Vana Parva, Mahabharata/Book III Chapter 131
महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-131
लोमशेन युधिष्ठिरंप्रति नानातीर्थमहिमानुवर्णनम् ।। 1 ।।
लोमश उवाच। | 3-131-1x |
अस्मिन्किल स्वयं राजन्निष्टवान्वै प्रजापतिः। सत्रमिष्टीकृतं नाम पुरा वर्षसहस्रिकम् ।। | 3-131-1a 3-131-1b |
अम्बरीषश्च नाभाग इष्टवान्यमुनामनु। यत्रेष्ट्वा दशपद्मानि सदस्येभ्योऽभिसृष्टवान् ।। | 3-131-2a 3-131-2b |
यज्ञैश्च तपसा चैव परां सिद्धिमवाप सः। देशश्च नाहुषस्यायं य़ज्वनः पुण्यकर्मणः ।। | 3-131-3a 3-131-3b |
सार्वभौमस्य कौन्तेय ययातेरमितौजसः। स्पर्धमानस्य शक्रेण तस्येदं यज्ञवास्त्विह ।। | 3-131-4a 3-131-4b |
पश्य नानाविधाकारैरग्निभिर्निचितां महीम्। मज्जन्तीमिव चाक्रान्तां ययातेर्यज्ञकर्मभिः ।। | 3-131-5a 3-131-5b |
एषा शम्येकपत्रा सा शकटं चैतदुत्तमम्। पश्य रामह्रदानेतान्पश्य नारायणाश्रमम् ।। | 3-131-6a 3-131-6b |
एतच्चर्चीकपुत्रस्य योगैर्विचरतो महीम्। प्रसर्पणं महीपाल रौप्यायाममितौजसः ।। | 3-131-7a 3-131-7b |
अत्रानुवंशं पठतः शृणु मे कुरुनन्दन। उलूखलैराभरणैः पिशची यदभाषत ।। | 3-131-8a 3-131-8b |
युगन्धरे दधि प्राश्य उषित्वा च अच्युतस्थले। तद्वद्भूतलये स्नात्वा सपुत्रा वस्तुमर्हसि ।। | 3-131-9a 3-131-9b |
एकरात्रमुवित्वेह द्वितीयं यदि वत्स्यसि। एतद्वै ते गदेवावृत्तं रात्रौ वृत्तमितोऽन्यथा ।। | 3-131-10a 3-131-10b |
अद्य चात्र निवत्स्यामः क्षपां भरतसत्तम। द्वारमेतत्तु कौन्तेय कुरुक्षेत्रस्य भारत ।। | 3-131-11a 3-131-11b |
अत्रैव नाहुषो राजा राजन्क्रतुभिरिष्टवान्। ययातिर्बहुरत्नौर्घर्यत्रेन्द्रो मुदमभ्यगात् ।। | 3-131-12a 3-131-12b |
एतत्प्लक्षावतरणं यमुनातीर्थमुत्तमम्। एतद्वै नाकपृष्ठस्य द्वारमाहुर्मनीषिणः ।। | 3-131-13a 3-131-13b |
अत्रसारस्वतैर्यज्ञैरीजानाः परमर्षयः। यूपोलूखलिकास्तात गच्छन्त्यवभृथप्लवम् ।। | 3-131-14a 3-131-14b |
अत्रवै भरतो राजा राजन्क्रतुभिरिष्टवान्। हयमेधेन यज्ञेन मेध्यमश्वमवासृजत् ।। | 3-131-15a 3-131-15b |
असकृत्कृष्णसारङ्गं धर्मेणाप्य च मेदिनीम्। अत्रैव पुरुषव्याघ्र मरुत्तः सत्रमुत्तमम्। प्राप चैवर्षिमुख्येन संवर्तेनाभिपालितः ।। | 3-131-16a 3-131-16b 3-131-16c |
अत्रोपस्पृश्य राजेन्द्र सर्वाल्लोँकान्प्रपश्यति। पूयते दुष्कृताच्चैव अत्रापि समुपस्पृश ।। | 3-131-17a 3-131-17b |
वैशंपायन उवाच। | 3-131-18x |
तत्र सभ्रातृकः स्नात्वा स्तूयमानो महर्षिभिः। लोमशं पाण्डवश्रेष्ठ इदं वचनमब्रवीत् ।। | 3-131-18a 3-131-18b |
सर्वाँल्लोकान्प्रपश्यामि तपसा सत्यविक्रम। इहस्तः पाण्डवश्रेष्ठं पश्यामि श्वेतवाहनम् ।। | 3-131-19a 3-131-19b |
लोमश उवाच। | 3-131-20x |
एवमेतन्महाबाहो पश्यन्ति परमर्षयः। इह स्नात्वा तपोयुक्तांस्त्रील्लोँकान्सचराचरान् ।। | 3-131-20a 3-131-20b |
सरस्वतीमिमां पुण्यां पुण्यैकशरणावृताम्। यत्र स्नात्वा नरश्रेष्ठ धूतपाप्मा भविष्यसि ।। | 3-131-21a 3-131-21b |
इह सारस्वतैर्यज्ञैरिष्टवन्तः सुरर्षयः। ऋषयश्चैव कौन्तेय तथा राजर्षयोपि च ।। | 3-131-22a 3-131-22b |
वेदी प्रजापतेरेषा समन्तात्पञ्चयोजना। कुरोर्वै यज्ञशीलस्य क्षेत्रमेतन्महात्मनः ।। | 3-131-23a 3-131-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि तीर्थयात्रापर्वणि एकत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ।। 131 ।। |