Gandharvanagara
Author:Laxman Burdak, IFS (R) |
Gandharvanagara (गंधर्व-नगर) is a city mentioned in Ramayana and Mahabharata.
Origin
Variants
- Gandharvanagara (गंधर्व-नगर) (AS, p.268)
History
In Mahabharata
Gandharvanagara (गन्धर्वनगर) in Mahabharata (XIII.26.28)
Gandhatarika (गन्धतारिक) (T) (XIII.26.29)
Anusasana Parva/Book XIII Chapter 26 mentions the sacred waters on the earth. Gandharvanagara (गन्धर्वनगर) in Mahabharata (XIII.26.28).[1]......By repairing to the retreat that is known by the name of Shyamaya and residing there for a fortnight and bathing in the sacred water that exists there, one acquires the power of disappearing at will (and enjoy the happiness that has been ordained for the Gandharvas) Gandhatarika (गन्धतारिक).
गंधर्व नगर
विजयेन्द्र कुमार माथुर[2] ने लेख किया है ...गंधर्व नगर (AS, p.268) का संस्कृत साहित्य में अनेक स्थानों पर उल्लेख मिलता है। वाल्मीकि रामायण सुंदरकांड 2, 49 में लंका के सुंदर स्वर्ण-प्रसादों की तुलना गंधर्व नगर से की गई है- 'प्रासादमालाविततां स्तंभकांचनसनिभै:, शातकुंभनिभैर्जालैगंधर्वनगरोपमाम्।'
महाभारत, आदिपर्व 126, 25 में शतश्रंग पर्वत पर महाराज पांडु की मृत्यु के पश्चात् कुंती तथा पांडवों को हस्तिनापुर तक पहुँचाकर एकाएक अंतर्धान हो जाने वाले ऋषियों की उपमा गंधर्व नगर में इस प्रकार दी
[p.269]: गई है- 'गंधर्वनगराकारं तथैवांहिंतंपुन:।' अर्थात् "वे ऋषि फिर गंधर्व नगर के समान वहीं एकाएक तिरोहित हो गए।"
इसी महाकाव्य में वर्णित है कि उत्तरी हिमालय के प्रदेश में अर्जुन ने गंधर्व नगर को देखा था, जो कभी तो भूमि के नीचे गिरता था, कभी पुन: वायु में स्थित हो जाता था। कभी वक्रगति से चलता हुआ प्रतीत होता था, तो कभी जल में डूब-सा जाता था- 'अन्तर्भूमौ निपतति पुनरूर्ध्व प्रतिष्ठते, पुनस्तिर्यक् प्रयात्याशु पुनरप्सु निमज्जति।' वनपर्व 173, 27.
पाणिनि ने अपने 'अष्टाध्यायी' के 4, 13 सूत्र में 'गंधर्व नगर यथा’ यह वाक्याशं लिखा है, जिसकी व्याख्या में महाभाष्यकार पतंजलि कहते हैं- 'यथा गंधर्वनगराणि दूरतो दृश्यन्ते उपसृत्य च नोपलभ्यन्ते।' अर्थात् "जिस प्रकार गंधर्व नगर दूर से दिखलाई देते हैं, किंतु पास जाने पर नहीं मिलते...।'
इसी प्रकार 'श्रीमद्भागवत' में भी कहा गया है कि संसार की अटवी में मोक्षमार्ग से भटके हुए मनुष्य क्षणिक सुखों के मिलने की भ्रांति इसी प्रकार होती है, जैसे गंधर्व नगर को देखकर पथिक समझता है कि वह नगर के पास तक पहुंच गया है, किंतु तत्काल ही उसका यह भ्रम दूर हो जाता है- 'नरलोक गंधर्वनगरमुपपन्नमिति मिथ्या दृष्टिरनुपश्यति।'श्रीमद्भागवत 5, 14, 5.
वराहमिहिर ने अपने प्रसिद्ध ज्योतिषग्रंथ 'वृहत्संहिता' में तो गंधर्व नगर के दर्शन के फलादेश पर गंधर्व नगर लक्षणाध्याय नामक (36वाँ) अध्याय ही लिखा है, जिसका कुछ अंश इस प्रकार है- "आकाश में उत्तर की ओर दीखने वाला नगर पुरोहित, राजा, सेनापति, युवराज आदि के लिए अशुभ होता है। इसी प्रकार यदि यह दृश्य श्वेत, पीत, या कृष्ण वर्ण का हो तो ब्राह्मणों आदि के लिए अशुभ-सूचक होता है। यदि आकाश मे पताका, ध्वजा, तोरण आदि से संयुक्त बहुरंगी नगर दिखाई दे तो पृथ्वी भयानक युद्ध में हाथियों, घोड़ों और मनुष्यों के रक्त से प्लावित हो जायेगी।
इसी प्रकार 30वें अध्याय में भी शकुन-विचार के विषयों में गंधर्व नगर को भी सम्मिलित किया गया है-'मृग यथा शकुनिपवन परिवेष परिधि परिध्राम वृक्षसुरचापै: गंधर्वनगर रविकर दंड रज: स्नेह वर्णनश्च।'वृहत्संहिता 30, 2.
वास्तव में गंधर्व नगर, नगर नहीं है। यह तो एक प्रकार की मरीचिका है, जो गर्म या ठंडे मरुस्थलों में, चौड़ी झीलों के किनारों पर, बर्फीले मैदानों में या समुद्र तट पर कभी-कभी दिखाई देती है। इसकी विशेषता यह है कि मकान, वृक्ष या कभी-कभी संपूर्ण नगर ही, वायु की विभिन्न घनताओं की परिस्थिति उत्पन्न होने पर अपने स्थान से कहीं दूर हटकर वायु में अधर तैरता हुआ नजर आता है; जितना उसके पास जाएँ, वह [p.270]: पीछे हटता हुआ कुछ दूर जाकर लुप्त हो जाता है। यह कितने अचरज की बात है कि यद्यपि भारत में इस मरिचिका के दर्शन दुर्लभ ही हैं, फिर भी संस्कृत साहित्य में इसका वर्णन अनेक स्थानों पर है। यह तथ्य इस बात क सूचक है कि प्राचीन भारत के पर्यटकों ने इस दृश्य को उत्तरी हिमालय के हिममंडित प्रदेशों में कहीं देखा होगा, नहीं तो हमारे साहित्य में इसका वर्णन क्योंकर होता।
External links
References
- ↑ श्यामायास तव आश्रमं गत्वा उष्य चैवाभिषिच्य च, तरींस तरिरात्रान स संधाय गन्धर्वनगरे वसेत (XIII.26.28); रमण्यां च उपस्पृश्य तथा वै गन्धतारिके, एकमासं निराहारस तव अन्तर्धानफलं लभेत (XIII.26.29)
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.268-270