीता लगा कर देश में गैर-बराबरी का साम्राज्य कायम किया है और राष्ट्र के सामजिक संसाधनों को मात्र सेठों के हवाले करने के लिए ट्रिकल डाऊन थ्योरी (टपका सिद्धान्त/परिकल्पना) को घड़ लिया जिसका संविधान में कहीं उल्लेख नहीं है। धन की चाल नींचे से आरम्भ होने में शासको की कल्पना शक्ति को सांप क्यों सूंघ गया? संविधान के अनुच्छेद 38 व 39 के उल्ट इस नकली थ्योरी के तहत सेठों के हाथ में सारे संसाधनों को सौंपने का काम सरकारों नें किया है। इसका जवाब कौन देगा? संविधान तो समाजवादी समाज का उल्लेख करता है जबकि सरकारों ने यहां निपट अमरीकी तर्ज पर पूंजी के साम्राज्य को लोगों पर थौंपा हुआ है। राज्य पर संविधान पाबंदी लगाता है कि उसकी गतिविधि पंथ निर्पेक्षता को मान कर चलेंगीं। किन्तु सरकारों द्वारा यहां पंथों को बढावा देने का काम हुआ है। इस संविधान के रहते तब यह कैसे सम्भव हुआ, क्या खाप के सवाल पर भाषण देने वाले लोग जरा बात स्पष्ट करेंगे?

विधि-विज्ञान की मान्यता है कि हर कानून जायज नहीं होता और हर जायज बात कानूनी नहीं होती। (समहंस ंदक समहपजपउंजम) जायज व कानूनी का यही विरोधाभास है। देश पहले था कानून व संविधान बाद में आया। खाप का वजूद पहले था संविधान बाद की उत्पत्ति है। संविधान सभा में सवाल उठा था कि एक आजाद देश का यह संविधान नहीं है जिसमें न गांव है न परिवार! उसपर आश्वासन देकर नेताओं ने उस दिन देश को बरगला दिया कि इसमें संशोधन करके इसे देश की आजादी के अनुरूप बनाया जाऐगा। किन्तु ऐसा नहीं हुआ। यदि संविधान में खाप नहीं है तो वह लिख ले, खाप क्यों बदले जबतक यह साबित न हो कि सदियों से चली आ रही खाप आज समाज विरोधी हो गयी है? आरोप लगाने से तो वह अराधी साबित नहीं हो जाती है। इसका निर्णय राज नहीं कर सकता। उसका तो अपने मिथक को बना कर रखने का निहित स्वार्थ हैं। और सेठों की सेवा करना। अब तक का यही सच है। संसद जनता की प्रतिनिधि है वह उसे नाथने के लिए नहीं चुनी गयी है। उसकी सीमा निर्धारित है। संविधान बनाने का अर्थ ही राज की सीमा बांधना होता है। वह मनमर्जी नहीं कर सकता है। भारत का संविधान अंग्रेज भक्त लोगों ने थौंपा है। इसमें कहीं आजादी की मनोभावना नहीं है जिस अंग्रेजियत के विरुद्ध यहां आजादी आन्दोलन चला था। पंडित नेहरू व डा. राजेन्द्र प्रसाद ने इसे स्वीकारा था और वायदा किया था कि इसे उन जरूरतों के अनुसार बदला जायेगा। तब जनता क्यों ऐसे संविधान के मुताबिक अपने को बदले? जनता के लिए संविधान बदले। सेठों का मीडिया तय करना छोड़ दे कि जनता का हित किस बात में है। आज का मीडिया जनता का औजार नहीं है, सेठों ने खरीद लिया है। लोकसभा के ताजा चुनाव में इस मीडिया की भूमिका इस तथ्य को साबित करती है।

दूसरा पहलू भी है। संविधान में हर कुछ नहीं लिखा गया है न यह उसका काम है और न ऐसा माना गया है कि जिस बात का संविधान में उल्लेख नहीं किया वह गलत है, उसे रहने का अधिकार ही नहीं है। संविधान में परिवार भी नहीं है। देश की विविधता को भी स्वीकारा गया है तो खाप को निशाना बनाने वाले कौन होते हैं इसके उलट फतवा देने वाले? सरमायेदारी के हित में लोगों को नाथने का काम संविधान अथवा संसद का नहीं हो सकता है।