Battle of Mawanda

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Location of Mavanda in Sikar District

The Battle of Maonda took place on 14 December 1767 between the armies of Maharaja Jawahar Singh of Bharatpur and the Raja Madho Singh of Jaipur. [1]

Location

Mawanda (मावण्डा) is a village in Neem Ka Thana tehsil of Sikar district in Rajasthan.

The Pushkar bath & Battle of Mawanda 1967

Ram Sarup Joon[2] writes that ... Maharani Kishori, wife of Maharaja Suraj Mal, who had adopted Jawahar Singh, was adept at political intrigues. She was pained to see that Jawahar Singh was not adopting a favourable policy towards the members of the family and the nobles. She knew that he could be controlled only by keeping him engaged in warfare. She also knew that the Rajputs could never tolerate this abrupt rise of Jat rule and would always resist the latter's efforts to gain power. The solution for both the problems lay in war. Kishori


History of the Jats, End of Page-168


expressed her desire to her proud son that she wanted to go for a sacred bath at Pushkar. Jawahar Singh pointed out that Pushkar was situated in the territory of his eternal and deadly foe, Raja Madho Singh, who would not tolerate her arrival at Pushkar with a large retinue, and advised her that if at all she was keen to go for Pushkar bath, she would go with only a few followers and Rupa Ram the Purohit. The Rani retorted by saying that she was the mother of Jawahar Singh, and the Rani of Suraj Mal and taking a bath like Marwari women would hurt her pride, and that she would like to take her bath along with the Rajput Ranis there. She would also like to give away alms surpassing the Rajput Ranis. She said, she did not understand why the Jats should be afraid of the Rajputs any longer. Jawahar Singh knew well that this would lead to warfare and bloodshed.

Jawahar Singh made the big mistake of leaving Pratap Singh the rebel of Jaipur, for the defence of Bharatpur. He considered Partap Singh to be a reliable man, but in this he was deceived.

Jawahar Singh marched to Pushkar with 60,000 Cavalry, 1 lakh Infantry and 200 guns. With fluttering banners and beating drums they entered Jaipur territory and set up a impressive camp in the sandy plains of Pushkar.

Rani Kishori was weighed in gold which was given in charity. The other Ranis who had come on this occasion felt humiliated because they were not in a position to match the charity of Rani Kishori. The Rajput vanity was hurt. Pratap Singh, who was left as the guardian of Bharatpur in the absence of Jawahar Singh, also came to know of this. He left Bharatpur undefended, and joined the camp of Madho Singh. Pratap Singh instigated Madho Singh against Jawahar Singh. All the Rajput rulers assembled at Pushkar and held a conference in which no Jat rulers were invited. Raja Madho Singh said in this conference that the Jat ruler had injured the vanity of all the Rajputs.


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It was here that a witty Marwari, Raja Vijay Singh pointed out that after all the Jats were also Hindus and if they donated liberally on this auspicious occasion according to their financial position, it must not be taken as humiliation by Rajputs. Madho Singh, however, rejected this advice and appealed for war. The decision of this conference soon reached Jawahar Singh. He was expecting it. Madho Singh laid on ambush in a valley to intercept Jawahar Singh on his return. Jawahar Singh had anticipated this and took the alternative route via Turna Wati, which was a bottle-neck surrounded by hills. The column of troops with cavalry and artillery was marching under the leadership of Captain Samru. The palanquins of the Ranis were escorted by Jawahar Singh in the rear of the column. All of a sudden they were attacked by Rajputs from three sides. It was a fierce battle, in which the Rajputs suffered great losses. In the battle, it was found that only 11 tender aged members were left in the family of Raja Madho Singh. The rest lost their lives. It is said that 25,000 casualties occurred in this battle. Jawahar Singh reached Bharatpur. Both of Jats and Rajputs claimed themselves victorious in this battle, but apparently the loss did not have not much of a repercussion on the strength of Jats, whereas Madho Singh had to suffer such a severe blow that his power never recovered. Later Jawahar Singh was killed by some unknown person while he was out on hunting.

मांवडा-मंढोली युद्ध:ठाकुर देशराज के इतिहास में

ठाकुर देशराज[3] लिखते हैं कि भारतेन्दु जवाहरसिंह ने पुष्कर स्नान के उद्देश्य से सेनासहित यात्रा शुरू की। प्रतापसिंह भी महाराज के साथ था। जाट-सैनिकों के हाथ में बसन्ती झण्डे फहरा रहे थे। जयपुर नरेश के इन जाटवीरों की यात्रा का समाचार सुन कान खड़े हो गए। वह घबड़ा-सा गया। हालांकि जवाहरसिंह इस समय किसी ऐसे इरादे में नहीं गए थे, पर यात्रा की शाही ढंग से। जयपुर नरेश या किसी अन्य ने उनके साथ कोई छेड़-छाड़ नही की और वह गाजे-बाजे के साथ निश्चित स्थान पर पहुंच गए।


स्नान-ध्यान करने के पश्चात् भी महाराज कुछ दिन वहां रहे। राजा विजयसिंह से उनकी मित्रता हुई। इधर महाराज के जाते ही राजपूत सामंतो में तूफान-सा मच गया। उधर के शासित जाट और इस शासक जाट राजा को वे एक दृष्टि से देखने


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-656


लगे। इस क्षुद्र विचार के उत्पन्न होते ही सामंतों का संतुलन बिगड़ गया और वे झुण्ड जयपुर नरेश के पास पहुंचकर उन्हें उकसाने लगे। परन्तु जाट सैनिकों से जिन्हें कि उन्होंने जाते देख लिया था, उनकी वीरता और अधिक तादात को देखकर, आमने-सामने का युद्ध करने की इनकी हिम्मत न पड़ती थी।

जवाहरसिंह को अपनी बहादुर कौम के साथ लगाव था, उसकी यात्रा का एकमात्र उद्देश्य पुष्कर-स्नान ही नहीं था, वरन् वहां की जाट-जनता की हालत को देखना भी था। उनको मालूम हुआ कि तौरावाटी (जयपुर का एक प्रान्त) में अधिक संख्या जाट निवास करते हैं तो उधर वापस लौटने का निश्चय किया। राजपूतों ने लौटते समय उन पर आक्रमण करने की पूरी तैयारी कर ली थी। यहां तक कि जो निराश्रित प्रतापसिंह भागकर भरतपुर राज की शरण में गया था और उन्होंने आश्रय ही नहीं, कई वर्ष तक अपने यहां सकुशल और सुरक्षित रखा था, षड्यन्त्र में शामिल हो गया। उसने महाराज की ताकत का सारा भेद दे दिया। राजपूत तंग रास्ते, नाले वगैरह में महाराज जवाहरसिंह के पहुंचने की प्रतीक्षा करते रहे। वे ऐसा अवसर देख रहे थे कि जाट वीर एक-दूसरे से अलग होकर दो-तीन भागों में दिखलाई पड़ें तभी उन पर आक्रमण कर दिया जाए।


तारीख 14 दिसम्बर 1767 को महाराज जवाहरसिंह एक तंग रास्ते और नाले में से निकले। स्वभावतः ही ऐसे स्थान पर एक साथ बहुत कम सैनिक चल सकते हैं। ऐसी हालत में वैसे ही जाट एक लम्बी कतार में जा रहे थे। सामान वगैरह दो-तीन मील आगे निकल चुका था। आमने-सामने के डर से युद्ध न करने वाले राजपूतों ने इसी समय धावा बोल दिया। विश्वास-घातक प्रतापसिंह पहले ही महाराज जवाहरसिंह का साथ छोड़कर चल दिया था। घमासान युद्ध हुआ। जाट वीरों ने प्राणों का मोह छोड़ दिया और युद्ध-भूमि में शत्रुओं पर टूट पड़े। जयपुर नरेश ने भी अपमान से क्रोध में भरकर राजपूत सरदारों को एकत्रित किया। जयपुर के जागीरदार राजपूतों के 10 वर्ष के बालक को छोड़कर सभी इस युद्ध में शामिल हुए थे। सब सरदार छिन्न-भिन्न रास्ते जाते हुए जाट-सैनिकों पर पिल पड़े। जाट सैनिकों ने भी घिर कर युद्ध के इस आह्नान को स्वीकार किया और घमासान युद्ध छेड़ दिया। आक्रमणकारियों की पैदल सेना और तोपखाना बहुत कम रफ्तार से चलते थे। जाट-सैनिकों ने इसका फायदा उठाया और घाटी में घुसे। करीब मध्यान्ह के दोनों सेनाएं अच्छी तरह भिड़ीं। इस समय महाराज जवाहरसिंह जी की ओर से मैडिक और समरू की सेनाओं ने बड़ी वीरता और चतुराई से युद्ध किया। जाट-सैनिकों ने जयपुर के राजा को परास्त किया। परन्तु जाटों की ओर से सेना संगठित और संचालित होकर युद्ध-क्षेत्र में उपस्थित न होने के कारण इस लड़ाई मे महाराज जवाहरसिंह को सफलता नहीं मिली। लेकिन वह स्वयं सदा की भांति असाधारण वीरता और जोश के साथ अंधेरा होने तक युद्ध करते रहे।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-657


जयपुर सेना का प्रधान सेनापति दलेलसिंह, अपनी तीन पीढ़ियों के साथ मारा गया। यद्यपि इस युद्ध में महाराज को विजय न मिली और हानि भी बहुत उठानी पड़ी, परन्तु साथ ही शत्रु का भी कम नुकसान नहीं हुआ। कहते हैं युद्ध में आए हुए करीब करीब समस्त जागीरदार काम आये और उनके पीछे जो 8-10 साल के बालक बच रहे थे, वे वंश चलाने के लिए शेष रहे थे।

मांवडा-मंढोली युद्ध

भांडारेज राजावतों के अधिकार में: कुम्भाणीयों के बाद भांडारेज राजावतों के अधिकार में आ गया तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के के बाद विलीनीकरण तक यह धूला संस्थान का क़स्बा था मांवडा - मंढोली को विषयवस्तु बनाकर लिखे गए धूला इतिहास 'कूर्म-विजय' में उल्लेख है कि बूंदी अभियान के सिलसिले में दलेलसिंह राजावत की सेवाओं से प्रसन्न होकर सवाई जयसिंह ने उन्हें दो परगने - भांडारेज और खेड़ा बख्शे.[4]

दलेलसिंह राजावत का मांवडा-मंढोली युद्ध में प्राणोत्सर्ग:सवाई ईश्वरी सिंह के शासनकाल में राव दलेलसिंह ने राजमहल की लड़ाई सहित अनेक युद्धों में भाग लिया. तत्पश्चात सवाई माधव सिंह प्रथम के शासनकाल में जयपुर रियासत और भरतपुर महाराजा जवाहरसिंह के बीच 14 दिसंबर 1767 में नीम का थाना के पास मांवडा-मंढोली नामक स्थान पर भीषण युद्ध लड़ा गया, जिसमें जयपुर की सेना का नेतृतव वयोवृद्ध राव दलेलसिंह ने किया। इस युद्ध में दलेल सिंह ने अपने कुंवर लक्षमण सिंह और मात्र 11 पौत्र भंवर राजसिंह सहित लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की. इस प्रकार मांवडा-मंढोली के रणक्षेत्र में धूला (भांडारेज) की एकसाथ पीढ़ियां काम आईं. [5]


रणमल सिंह ने लिखा है कि हमारे गाँव कटराथल के दो राजपूत जयपुर-भरतपुर के बीच हुये युद्ध (मावण्डा) में मारे गए थे। उनकी छतरियाँ आज भी गाँव मैं मौजूद हैं। [6]

References

  1. History of the Jats:Dr Kanungo, p.120
  2. History of the Jats/Chapter X,p. 168-170
  3. Jat History Thakur Deshraj/Chapter IX,pp.656-658
  4. Dr. Raghavendra Singh Manohar:Rajasthan Ke Prachin Nagar Aur Kasbe, 2010,p. 11
  5. Dr. Raghavendra Singh Manohar:Rajasthan Ke Prachin Nagar Aur Kasbe, 2010,p. 12
  6. रणमल सिंह के जीवन पर प्रकाशित पुस्तक - 'शताब्दी पुरुष - रणबंका रणमल सिंह' द्वितीय संस्करण 2015, ISBN 978-81-89681-74-0, पृष्ठ 111

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