Shekhawati Ke Gandhi Amar Shahid Karni Ram/Harijanoddhar Ke Prabal Stambh Bhai Karni Ram
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पुस्तक: शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम
लेखक: रामेश्वरसिंह, प्रथम संस्करण: 2 अक्टूबर, 1984उन दिनों मैं बिरला कॉलेज पिलानी में पढ़ता था, शेखावाटी के किसानों में शिक्षा के प्रति जागरूकता शुरू ही हुई थी। उन दिनों यदि किसान का बेटा स्नातक अथवा विधि स्नातक की डिग्री प्राप्त कर लेता तो पूरी शेखावाटी में उसके नाम की चर्चा होने लगती थी।
उस समय श्री करणीराम विधि स्नातक की डिग्री लेकर आये थे। झुंझुनू में उन्होंने वकालत का धन्धा शुरू किया,वैसे तो और भी कई वकील थे,लेकिन श्री करणीराम की बुद्धिमता,सरल स्वभाव, एवं सत्यवादिता ने उन्हें थोड़े ही समय में लोकप्रिय बना दिया। हालाँकि श्री करणीराम मेरे ही गाँव में पैदा हुए थे तथा दो तीन पीढ़ी के अन्तर से मेरे भाई होते थे लेकिन शिक्षा ग्रहण के दौरान उनसे सम्पर्क नहीं बन पाया था।
शेखावाटी में किसानों में शैक्षणिक जागृति के साथ-साथ राजनैतिक जागृति भी काफी फैल चुकी थी। कोई भी पढ़ालिखा युवक बीसवीं सदी के पूर्वार्ध से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। श्री करणीराम भी अपने वकालत के जीवन में राजनैतिक गतिविधियों से जुड़ गये। मेरे पिताजी चौधरी थानीराम प्रजामण्डल के समय से ही आजादी की लड़ाई में शामिल हो चुके थे। श्री करणीराम से उनका राजनैतिक लगाव काफी था। परिवार में जब भी राजनैतिक विषयों पर चर्चा होती तो श्री करणीराम के नाम की चर्चा जरूर होती।
पुरानी यादों के बीच जिस बात ने मुझे करणीराम के बारे में पहले-पहले
प्रभावित किया,यह मेरे कनिष्ट भ्राता रामेश्वर सिंह जो एक आई. ए. एस. अधिकारी हैं कि शादी से संबंधित थी। मेरे पिताजी चाहते थे कि रामेश्वर सिंह का संबंध ग्राम अजाड़ी के चौधरी मुनाराम के परिवार से हो जाये।
श्री करणीराम चौधरी मुनाराम के भांजे थे। उनका भी यह प्रयास था कि यह संबंध हो जाना उचित रहेगा। इसी सिलसिले में रामेश्वर सिंह के बड़े भाई के नाते उसके पक्ष को स्पष्ट करने की दृष्टि से मुझे श्री करणीराम से कई बार मिलना पड़ा था।
एक बार शाम के समय में एवं रामेश्वर सिंह दोनों ही झुंझुनू स्थित श्री करणीराम के मकान पर बैठे थे। हमारे साथ ही उन्होंने खाना खाया। खाना खाते समय हमें उन्होंने बतलाया कि उनका खाना बनाने वाला आदमी जाति से हरिजन है। वे उससे खाना विशेष तौर से इसलिए बनवाते हैं कि समाज में हरिजनों के प्रति फैली हुई छुआ-छूत की भावना को रोका जा सके।
यों तो हरिजन उत्थान का कार्यक्रम कांग्रेस का प्रमुख कार्यो में से एक था परन्तु बड़े बड़े राजनेताओं ने उसे अभी तक अपने परिवार व जीवन में नहीं उतारा था, कम से कम झुंझुनू जिले में तो श्री करणीराम ही ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने हरिजन के हाथ का बनाया हुआ खाना ग्रहण करना प्रारम्भ किया।
खाते समय उन्होंने एक कटोरे में दूध पीना शुरू किया कुछ देर तो मैं देखता रहा पर अन्त में जिज्ञासा वश पूछ ही लिया कि आप दूध को पी क्यों नहीं लेते। उनका जो उतर था वह मुझे आज भी याद है। उन्होंने बतलाया कि खाने में हमेशा रोठियों को पीना चाहिये और दूध को चबाना चाहिए। उनका यह मंत्र मुझे स्वास्थ्य संबंधी अनेकों पुस्तकों में बाद में पढ़ने को मिला।
श्री करणीराम के पास मैंने देखा कि उनके घर प्रतिदिन बीस-बीस आदमियों का खाना बनता था। खाने वाले लोग या तो उनके मुवक्किल होते थे या राजनैतिक कार्यकर्ता। वकालत में बहुत अधिक आय न होते हुए भी वे अपने ऊपर न्यूनतम खर्च करते थे परन्तु उनके घर आये हुए व्यक्ति को बिना खाना खिलाये नहीं जाने देते थे। मुझे पिताजी बताया करते थे कि श्री करणीराम के पास जितने मुकदमे
थे उनमें आधे से अधिक ऐसे गरीब किसानों के थे, जिनसे वे कोई फीस नहीं लेते थें।
श्री करणीराम गाँधी जी के आदर्शो को अपने जीवन में उतारने का पूरा प्रयास करते थे। उनकी सदा ही यह इच्छा रहती थी कि राजस्थान के किसानों का उत्थान हो, उनके बच्चे शिक्षित हो तथा समाज में उनका सम्मानजनक स्थान हो इस प्रयास में वे तत्कालीन राजनैतिक गतिविधियों में सम्मिलित हुए।
उन्हें राजस्थान काश्तकारी अधिनियम तैयार करने की प्रकिया में राज्य सरकार ने शामिल किया। उनकी मान्यता थी कि जब तक जमीन का मालिक उसे जोतने वाला किसान नहीं होगा तब तक न तो किसान सम्पन हो सकता है और न ही खेती की पैदावार बढ़ाई जा सकती हैं।
झुंझुनू जिले के उदयपुरवाटी क्षेत्र में सारी जमीन छोटे जागीरदारों के स्वामित्व में थी। इन जागीरदारों को भौमिया कहा जाता था इसका अर्थ था "भूमिपति"। ये भूमिपति स्वयं काश्त नहीं करते थे तथा जमीन को बांटे पर देते थे। बांटे का अर्थ जमीन जोतने वाले काश्तकार द्धारा काश्त करने की इजाजत देने की एवज में भूमिपति को दिया जाने वाला हिस्सा होता था।
उदयपुरवाटी के जागीरदार एवं जमीन को एक ही काश्तकार को लम्बे समय के लिए नहीं देते थे, फलस्वरूप काश्तकार उस जमीन को खाद डालकर उपजाऊ बनाने में रूचि नहीं रखता था, क्योंकि वह जानता था कि आने वाली फसल में यह जमीन उसके पास नहीं रहेगी। इस प्रकार दी जाने जमीन की काश्त की सालाना बंटाई काश्तकार जागीरदार को देता था।
उदयपुरवाटी में काश्तकार खासतौर से किसानों से अधिक बटाई वसूल करते थे। काश्त में जागीरदार को ओर से कोई सहायता न मिलते हुए भी काश्तकार को अनाज और चारे का आधा हिस्सा प्रत्येक फसल पर जागीरदार को देना पड़ता था। काश्तकार की आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर हो गयी थी कि वह अपने बच्चों का पालन पोषण भी नहीं कर पाता था।
बच्चों को पढ़ाना लिखाना तो उस समय पारिवारिक आवश्यकताओं की गिनती में नहीं आता था। ऐसा था उदयपुरवाटी का किसान जो दिनभर
मेहनत करने के बावजूद न तन ढक पाता था और न अपने बच्चों को शिक्षा दिला पाता था। यह अवस्था जिले के अग्रणी समाजसेवी एवं राजनेताओं से छिपी नहीं थी।
सरदार हरलाल सिंह जो उस समय झुंझुनू जिले के अग्रणी नेताओं में से थे, उनकी यह इच्छा थी कि उदयपुरवाटी के किसानों में जागृति पैदा की जाए एवं उनको जागीरदारों के शोषण से मुक्त कराया जाए। यह काम आसान नहीं थी तथा वहां के जागीरदारों का मुकाबला करने की क्षमता रखने वाले कार्यकर्ताओं की भी कमी थी।
मैं उन दिनों एल.एल.बी. में पढ़ता था। ग्रीष्मावकाश शुरू होने में चार पांच महीने शेष थे। भाई करणीराम ने मुझसे कहा कि उदयपुरवाटी के किसानों में आत्मविश्वास पैदा करने एवं उनका जागीरदारों के जुल्मों का मुकाबला करने के लिए तैयार करने हेतु मुझे ऐसे नौजवान विद्यार्थी की जरूरत है जो मेरे साथ रहकर गर्मियों की छुट्टियों में उदयपुरवाटी के किसानों में काम कर सकें।
मैनें उदयपुरवाटी के भूमिपतियों के अत्याचारों की कहानियां सुन रखी थी और मुझे मालूम था कि वहां के किसानों को जागीरदारों के अत्याचारों के खिलाफ लड़ने के लिए खड़ा करना काफी मेहनत और लगन का काम है। मैनें उनसे कहा कि मैं स्वयं के अलावा पांच छः विद्यार्थी और ला सकूंगा जो इस अभियान में आपका साथ दे सकें। लेकिन श्री करणीराम गर्मी की छुट्टियों का इन्तजार नहीं कर सके और वे अकेले ही इस अभियान में जुट गये। उनके साथ श्री रामदेव सिंह गिल जो उसी क्षेत्र के रहने वाले थे, लगे हुए थे।
हर गांव व ढाणी में जाते तथा किसानों को इस बात के लिए तैयार करते थे कि वे जागीरदारों को जोत की एवज में 1/4 से अधिक बटाई न दे। उनका यह प्रचार जागीरदारों के एकाधिपत्य को चुनौती थी।
सामान्य कदकाठी का आदमी भले ही वह वकील हो, भूमिपतियों के खिलाफ किसानों को उकसाये और अत्याचार के मुकाबले में उन्हें लड़ने के लिए खड़ा करे यह सब भूमिपतियों को बर्दाश्त नहीं था। उन्होंने श्री करणीराम को धमकी दी कि वे उदयपुरवाटी क्षेत्र को छोड़कर चले जाए वरना उन्हें जान से मार दिया
जाएगा। इस धमकी का श्री करणीराम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और ना ही उनके काम करने की गति में कमी आई।
वे गांवों व ढाणियों में पैदल घूमते रहे और लोगों में शोषण के खिलाफ लड़ने की शक्ति भरते रहे। जागीरदारों के लिए जब उनका इस प्रकार किसानों में घूम घूम कर उनके अधिकारों की जानकारी देना बर्दाश्त नहीं हुआ तो उदयपुरवाटी के सभी भौमियों ने एक गुप्त मिटिंग की, जिसमें यह निर्णय लिया गया कि श्री करणीराम तथा उनके साथी को मार दिया जाए।
भाई करणीराम को उसकी खबर लग चुकी थी, फिर भी उनके पांव बिना डगमगाये गांव-गांव ढाणी-ढाणी जाते ही रहे उन्होंने किसी बाहरी सहायता की भी आवश्यकता नहीं समझी, लेकिन जागीरदार अपनी, शक्ति क्षीण नहीं होने देना चाहते थे।
13 मई 1952 की दोपहर बाद चंवरा की एक ढाणी में करणीराम व रामदेव को जागीरदारों ने घेर लिया और गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। उनकी हत्या का समाचार बिजली की तरह फैल गया और इस अफसोस के साथ आंसू बहने लगे कि भाई करणीराम की इच्छा के अनुसार हम उनके साथ एक महान कार्य में सम्मिलित न हो सके।
"यह ध्येय है मृत्यु नहीं, जो मनुष्य को शहीद बना देता है। " ------- नेपोलियन