Shekhawati Ke Gandhi Amar Shahid Karni Ram/Shekhawati Aur Uske Jagirdar
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पुस्तक: शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम
लेखक: रामेश्वरसिंह, प्रथम संस्करण: 2 अक्टूबर, 1984जागीरदारी प्रथा बहुत पुरानी है। प्राचीन जमाने में राजा-महाराजा लोग निरन्तर लड़ाइयों में संलग्न रहते थे अतः उन्हें कुशल और बहादुर सेनाधिकारियों एवं सेना की आवश्यकता रहती थी। प्रारम्भ में इनको नकद वेतन राज्य की सेवा के लिए मिलता था पर आगे चलकर सेवा के बदले उनको भूमि दे दी गई थी जिसका लगान वे किसानों से स्वयं लेते थे तथा उसके बदले राज्य की सेवा करते थे।
मुगलकाल में इस व्यवस्था में कुछ परिवर्तन हुए। मुगल मनसबदारों में कुछ को जात एवं सवार के हिसाब से रोकड़ी पैसे मिलते तथा कुछ को इन पैसों के बदले जागीर दी जाने लगी। मुगलों के आने के बाद और पहिले भी जागीरदार थे। वे लोग ठाकुर थे और आस-पास के छोटे-छोटे भूभागों पर शासन करते थे। उदाहरण के लिए मुगलों के आगमन के पूर्व जौधपुर, बीकानेर, मेवाड़ और आमेर आदि के बड़े राज्य थे।
मुग़ल लोग सारे देश को अपना अधिकार क्षेत्र मानते थे। इन राजा-महाराजाओं के भूभाग को भी वे अपनी सम्पति मानते थे यद्यपि उनके आने के पहिले से ही वे कायम थे। इन्हें मुगलकाल में वतन जागीर कहते थे। यह वह इलाका था जहां उपयुक्त राजा महाराजा पहले से अपना अधिकार किये हुए थे। जब इन राजाओं आदि को जागीर मिलती तो वतन जागीर की आय उसमें सम्मिलित कर ली जाती थी। राजाओं सरदारों को वतन जागीर के अलावा अन्य स्थानों में भी जागीरें मिलती थी। वे जागीरें समय-समय पर बदलती रहती थी।
इन बड़े राजाओं के अतिरिक्त कुछ छोटे ठाकुर और राजा थे जिनमें कुछ तो इन बड़े राजाओं के सामन्त सरदार होकर उनकी छत्रछाया में रह रहे थे तथा
कुछ स्वतंत्र थे, जिन्होंने आगे चलकर मुगल सेवा स्वीकार कर ली थी। उधर राजा महाराजा भी मुग़ल सेवा में थे अतः इन छोटे ठाकुरों का दर्जा उनके समवक्ष ही था क्योंकि दोनों ही मुगलों के अधीन थे।
मुग़ल शासन व्यवस्था की तरह ही शासन व्यवस्था या जागीरी पद्धति राजा महाराजाओं के यहां प्रचलित थी। अनेक सरदार सामन्त उनके यहां सेवा चाकरी करते थे। उनको इस सेवा के बदले एक निश्चित भूभाग मिलता था, जिस पर वे अपना कब्जा रखते थे और रियायतों से माल वसूल करते थे। वे अपनी जागीर का संरक्षण भी करते और उस जागीर में बसने वाली प्रजा की जान माल की हिफाजत भी करते थे।
मुगलों के आने के बाद इन पूर्वोलिखित जागीरदारों के साथ नये जागीरदार भी पनपे। अच्छी सेवा करने या बहादुरी दिखाने पर पारितोषिक के रूप में जागीर दी जाती थी। यह प्रायः आम रिवाज हो गया जिस से अनेक जागीरदार वेश में हो गये। साथ ही उनको इनाम, माफ़ी आदि में जो भूमि मिलती उस से भी जागीरदारों के देश में बाढ़ सी आ गई थी। इस सबके फलस्वरूप राजा महाराजा और स्वयं मुग़ल बादशाह की खालसे की भूमि और जागीरी क्षेत्र का अनुपात 2-3 हो गया और अधिकांश भूमि पर जागीरदार काबिल हो गये।
जागीरदार अपनी भूमि का मामला राजा महाराजा या मुग़ल बादशाह को चुकाते थे। जागीरदार अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र थे। मुग़ल बादशाहों द्वारा जब किसी सरदार को जागीर दी जाती तो उसे कड़ी हिदायत दी जाती थी कि प्रजा के साथ अच्छा व्यवहार करे। परम्परा के प्रचलित लगान से अधिक न ले तथा इलाके की बराबर बसाहट करे। इन बातों को देखने के लिये एक अधिकारी इन क्षेत्रों में रहता था जो बादशाह को बराबर अपनी रिपोर्ट भेजता रहता था। इस सबके कारण प्रजा पर अधिक ज्यादतियां नहीं होती थी।
राजा महाराजाओं के यहां इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं थी। वे अपने अधीनस्थ सामन्त सरदार ठाकुरों को जागीर बक्श देते और उन्हें खुला छोड़ देते। अपनी प्रजा या जागीरी भूमि के किसानों का वह जागीरदार भाग्य विधाता बन
जाता। उसके विरुद्ध कोई भी सुनने वाला नहीं था। जागीरी इलाके का हर अर्थ में वह स्वयं राजा था।
जागीरदार को स्वतंत्रता रहती थी कि वह अपने मन में आवे वैसे माल उगावें। माल की सीमा भी वही तय करता था। पहले लटाई,बटाई-जब्ती की माल उगाहने की पद्धति थी। आगे चलकर कूंत की पद्धति प्रारम्भ हुई। राजा का कामदार मनमाने ढंग से कूंत अनाज की कर देता और किसान को आदेश दे देता कि वह इतना अनाज रावले में पहुंचादे। आगे चलकर माल रुपयों में वसूल होने लगा था।
शेखावाटी में जागीरदारों की बहुत बड़ी संख्या थी। इसका कारण यह था कि यहां शेखावत राजपूत काबिज थे जिनमें यह प्रथा थी कि पिता की सम्पति का बराबर बंटवारा करते थे अतः अनेक छोटे-छोटे जागीरदारों के अधिकार क्षेत्र शेखावाटी में स्थापित हो गये। ये लोग भौमिये कहलाते थे। इनमें किसी-किसी के पास एक दो गाँव और किसी के पास एक गाँव का भी सिर्फ तीसरा हिस्सा रहता था। इतना होने पर भी वह अपने को एक बड़ा जागीरदार समझता और राजा-महाराजाओं जैसे नखरे करता। उसे रहने के लिए गढ़ चाहिए और चढ़ने के लिए घोड़ा, दास-दासियां भी उसकी आवश्यकता के अंग थे।
खेतड़ी-सीकर के बड़े ठिकाने थे जिनको न्याय आदि के अधिकार मिले हुए थे। इनकी अपनी पुलिस थी। निजामत बनने के बाद अधिकांश मुकदमे निजामतों में आते थे पर जागीरदार अपनी प्रजा को रोकते थे कि निजामत में मुकदमें मत ले जाओ हमारे पास आओ। ठिकाने का न्याय गुनहगारी के आधार पर चलता था जब दो आदमी लड़ते तो दोनों पर गुनगारी का जुर्माना कर दिया जाता था। इस प्रकार अपराधों को एक आय का स्त्रोत माना जा रहा था।
मुगलशक्ति जब शासन की ओर जाने लगी तो मुगल जागीरें इजारे पर (उठाई) जाने लगी क्योंकि जागीरदार को अपनी जागीर से माल उगाहना मुश्किल हो गया था। दूर बैठा जागीरदार माल उन क्षेत्रों से उगाह भी नहीं सकता था वहां लड़ाकू कौमे पुश्तैनी ढंग से बसी हुई थी। इजारे पर लेने वाले नए जागीरदार के
रूप में सामने आये। वे जागीरों को इजारे पर लेकर दूसरों को उप-इजारों पर दे दिया करते थे।
शेखावाटी का मुल्क भी शेखावतों के पास इजारे के रूप में आया था। सवाई जय सिंह ने इजारा दिया और शेखावतों को उप-इजारे पर दे दिया। उसके पूर्व कायमखानी नवाब भी इजारेदार ही थे। इस प्रकार इजारेदार और उप-इजारेदार नए जागीरदार के रूप में सामने आये।
जैसा कि ऊपर कहा गया है इन जागीरदारों पर राज्य का अधिक नियंत्रण नहीं था। आंतरिक मामलों में वे स्वतंत्र थे। उधर जागीरदार के खर्चे शान-शौकत की अधिकता से बढ़े हुए थे और आय का एकमात्र स्त्रोत भूमि का लगान था उससे होने वाली उपज ही थी। ऐसी स्थिति में लगान द्वारा और लागबागों के रूप में वे किसान से अधिकतम लेना चाहते थे।
सन 1818 ई. में जयपुर राज्य की अंग्रेजों से सन्धि हुई। धीरे-धीरे राज्य के अन्दरूनी मामलों में भी अंग्रेजों का दखल होने लगा। अंग्रेज रेजिडेन्ट जयपुर रहने लगा और जयपुर राज्य राजपुताना एजेन्सी के अंतर्गत रखा गया। जयपुर राज्य पूरा नियंत्रण अंग्रेजों के हाथ में था। शेखावाटी में जब चोरी धाड़ा इन जागीरदारों के सहयोग से बढ़ने-लगा तो अंग्रेजों ने अपनी फौज मेजर फोरेस्टर के अधीन झुंझुनू में रखदी इसे फोरेस्टर बिग्रेड कहा जाता था।
जागीरदार अब इतनी मनमानी नहीं कर सकते थे। रेजिडेन्ट सभी तरह की शिकायत सुनना था, पर जागीरदारों के लगान सम्बन्धी मामले में वह पूरी तरह तटस्थ रहता था। अंग्रेजों ने राजा-महाराजाओं की छवि सुधारने के लिए उन्हें परामर्श दिया कि वे अपनी शासन प्रणाली में सुधार करें। इस दिशा में कुछ प्रगति भी हुई पर यह सब खालसा भूमि में ही हुआ। जागीरी क्षेत्र इस प्रकार के सुधारों से सर्वथा दूर रहा।
पैमाइश का काम खालसा की भूमि में होने लगा पर प्रगति बहुत धीमी रही। इसके बाद जागीरी क्षेत्र में भी पैमाईश की मांग की जाने लगी तथा बेदखली के विरुद्ध आवाजें उठने लगी पर विशेष सफलता नहीं मिली। उदयपुरवाटी के भोमिये
अपने यहां पैमाईश होने देना नहीं चाहते थे अतः तरह-तरह की रुकावटें डालते थे। करणीराम के बलिदान से यह कार्य सरकार ने द्रुत गति से सम्पन्न करवाया। खतौनी बांटी गई। आगे चलकर जागीरदारी उन्मूलन एक्ट बना तब सारी जागीरदारियाँ राजस्थान में समाप्त कर दी गई।
"आपत्तियां हमें आत्मज्ञान कराती हैं। वे हमें दिखा देती है कि हम किस मिट्टी के बने है।"-------- जवाहर लाल नेहरू