Jat Itihas (Utpatti Aur Gaurav Khand)/Pratham Parichhed

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जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खंड), 1937, लेखक: ठाकुर देशराज

जाट इतिहास

प्रथम परिच्छेद

संख्या और विस्तार

कर्नल टॉड और जनरल कनिंघम का मत

[पृ.1]
"जिन जाट वीरों के प्रचंड पराक्रम से एक समय सारा संसार कांप गया था। आज उनके वंशधर गण राजपूताना और पंजाब में खेती करके अपना गुजर करते हैं।"

यह शब्द हैं जो कर्नल टॉड ने महान जाट जाति के पूर्व-गौरव के संबंध में कहे हैं। आगे वह फिर कहते हैं कि

"अब इनको देखकर अनायास ही यह विश्वास नहीं होता है कि ये (खेतीहर) जाट उन्हीं प्रचंड वीरों (जिन्होंने एक दिन आधे एशिया और यूरोप को हिला दिया था) के वंशज हैं।"

इसी बात को पर्शियन हिस्ट्री के लेखक जनरल कनिंघम ने इस प्रकार कहा है,

"एक समय की महान पराक्रमी जाट जाति ही रणजीत सिंह के समय में समस्त पंजाब की अधिकारिणी थी।..... यह जाति बहुत बड़ी संख्या में थी। ..... जाट लोग एक और राजपूतों के साथ और दूसरी और अफगानों के साथ मिल गए हैं। किंतु यह छोटी-छोटी जाट जाति की शाखा संप्रदाय पूर्व अंचल के राजपूत और

[पृ.2]
पश्चिम अंचल के 'अफगान और बलूची' के नाम से अभिहित हैं। अन्यान्य जातियों की वंशावली की आलोचना करने से निसंदेह प्रमाणित होता है कि वह लोग भी अफगान या राजपूत या जाट जाति के अंतर्भुक है।"

कनिंघम साहब के इस कथन का अर्थ है कि एक समय जाटों की संख्या बहुत अधिक थी। उनमें से कुछ तो राजपूतों में मिल गए अर्थात राजपूत बन गए और कुछ अफगान और बिलोच कहलाने लगे। यही क्यों भारत की अन्यान्य जातियों की उत्पत्ति संबंधी इतिहास पर विचार करें तो उनमें से भी अनेकों जाटों में से ही निकली हुई साबित होंगी। इस तरह कर्नल टॉड के शब्दों में जहां जाटों की राजनीतिक हानि हुई है। वहां कनिंघम के शब्दों में उनकी सामाजिक (जनसंख्या संबंधी) काफी हानि हुई है।

जाटों की प्राचीन आबादी और विस्तार

जाटों की आबादी और विस्तार

जाटों की प्राचीन आबादी और विस्तार के लिए हम कह सकते हैं कि उसका परिमाण अबसे कई गुना था। आज जाट (सिख जाटों समेत) केवल 96 लाख के लगभग हैं। किंतु ईसा की चौथी सदी पूर्व से लगाकर पांचवी सदी तक उनकी संख्या और विस्तार आज की अपेक्षा 5 गुना था। शासक दृष्टि से तो उन्होंने गंगा, जगजार्टिस और राइन नदी के बीच के समस्त देशों को मजार डाला था। किंतु अधिवासी और नागरिक की दृष्टि से उनके देश की सीमा उत्तर में हूणदेश अर्थात उत्तरी तुर्किस्तान, दक्षिण में नर्मदा नदी, पूर्व में मानसरोवर और पश्चिम में वह सारा देश था जो बाना, कृमि


[पृ.3]: और कुभा नदियों से सींचा जाता रहा है। इस विस्तृत प्रदेश में वह गंगा-यमुना के दुआब में इटावा तक सतलुज और सिंध के (मुहाने से संगम तक के) समस्त मध्य हिस्से में और कुभा और कृमि नदियों के बीच के प्रदेश पर लगभग एक हजार वर्ष तक उतनी ही घनी तादाद में रहे हैं, जितने में कि इस समय मथुरा, मेरठ और रोहतक के जिलों में अथवा शेखावाटी और जांगल प्रदेशों में रहते हैं।

जाटों का ह्नास क्यों और कैसे हुआ

प्रश्न हो सकता है कि इतनी बड़ी और बहादुर जाति का आखिर इतना ह्नास क्यों और कैसे हो गया। इसके लिए हम इतना ही कहेंगे की आंधी के आगे जिस भांति वृक्षों की पेश नहीं जाती है, उसी भांति क्रांति के तूफान के सामने राज्य और जातियों का भी वश चलना कठिन हो जाता है। फिर क्रांति कैसी ही हो, धार्मिक चाहे राजनीतिक, पुरातन को धक्का देकर ही जाती है।* जाट जाति को धार्मिक और राजनीतिक दोनों तरह की क्रांतियों का सामना करना पड़ा है। यद्यपि जाट एक राजनीतिक संस्था है। राजनैतिक कारणों से उसकी स्थापना हुई थी जैसा कि आगे के अध्ययन में दिए हुए विवरण से समझ में आ जाएगा। फिर भी उसे धार्मिक संघर्षों में भी काफी जूझना पड़ा है। राजनीतिक सम्बन्धों


* क्रांति के समय यदि कोई जाति या राज्य-शक्ति अपना अस्तित्व सुरक्षित रखना चाहती हो तो, (1) या तो उसे क्रांति के सामने झुक जाना चाहिए। अथवा क्रांतिकारियों के ध्येय से अधिक लाभदायक अपने उदेश्य बना लेने चाहिए।


स्कंधनाभ

[पृ.4]: के कारण जहां उसके कई बड़े-बड़े समूहों को अपनी मातृभूमि से बाहर जाना पड़ा वहां धार्मिक संघर्षों ने उनके कई समूहों को भारत की ओर खदेड़ दिया। राजनीतिक संघर्षों से जहां उन्हें जेता, शासक और कभी विजित और शासित की उपाधियां प्राप्त हुई तथा घर छोड़ बाहर मंगल करने का दुर्भाग्य और सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वहां धार्मिक संघर्षों उन्हें उन्हें व्रात्य, देववंशी, सिथियन, यादव, शूद्र और सरदार की प्रिय और प्रिय पदवियों से विभूषित किया,* किंतु सबसे ज्यादा हानि उन्हें धार्मिक संघर्षों में संख्या कम होने की हुई। यूरोप में जितना भी समूह उनका रह गया उसे ईसाइयत निकल गई। जटलैंड तो निरा जाटों का था। स्कंधनाभ (नार्वे-स्वीडन) जर्मनी और स्पेन में भी उनकी कम संख्या नहीं थी। ईसाई धर्म से त्राण पाने के लिए अनेक जत्थे भारत की ओर लौटे भी जिनमें कास्पियन सागर के पास 'ढे' और 'दहाए' अधिक मशहूर हैं। अरब, ईरान, अफगानिस्तान और बलूचिस्तान के


* पौराणिकों ने उनके कई खानदान, नाग, तक्षक, मौर्य आदि को व्रात नाम से ही पुकारा है। यही क्यों भगवान कृष्ण के पालक पिता नंद को भी क्षत्रीय मानने से इनकार कर दिया है। बौद्ध लोग मौर्य नरेश और कनिष्क आदि को देवप्रिय, देव-वश संभूत आदि नामों से पुकारते थे। आधुनिक काल के इतिहासकारों में कुछ उन्हें सीथियन और कुछ यादव वंशी मानते हैं। अनुदार ब्राह्मण अप्रकट रूप से उन्हें शूद्र कह डालते हैं। सिक्खो में वे सरदार कहे जाते हैं।


[पृ.5]: जाटों को इस्लाम ने अपने उदर में रख लिया। गजनी, हिरात, कंधार और बान प्रदेश से अनेकों खानदान धर्म रक्षा के निमित्त भारत में वापस भी आ गए। जिनमें से भाटी, मलिक, गंथवारा, बाना आदि के नाम हमें याद है। किंतु इस्लाम ने उनका पीछा भारत में भी नहीं छोड़ा। डेराजाट, पेशावर और सिंध के समस्त जाटों को इस अजगर के पेट में जाना ही पड़ा।

इन विदेशी धर्मों की भांति ही भारत के धर्म-संप्रदायों ने जाटों की संख्या को न घटाया हो सो बात नहीं है। कर्नल कनिंघम के इस कथन में तथ्य है कि

"जाटों का कुछ हिस्सा पूर्व अंचल के राजपूतों में मिल गया।"

हम देखते हैं कई खानदान जो 2-4 सदी पहले जाट थे आज या तो कतई रूप से या किसी अंश में राजपूत हैं। ऐसे अनेकों खानदानों का जिक्र हम आगे के पृष्ठों पर करेंगे। यहां इतना कह देना ही काफी होगा कि परमार आबु यज्ञ के दीक्षा संस्कार से पहले अधिकांश में जाट जत्थे में शामिल थे। बौद्ध काल में तो एक प्रकार से जाटों का राजनीतिक संगठन ढीला पड़ा था किंतु ब्राह्मण काल में जो कि बौद्ध काल के बाद आरंभ होता है उन्हें बहुत कुछ सामाजिक हानि उठानी पड़ी। ब्राह्मण लोग उनसे कितना द्वेश करते थे इसका पता चचनामा के पढ़ने से चल जाता है। चच के लड़के दाहिर के राज्य में और फिर मुस्लिम विजेता कासिम के उत्तराधिकारी के शासन में ब्राह्मणों की अनुमति से उन्हें जो सामाजिक


[पृ.6]:दंड भुगतना पढ़ा था। उसे याद करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं।* सिख संप्रदाय में यद्यपि उनमें शौर्य और वीरता की वृद्धि हुई है फिर भी वह अपनी जाति से एक प्रकार अलग से ही जान पड़ते हैं। अनेकों छोटे-छोटे अन्य भी धर्म-संप्रदायों ने उनकी जातीयता और संख्या को घटाया है। विश्नोई, उदासी, वैरागी, राधास्वामी, दादू और कबीर प्रभृति मतों में भी वे कई हजार की संख्या में दीक्षित हो गए। हां हम यह कहना भूल गए कि जैन धर्म ने तो उनके कई खानदानों को क्षत्रिय से वैश्य बना दिया है। वे ज्ञातृ लोग कहां गए जिनमें भगवान महावीर स्वयं पैदा हुए थे। आर्य समाजने उनमें बौद्धिक विकास को उत्तेजन अवश्य दिया है, किंतु क्या यह कहा जा सकता है कि उससे जातीयता को धक्का नहीं लगा। अथवा संख्या में न्यूनता नहीं हुई है। पिछली मर्दुम-शुमारी में हजारों जाटों ने अपने को आर्य लिखा था। हमारा तो ख्याल है कि इन धर्म संप्रदायों से जाटों की जत्था बनाने की नीति को धक्का ही नहीं लगा किंतु उनके अंदर से कौमी संगठन की भावना भी नष्टप्राय हो गई।

स्वहित में संगठन का अभाव

यही कारण है कि वह पिछले 6-7 शताब्दियों से बजाए अपने हित के दूसरों के हित के लिए अपनी शक्ति और योग्यता को व्यय करते रहे हैं। कभी भी पृथ्वीराज के साथ सहायक के रूप में


* वे घोड़े पर जीन रखकर नहीं चढ़ सकते थे। तलवार बांधना बंद था। शोभनीय वस्त्र धारण नहीं कर सकते थे। आदि-आदि


[पृ.7]: दिखाई देते हैं तो कभी रजिया की मदद करने पहुंचते हैं। वे मराठों और राजपूतों के भी कम काम नहीं आये। बीकानेर के गोदारों ने राठौड़ राजपूतों को दूसरे लोगों के हराने में ही मदद नहीं दी किंतु अपने कई जाट राज्यों को भी नष्ट करा दिया। ग्वालियर का इतना बड़ा राज्य किनके बल पर खड़ा हुआ है। वहां की सैंकड़ों ध्वस्त जाट गढ़ियां इस बात की साक्षी हैं? अंग्रेजों को जर्मनी जिताने में भी उन्होंने कम खून नहीं बनाया किंतु अपने हित के लिए पिछले कई शताब्दियों से वे संगठित नहीं हुए।

यही कारण है कि प्रचण्ड पराक्रम रखने वाली इस महान जाति का इतना दयनीय ह्नाश हो गया जिनके लिए एक परदेसी किन्तु सहृदय पुरुष (कर्नल टाड) को यह कहना पड़ा कि "

अनायास ही यह ख्याल नहीं हो सकता कि पंजाब और राजपूताने में खेती पर निर्वाह करने वाले यह जाट उन्ही प्रचंड पराक्रमी विजेता जाटों की संतान हैं जिनके प्रताप से एक बार सारा संसार हिल गया था"

प्रथम परिच्छेद समाप्त

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