Veerbhoomi Haryana/ यौधेय गण की मोहरें (मुद्रांक)

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हरयाणा इतिहास ग्रन्थमाला का प्रथम मणि


वीरभूमि हरयाणा

(नाम और सीमा)


लेखक

श्री आचार्य भगवान् देव


यौधेय गण की मोहरें (मुद्रांक)

यौधेय गण की प्राचीन मुद्राओं की भाँति हमें यौधेय एवं गुप्‍त कालीन मोहरें (seals) भी इस प्रान्त के प्राचीन दुर्गों से पर्याप्‍त संख्या में प्राप्‍त हुई हैं । इए सभी मुद्रांक (मोहरें) मिट्टी की हैं । हरयाणा प्रांत के प्राचीन खेड़ों (खण्डहरों) से प्राप्‍त सामग्री से ज्ञात होता है कि ये खण्डहर बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं और इतिहास के बड़े रहस्यों को दबाये पड़े हैं । इन खण्डहरों से उपलब्ध सामग्री के आधार पर यह निसंकोच कहा जा सकता है कि ये खेड़े मोहेन-जोदड़ो और हड़प्पा से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । यदि इन टीलों की खुदाई करवाई जाये तो ये टीले मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण सामग्री हमें प्रदान कर सकते हैं और इतिहास के अनेक नये-नये रहस्य इनके उत्खनन से उदघाटित हो सकते हैं । प्रत्येक खेड़ा अपनी


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-143



पृथक्-पृथक् सारगर्भित कहानी को दबाये पड़ा है । इन खेड़ों से प्राप्‍त एक-एक ठिक्कर अपने साथ एक अभूतपूर्व रोचक कहानी को सञ्जोये हुये है ।

Seal of the Yaudheya Tribe-1


अस्तु - इन खंडहरों से प्राप्‍त उन अनेक महत्त्वपूर्ण मोहरों में से मैं यहाँ पाठकों के समक्ष केवल दो पर ही प्रकाश डालने का यत्‍न करूंगा । ये दोनों मोहरें बड़ी महत्त्वपूर्ण और रोचक (Interesting) हैं । मोहरें दोनों मिट्टी की हैं, किन्तु एक इतिहासकार के लिये इनका मूल्य स्वर्ण से भी कहीं बढ़कर है । कोई भी इतिहासकार वस्तु की स्वर्णादि धातु को देखकर प्रभावित नहीं होता और न ही वस्तु का चमकीलापन उसे अपनी ओर आकर्षित कर सकता है, बल्कि वह इस सब से परे किसी अन्य ही रहस्य को उस वस्तु में ढूंढ़ना चाहा करता है । वह रहस्य है, वस्तु की प्राचीनता और उसके साथ-साथ उसके द्वारा किसी नवीन सत्यतापूर्ण तथ्य का उदघाटन ।


बड़े गौरव की बात है कि इन मोहरों द्वारा इतिहास की एक समस्या की कड़ी सुलझ गई है, जैसा कि पाठक आगे देखेंगे । जिस माननीय सज्ज्न के प्रयास से ये मोहरें हमें मिली हैं, हम उनके हृदय से आभारी हैं । केवल हम ही नहीं, सम्पूर्ण ऐतिहासिक


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-144



जगत् उनका आभारी है, क्योंकि इतिहास की एक कठिन समस्या का समाधान इन मोहरों द्वारा होने जा रहा है ।


महाभारत में नकुल की पश्चिम दिग्विजय यात्रा का वर्णन करते हुये लिखा है -


तान् दशार्णान् स जित्वा च प्रतस्थे पाण्डुनन्दनः ।

शिबींस्त्रिगर्तानम्बष्ठान् मालवान् द्विजानथ ॥
महा० सभापर्व अ० ३२ ॥


इस श्‍लोक में संकेत किया है कि पाण्डुपुत्र नकुल दशार्ण (दश जल युक्त दुर्गों) को जीतकर आगे बढ़ा । इससे पूर्व के श्‍लोकों में महाभारतकार ने इन दश दुर्गों में से तीन दुर्गों - रोहतक (रोहितकम्), सिरसा (शैरीषकम्) और महम (महेत्थम्) का नाम तो गिना दिया, किन्तु शेष सात दुर्ग और कौन-कौन से हैं ? इसका संकेत महाभारत में न होने से इतिहासकारों के लिये एक जटिल समस्या बन गई । मैं भी इन सात दुर्गों की खोज के लिये कई वर्षों से प्रयत्‍न कर रहा हूं । ईश्वर की कृपा से कुछ सफलता भी मिली है । इन सात दुर्गों में से कई की खोज मैं कर चुका हूं, किन्तु पुष्ट प्रमाण न मिलने से अभी निश्चित रूपेण उनके विषय में कुछ नहीं कहा जा


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-145



सकता । अभी केवल एक दुर्ग के लिये पुष्ट प्रमाण मिला है, और वह प्रमाण है उपर्युक्त मोहर के रूप में । नकुल की पश्चिम दिग्विजय यात्रा के समय ये दश दुर्ग यौधेय गण के अधीन थे । इस मोहर में यौधेयों के ही जनपद का लेख है ।


इस मुद्रांक (मोहर) की लम्बाई २.३ इंच और चौड़ाई १.८ इंच है । मोहर को वर्तुलाकार सी ही कहना चाहिये । मोहर कोपकड़ने के लिये मूठ (हेंडल) भी बना है जो ऊपर से कुछ पतला (पैना) है । पूरी मोहर पर बनाने वाले की हस्त-रेखायें भी स्पष्ट दीख पड़ती हैं । इस पर चार पंक्तियों में लेख है । अक्षरों का उत्खनन विपरीत किया गया है जिससे छाप लगाने पर अक्षर सीधे आ जायें, जैसा कि सभी मोहरों पर होता है ।


सबसे ऊपर की पंक्ति में सर्वप्रथम कोई इस (11) प्रकार का चिन्ह बना है जो कि मोहर को गोलाई पर लाने में दायें कोने से कुछ टूट गया है । सम्भवतः यह यज्ञीय यूप ही बनाया गया हो । इस चिन्ह का यज्ञीय यूप होना समझ में भी आता है । क्योंकि यौधेय गण की यह मोहर है और यौधेय गण की "यौधेयानां बहुधानके" वाली मुद्राओं पर भी यह यज्ञीय यूप मिलता


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-146



है, जैसा कि पाठक इसी पुस्तिका के अन्त में प्रदत्त प्रथम और द्वितीय फलक पर क्रमशः ४ से ६ और १ से ३ तक की मुद्राओं पर बैल के सन्मुख देख रहे हैं । यह प्रदेश भी जिसका कि शासक व स्वामी यौधेय गण रहा है, यज्ञीय देश है जैसा कि मनुजी महाराज ने लिखा है -


कृष्णसारस्तु चरति मृगो यत्र स्वभावतः ।

स ज्ञेयो यज्ञियो देशो म्लेच्छदेशत्वतः परः ॥२३॥
मनु० अध्याय-२ ॥


अर्थात् जहां पर कृष्ण-मृग स्वभाव से निर्भय होकर विचरण करता है, वह यज्ञीय देश है । इस प्रदेश में कृष्ण-मृग का सदा से बाहुल्य रहा है अतः मनु महाराज के मतानुसार भी यह यज्ञीय देश है । इस मत पर फिर यौधेयों के सिक्कों पर यज्ञीय यूप मिलने से दृढ़ प्रामाणिकता की मोहर लग जाती है । अतः इस मुद्रांक पर बना उपर्युक्त चिह्न यज्ञीय यूप ही मानना चाहिये । आगे इसी प्रथम पंक्ति में ब्राह्मी अक्षरों में "रपत" लिखा है । अक्षर मोहर की बनावट में कुछ कट गये हैं । सम्भवतः रेफ की "ऐ" की मात्रा और 'तकार' पर से इकार की मात्रा टूट गई है, और इस प्रकार से "रैपति"


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-147



शब्द का केवल "रपत" ही शेष रह पाया है । केवल अनुमान से ही नहीं, अपितु यौधेय गण की मुद्राओं और महाभारत के आधार से भी यह "रैपति" ही मानना पड़ेगा । महाभारत में जैसा कि मैं पहले भी लिख चुका हूँ यौधेयों की प्रसिद्ध नगरी रोहतक (रोहितकम्) जो कि यौधेय गण की राजधानी मानी जाती है, को महाभारतकार ने "बहुधनं रम्यं गवाढ्यं धन धान्यवत्" आदि विशेषणों से विशेषित किया है, जो कि इस प्रदेश की धन-धान्य एवं ऐश्वर्य की बहुलता के स्पष्ट परिचायक हैं । ठीक इसी प्रकार यौधेयों की मुद्राओं पर चारों ओर ऐश्वर्य की परिपूर्णता की ओर संकेत करते हुये मणियों की माला का होना तथा यौधेयों की एक दूसरी मुद्रा (सिक्के) पर "बहुधान्यके" लेख होने से "द्विर्बद्धं सुबद्धं भवति" वाली उक्ति चरितार्थ हो जाती है और इस गण के धन-ऐश्वर्य का स्वामी होने में अकाट्य प्रमाण मिल जाते हैं । पुनः यह अनुमान निश्चित मत के रूप में समाविष्ट हो जाता है कि इस मोहर पर 'रपत' शब्द वास्तव में "रैपति" शब्द है और मोहर की इस प्रकार की बनावट के कारण टूट कर केवल "रपत" शेष रह गया है ।


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-148



मोहर की दूसरी पंक्ति में (ब्राह्मी लिपि में) 'यौधेय जन' लेख है और तृतीय पंक्ति के प्रारम्भ में 'द' अक्षर पड़ा है । ऐसा प्रतीत होता है कि दूसरी पंक्ति का अन्तिम 'प' अक्षर टूट गया है । इस प्रकार द्वितीय पंक्ति (लाइन) में तृतीय पंक्ति का पहला अक्षर मिलाकर पढ़ने से 'यौधेय जनपद' पढ़ा जाता है, जो सुसम्यक् भी प्रतीत होता है । क्योंकि यौधेय जनपद के खेड़े से प्राप्‍त यह मोहर है और यौधेय गण की मोहरों के अतिरिक्त इस खेड़े से हमें यौधेय गण की मुद्रायें और 'यौधेयानां बहुधानके' वाली मुद्राओं के ठप्पे (Moulds) भी मिले हैं । अतः यह निश्चित रूपेण यौधेय जनपद रहा है । वैसे कालक्रम से यह कुषाण एवं भारतीय यूनानी बादशाहों (Indo-Greek kings) आदि के आधीन भी रहा है जैसा कि इस खेड़े से प्राप्‍त उनकी मुद्राओं एवं ठप्पों से ज्ञात होता है । किन्तु इसमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं कि अधिक समय और स्थायी निश्चिन्तता पूर्वक यह यौधेय जनपद के रूप में शोभायमान रहा है ।


मोहर की तृतीय पंक्ति में जो लेख है वह "प्रकृतानाक" (ब्राह्मी लिपि में) पढ़ा जाता है, जो प्राकृत


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-149



भाषा में है और चतुर्थ अर्थात् अन्तिम पंक्ति में नगर पढ़ा जाता है । इस प्रकार इस जनपद का नाम अभी तक 'प्रकृतानाक नगर' पढ़ा जा रहा है, जो साधु भी प्रतीत होता है अर्थात् प्रकृष्टेन कृतः, निर्मितः व्यवस्थितो वा सः प्रकृतः, तदेव नाकः स्वर्गः । मोहर पर लेख प्राकृत भाषा में है, अतः प्रकृत शब्द के आगे आकार आ गया प्रतीत होता है । अर्थात् जो भवनादि की सुरम्य निर्माण व्यवस्था की दृष्टि से बड़ा रमणीय बना दिया है, अथवा सामाजिक एवं नागरिक व्यवस्था जिसमें इस प्रकार की श्रेष्ठ है कि जिसमें रहकर किसी को भी किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं है । सब स्वतन्त्रता पूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं ऐसा 'प्रकृतानाक' नामक स्वर्ग समान नगर है ।


मोहर का चित्र देखिये फलक संख्या ३ पर । चित्र यहाँ बड़ा (Enlarge) करके दिखाया गया है ।


इस प्रकार इस मोहर के द्वारा दशार्ण की उलझी हुई जटिल समस्या का समाधान हो गया और महाभारत में असंकेतित सात दुर्गों में से एक का निश्चित ज्ञान हो गया । जैसा कि पाठक पढ़ चुके हैं । यह मोहर (Seal) बड़ी ही महत्वपूर्ण है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह मोहर यौधेय गण के इस दुर्ग के किसी उच्च अधिकारी के पास रही होगी जो कि इस दुर्ग


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-150



में स्थित यौधेय गण के किसी उच्च कार्यालय का प्रबन्धक रहा होगा । अस्तु ! जो भी हो मोहर बड़ी ही महत्त्वपूर्ण है और यौधेय गण की एक विशेष धरोहर है ।


दूसरी मोहर की लम्बाई १.५ इंच और चौड़ाई १.२ इंच है । यह मोहर चतुष्कोण है । इसके ऊपर भी पकड़ने के लिये मूठ (हेंडल) बना है जो कि ऊपर से गोलाई पर है जब कि उपर्युक्त पहली मोहर का कुछ तीक्ष्ण (पैना) सा है ।


Seal of the Yaudheya Tribe-2

इस मोहर पर लिखे ब्राह्मी अक्षरों को तो एक-एक करके हमने मिलते ही पढ़ लिया, किन्तु कई दिन यत्‍न करने पर भी हम इसकी संगति न लगा सके । कुछ दिन पश्चात् "भारतीय प्राच्य विद्या परिषद्" (All India Oriental Conference) का बाईसवां सम्मेलन गोहाटी (आसाम) में होने जा रहा था । इन्हीं २ से ५ जनवरी १९६५ की तिथियों में इसी स्थान पर "भारतीय मुद्रा परिषद्" (The Numismatic Society of India) ने भी अपनी गोष्टी का आयोजन कर लिया । दोनों परिषदों का सदस्य होने के नाते मैं भी भाग लेने के लिये गोहाटी गया और साथ में इन दोनों मोहरों को भी ले गया । पहली को तो हम पढ़ ही चुके थे किन्तु दूसरी की संगति नहीं लग रही थी ।


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-151



अतः मैंने यह मोहर माननीय डा० जगन्नाथ जी अग्रवाल, डा० परमेश्वरीलाल जी गुप्‍त तथा डा० कृष्णदत्त जी वाजपेयी आदि प्रसिद्ध विद्वानों को दिखाई । सभी ने इसके पढ़ने में बड़ी रुचि ली, और अन्त में हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि इस मोहर पर ब्राह्मी अक्षरों एवं प्राकृत भाषा में "भित्ति निकाय" लिखा है जिसका संस्कृत शुद्ध रूप "भट्ट निकाय" अथवा "भ्रातृ निकाय" होना चाहिये । अधिकांश रूप में भट्ट निकाय ही साधु जंचता है । क्योंकि भ्रातृ निकाय होने में अक्षरों का आधिक्य हो जाता है । अर्थात् रेफ भी प्राकृत रूप में नहीं है । अतः मैं इसे भट्टनिकाय ही मानकर चलता हूँ । यौधेय गण शुद्ध आयुध जीवी गण था । इसलिये भी यह भट्ट निकाय ही साधु प्रतीत होता है ।


वर्गाकार-सी इस मोहर पर चार ऊपर के भाग में और एक अन्तिम "य" अक्षर मोहर के बायें भाग में उल्लिखित है । देखिये, इस पुस्तिका के अन्त में प्रदत्त फलक संख्या ४ (चार) पर मोहर के बड़े किये हुये चित्र को । अक्षरों के नीचे (ब्राह्मी लिपि में त्रिभुजाकार) इस प्रकार का एक चिन्ह भी है । सम्भवतः यह किसी आयुध का चिह्न रहा होगा । क्योंकि "सैनिक समूह" की वह मोहर है इसलिये आयुध का चिन्ह दे दिया गया हो । हो सकता


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-152



है यह उस समय "वी" ब्राह्मी अक्षर रहा हो जो कि किसी प्रयोजन विशेष के लिये संक्षेप में लिख दिया गया हो । ब्राह्मी का "वी" इसी प्रकार का होता है । किन्तु अधिक सम्भावना आयुध की है । जो भी हो, है यह किसी प्रयोजन विशेष के लिये ही ।


निकाय शब्द समूह वाचक है । यहां षष्ठी तत्पुरुष समास है । भट्टनां सैनिकानां निकायः - भट्टनिकायः । अर्थात् सैनिकों का एक समूह ।


इस मोहर का उस समय क्या उपयोग रहा होगा यह निश्चित रूपेण नहीं कहा जा सकता । अनुमान किया जाता है कि सैनिकों का कोई समूह जिसको कि उस भट्ट निकाय नाम से ही याद किया जाता होगा अर्थात् जिस समूह का नाम ही 'भट्ट निकाय' रख दिया होगा, उसकी यह मोहर है । ऐसा मान लेने पर प्रश्न उठता है, कि क्या उस समय यह एक ही समूह था जो इसको भट्ट निकाय नाम दे दिया गया ? मैं निवेदन करूंगा कि जिस प्रकार आजकल अनेक मोटर गाड़ियां हैं और उन सब में अपने-अपने ढ़ांचे के अनुसार शक्ति भी है, किन्तु फिर भी एक विशेष फौजी गाड़ी को जिसमें अपनी शक्ति की और दूसरी गाड़ियों की अपेक्षा अधिक विशेषता है इसलिए उसको "शक्तिमान्" नाम दे दिया गया है, ठीक इसी प्रकार


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-153



सैनिकों के उस समूह में जिनको कि "भट्टनिकाय" नाम दिया गया, कुछ विशेषता रही होगी । अथवा उन्होंने किसी अवसर विशेष पर कोई विशेष वीरता एवं चतुरता का कार्य किया होगा जिससे उनको 'भट्टनिकाय' नाम दे दिया गया हो ।


यह भी हो सकता है कि उस समय कोई सैनिकों का समूह रहा होगा जो केवल मात्र दुर्ग की सुरक्षा का ही कार्य करता होगा अथवा अन्य कोई इस प्रकार का कार्य उस समूह के आधीन रहा होगा जिसमें निश्चित रूपेण उसका स्थायित्व हो । अर्थात् उस समूह में आने वाले भट्टों (सैनिक) को केवल मात्र वही निश्चित कार्य करना पड़ता हो जो कि इस "भट्ट निकाय" नाम वाले समूह के सैनिक करते रहे होंगे और यह मोहर उनके प्रबन्धक के पास रहती रही होगी ।


यदि हम यह मानते हैं कि समूह विशेष को यह "भट्ट निकाय" नाम नहीं दिया गया, तो यह मानना पड़ेगा कि यौधेयगण की सम्पूर्ण सेना की ही "भट्ट निकाय" नाम से प्रसिद्धि थी और सेना के किसी उच्चाधिकारी के पास यह मोहर रही होगी जिसको लगाकर वह उन सभी निर्णयों एवं आदेशों को प्रमाणित करता होगा जो कि उसके द्वारा दिये जाते रहे होंगे ।


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-154



इस मोहर पर भट्टनिकाय न होकर भातृनिकाय भी हो सकता है । क्योंकि जिस समय यौधेय मालवादि अनेक गणों का विदेशी शक्तियों को उखाड़ फेंकने के लिये जब सम्मिलित संघ बना तो उस समय इस मोहर का प्रचलन किया गया हो । और संघ के समय न भी हुआ हो तो भी तो यौधेयों में परस्पर का व्यवहार बड़ा ही सौहार्दपूर्ण था क्योंकि इनका आदर्श पूर्वज शिवजी होने से सभी में उनके प्रति श्रद्धा थी और उनके प्रभाव से तथा सब में समानता का व्यवहार होने से अर्थात् शुद्ध पञ्चायती राज होने के कारण शासक और शासित का भाव न होने से अधिक भ्रातृत्व था । जिससे कि मोहर का भी प्रचलन कर दिया गया हो किन्तु अधिक सम्भावना "भट्टनिकाय" की ही है ।


जो भी रहा हो मोहर बड़ी रोचक और रहस्यपूर्ण है, इसके मूल में जाने के लिये अभी और पर्याप्‍त खोज की आवश्यकता है । इस प्रकार की अनेक महत्त्वपूर्ण मोहरें "हरयाणा प्रान्तीय पुरातत्त्व संग्रहालय गुरुकुल झज्जर" में सुरक्षित हैं कि जिन पर पुनः प्रकाश डालने का यत्‍न करूँगा ।


यहां हरयाणा नाम किस प्रकार पड़ा, और इसकी सीमा कहाँ तक है ? यह लिखते हुये थोड़ा-सा


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-155



पाठकों की सेवा में यौधेयों की मुद्राओं और मुद्रांकों (मोहरों) के विषय में लिख दिया है । क्योंकि इस प्रदेश के साथ "यौधेय गण" का विशेष सम्बन्ध रहा है, अतः इस विषय में भी लिखना आवश्यक था जिससे पाठक वस्तुस्थिति को समझ सकें । इस गण के सम्पूर्ण इतिहास पर दूसरी पुस्तक में प्रकाश डाला जायेगा ।


विशेष -


इस पुस्तिका के अन्त में दिये गये मोहरों (Seals) के दोनों चित्र मोहरों की प्रतिकृति (छाप) बनाकर लिये गये हैं । क्योंकि मोहरों पर अक्षर विपरीत हैं और बिना प्रतिकृति किये चित्र लेने पर अक्षर विपरीत आते अतः ऐसा किया गया । पुस्तिका में चित्र बड़े (Enlarge) करके दिये गये हैं ।


मुद्रांकों (मोहरों) एवं मुद्राओं (सिक्कों) का विशेष विवरण पुस्तिका के एतत्सम्बन्धित प्रकरणों में देखिये ।


वीरभूमि हरयाणा, पृष्ठान्त-156



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