Puran Bhagat

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Puran Bhagat

Puran Bhagat (पूरण भगत) was an ascetic and prince of Sialkot. Puran was born to Queen Ichhira, the first wife of Raja Shalivahan. He had been exiled and lived the last days of his life in a village located in the suburbs of Sialkot city. His temple and water well is still open for visitors and devotees.

Variants of name

His clan

According to historian Dr Temple (1884) his clan was Sindhu/Sindhar.[1][2]

History

Puran was born to Queen Ichhira, the first wife of Raja Shalivahan. Upon the suggestion of the astrologers, Puran was sent away from the King for the first 12 years of his life. It was said that King could not see the face of his son. While Puran was away, the King married a young girl named Luna, who came from a low caste family. After 12 years of isolation, Puran returned to the royal palace. There, Luna became romantically attracted toward Puran, who was of the same age. Being the step-son of Luna, Puran disapproved of her advances. A hurt Luna accused Puran of violating her honor.

Puran was ordered to be amputated and killed.[3] The soldiers cutoff his hands and legs and threw him in a well in the forest. One day Guru Gorakhnath were passing by with his followers and heard voice from the well. He took him out using a single thread and unbaked earthen pot. He was later adopted by Baba Gorkhnath. Puran himself became a yogi. He later became Chauranginatha)[4]

Worship

Puran also known as Baba Sahaj Nath Ji, is the supreme head of the Jandiyal Jats. The Jandiyals gather twice a year on Guru Purnima and worship Puran Bhagat. The temple of Bawa Sahaj Nath Ji is located in Pakistan, but after partition, the Jandiyals constructed a temple in Jandi near Heeranagar, Jammu, another temple is in Taragarh near Dinanagar where Sharma's including Khajuria's gather twice year and a fourth one is in Dorangla.

Jandiyal families who came from Pakistan bought that temple's sand and used it to construct a small temple in Taragarh. People from all over India come here on Guru Purnima for Darshan.

In addition to the Targarh temple, Jandiyals have built temples at Agra, Jammu, and Udhampur (J&K). Udhampur city is also known as Devika Nagri. The temple is located at Bypass Road, Fangyal. Jandiyal biradari celebrates and worships Baba Sehaj Nath ji twice a year on Budh Purnima and Kartik Purnima.

In popular culture

A number of Indian films have been made on the legend of Puran Bhagat. These include: Puran Bhagat (1928) by Pesi Karani, Puran Bhagat (1933) by Debaki Bose, Bhakta Puran (1949) by Chaturbhuj Doshi, Bhakta Puran (1952) by Dhirubhai Desai.[5]

Loona (1965), is an epic verse play based on the legend of Puran Bhagat by Shiv Kumar Batalvi, now considered a masterpiece in modern Punjabi literature, and which also created a new genre, of modern Punjabi kissa.[6] Though Loona is portrayed as a villain in the legend, Batalvi created the epic around her agony which caused her to become a villain. Batalvi became the youngest recipient of the Sahitya Akademi Award in 1967 for Loona.

पूरण भगत

दलीप सिंह अहलावत[7] ने लिखा है ...पूरण भगत - पंजाब में राजा शालिवाहन, जो सिन्धु (सिन्धड़) गोत्र के जाट थे, का राज्य 7वीं शताब्दी के अन्तिमकाल में था, जिनकी राजधानी सियालकोट थी। इनकी दो रानियां थीं। बड़ी रानी से पूरण भगत उत्पन्न हुये। छोटी रानी नूणादेह जो पूरण भगत की विमाता (मौसी) थी, पूरण भगत के रूप पर मोहित हो गई। उस रानी ने इस राजकुमार से अपनी वासना तृप्ति का अनुरोध किया पर उसने इसे स्वीकार नहीं किया। इस पर छोटी रानी ने राजा शालिवाहन के सामने उलटे राजकुमार पर ही यह आरोप लगा दिया कि उसने उस पर कुदृष्टि डाली है और उनके शीलभंग की कुचेष्टा की है।

राजा शालिवाहन ने छोटी रानी की शिकायत से क्रुद्ध होकर, राजकुमार के हाथ-पांव कटवाकर, उसे सियालकोट नगर से बाहर एक कूएं में डलवा दिया। वहां एक महासिद्ध ‘योगी’ आए, जिनकी कृपा से राजकुमार को पुनः हाथ-पांव मिले। इस प्रकार ‘पूर्णावयवी’ बन जाने से यह ‘पूरण भगत’ कहलाए। इनको ‘सिद्ध श्री चौरंगीनाथ’ भी कहा जाता है। सियालकोट नगर से 5 मील की दूरी पर अब भी वह कुंआ है जिसको लोग ‘पूरण भगत वाला कुंआ’ के नाम से पुकारते हैं। पूरण भगत (सिद्ध श्री चौरंगीनाथ जी) को सिद्ध मत्स्येन्द्रनाथ (मच्छेन्द्रनाथ) जी का शिष्य तथा गोरक्षनाथ (गोरखनाथ) जी का ‘गुरु भाई’ कहा गया है। इस तथ्य को पुष्ट करने वाले अनेक ग्रन्थ तिब्बत के तंजूर नामक स्थान पर स्थित बौद्ध मठ से प्राप्त करके महापंडित राहुल सांकृत्यायन भारत में लाये हैं। जिस समय सिद्ध मत्स्येन्द्रनाथ जी की दृष्टि, हाथ-पांव कटे, ‘चौरंगी’ पर पड़ी, उनकी कृपा से ‘चौरंगी’ के हाथ-पांव अंकुरित हो गये। उन्हीं की कृपा से चौरंगीनाथ प्रसिद्ध सिद्ध हुए। इतना ही नहीं, मूल ग्रन्थ में तो सिद्ध श्री चौरंगीनाथ जी की उन महासिद्धों में गणना की गई है जिन्होंने हठयोग की साधना कर, मोक्ष की प्राप्ति की।

पूरण भगत जी द्वारा स्थापित अस्थल बोहर (रोहतक) का वर्तमान ‘मठ’ ‘नाथ सम्प्रदाय’ की ‘बड़ी दरगाह’ अथवा ‘महान् तीर्थ’ के रूप में मान्य है।

महाराज रणजीतसिंह की वंशावली

महाराज शालवहन (शालिवाहन)

जौनधर (भटिंडा का राजा) → सधवा → सहस्य → लखनपाल → धरी → उदयरथ → उदारथ → जायी → पातु → डगर → करुत (कीर्ति) → वीरा → बध्या → कालू → जोंधोगन → वीतू या सट्टू → राजदेव → वाप्ता → प्यारा → बुद्धा (d.1716) → विद्धा (विधसिंह)/नौध (d.1752) → चरतसिंह (d.1774) → महासिंह (d.1792) → रणजीतसिंह (b.1780-d.1839) →1


1. यह वंश-वृक्ष हमने पंजाब केसरी (ले० नन्दकुमार देव शर्मा) से उद्धृत किया है। पे० परि० (ग पे०) 249-251 ।

इतिहास गुरुखालसा में लिखा है कि महाराज शालिवाहन ने स्यालकोट में राज्य स्थापित किया था। वि० सं० 135 में इसने विक्रमाजीत राजा को देहली में परास्त करके उसका सिर काट था। दिल्ली ही में इसने शक संवत् चलाया था। राजा विक्रम 300 वर्ष जीवित रहे थे, ऐसा कहा जाता है। एक इतिहास में शालिवाहन यदुवंशी था जो कि गजनी से लौट कर आया था, ऐसा लिखा है। एक शालिवाहन दक्षिण के शातिवाहनों में भी था, किन्तु यह शालिवाहन यदुवंशी ही जान पड़ता है। इसी के वंश में पूर्णभक्त और रसालु हुए हैं।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-302


खड़गसिंह (1839-1840) + शेरसिंह (1841-1843)+ तारासिंह+ पिशोरासिंह+ काश्मीरासिंह+ मुल्तानसिंह+ दिलीपसिंह (b. d.1893)
नौनिहालसिंह, फतहसिंह, जगतूसिंह, विक्टर, प्रताप, सहदेव
पुरुषसिंह, किशनसिंह, केसरीसिंह, अर्जुनसिंह, दिलीप, सुखदेव (बहराइच में रहा)
खड़गसिंह (d.1840)नौनिहालसिंह (1840)
शेरसिंह → बखसिंह + परताबसिंह + देवासिंह + शहदेवसिंह + नारायणसिंह + ठाकुरसिंह + करमसिंह
दिलीपसिंह → विक्टर

External links

References

  1. Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter VI ,p.539
  2. अस्थल बोहर मठ का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 1-12, लेखक कोकचन्द्र शास्त्री।
  3. Miraj, Muhammad Hassan (2012-10-08). "Pooran Bhagat". www.dawn.com.
  4. Kaul, H. Kumar (1994). Aspects of Yoga. BR publishing corporation. ISBN 9788170188100.
  5. Rajadhyaksha, Ashish; Willemen, Paul (1999). Encyclopaedia of Indian cinema. British Film Institute.
  6. https://www.tribuneindia.com/2003/20030504/spectrum/book6.htm
  7. Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter VI ,pp.538-539

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