Chaudhary Heera Singh Chahar- Jansevak evm Bhjnopdeshk

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लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

चौधरी हीरासिंह चाहर

चौधरी हीरासिंह चाहर-- जनसेवक एवं भजनोपदेशक

साल 1925 में अजमेर के निकट पुष्कर में अखिल भारतीय जाट महासभा का जो जलसा हुआ, उसने राजस्थान की विभिन्न रियासतों के जाटों में जागृति पैदा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस जलसे में शामिल होकर लौटे जाटों ने अपने-अपने क्षेत्र में समाज सुधार, कुरीति निवारण व शिक्षा प्रसार के प्रयास शुरू किए। अनपढ़ समाज पर भजनोपदेशकों के गीतों का चमत्कारिक प्रभाव पड़ता है, इस बात को समझते हुए प्रचार के लिए भजनोपदेशकों की टोलियाँ तैयार की गईं। भजनोपदेशक अन्य राज्यों से भी आए थे और स्थानीय स्तर पर भी तैयार हुए।

भजनोपदेशक पंडित दत्तुराम ( डाबड़ी, त. भादरा), साथी सूरजमल (नूनिया गोठड़ा), तेजसिंह (भडुन्दा), साथी देवकरण (पलोता), स्वामी गंगाराम ( जाट कौम के दादूपंथी साधु जो तत्कालीन बीकानेर राज्य के लालपुर गांव में रहते थे), ठाकुर हुकमसिंह ( कठवारी, जिला आगरा ), ठाकुर भोलासिंह ( गाँव मगोर्रा , जिला मथुरा ), चौधरी घासीराम ( गांव बासडी, जिला झुंझुनूं ) , चौधरी पृथ्वीसिंह बेधड़क( गांव शिकोपुर, जिला मेरठ ), हुकमीचंद, मनसाराम आदि कलाकारों ने गांव-गांव को जागृतिपरक गीतों से गूंजा दिया।

ठाकुर हुकमसिंह परिहार आर्य समाज और अखिल भारतीय जाट महासभा के भजनोपदेशक और प्रचारक थे। इन्होंने अपने साथी ठाकुर भोलासिंह और अन्य साथियों के साथ उत्तर प्रदेश, संयुक्त पंजाब और राजस्थान में घूम-घूम कर अंधविश्वास, कुरीतियों का विरोध किया और संगठन, एकता , भाई चारे का प्रचार अपने भजनों के माध्यम से करके जन-जागृति का कार्य किया। 

चूरू जिले की राजगढ़ तहसील के गांव जैतपुरा के आर्यसमाजी जीवणराम जी मशहूर भजनोपदेशक थे। वह वाणी के धनी थे और हालात को देखकर समाज में बदलाव और सुधार के लिए रचनाएँ करते थे। उन्होने अपने जोशीले भजनों के माध्यम से आमजन को राजशाही, सामंतशाही व अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के खिलाफ जागृत करने तथा सामाजिक कुरीतियों के निवारण केलिए माहौल निर्मित करने का महान काम किया। चौधरी जीवणराम ने शेखावाटी व बीकानेर संभाग के लोगों में भजनों व मिसालों द्वारा शिक्षा, सामाजिक सुधार तथा छूआछूत को मिटाने के लिए जागीरी ज़ुल्म के खिलाफ काफी जन जागृति पैदा की। इससे भविष्य में जुल्मों के खिलाफ संघर्ष में काफी योगदान मिला। उन्हीं से प्रेरणा लेकर उनके पुत्र मोहरसिंह ने बीकानेर, शेखावटी और मारवाड़ क्षेत्र का दौरा कर वहां भजनों के जरिए समाज -जागृति में अपना योगदान दिया।

समाज-सुधारक चौधरी हीरासिंह चाहर

जनसेवक, समाज-सुधारक, जानेमाने भजनोपदेशक, ओजस्वी वक्ता, स्वतंत्रता सेनानी चौधरी हीरासिंह चाहर का जन्म चूरू जिले की राजगढ़ तहसील के गांव पहाड़सर में 17 जनवरी 1901 को एक सामान्य किसान परिवार में हुआ। 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात'। बालक हीरासिंह मेघावी था, रचनाधर्मी था, परिवेश और परिदृश्य पर पैनी नज़र रखने वाला था। इस बालक की सर्जनात्मक प्रवृत्ति को देखकर हर कोई कहता था कि आगे चलकर यह कुछ अच्छे कार्य करेगा, नाम रोशन करेगा और हमेशा प्रगति की राह पर बढ़ता रहेगा। बालक हीरासिंह औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर सका क्योंकि राजशाही और सामन्तशाही के उस दौर में देहात में शिक्षा का कोई बंदोबस्त नहीं था। लेकिन अनौपचारिक शिक्षा के बल पर अपनी प्रतिभा को पंख लगाने का सतत प्रयास जीवनपर्यंत किया। मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत हीरासिंह किशोरावस्था से ही अपने मन की छटपटाहट को कविताओं व भजनों के जरिए अभिव्यक्त करने लगा। लोक के मन की बात को लोक वाणी में व्यक्त करने में कमाल करने लगा।

आर्यसमाजी

किशोरावस्था से ही हीरासिंह ने प्रगतिशील सोच को आत्मसात कर लिया। समाज-जागृति ओर समाज-सुधार की ललक परवान चढ़ने लगी। इसलिए 15 वर्ष की उम्र में ही आर्य समाजी संस्कार अपनाकर रूढ़िवाद के खिलाफ खड़े हो गए। धर्म के नाम पर पनप रहे पाखंड, अंधविश्वास पर करारी चोट करने लगे।

जवानी की दलहीज पर कदम रखते ही हीरासिंह जीविकोपार्जन की जुगत में सन 1920 में लाहौर जा पहुंचे। वहां उन्होंने एक बर्फ फैक्टरी का कारोबार शुरू किया। उस दौरान वहां वह आर्य समाज के विद्वानों व अनेक राजनेताओं के संपर्क में आए। लाहौर में जानेमाने आर्यसमाजी भीमसेन खन्ना ने हीरासिंह को भजनोपदेशक बनने के लिए प्रेरित किया और उनका मार्गदर्शन भी किया। सामाजिक शिक्षा में पारंगत होकर चौधरी हीरासिंह प्रगतिवादी कवि और भजनोपदेशक बन गए। वह असली अर्थों में लोकधर्मी और क्रान्तिधर्मी कवि थे। लेकिन उतने ही रचनाधर्मी भी। बग़ावती तेवर अपनाते हुए शोषकों के खिलाफ़ आग उगलने वाली कविताओं की रचना करने लगे। उनकी एक कविता की पंक्तियां ये हैं--

"आग लगी है इस दिल में, दुनिया में आग लगाने दो। नंगे जलते पैरों से, इस भूतल पर राख़ बिछाने दो॥ इन नौ खंडों महलों के नीचे, मुझे कुटिया एक बनाने दो।सदियों से सोईं हुई शक्ति की अब तो ज्योति जलाने दो॥"

स्वतंत्रता सेनानी

युवा हीरासिंह ने राजाओं, जागीरदारों और अंग्रेज सरकार के तिहरे शोषण के शिकार किसान वर्ग को मुक्त कराने में अपनी भागीदारी निभाने के मन्तव्य से साल 1930 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में शिरकत की। रियासतों में राजशाही और अंग्रेज सरकार की दुरभिसंधि से स्थापित सत्ता को उखाड़ फेंकने में अपना योगदान देने के इरादे को क्रियान्वित करने हेतु वह अपने गांव पहाड़सर आ गए। आज़ादी का अलख जगाने और समाज-सुधार का काम जोरशोर से करने लगे। आज़ादी के लिए उठने वाली हर आवाज़ को कुचलने को तत्पर रहने वाले बीकानेर रियासत के तत्कालीन नरेश महाराजा गंगासिंह ने चौधरी हीरासिंह को बीकानेर रियासत से निकालने का आदेश दे दिया। झुकने की बजाय हीरासिंह ने अपना कर्म-स्थल पहले शेखावाटी और बाद में मारवाड़ को बना लिया।

चौधरी हीरासिंह ने अपनी ओजपूर्ण कविताओं, भजनों व भाषणों द्वारा राजस्थान, संयुक्त पंजाब व दिल्ली के देहाती इलाकों समाज-जागृति और समाज -सुधार का मार्ग प्रशस्त करने तथा किसानों के साथ सामंतों द्वारा किए जा रहे अन्याय व अत्याचार का पुरजोर विरोध करने में विशिष्ट योगदान दिया।

मारवाड़ में समाज-जागृति के कार्य

शुरुआत में चौधरी हीरासिंह ने पंडित दत्तुराम के साथ सीकर जाट महायज्ञ ( 20 जनवरी से 26 जनवरी 1934 )  को सफल बनाने के लिए काम किया। उसके चार- पांच साल बाद मारवाड़ उनकी कर्म-स्थली बन गया। मारवाड़ में जाट बोर्डिंग और जाट सभा तथा किसान सभा से जुड़कर समाज-जागृति और समाज-सुधार का काम पुरजोर तरीके से करने लगे। ठाकुर देशराज अपनी पुस्तक 'रियासती भारत के जाट जनसेवक' ( 1949 ) में लिखते हैं-- "भजनोपदेशकों में चौधरी हीरासिंह जी व पंडित दत्तुराम जी ने बड़ी ही दिलचस्पी से चौधरी मूलचन्द सियाग (1887 - 1978) के साथ काम किया और गांव- गांव में विद्या प्रचार व कुरीति निवारण का संदेश पहुंचाया।"

मारवाड़ में किसान सभा के झंडे तले किसानों के हक़ के लिए आंदोलन करने वाले नेतागण और समाजसेवियों चौधरी बलदेव राम मिर्धा, चौधरी मूलचंद सिहाग, बाबू गुल्ला राम, चौधरी शिवकरण आर्य नागौर, वकील लिखमाराम, वकील हरिराम बगड़िया, वकील हेमसिंह कामरेड नागौर, नाथूराम मिर्धा, परसराम मदेरणा, रामनिवास मिर्धा, रामदान डूकिया बाड़मेर आदि के साथ चौधरी हीरासिंह ने कंधे से कंधा मिलकर किसान शक्ति को जागृत करने का काम पूरे दमखम से किया। मारवाड़ जाट समाज व किसान सभा के कर्णधारों के साथ चौधरी हीरासिंह का बेहतरीन सामंजस्य कायम रहा। मारवाड़ का देहाती समाज चौधरी हीरासिंह द्वारा गाए जाने वाले शिक्षप्रद भजनों का दीवाना बन गया। ओजस्वी वाणी में उनके भाषण अत्यंत प्रभावी होते थे। वह अपनी धारदार कलम व खनकती आवाज में समाज-सुधार व कुरीति निवारण की आवश्यकता पर बल देते थे और जागीरदारों के ज़ुल्मो के विरुद्ध आग उगलते थे।

संयुक्त पंजाब के प्रसिद्ध किसान नेता चौधरी छोटूराम के जोधपुर आगमन पर आयोजित किए गए सम्मेलन का मंच संचालन चौधरी हीरासिंह ने शानदार ढंग से करते हुए ख़ूब प्रशंसा बटोरी थी। मारवाड़ में समाज- सुधार के लिए आयोजित बैठकों में प्रभावी उद्बोधन देना, समाज के उत्थान में शिक्षा के महत्त्व का प्रचार- प्रसार करना , बोर्डिंग हाउस की स्थापना हेतु गांव-ढाणी में जाकर चंदा इकट्ठा करना, किसानों को नए जमाने की जरूरतों के प्रति जागरूक करना आदि कार्यों में चौधरी हीरासिंह का उल्लेखनीय योगदान रहा है।

यह वह दौर था जब गांवों के रास्ते दुर्गम थे। संचार के साधन थे नहीं। आवागमन के साधन भी आसानी से सुलभ नहीं होते थे। पैदल, बैलगाड़ी या ऊंट पर सवार होकर ही गांव-ढाणियों तक पहुंचा जा सकता था। रास्ते में कई बार जागीरदारों के गुंडों, कारिंदों एवं डाकुओं का सामना भी करना पड़ता था। हर कदम पर संघर्ष करना पड़ता था। समाज- जागृति की राह में हर ओर अड़चने ही अड़चने थीं। पर उस दौर के जनसेवक लगनशील और परिश्रमी ऐसे थे कि चुनी हुई राह पर आगे बढ़ते ही रहे। संकटों से डटकर मुकाबला किया और अंततः जीत हासिल की।

चौधरी हीरासिंह के प्रेरक भजन और कविताएं सामाजिक कुरीतियों का त्याग करने की सीख देने वाली होती थीं। किसानों को हर चुनौती का डटकर मुकाबला करने की हिम्मत बढ़ाने और सामंती उत्पीड़न के दौर में मनोबल बढ़ाने में सहायक सिद्ध होती थीं। सुनहरे भविष्य की आमद का संदेश देने वाली होती थीं।

राजस्थान के प्रसिद्ध नागौर पशु मेले में हर वर्ष मंच संचालन का दायित्व चौधरी हीरासिंह संभालते रहे। साल-दर-साल 40 साल तक इस मेले में मंच-संचालन करने का उनके द्वारा बनाया गया रिकॉर्ड अभी तक क़ायम है। मेला अब भी हर साल भरता है लेकिन मंच पर चौधरी हीरासिंह की अनुपस्थिति मारवाड़ के बुजुर्गों को भावविह्वल कर देती है। चौधरी हीरासिंह ऐसे ओजस्वी वक्ता और जोशीला भजनोपदेशक थे कि भीड़ को घंटों बांधे रखने का महारत हासिल था। मंच पर पहुंचते ही उस समय के हालात के अनुरूप भजनों और चुटीली बातों का शमा बांध देते थे। तालियों की गड़गड़ाहट से सभा-स्थल गुंजायमान हो उठता था। श्रोता जोश से झूम उठते थे। मारवाड़ के बुजुर्ग आज भी चौधरी हीरासिंह द्वारा किए गए मंच-संचालन और उनकी शिक्षाप्रद बातों को प्रशंसा के सुर में याद करते हैं।

डाबड़ा कांड के चश्मदीद गवाह

13 मार्च 1947 को डीडवाना परगने में स्थित डाबड़ा गांव में आयोजित होने वाले किसान सम्मेलन में चौधरी हीरासिंह चश्मदीद गवाह के रूप में उपस्थित थे। वह अपने साथियों के साथ जीप से डाबड़ा पहुंचे थे। जागीरदारों और उनके सशत्र गुंडों ने निहत्थे किसानों पर धावा बोल दिया जिसमें पांच किसान मौके पर ही शहीद हो गए थे। चौधरी हीरासिंह और उनके साथियों की दिलेरी के बदौलत ही पाँचों शहीदों का सामूहिक दाह संस्कार हो सका था। उन्होंने घायलों को मौलासर (डीडवाना) व जोधपुर के अस्पताल पहुंचाकर समुचित इलाज का इंतजाम करवाया। चौधरी हीरासिंह ने मारवाड़ में किसानों की बदहाली का शब्द-चित्र प्रस्तुत करते हुए और वीर योद्धाओं को श्रद्धा के शब्द अर्पित करते हुए ये पंक्तियाँ कही थीं - "मैंने देखी हैं मारवाड़ के कृषकों के कर में हथकड़ियाँ।उनके आंगन में देखी है चंद जली- बुझी सी फुलझड़ियां।कुछ फूल खिले पर महक न सके वे कुछ ही घड़ियां।जागीरों के साए में जुड़ती रही जुल्म की कड़ियां।

तब हीरासिंह दहाड़ उठा –

जागीरों में जगे किसान, अब जीत होगी कृषकों की, आज नहीं तो कल सही, बात कही मैंने परसों की।"

चौधरी हीरासिंह संकटों का दबाव सहते हुए 'हीरा' बनकर अपनी आभा से समाज को लाभान्वित किया। उनकी दो पुस्तकें 'पाखंड कतरनी' (1935) व 'भजन किसान खंड 2' ( 1947) बेहद चर्चित रही हैं।

आज़ादी के बाद चौधरी हीरासिंह सक्रिय राजनीति से दूर रहते हुए एक समर्पित जनसेवक के रूप में समाज-सुधार के कार्यों को गति प्रदान करते रहे। उन्होंने स्वस्थ, सफल, सुदीर्घ और श्रेष्ठ जीवन जीया। 'सादा जीवन उच्च विचार' के सिद्धांत को जीवन में उतारने वाले, स्पष्टवादी, मिलनसार, लगनशील परिश्रमी चौधरी हीरासिंह का करीब 93 वर्ष की उम्र में 30 जून 1993 को उनका देहांत हो गया।

सम्मान

चौधरी हीरासिंह को स्वतंत्रता संग्राम और राजस्थान के रियासती आंदोलन एवं सामंती उत्पीड़न के मुक्ति संघर्षों में सक्रिय योगदान, त्याग और बलिदान के लिए उनके मरणोपरांत ताम्र पत्र 2 अक्टूबर 1987 को राजस्थान के मुख्यमंत्री ने भेंट किया।

चौधरी हीरासिंह चाहर निवासी पहाड़सर (राजगढ़) को भजनोपदेशक के रूप में मारवाड़ क्षेत्र में समाज-जागृति और समाज- सुधार में सक्रिय योगदान के लिए उनके मरणोपरांत जाट कीर्ति संस्थान, चूरू द्वारा 31 अगस्त 2017 को ग्रामीण किसान छात्रावास, रतनगढ में सम्मान प्रदान किया गया।

यह भी देखें

संदर्भ

1. ठाकुर देशराज ( संपादक ),  रियासती भारत के जाट जन सेवक ( 1949) पृष्ठ 154-155 2. जाट कीर्ति संस्थान, चूरू द्वारा प्रकाशित उद्देश्य-2, जून-2013 के पृष्ठ 104-105 पर चौधरी हीरासिंह चाहर के बारे में प्रकाशित लेख, लेखक ओंकार सिंह चाहर


✍️✍️ एच. आर. ईसराण पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान