Bhagat Singh: Samajvadi Krantikari Naujawan
लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान |
भारत में आज़ादी के आंदोलन में क्रांतिकारी विचारों को परवान पर चढ़ाने वाला सच्चा देशभक्त जिसने अपनी युवावस्था में हंसते-हंसते फांसी के तख्तों को चूमने की अनूठी मिसाल कायम की, उस शहीद-ए-आजम भगतसिंह को उनकी जयंती पर शत्-शत् नमन। मालूम हो कि भगतसिंह की सही जन्मतिथि 28 सितम्बर 1907 है। इसकी प्रामाणिकता की पुष्टि भगतसिंह के परिजन ख़ुद करते हैं।
अल्पायु में उत्कृष्ट व उदात्त बौद्धिकता, प्रबुद्धता, तार्किकता, पराक्रम, शौर्य, निर्भीकता, अदम्य साहस व प्राणोत्सर्ग करने का इतिहास रच कर अमर हो जाने का दूसरा नाम है भगतसिंह। प्रखर बुद्धि, वैचारिक रूप से सुदृढ़ इस जांबाज युवक ने मात्र 23 साल की उम्र में अपने जीवन की आहुति देश की आजादी के लिए हंसते-हंसते दे दी। उन्हें बौद्धिकता, बहादुरी औऱ संघर्ष की प्रतिमूर्ति कहा जा सकता है।
भगत सिंह की शिक्षा डी. ए. वी. स्कूल और नेशनल कॉलेज, लाहौर में हुई। उस वक्त वहां के माहौल में क्रांतिकारियों तथा क्रांतिकारी गतिविधियों का बोलबाला था। आर्य समाजी परिवार में परवरिश होने और विद्यार्थी जीवन में क्रांतिकारी विचारों की ओर उन्मुख होने के कारण वे 12 साल की अल्प आयु में स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रुचि लेने लगे थे। आज़ादी के लिए चल रहे असहयोग आंदोलन से मोह भंग होने के कारण उन्होंने 16 साल की छोटी- सी उम्र में उग्रवादी क्रांतिकारी आंदोलन की राह पकड़ ली।
पढ़ाकू युवक
समाजवाद की दिशा में भगतसिह की वैचारिक प्रगति की रफ्तार बहुत तेज़ थी। उन्होंने 1924 से 1928 के बीच विभिन्न विषयों का विस्तृत अध्ययन किया था। लाला लाजपत राय की द्वारकादास लाइब्रेरी के पुस्तकालयाध्यक्ष राजाराम शास्त्री के अनुसार उन दिनों भगतसिह वस्तुतः “किताबों को निगला करता था।” उनके प्रिय विषय थे रूसी क्रान्ति, सोवियत संघ, आयरलैण्ड, फ्रांस और भारत का क्रान्तिकारी आन्दोलन, अराजकतावाद और मार्क्सवाद। उन्होंने और उनके साथियों ने 1928 के अन्त तक समाजवाद को अपने आन्दोलन का अन्तिम लक्ष्य घोषित कर दिया था। उनकी यह वैचारिक प्रगति उनके फाँसी पर चढ़ने के दिन तक जारी रही।
भगत सिंह और उनके साथियों के लेखों, पत्रों और दस्तावेजों का अध्ययन करने पर यह एकदम स्पष्ट हो जाता है कि उनकी विचारधारा उस समय के भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन की सबसे विकसित, सुसंगत व सारगर्भित विचारधारा थी। तर्क के ताक़तवर तराजू पर टिकी हुई। तर्क की कसौटी पर कसी हुई। दुनिया के देशों में आज़माई हुई।
इन्सान के जीवन में पूर्णता विचार औऱ कर्मों के बेहतरीन मेल से ही प्राप्त होती है। भगतसिंह जैसे लोग बहुत बिरले होते हैं जो अपने विचारों को कर्मों में रूपांतरित कर जन-मन पर अपनी अविस्मरणीय छाप छोड़ जाते हैं। उन्होंने सही कहा था कि व्यक्ति को मारा जा सकता है , उसके विचारों को नहीं। सोचा हुआ विचार कभी नहीं मरता, वह कभी न कभी घटित जरूर होता है। शायद इसे भांपते हुए ही उन्होंने कहा था: 'हवाओं में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली; ये मुश्ते-खाक है फानी, रहे या न रहे ।'
असेम्बली में बमकांड
दिल्ली में 8 अप्रैल 1929 को असेम्बली भवन में बम फेंकने के बाद सरदार भगतसिंह और श्री बटुकेश्वर दत्त , ये दोनों युवक चाहते तो वहां से भग सकते थे परन्तु उन्होंने निर्भीकता की अनूठी मिसाल क़ायम करते हुए पुलिस के हाथों आत्मसमर्पण कर दिया। उनके पास लोडेड रिवॉल्वर थे। यदि वे चाहते तो वे उन सरकारी अफसरों पर गोलियां दाग सकते थे, जो बम फटने के बाद भयाक्रांत होकर इधर-उधर भाग रहे थे। बम फेंकने के बाद ये दोनों युवक ' इंकलाब जिंदाबाद' तथा 'साम्राज्यवाद का नाश हो' ( Down with Imperialism) के नारे लगाते रहे। ये नारे भारत में पहले-पहल इन्हीं युवकों द्वारा लगाए गए थे।
असेम्बली में बम क्यों फेंका , इसका जबाब सरदार भगतसिंह ने यूँ दिया: If the deaf are to hear ,the sound has to be very loud. When we dropped the bomb, it was not our intention to kill anybody. We have bombed the British government . The British must quit India and make her free. यदि बहरों को सुनाना है तो आवाज तेज करनी होगी। जब हमने बम फेंका था तब हमारा इरादा किसी को जान से मारने का नहीं था। हमने ब्रिटिश सरकार पर बम फेंका था। ब्रिटिश सरकार को भारत छोड़ना होगा और उसे स्वतंत्र करना होगा।
हिंसा/अहिंसा
हिंसा अथवा अहिंसा--यह हमारे देश का पुराना दार्शनिक प्रश्न है। व्यक्ति के जीवन का रूप इस बात पर निर्भर करता है कि वह किस रीति से हिंसा और अहिंसा का समन्वय करता है। भगवत-गीता का एक वाक्य है: ' परित्राणय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम' अर्थात दुष्टों का नाश, संसार की प्रगति का आवश्यक अंग है।
क्रांति क्या है?
भगतसिंह का कहना है: ' किसी को 'क्रांति' शब्द की व्याख्या शाब्दिक अर्थ में नहीं करनी चाहिए। जो लोग इस शब्द का उपयोग या दुरुपयोग करते हैं उनके फ़ायदे के हिसाब से इसे अलग अर्थ और अभिप्राय दिए जाते हैं।' बदलाव की जरूरत पर बल देते हुए भगतसिंह ने कहा: 'आमतौर पर लोग जैसी चीजें हैं उनके आदी हो जाते हैं और बदलाव के विचार से ही काँपने लगते हैं। हमें इस निष्क्रियता की भावना को क्रांतिकारी भावना से बदलने की जरूरत है।'
“क्रान्ति क्या है? भारत के राष्ट्रीय हलकों में इसके बारे में एक बड़ी ग़लत धारणा बनी हुई है। आमतौर पर क्रान्ति को बम, रिवॉल्वर और गुप्त संस्थाओं से जोड़ दिया जाता है। भारतीय राजनीतिक शब्दकोष में बहु-प्रचलित शब्दावली ‘क्रान्तिकारी अपराध’/ नक्सलवाद क्रान्ति की इसी ग़लत अवधारणा की उपज है। बहरहाल, क्रान्ति एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है, जो वर्तमान जड़तामूलक युग का अन्त कर उसके स्थान पर स्वंतत्रता, समानता, बंधुत्व व सामाजिक न्याय पर आधारित एक नये युग का शुभारम्भ करती है। चूँकि रूढ़ियों के साये में पल रहे और जड़ बन चुके समाज के प्रतिनिधि या दलाल, आर्थिक वर्ग और राजनीतिक संस्थाएँ, जो उस समाज में प्रचलित हालात से लाभान्वित होते रहे हैं, एक भयानक प्रतिरोध के बग़ैर ऐसा कोई परिवर्तन नहीं होने देते। वे नहीं चाहते कि उनके प्रभुत्व का अन्त हो जाये। इसीलिए आमतौर पर राजनीतिक हिंसा और सामाजिक उथल-पुथल ‘क्रान्ति’ कहलाने वाली ऐतिहासिक घटना के अंग बन जाते हैं।
भगतसिंह व उनके क्रान्तिकारी साथी मनुष्य द्वारा मनुष्य के और एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र के शोषण से मुक्त वर्गहीन समाज के पक्ष में थे। उन्होंने एलान किया कि उनकी लड़ाई सिर्फ़ ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खि़लाफ़ ही नहीं है, बल्कि विश्व साम्राज्यवादी व्यवस्था के खि़लाफ़ है। उनका विश्वास था कि क्रान्ति के बाद जो सरकार बनेगी उसका रूप एक प्रकार की सर्वहारा वर्ग की सर्वोच्चता का होगा।
क्रान्ति के सम्बन्ध में भगतसिह के विचार बहुत स्पष्ट थे। उन पर चल रहे मुक़दमें के दौरान निचली अदालत में जब उनसे पूछा गया कि क्रान्ति शब्द से उनका क्या मतलब है, तो उत्तर में उन्होंने कहा था, “क्रान्ति के लिए ख़ूनी संघर्ष अनिवार्य नहीं है, और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा का कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं है। क्रान्ति से हमारा अभिप्राय यह है कि वर्तमान व्यवस्था, जो खुलेतौर पर अन्याय पर टिकी हुई है, बदलनी चाहिए।” अपनी बात को और भी स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था, “क्रान्ति से हमारा अभिप्राय अन्ततः एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना से है जिसको इस प्रकार के घातक ख़तरों का सामना न करना पड़े और जिसमें सर्वहारा वर्ग की प्रभुसत्ता को मान्यता हो तथा एक विश्वसंघ मानवजाति को पूँजीवाद के बन्धन से और साम्राज्यवादी युद्धों से उत्पन्न होने वाली बरबादी और मुसीबतों से बचा सके।”
भगतसिंह की वैचारिक दृढ़ता
ईश्वर, धार्मिक विश्वास और धर्म को तिलांजलि देते हुए भगतसिंह ने 1926 में ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार कर दिया था। उनके ख़ुद के शब्दों में, “1926 के अन्त तक मुझे इस बात पर यक़ीन हो गया था कि सृष्टि का निर्माण, व्यवस्थापन और नियन्त्रण करने वाली किसी सर्वशक्तिमान परम सत्ता के अस्तित्व का सिद्धान्त एकदम निराधार है।'
असेम्बली बमकाण्ड के केस की अपील के दौरान लाहौर हाईकोर्ट में बयान देते हुए भगतसिह ने विचारों की महत्ता पर बल देते हुए कहा था: “इन्क़लाब की तलवार विचारों की सान ( धार ) पर तेज़ की जाती है,” और उसके आधार पर उन्होंने यह सूत्र प्रस्तुत किया कि “आलोचना और स्वतन्त्र विचार किसी क्रान्तिकारी के दो अपरिहार्य गुण हैं,” और यह कि “ प्रगति/ विकास की बात या समर्थन करने वाले हर व्यक्ति को पुरातन आस्थागत बातों/ पुराने विश्वासों की एक-एक बात की आलोचना करनी होगी, उस पर अविश्वास प्रकट करना होगा तथा उन्हें चुनौती देनी होगी। इस प्रचलित विश्वास के एक-एक कोने में झाँककर उसे विवेकपूर्वक समझना होगा।” Any person who stands for progress has to criticize , disbelieve and challenge every item of old faith. भगतसिंह ने दृढ़ता के साथ कहा था कि “निरा विश्वास और अन्धविश्वास ख़तरनाक है, इससे मस्तिष्क कुण्ठित होता है और आदमी प्रतिक्रियावादी हो जाता है।”
भगतसिह का मानना था कि “ईश्वर में कमज़ोर आदमी को ज़बरदस्त आश्वासन और सहारा मिलता है और विश्वास उसकी कठिनाइयों को आसान ही नहीं बल्कि सुखकर भी बना देता है।” वे यह भी जानते थे कि “आँधी और तूफ़ान में अपने पाँवों पर खड़े रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है।” लेकिन वे सहारे के लिए किसी भी बनावटी अंग के विचार को दृढ़तापूर्वक अस्वीकार करते थे। वे कहते थे, “अपनी नियति का सामना करने के लिए मुझे किसी नशे की ज़रूरत नहीं है।” उन्होंने एलान किया था कि “जो आदमी अपने पाँवों पर खड़े होने की कोशिश करता है और यथार्थवादी हो जाता है, उसे धार्मिक विश्वास को एक तरफ़ रखकर, जिन-जिन मुसीबतों और दुखों में परिस्थितियों ने उसे डाल दिया है, उनका एक मर्द की तरह बहादुरी के साथ सामना करना होगा।”
जुलाई 1928 में लिखे अपने लेख “विद्यार्थी और राजनीति” में भगतसिंह लिखते हैं “यह हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढाई करना है , उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए, लेकिन क्या उनमें देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार के उपाय सोचने की योग्यता पैदा करने की बात शिक्षा में शामिल नहीं होनी चाहिए? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं, जो सिर्फ क्लर्की करने के लिए हासिल की जाए I”
1928 में लिखे अपने एक अन्य लेख “सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज” में भगतसिंह लिखते हैं कि “इन धर्मों ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है।” साम्प्रदायिकता की बीमारी का इलाज सुझाते हुए वे इस लेख में लिखते हैं, "अगर आम लोगों में वर्ग चेतना का विकास किया जाए यानी अगर मज़दूर और किसानों को समझाया जाए कि उनके असली दुश्मन पूँजीपति हैं, न कि दूसरे धर्म के गरीब, तो इस समस्या का हल निकल सकता है I वे कहते हैं कि रूस की तरह रंग, धर्म , नस्ल और राष्ट्रीयता से ऊपर उठकर मज़दूरों और किसानो को सत्ता हाथ में लेने के प्रयास करने चाहिए I" उनके लेख पढ़ने से ये स्पष्ट हो जाता कि उनकी आज़ादी का सपना था साम्राज्यवाद और पूंजीवादी व्यवस्था से आम लोगों की आज़ादी I एक ऐसा समाज जहाँ इंसान द्वारा इंसान का शोषण नहीं होता हो।
1928 में भगत सिंह ने किरती नामक एक पत्र में ‘नए नेताओं के अलग-अलग विचार’ शीर्षक से एक लेख लिखा था। तब वे सिर्फ 21 साल के थे। इस लेख में उन्होंने सुभाष चंद्र बोस और नेहरू के नज़रिए की तुलना की है। भगतसिंह न कांग्रेस के नेता थे और न ही वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। ऐसे में यह जानना दिलचस्प हो जाता है कि भगतसिंह इन दो राष्ट्रवादी नेताओं के बारे में क्या सोचते थे। अपने लेख में भगत सिंह ने बोस को एक भावुक बंगाली बताया है। उनके मुताबिक सुभाष चंद्र बोस भारत की प्राचीन संस्कृति के भक्त हैं, जबकि जवाहरलाल नेहरू अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि वाले नेता। भगत सिंह के मुताबिक बोस कोमल दिल और रूमानी सोच वाले नेता हैं। दूसरी ओर वे नेहरू को परंपराओं/ रूढ़िवादी सोच से बगावत करने वाले नेता के तौर पर देखते हैं।
नेहरू और भगतसिंह
भगतसिंह और साथियों की गिरफ्तारी के बाद नेहरू भूख हड़ताल पर बैठे कैदियों से व्यक्तिगत तौर पर मिले और उनके बुरे हालात पर संजीदा होकर बोले ‘‘मुझे इनसे पता चला है कि वे अपने इरादे पर कायम रहेंगे, चाहे उन पर कुछ भी गुज़र जाए। यह सच है कि उन्हें अपनी कोई परवाह नहीं थी।"
भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों की आलोचना उनके बलिदान की भावना को समझे बिना करने वाले पदलोलुप कांग्रेसियों को फटकारने से भी नेहरू चूकते नहीं थे। ट्रिब्यून की 11 अगस्त 1929 की एक रिपोर्ट के अनुसार नेहरू ने कहा था, ‘‘हमें इस संघर्ष के महान महत्व को समझना चाहिए जो ये बहादुर नौजवान जेल के अंदर चला रहे हैं। वे इसलिए संघर्ष में नहीं हैं कि उन्हें अपने बलिदान के बदले लोगों से कोई पुरस्कार लेना है या भीड़ से वाह-वाही लूटनी है। इसके विपरीत आप संगठन में और स्वागत-समिति में पद के लिए कांग्रेस में दुर्भाग्यपूर्ण खींचातानी को देखें। मुझे कांग्रेसियों के बीच आंतरिक मतभेदों के बारे में सुनकर शर्म आती है। परन्तु मेरा दिल उतना ही खुश भी होता है जब मैं इन नौजवानों के बलिदानों को देखता हूं जो देश की खातिर मर-मिटने के लिए दृढ़ संकल्प हैं।‘‘
जुलाई 1928 में ‘किरती‘ में छपे एक महत्वपूर्ण लेख में नेहरू के बारे में भगतसिंह ने अपने तार्किक विचार रखे। भगतसिंह को नेहरू का यह तर्क बेहद पसंद आया जिसमें उन्होंने कहा था ‘‘प्रत्येक नौजवान को विद्रोह करना चाहिए। राजनैतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में भी। धार्मिकता के लबादे में लिपटे विचारों की सान पर चलकर क्रांति नहीं हो सकती-ऐसा नेहरू का तर्क रहा है।
भगतसिंह नास्तिक क्यों?
'मैं नास्तिक क्यों हूँ ?' यह लेख भगत सिंह के सर्वाधिक चर्चित व प्रभावशाली लेखन में शुमार किया जाता है। यह लेख उन्होंने लाहौर सेंट्रल जेल में क़ैद के दौरान लिखा था और इसका प्रथम प्रकाशन लाहौर से ही छपने वाले अख़बार दि पीपल में 27 सितम्बर 1931 को हुआ।
भगतसिंह ने इस लेख में ईश्वर कि अस्तित्व पर कई तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और इस संसार के निर्माण, मनुष्य के जन्म, मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ- साथ संसार में मनुष्य की दीनता उसके शोषण दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है । प्रस्तुत हैं इस लेख के महत्वपूर्ण विचारोत्तेजक अंश। गौर से पढ़िए और अपनी तर्क शक्ति व विवेक को जीवन- रथ का सारथी बनाकर ख़ुद निर्णय कीजिए।
‘....विश्वास’ कष्टों को हलका कर देता है। यहाँ तक कि उन्हें सुखकर बना सकता है। ईश्वर में मनुष्य को अत्यधिक सान्त्वना देने वाला एक आधार मिल सकता है। उसके बिना मनुष्य को अपने ऊपर निर्भर करना पड़ता है। तूफ़ान और झंझावात के बीच अपने पाँवों पर खड़ा रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है। परीक्षा की इन घड़ियों में अहंकार यदि है, तो भाप बन कर उड़ जाता है और मनुष्य अपने विश्वास को ठुकराने का साहस नहीं कर पाता। यदि ऐसा करता है, तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उसके पास सिर्फ़ अहंकार नहीं वरन् कोई अन्य शक्ति है......
बिना किसी स्वार्थ के, यहाँ या यहाँ के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना, मैंने आसक्त भाव से अपने जीवन को स्वतंत्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था। जिस दिन हमें इस मनोवृत्ति के बहुत से पुरुष और महिलाएँ मिल जाएँगे, जो अपने जीवन को मनुष्य की सेवा तथा पीड़ित मानवता के उद्धार के अतिरिक्त और कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारंभ होगा। वे शोषकों, उत्पीड़कों और अत्याचारियों को चुनौती देने के लिए उत्प्रेरित होंगे, इसलिए नहीं कि उन्हें राजा बनना है या कोई अन्य पुरस्कार प्राप्त करना है - यहाँ या अगले जन्म में या मृत्योपरांत स्वर्ग में। उन्हें तो मानवता की गर्दन से दासवृत्ति का जुआ उतार फेंकने और मुक्ति एवं शांति स्थापित करने के लिए इस मार्ग को अपनाना होगा। क्या वे उस रास्ते पर चलेंगे जो उनके अपने लिए खतरनाक किंतु उनकी महान आत्मा के लिए एकमात्र शानदार रास्ता है? ....
मैं आपको यह बता दूँ कि अँग्रेज़ों की हुकूमत यहाँ इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता है, बल्कि इसलिए कि उनके पास ताक़त है और हम में उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमें अपने प्रभुत्व में ईश्वर की सहायता से नहीं रखे हुए हैं बल्कि बंदूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे रखे हुए हैं। यह हमारी ही उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निंदनीय अपराध - एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचारपूर्ण शोषण-सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहाँ है ईश्वर? वह क्या कर रहा है? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मजा ले रहा है? वह नीरो है, चंगेज है, तो उसका नाश हो....
ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने, स्वयं को उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिए - ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की.... इस प्रकार जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों के विश्वासघात और उनके द्वारा त्याग देने से अत्यंत दुखी हो तो उसे इस विचार से सांत्वना मिल सकती है कि एक सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसे सहारा देगा, जो कि सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है। वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए उपयोगी था। विपदा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना सहायक होती है...
मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करने लगे और यथार्थवादी बन जाए तो उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पौरुष के साथ सामना करना चाहिए जिसमें परिस्थितियाँ उसे पलट सकती हैं। मेरी स्थिति आज यही है। यह मेरा अहंकार नहीं है। मेरे दोस्तों, यह मेरे सोचने का ही तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास और रोज-बरोज की प्रार्थना - जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ - मेरे लिए सहायक सिद्ध होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर देगी। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया, अतः मैं भी एक मर्द की तरह फाँसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊँचा किए खड़ा रहना चाहता हूँ।"
युवाओं को सलाह
भगत सिंह ने 2 फरवरी 1931 को अपनी मौत के एक महीने पहले एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक था 'To Young Political Workers' (युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए)। इस लेख में उन्होंने लिखा कि युवाओं को बस्तियों और गांवों में जाकर मजदूरों और किसानों को संगठित करने के काम करना चाहिए क्योंकि "किसान और मजदूर ही क्रांति के असली सैनिक हैं।"
मौत से बेख़ौफ़ भगतसिंह
यौवन की डगर पर क़दम आगे बढ़े ही थे कि अदालत ने भगतसिंह को मौत की सज़ा सुना दी। बावज़ूद इसके इस नोजवान ने अविचलत रहकर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए अपने स्वाभाविक अंदाज़ में कहा, “देशभक्ति के लिए यह सर्वोच्च पुरस्कार है, और मुझे गर्व है कि मैं यह पुरस्कार पाने जा रहा हूँ। वे (ब्रटिश सरकार) सोचते हैं कि मेरे पार्थिव शरीर को नष्ट करके वे इस देश में सुरक्षित रह जायेंगे। यह उनकी भूल है। वे मुझे मार सकते हैं, लेकिन मेरे विचारों को नहीं मार सकते। वे मेरे शरीर को कुचल सकते हैं, लेकिन मेरी भावनाओं को नहीं कुचल सकेंगे। ब्रिटिश हुकूमत के सिर पर मेरे विचार उस समय तक एक अभिशाप की तरह मँडराते रहेंगे जब तक वे यहाँ से भागने के लिए मजबूर न हो जायें।”
- "It is easy to kill individuals but you cannot kill the ideas. Great empires crumbled, while the ideas sustained.
- "किसी भी व्यक्ति को मारना आसान है, परन्तु उसके विचारों को नहीं। महान साम्राज्य तबाह हो जाते हैं, जबकि उनके विचार बच जाते हैं।"
भगतसिह ने पुरजोर शब्दों में आगे कहा: “लेकिन यह तस्वीर का सिर्फ़ एक पहलू है। दूसरा पहलू भी उतना ही उज्ज्वल है। ब्रिटिश हुकूमत के लिए मरा हुआ भगतसिह जीवित भगतसिह से ज़्यादा ख़तरनाक होगा। मुझे फाँसी हो जाने के बाद मेरे क्रान्तिकारी विचारों की महक /सुगन्ध हमारे इस मनोरम देश के वातावरण में व्याप्त हो जायेगी। वह नौजवानों को मदहोश करेगी और वे आज़ादी और क्रान्ति के लिए उन्मादी/ पागल हो उठेंगे। नौजवानों का यह उन्माद ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को विनाश के कगार पर पहुँचा देगा। यह मेरा दृढ़ विश्वास है। मैं बेसब्री के साथ उस दिन का इन्तज़ार कर रहा हूँ जब मुझे देश के लिए मेरी सेवाओं और जनता के लिए मेरे प्रेम का सर्वोच्च पुरस्कार मिलेगा।”
पगड़ी-प्रकरण
आजादी के बाद हमारे देशी शासक भी भगत सिंह के विचारों से उतना ही भयभीत हैं जितना अंग्रेज थे। इसलिए भगतसिंह की भ्रांतिपूर्ण, मनगढ़ंत छवि पेश करने की साज़िश को अमलीजामा पहनाया जा रहा है। भगतसिंह पर महत्वपूर्ण शोधकार्य करने वाले प्रो. चमन लाल कहते हैं कि भगतसिंह की असल तस्वीरों को बिगाड़ने की होड़ सी मच गई है। मीडिया में बार-बार भगत सिंह को किस अनजान चित्रकार की बनाई पीली पगड़ी वाली तस्वीर में दिखाया जा रहा है।
सच तो यह है कि भगत सिंह की अब तक ज्ञात चार वास्तविक तस्वीरें ही उपलब्ध हैं। पहली तस्वीर 11 साल की उम्र में घर पर सफ़ेद कपड़ों में खिंचाई गई थी। दूसरी तस्वीर तब की है जब भगतसिंह क़रीब 16 साल के थे। उस तस्वीर में लाहौर के नेशनल कॉलेज के ड्रामा ग्रुप के सदस्य के रूप में भगत सिंह सफ़ेद पगड़ी और कुर्ता-पायजामा पहने हुए दिख रहे हैं।
तीसरी तस्वीर 1927 की है, जब भगत सिंह की उम्र क़रीब 20 साल थी। तस्वीर में भगत सिंह बिना पगड़ी के खुले बालों के साथ चारपाई पर बैठे हुए हैं। चौथी और आखिरी इंग्लिश हैट वाली तस्वीर दिल्ली में ली गई है तब भगत सिंह की उम्र 22 साल से थोड़ी ही कम थी। इनके अलावा भगत सिंह की कोई अन्य प्रामाणिक तस्वीर नहीं मिली है। उनकी उपलब्ध तस्वीरों में से इंग्लिश हैट वाली तस्वीर सबसे ज्यादा चर्चित है, जिसे फ़ोटोग्राफ़र शाम लाल ने दिल्ली के कश्मीरी गेट पर तीन अप्रैल, 1929 को खींची थी। इस बारे में शाम लाल का बयान लाहौर षडयंत्र मामले की अदालती कार्यवाही में दर्ज है।'
15 अगस्त 2008 को संसद भवन में भगत सिंह की प्रतिमा प्रतिस्थापित की गई, जिसमें उन्हें पगड़ी पहने हुए दिखाया गया है। शोधकर्ता कहते हैं कि भगत सिंह ने 1928 से 23 मार्च, 1931 को फांसी दिए जाने तक पगड़ी नहीं पहनी। वे तो अक्सर यूरोपियन स्टाइल की हैट पहनते थे। प्रो. चमनलाल तो यहां तक कहते हैं कि उन्हें हैट में ना दिखाना अक्षम्य है।
पंथ, बिरादरी, जाति को राष्ट्रीय एकता में रोड़ा मानने वाले भगतसिंह को कोई उन्हें पगड़ी पहनाकर सिख बनाने का प्रयास कर रहा है तो कोई उन्हें जाति का गौरव घोषित करने पर तुला है। हद तो यह है कि उनकी पगड़ी का रंग भी सत्ताधीश अपने मनमाफ़िक बदल रहे हैं। ये सब उनके क्रान्तिकारी विचारों पर पर्दा डालने के लिए किया जा रहा है। दुःखद तो यह है कि भगतसिंह को एक ऐसे परवाने के रूप में पेश किया जा रहा है, मानो कि उसे यह बोध न हो कि वह क्यों अपने प्राण न्योछावर कर रहा है? ये सब भगतसिंह के क्रांतिकारी विचारों को जनसामान्य से ओझल कर सामाजिक जड़ता को बनाये रखनेवाले, प्रगति और परिवर्तन के विरोधियों की साजिश नहीं तो भला और क्या है ? यह सब जनता को भगत सिंह के तार्किक विचारों से अनभिज्ञ रखने और उसे भरमाने की कुत्सित चाल है।
भगतसिंह समेत दूसरे क्रांतिकारियों पर महत्वपूर्ण किताबें लिखने वाले सुधीर विद्यार्थी कहते हैं, ‘शहीद भगत सिंह के... सिर पर पगड़ी पहनाने का प्रयास हुआ. ये सब इसलिए ताकि भगत सिंह को जाति और धर्म के खांचे में धकेल दिया जाए ताकि उनका जो पैनापन है, जो विचार उनके पास हैं, पूरे क्रांतिकारी आंदोलन में उनकी जो छवि उभरती है उसे खत्म किया जा सके।’ भगत सिंह की प्रतीकात्मक पहचान और विचारधारा से छेड़छाड़ पर चिंता जताते हुए विद्यार्थी कहते हैं, ‘जिस व्यक्ति ने खुद कहा हो कि अभी तो मैंने केवल बाल कटवाए हैं, मैं धर्मनिरपेक्ष होने और दिखने के लिए अपने शरीर से सिखी का एक-एक नक्श मिटा देना चाहता हूं, आप उसके सिर पर फिर पगड़ी रख रहे हैं...आप कितना भी प्रयास कर लें भगत सिंह के सिर पर पगड़ी रखने का, लेकिन 23 साल का वह युवा क्रांतिकारी इतना बड़ा हो गया है कि उस पर कोई पगड़ी अब फिट नहीं हो सकती।’
यह शोषकों–शासकों का आजमाया हुआ नुस्खा है कि जिन महापुरुषों के विचारों को नकारना सम्भव न हो, उनकी मूर्ति प्रतिस्थापित कर दो। मठों, मठाधीशों और आडम्बर- पाखण्ड के पुरजोर के विरोधी रहे कबीर को उनके नाम पर पंथ चलाकर उन्हें मठों में कैद कर दिया गया। महावीर और गौतम बुद्ध जो मूर्ति पूजा के विरोधी थे, उनकी मूर्तियाँ बनाकर उनकी भी पूजा होने लगी। भगत सिंह के खिलाफ भी ऐसा ही कुचक्र रचा जा रहा है। यह दु:खद और क्षोभकारी है ।
भगतसिंह का सियासिकरण
युवा वर्ग को ग़ुमराह करने के लिए आजकल सब पार्टियां भगतसिंह को अपना साबित करने के लिए बेकरार हैं। इतिहास के पन्ने जिन पार्टियों को वैचारिक या राजनीतिक तौर पर भगतसिंह के खिलाफ खड़ा करते हैं, वे ही अब उनकी विरासत के सबसे बड़े झंडाबरदार बनकर खड़े हैं। यह भगत सिंह समेत पूरे क्रांतिकारी आंदोलन का अपमान है जो आजादी के साथ समता, बंधुता और मानव मुक्ति के उद्देश्यों के साथ लड़ा गया। असली भगतसिंह कहां हैं? देश को लेकर उनके क्या विचार थे? वे कैसा भारत चाहते थे? वे कैसी राजनीति चाहते थे? इन सारे सवालों का जवाब उन लेखों और दस्तावेजों में मिल सकता है जो उन्होंने खुद लिखे हैं या जो उनसे संबंधित हैं।
पंजाब विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और इतिहासकार राजीव लोचन कहते हैं, ‘जीते-जी जिस भगत सिंह की राजनीतिक दलों ने अवहेलना की, उसे अब सब अपना कहने पर आमादा हैं। भगत सिंह जब अंग्रेज सरकार के हाथ लगे तो अखबारों ने रिपोर्ट में लिखा कि ‘समाजवादी क्रांतिकारी’ गिरफ्तार हुआ है। पर भारत के वामपंथी आमतौर पर भगतसिंह के मसले पर चुप रहना पसंद करते रहे. आखिर भगत सिंह वामपंथी पार्टी के सदस्य जो नहीं थे।'
भगतसिंह पर महत्वपूर्ण शोधकार्य करने वाले प्रो. चमन लाल कहते हैं, ‘कट्टरपंथी राष्ट्रवाद के अभियान का यह चरम है कि भगत सिंह के बारे में ज्ञात तथ्यों को भी झुठलाया जा रहा है। कुछ वर्ष पूर्व कन्हैया कुमार प्रकरण उछल रहा था तो कांग्रेस के नेता शशि थरूर ने कन्हैया कुमार की तुलना भगत सिंह से की तो प्रतिक्रिया में भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता ने यह झूठ बोलकर भगत सिंह के प्रति शिष्टाचार की सारी हदें पार कर दीं कि ‘भगत सिंह भारत माता की जय बोलकर फांसी पर चढ़े थे।’ सारी दुनिया अब तक यही जानती है कि 23 मार्च, 1931 को फांसी के दौरान भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद का नाश हो’ के नारे लगाए थे. उन्होंने ‘सरफरोशी की तमन्ना’ गाना भी गाया था... अब फर्जी राष्ट्रवादी...इतिहास को गोएबल्स की स्टाइल में उलट-पलट रहे हैं, जैसा कि हिटलर के समय किया गया था।’
'भगत' मतलब शोषित के हक़ की लड़ाई लड़ाना
‘मां, मुझे कोई शंका नहीं है कि मेरा मुल्क एक दिन आजाद हो जाएगा, पर मुझे डर है कि गोरे साहब जिन कुर्सियों को छोड़कर जाएंगे, उन पर भूरे साहबों का कब्जा हो जाएगा।’ भगत सिंह ने अपनी मां को लिखी एक चिट्ठी में यह बात कही थी। भगत सिंह ने शहीद होने से पहले अपनी जेल डायरी में एक जगह लिखते हैं, ‘शासक के लिए यही उचित है कि उसके शासन में कोई भी आदमी ठंड और भूख से पीड़ित न रहे। आदमी के पास जब जीने के मामूली साधन भी नहीं रहते, तो वह अपने नैतिक स्तर को बनाए नहीं रख सकता।’
‘जब तक कोई निचला वर्ग है, मैं उसमें ही हूं। जब तक कोई अपराधी तत्व है, मैं उसमें ही हूं। जब तक कोई जेल में कैद है, मैं आजाद नहीं हूं।’ भगत सिंह की जेल डायरी में दर्ज ऐसी तमाम पंक्तियां उनके क्रांतिकारी सपनों की तस्दीक़ करती हैं। भगत सिंह के नाम का नारा लगाने वाले ज्यादातर राजनीतिज्ञ इन सपनों के बारे में बात करने से बचते रहते हैं।
भगत सिंह की डायरी और उनके लिखे लेख गवाह हैं कि उनका सपना मजदूर, किसान, वंचित, दलित और हर पीड़ित के हक़ के लिए लड़ाई लड़ना रहा है। क्या भगत सिंह का सम्मान करने का अर्थ यह नहीं है कि उन्हें नास्तिकता, तर्कवाद और वैज्ञानिकता का झंडा बुलंद करने वाला क्रांतिकारी माना जाए और जब तक एक भी व्यक्ति शोषित है, तब तक व्यवस्था बदलने का सतत प्रयास होता रहे?
भगतसिंह पर असली दावेदारी किसकी?
भगत सिंह पर असली दावेदारी किसकी है, इस सवाल पर प्रो. चमन लाल कहते हैं, ‘भगत सिंह भारत के कामगार, मजदूर, किसान, दलित और निचले वर्ग के साथ थे। 1929 से 1931 के दौरान जब भगत सिंह के केस का ट्रायल चल रहा था, उस वक्त सभी अखबार वामपंथी और ‘समाजवादी क्रांतिकारी’ लिख रहे थे। 24 जनवरी, 1930 को वे कोर्ट में ‘लाल स्कार्फ’ पहनकर पहुंचे थे और जज से अंतरराष्ट्रीय मजदूर आंदोलन के साथ एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए सोवियत यूनियन को शुभकामना भेजने का अनुरोध किया था।’
प्रो. चमन लाल आगे कहते हैं, ‘एक वक्त पर भगत सिंह, चंद्रशेखर और उनके साथियों ने ‘वंदे मातरम’ और ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाया था, लेकिन सितंबर, 1928 में अपने संगठन के नाम में सोशलिस्ट शब्द जोड़ने के बाद ‘इंकलाब जिंदाबाद’ व ‘साम्राज्यवाद का नाश हो’ के नारे को अपनाया। 2 फरवरी, 1931 को लिखे उनके ‘युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं को पत्र’ में स्पष्ट रूप से ‘समाजवादी सिद्धांत’ को भारतीय स्वतंत्रता का रास्ता बताया है। कोई भी व्यक्ति जिसने ऐतिहासिक दस्तावेज पढ़े हैं, वह भगत सिंह के मार्क्सवादी सिद्धांत पर आधारित ‘समाजवादी क्रांतिकारी राष्ट्रवादी’ होने से इनकार नहीं कर सकता।’
भगतसिंह के विचारों की प्रासंगिकता
भगत सिंह और उनके दो साथियों राजगुरु व सुखदेव को लाहौर सेंट्रल जेल में 23 मार्च 1931 को फांसी पर लटका दिया गया। शहादत के इतने लंबे अरसे बाद भी भगतसिंह हिंदुस्तानियों के दिलों में आज भी बसे हुए हैं। भगतसिंह के विचार वर्तमान परिस्थितियों में अपनी प्रासंगिकता को प्रखर रूप से प्रकट कर रहे हैं। देश की मेहनती गरीब जनता के लिए भगतसिंह के क्रान्तिकारी विचार आज पहले से कहीं ज्यादा प्रासांगिक हो चले हैं। छद्म राष्ट्रवाद व आस्था के नाम पर पुरातन, रूढ़िवादी, संकीर्ण सोच और साम्प्रदायिक व जातीय उन्माद की तरफ़ धकेले जा रहे देश में भगतसिंह के विचारों के मर्म को समझना बेहद जरूरी हो गया है। उन्हें याद करने का सबसे सही तरीका तो यह है कि उनके विचारों को जन–जन तक पहुँचाया जाए। साथ ही उनके विचारों को व्यवहार में उतारने के लिए एकजुट होकर सार्थक प्रयास करना आज समय की माँग है।
भगतसिह का नाम मौत को चुनौती देने वाले साहस, अनूठी बहादुरी, श्रेष्ठ बलिदान, सच्ची देशभक्ति और संकल्पशीलता का प्रतीक बन गया है। उनका जीवन अनवरत संघर्ष की गाथा है। भगतसिंह की उच्च कोटि की बौद्धिकता और तर्कशक्ति से रूबरू होने के लिए विभिन्न विषयों पर उनके लेखन को पढ़ना और उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में समझना बेहद जरुरी है।
भगतसिंह का फैन होने का हक़दार कौन?
भगत सिंह के सपनों और विचारों से दूर- दूर तक कोई सम्मान या रिश्ता नहीं रखने वाली युवा पीढ़ी उनके जन्मदिन व बलिदान दिवस का उत्सवधर्मी, खोखला और पाखण्डी आयोजन कर इस शहीद-ए-आजम का सम्मान करने का ढोंग रचती है। युवा पीढ़ी भगतसिंह का सिर्फ़ नाम लेती है पर वह भगतसिंह के जोश, जुनून और जज़्बे से कोसों दूर है। ख़ुद को कम्फर्ट जोन में क़ैद करने वाली, ख़ुद को ख़ुद तक सीमित रखने वाली और मीडिया पर परोसे जा रहे प्रोपेगैंडा के जाल में फंस चुकी इस पीढ़ी में मानविकी (humanities) के अंतर्गत आने वाले विषयों के पढ़ने-समझने की प्रवृत्ति का तेज गति से ह्रास होता जा रहा है। नतीज़तन यह पीढ़ी वैचारिक दरिद्रता का शिकार होती जा रही है। भगतसिंह की वैचारिक समृद्धता, दृढ़ता, विराटता से अवगत हुए बिना तथा उनके विचारों को कर्म में रूपांतरित किए बिना किसी अवसर विशेष पर सिर्फ़ उनका नाम लेने मात्र से या फेसबुक वॉल पर उनकी डीपी लगाने से या उन जैसी मूंछे सहजने या उनके चित्र से सज्जित टीशर्ट पहन लेने से कोई ख़ुद को भगतसिंह का प्रशंसक ( फैन ) कहलाने का हक़दार नहीं हो सकता। भगतसिंह का असली दीवाना कोई ख़ुद को तभी कहलाने का हक़दार हो सकता है जब वह हर प्रकार की संकीर्णता का परित्याग कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपने जीवन में आत्मसात करे तथा हर तरह के अन्याय का पुरजोर प्रतिकार कर दमित, शोषित, प्रताड़ित वर्ग की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने में योगदान दे।
Former Principal, College Education, Raj.
संदर्भ
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