Swami Jaitram Sihag
Author: Laxman Burdak (लक्ष्मण बुरड़क), IFS (R) |
Swami Jaitram Sihag (born:1849-) (स्वामी जैतराम सिहाग), from Meejal (मीजल) village in Bikaner princely state, was a Social worker and reformer in Marwar, Rajasthan.[1]
जीवन परिचय
ठाकुर देशराज[2] ने लिखा है ....[पृ.210]: स्वामी जैतराम जी का रहस्यमय जीवन चरित्र वर्णन करते हुए हमें एक अलौकिक प्रसन्नता का आभास होता है। आपकी जीवन घटनाओं पर यद्यपि आज के समय में बहुत कम लोग विश्वास करेंगे लेकिन वस्तुतः यह घटना सच्ची और प्रमाणिक है।
आपके पूज्य पिताजी का नाम चौधरी तिलोक राम जी था। आपका जन्म संवत 1843 में सिहाग गोत्रीय जाट घराने में हुआ। आपका घराना किसी समय बीकानेर रियासत से उठकर मारवाड़ में आबाद हो गया था। आपका गांव मीजल घुपाड़ा से 2 कोस दक्षिण-पश्चिम है। वहीं बालक जैतराम जी का जन्म संवत 1906 (=1849 ई.) में माता श्रीमती रामी बाई की कोख से हुआ। बालक जैत राम जी अभी 5 वर्ष के ही होने वाले थे संवत 1911 में आपके पूज्य पिताजी चौधरी तिलक राम जी का स्वर्गवास हो गया।
[पृ.211]: पति की मृत्यु पर आप की पूज्या माता ने पति के साथ सती होने की इच्छा प्रकट की। परंतु गांव वालों ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। पवित्रता ने इस विरोध की परवाह न करते हुए हर प्रकार से पतिदेव के साथ सती होने का दृढ़ संकल्प प्रकट किया। इस पर लोगों ने पुलिस को सूचना दी। पुलिस ने इस धर्म परायण वीर रमणी की इच्छा को ठुकराते हुए उसे एक मकान में बंद कर बाहर से ताला लगा कर पहरा बैठा दिया। यद्यपि इस बीच सती ने अनेकों पर्चे दिये। परंतु इस पर भी गांव वाले तथा पुलिस ने उन्हें सती नहीं होने दिया। देवी मकान में बंद होते हुए भी ईश्वर में लो लगाए रही। रात्रि के चतुर्थ प्रहर में रामी बाई को पति के वियोग में व्याकुल श्री महाराज संत सुरताल जी वहां प्रकट हुए।
महाराज ने रामी बाई से कहा कि ‘हमने तेरी सब इच्छा पूर्ण की तू जो चाहे सो मांग’। इस पर देवी जी ने अपने इष्ट देवपूज्या पति के साथ सती होने की इच्छा प्रकट की। सन्यासी जी महाराज ने कहा तथा एवमस्तु और मकान खोल उसे श्मशान ले गए। रामी बाई के पति की चिता ठंडी हो चुकी थी। क्योंकि उनका दाह संस्कार किए 24 घंटे से अधिक समय हो चला था। स्वामी जी महाराज से रामी बाई ने प्रार्थना की कि इस ठंडी चिता में मैं कैसे सती हो सकूंगी। इस पर पूज्य स्वामी जी ने कहा “तुमको इसकी चिंता नहीं तुम चिता पर बैठ जाओ”। बैठते ही चिता जलने लगी। रामी बाई ने चाहा कि पुत्र जैतराम को भी साथ लेकर ही सती हो। परंतु स्वामीजी ने कहा इससे तो तुम्हें जीव हत्या का दोष लगेगा। इस पर माता रानी
[पृ. 212]: बाई ने अपने प्रिय पुत्र जैतराम का हाथ स्वामी जी को पकड़ा दिया और हर प्रकार के बच्चे का भार उन्हें सोंप स्वयं भगवान का भजन करते हुए सती हो गई। रामी बाई को घर में न पाकर गांव वालों के साथ पहरे वाले बड़े हैरान हुए। शमशान में चिता को जलते देख कर यह लोग शमशान की तरफ दौड़े। रामी बाई को जलते देख और बच्चे को स्वामी जी को ले जाते देखकर वे स्वामी जी की ओर दौड़े। स्वामी जी पर वे लोग बहुत बिगड़े। और यहां तक उन लोगों ने धृष्टता की कि शस्त्र प्रहार से पूज्य स्वामी जी का दाहिना हाथ भी काट दिया। स्वामी जी ने लोगों को वापस लौटने के लिए बहुत समझाया किंतु वह न लौटे और स्वामी जी पर लाठियों का प्रहार करने लगे। इसपर स्वामी जी ने क्रुद्ध हो कर कहा, जाओ तुम्हारा सारा गांव ही शमशान की तरह हर समय जलता रहेगा। लोगों ने देखा तो गांव आग की प्रचंड लपटों से जल रहा है। लोग गांव की ओर भाग गए। स्वामी जी बालक जैतराम को ले अपने स्थान पर पहुंचे।
स्वामी जी ने बच्चे को यथाविधि पालन कर उसे सब योग्य बनाया और अपना उत्तराधिकारी भी उन्हें बनाया। मृत्यु के समय सन्यासी जैतराम जी के तपस्वी गुरु ने उन्हें सब वर्णन सुनाया लेकिन गांव का नाम नहीं बताया। अपने शिष्य से जैतराम जी ने यह भी आदेश किया कि वह भी उधर न जाए।
स्वामी जी ने अपनी सुलेखनी द्वारा कई एक अभूतपूर्व बातें लिखी हैं। आप गंगा का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि हिमालय से जितने नदियां निकली हैं वे सब गंगा हैं। परंतु प्रसिद्ध नाम थोड़े ही हैं। विष्णु गंगा का नाम भागीरथी है।
[पृ. 213]: गंगोत्री ब्रह्म गंगा आलखासन पहाड़ से निकलती है। वहां अलखावत पुरी देववासा है। उत्तरी हिमालय से आई हुई, देवप्रयाग में नंदगंगा से मिल गई, विष्णु गंगा भी वही गंगा में शामिल हो गई, करण गंगा विष्णु गंगा में पांडु के सरसे पांडु गंगा में सब गंगा मिल गई। रुद्र गंगा रुद्रप्रयाग से तथा अखैनन्दा अखंड आसन से निकाल कर रुद्र गंगा में मिल गई। जटांबरी अखैनंदा में शरीक हो गई परंतु इन सब गंगाओं में केवल भागीरथी का इनाम प्रसिद्ध है। लक्ष्मण झूला से सारी ही धाराएं शामिल होकर चलती हैं। देवप्रयाग से यमुनोत्री 161 मील दूर पड़ती है। यमुनोत्री में जाटों का एक हवन कुंड है जो सुरबाद के जाट गणों की तपोभूमि का हवन कुंड बतलाया जाता है। ब्रहम ऋषि जमदग्नि ने तप किया तब से यमुनोत्री तो आम हो गई। महाराजा हरिराम गढ़वाल फिर से जटावी गंगा पर जाट का कब्जा स्थापित किया। यह राजा जिस संवत में हुआ है उसका पता सर्व संवत नाम की पुस्तक से मिल सका है। यमुनोत्री से करीब 54 मील की दूरी पर आपका आसन पाया जाता है। यह आसन यमुनोत्री हरिहर आश्रम ब्रह्मचर्य से उत्तर पूर्व की ओर 54 मील पर है।
पिक्चर गैलरी
Jat Jan Sewak, p.210
Jat Jan Sewak, p.211
Jat Jan Sewak, p.212
Jat Jan Sewak, p.213
सन्दर्भ
- ↑ Thakur Deshraj:Jat Jan Sewak, 1949, p.210-213
- ↑ Thakur Deshraj:Jat Jan Sewak, 1949, p.210-213
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