Ganga Das Ki Kundaliyan
संत गंगा दास की कुण्डलियाँ १-५
- बोए पेड़ बबूल के, खाना चाहे दाख ।
- ये गुन मत परकट करे, मनके मन में राख ।।
- मनके मन में राख, मनोरथ झूठे तेरे ।
- ये आगम के कथन, कदी फिरते ना फेरे ।।
- गंगादास कह मूढ़ समय बीती जब रोए ।
- दाख कहाँ से खाए पेड़ कीकर के बोए ।।
- माया मेरे हरी की, हरें हरी भगवान ।
- भगत जगत में जो फंसे, करें बरी भगवान ।।
- करें बरी भगवान, भाग से भगवत अपने ।
- इसे दीनदयाल हरी-हर चाहियें अपने ।।
- गंगादास परकास भया मोह-तिमिर मिटाया ।
- संत भए आनंद ज्ञान से तर गए माया ।।
- अन्तर नहीं भगवान में, राम कहो चाहे संत ।
- एक अंग तन संग में, रहे अनादि अनंत ।।
- रहे अनादि अनंत, सिद्ध गुरु साधक चेले ।
- तब हो गया अभेद भेद सतगुरु से लेले ।।
- गंगादास ऐ आप ओई मंत्री अर मंतर ।
- राम-संत के बीच कड़ी रहता ना अन्तर ।।
- जो पर के अवगुण लखै, अपने राखै गूढ़ ।
- सो भगवत के चोर हैं, मंदमति जड़ मूढ़ ।।
- मंदमति जड़ मूढ़ करें, निंदा जो पर की ।
- बाहर भरमते फिरें डगर भूले निज घर की ।।
- गंगादास बेगुरु पते पाये ना घर के ।
- ओ पगले हैं आप पाप देखें जो पर के ।।
- गाओ जो कुछ वेद ने गाया, गाना सार ।
- जिसे ब्रह्म आगम कहें, सो सागर आधार ।।
- सो सागर आधार लहर परपंच पिछानो ।
- फेन बुदबुद नाम जुडे होने से मानो ।।
- गंगादास कहें नाम-रूप सब ब्रह्म लखाओ ।
- अस्ति, भाति, प्रिय, एक सदा उनके गुन गाओ ।।
सन्दर्भ - जाट समाज आगरा, मई २००७ पृष्ठ ४
संत गंगा दास की कुण्डलियाँ ६-१०
ऐ अविनाशी ! आपका, जन्म नहीं, ना नास ।
सदा एक निर्भय अचल , भगवत सर्व-निवास ।।
भगवत सर्व-निवास विषय बानी ना मन के ।
नर तन धारण करो हेत हरि अपने जन के ।।
गंगादास जन कहें आप सब के परकासी ।
भक्त्वत्सली नाम भरम मेटो अविनाशी ।।
७
महाघोर आया कली, पड़ी पाप की धूम ।
पंथ वेद के छिप गए, ना होते मालूम ।।
ना होते मालूम पाप ने दाबी परजा ।
फ़िर सुख कैसे होय धर्म का हो गया हरजा ।।
गंगादास जन कहें नाथ ! हे नन्द किशोर ।
कैसे होगी गुजर कली आया महा घोर ।।
८
मोहताजों की ख़बर ले, तेरी लें भगवान ।।
जस परगट दो लोक में, होगा निश्चय जान ।।
होगा निश्चय जान, मान वेदों का कहना ।
जो ठावे उपकार उदय होता है लहना ।।
गंगादास ले ख़बर राम उनके काजों की ।
जो लेते हैं ख़बर जगत में मोहताजों की ।।
९
माला फेरो स्वास की, जपो अजप्पा जाप ।
सोहं सोहं सुने से, कटते हैं सब पाप ।।
कटते हैं सब पाप जोग-सरमें कर मंजन ।
छः चक्कर ले शोध अंत पावें मनरंजन ।।
गंगादास परकास होय खुलतेई घट-ताला ।
मनो मेरा कहा, भजो स्वासों की माला ।।
१०
पावैं शोभा लोक में , जो जन विद्यामान ।
जिन विद्या बल हैं नहीं, सो नर भूत मसान ।।
सो नर भूत मसान पशु पागल परवारी ।
बिन विद्या नर सून ताल जैसे बिन वारी ।।
गंगादास ये जीव जाति नर पशु कहावैं ।
बिना सुगंधी सुमन कहीं आदर ना पावैं ।।
सन्दर्भ - जाट समाज आगरा, जून २००७ पृष्ठ ४
संत गंगा दास की कुण्डलियाँ ११-१५
११
चारों चारों युगों से, सुखदायक हैं चार ।
दया, सत्य, अरु संत ये, चौथा पर उपकार ।।
चौथा पर उपकार चार साधन सुखदाई ।
जो ये धन ले साध उसी की सुफल कमाई ।।
गंगादास जन कहें अरे भूषण ये धारो ।
सोभा पावें जीव साध के साधन चारों ।।
१२
मासा ना तिल भर कदी घटै बधै तक़दीर ।
देव नाम है कर्म का जिसने रचा शरीर ।।
जिसने रचा शरीर उही पालन करता है ।
हाजिर है दिन रात फेर तू क्यूं डरता है ।
गंगादास जन कहें समझ वेदों की भासा ।।
१३
देखा देखी जोग से जोगी रोगी होय ।
कर्म-ज्ञान को त्याग कर, महा कुयोगी होय ।।
महा कुयोगी होय उभय लोकों से जावै ।
गिर गए कच्चे फूल फेर फल कैसे आवै ।।
गंगादास कहें सरम करें ना मारें सेखी ।
बेशरमों के पंथ चले सब देखा देखी ।।
१४
बंधन तो कट जायेंगे, जो लायकवर होय ।
नालायक के सौ गुरु, भरम सकैं ना खोय ।।
भरम सकैं ना खोय गुरु पूरे भी होवैं ।
बेल कहाँ से चले बीज कल्लर में बोवैं ।।
गंगादास वन बांस पास होते ना चन्दन ।
जब तक कपट कपाट गुरु काटे ना बन्धन ।।
१५
मैली चादर मैल से, कदी चढ़े ना रंग ।
इसे अन्तकरण में, जब तक मैल कुसंग ।।
जब तक मैल कुसंग शुद्ध कैसे हो जाता ।
निष्फल है उपदेस गुरु चाहे मिलें विधाता ।।
गंगादास जन कहें रहे जब तक बदफैली ।
कदी रंग ना चढै चित्त चादर है मैली ।।
सन्दर्भ - जाट समाज आगरा, जुलाई २००७ पृष्ठ ४
संत गंगा दास की कुण्डलियाँ १६-२०
१६
चेले चातुर करें क्या, जो गुरु हों मतिमन्द ।
आप फंसे मोह जाल में, ओ क्या काटें फ़न्द ।।
ओ क्या काटें फ़न्द फँसे माया में डोलें ।
बँधे बिचारे आप, और को कैसे खोलें ।।
गंगादास जन कहैं सरन पूरे की ले ले ।
गुरु भी पूरे होंय और निष्कपटी चेलें ।।
१७
तोड़े जाल अनादि ये भरम, भये दुःख दूर ।
दया करी गुरुदेव ने दिये ज्ञान भरपूर ।।
दिये ज्ञान भरपूर पुण्य अरु पाप लखाये ।
गंगादास परकास भय दुई अवरन फोड़े ।
दया करी गुरुदेव मोहमय बन्धन तोड़े ।।
१८
सोवेगा जो कोई कदी, जदी पड़ेंगे चोर ।
जागो तो खतरा नहीं, इस सारे में और ।।
इस सारे में और रोज दिन में आती हैं ।
दो ठगनी ठग एक सदा ठग-ठग खाती हैं ।।
गंगादास कहें आँख खुले पीछे रोवेगा ।
तस्कर लेजां माल-जान जो कोई सोवेगा ।।
१९
तेगा ले गुरु ज्ञान का, राम भक्ति की ढाल ।
धर्म तमंचा बाँध ले, कदी लुटै ना माल ।।
कदी लुटै ना माल पडे डाका ना तस्कर ।
बेखटकै ले नफा जहाँ चोरों के लस्कर ।।
गंगादास कह कदी माल अपना ना देगा ।
कर दे मार मदान ज्ञान का लेकर तेगा ।।
२० बाजी तेरी फ़िर पड़ी, होगी तेरी जीत ।
ये फंसे हैं भोग से, पड़े करो परतीत ।।
पड़े करो परतीत दाव पड़ गए पौबारे ।
चीढे हैं जुग चार सर फ़िर लई हैं सारे ।।
गंगादास ये खेल खेलते हैं अग्गाजी ।
आती है अग्गाज आज जीतेगा बाजी ।।
सन्दर्भ - जाट समाज आगरा, अगस्त २००७ पृष्ठ ४
संत गंगा दास की कुण्डलियाँ २१-२५
२१
फँस रही है बेदाव में, दाव बिना लाचार ।
पांचों पंजों में पड़ी, आठों आठों सार ।।
आठों आठों सार दाव देता ना फांसा ।
बाजी बीती जय फुसे मन की अभिलासा ।।
गंगादास के दाव देख दुनिया हंस रही है ।
पौबारा दे गेर नरद बेबस फँस रही है ।।
२२
मारो ठोकर दया कर, नाव मेरी हो पार ।
और कोई सुनता नहीं, कब का रहा पुकार ।।
कब का रहा पुकार नाव चक्कर ले रही है ।
बार-बार परचंड पवन झोंके दे रही है ।।
गंगादास कह दीन जानके पार उतारो ।
खेवटिया हैं आप दयाकर ठोकर मारो ।।
२३
उजर नहीं है आपसे, बेचो या लो मोल ।
हाथ आपके नाव है, बांधो या दो खोल ।।
बांधो या दो खोल पशु हैं आज तुम्हारे ।
जो चाहो सो करो दास महाराज तुम्हारे ।।
गंगादास कहें उजर करें तो गुजर नहीं है ।
बेचो सरे बाजार हमारे उजर नहीं है ।।
२४
आता न उस वक्त पै दारा सुत धन काम ।
रुका कंठ, धरके कहें, अब तुम बोलो राम ।।
अब तुम बोलो राम पति ! पत्नि हूँ तेरी ।
कैसे होगी गुजर, एक बार बोलो, मेरी ।।
गंगादास उस वक्त कोई मारग पाता ना ।
नव दर हो गए बंद स्वांस पूरा आता ना ।। २५
बोलो जो कुछ धरा हो कहीं आपका माल ।
मुझे बतादो सहज में आय गया अब काल ।।
आय गया अब काल माल घर के बूझैं हैं ।
जो साऊ थे सगे सोई दुशमन सूझैं हैं ।
गंगादास कह नार, भेद तन धन का खोलो ।
अब क्यों साधो मौन पिया मुझ से तो बोलो ।।
सन्दर्भ - जाट समाज आगरा, सितम्बर २००७ पृष्ठ ४
संत गंगा दास की कुण्डलियाँ २६-३०
२६
मनो मेरी आज ये, बात मानने योग ।
साऊ ना दुशमन कोई, सब कर्मों के भोग ।।
सब करमों के भोगभोग देके जाता है ।
बिन भुगते ना नास होय आगे आता है ।।
गंगादास संसार खेल सपने का जानो ।
साऊ दुशमन भेद भरम से मिथ्या मानो ।।
२७
उल्लू को अचरज लगै, सुन सूरज की बात ।
अन्ध होत दिन के उदय, देते दिखाई रात ।।
देते दिखाई रात रवि को मिथ्या मानै ।
औरों को कह मूढ़ आपको पण्डित जानै ।।
गंगादास गुरुदेव करें क्या चेले भुल्लू ।
रवि को करें अभान जन्म के अंधे उल्लू ।।
२८
पापी के कोई भूलकर, मत ना बसो पडौस ।
नीच जनों के संग में, निर्दोषी गहें दोस ।।
निर्दोषी गहें दोस, दोस देते दुःख भारी ।
बिगड़ जाय दो लोक भीख ना मिलै उधारी ।।
गंगादास कहें नीच संग डूबें परतापी ।
तजै गाम, घर, देस, जहाँ बसते हों पापी ।।
२९
टूटी चोंच कुसंग से, सुआ भये उदास ।
आए थे कुछ ब्याज को मूल बी कर लिया नास ।।
मूल बी कर लिया नास बड़े धोके में आए ।
इन कागों के संग बड़े दुख हमने पाये ।।
गंगादास तक़दीर जहाँ कागों में फूटी ।
कागा हांसी करे चोंच तोते की टूटी ।।
३०
बीरज में जहाँ खता है, अति खरा है खेत ।
खेत सदा बल देत है, बीज बदल ना देत ।।
बीज बदल ना देत चाहे अमृत बरसावे ।
चिन1 से चावल नहीं खेत करके दिखलाव ।।
गंगादास कहें वेद धरम से होता धीरज ।
चाहे धरण डिग जाय, कदी बदले ना बीरज ।।
1 चिन=गन्ने की एक नाटी किस्म
सन्दर्भ - जाट समाज आगरा, अक्टूबर-नवम्बर २००७ पृष्ठ ८
संत गंगा दास की कुण्डलियाँ ३१-३५
३१
केसर के सतसंग में, बसी रहे चाहे रोज ।
प्याज-बास जाती नहीं, चाहे सो करले चोज ।।
चाहे सो करले चोज नीच ऊँचे ना होवैं ।
खर तुरंग ना होय चाहे तनु तीरथ धोवैं ।।
गंगादास जब नाक नहीं क्या सोहैं बेसर ।
किसी जतन से प्याज कदी होती ना केसर ।।
३२
बाजी खर होते नहीं, चाहे खाय कपूर ।
यम नजाद बदलें नहीं, है ये बात जरूर ।।
है ये बात जरूर, तुखम तासीर सही है ।
समझदार ने बात समझ कर ठीक कही है ।।
गंगादास खर पशु रहें कूड़ी पर राजी ।
ताज धरो चाहे शीश, गधा होता ना बाजी ।।
३३
शेरों में घर स्यार ने, छाया क्या है फेर ।
पराक्रम बिन नाम से, हो नहीं सकता शेर ।।
हो नहीं सकता शेर, कभी शेरों में बसकर ।
सिंह अकेले रहें फिरें स्यारों के लश्कर ।।
गंगादास पनचास1 नहीं रमते बेरों में ।
मुर्दे करें तलास स्यार बसकर शेरों में ।।
३४
मान बड़ाई, इर्षा, आशा, तृष्णा, चार ।
ये चारों जब तक रहें, जप-तप सब रुजगार ।।
जप-तप सब रुजगार नफा पावै हो टोटा ।
भरम चक्र में पड़ा रहे भगवत से चोटा2 ।।
गंगादास कहे स्वपच लोभ, खल क्रोध कसाई ।
इनसे बचके रहो सभी हैं महा दुखदाई ।।
३५
तेरे में, मुझमें, तुझे, यही एक है जाल ।
दुई इसी में फंस रहे, राजा अरु कंगाल ।।
राजा अरु कंगाल, दुई दोजख में गेरे ।
जहाँ दुई ना रहे, रहे उसको जब हेरे ।।
गंगादास परकास छिपाया अंधेरे में ।
व्यापक हैं भगवान ब्रह्म मेरे तेरे में ।।
1. शेर 2. चोर
सन्दर्भ - जाट समाज आगरा, जनवरी-फ़रवरी २००८ पृष्ठ ४
संत गंगा दास की कुण्डलियाँ ३६-४०
३६
मेरे तेरे में तुही, ये दो तुमसे दूर ।
तू मुझमें ना पवता, मैं तुझमें भरपूर ।।
मैं तुझमें भरपूर भूलकर दूर बतावै ।
तू कहता परछिन्न वेद भरपूर लखावै ।।
गंगादास जब मर्म-भर्म दो तज गेरे में ।
नहीं फेर कुछ फर्क समझ मेरे तेरे में ।।
३७
विष में अमृत होत है, भगवत वर परसाद ।
दुश्मन मित्तरवत सबी , तपवत् सब परमाद ।।
तपवत् सब परमाद दया भगवत की जिनपै ।
सागर गो-पद-तुल्य राम राजी जिन किन पै ।।
गंगादास कहें समझ वेद ज्ञापक हैं इसमें ।
मीरा को हो गया महा अमृत रस विष में ।।
३८
देखे न इस जगत में, बिन तमा1 के भेख ।
असली भेखी न मिले, भेख लिए सब देख ।।
भेख लिए सब देख मिले भेखों में भेखी ।
जो भेखों से परे तमा उनमें न देखी ।।
गंगादास बेतमा, तमामी2 कर गए लेखे ।
तप में उमर तमाम करी बेतमा न देखे ।।
३९
ले ले मंदा बिक रहा, सौदा अति अनमोल ।
भर लेजा मन मान तू, बिना तुलाई तोल ।।
बिना तुलाई तोल लगे ना कौडी खरचा ।
नफ़ा सौ गुना होय बही या देखो परचा ।।
गंगादास कह चाहे मुझे कोई जामिन दे ले ।
नाम राम बिन, तोल बिन सौदा ले ले ।।
४०
तेरे बैरी तुझी में, हैं ये तेरे फ़ैल ।
फ़ैल3 नहीं तो सिद्ध है, निर्मल में क्या मैल ।।
निर्मल में क्या मैल, मैल बिन पाप कहाँ है ?
बिना पाप फ़िर आप, आपमें ताप कहाँ है ?
गंगादास परकास भय फ़िर कहाँ अंधेरे ?
और मित्र सब जगत फ़ैल दुश्मन हैं तेरे ।।
1 माया 2 समाप्त 3 दुर्व्यसन
सन्दर्भ - जाट समाज आगरा, मार्च २००८ पृष्ठ ४
संत गंगा दास की कुण्डलियाँ ४१-४५
४१
लक्षण येई नीच के , तजै वेद मरजाद ।
कटुक वचन, मद, इर्षा, क्रोध, काम, परमाद ।।
क्रोध काम परमाद बैर बिन कारण लावै ।
दगाबाज अन्याई पीठ पर चुगली खावै ।।
गंगादास जड़ जीव मांस मद करते भक्षण ।
सदा पाप में रति येई नीचों के लक्षण ।।
४२
सोई जानो जगत में, उत्तम जीव सुभाग ।
मधुर वचन निरमानता, सम दम तप बैराग ।।
सम दम तप बैराग दया हिरदे में धारैं।
मुख से बोलें सत्त सदा, न झूठ उचारैं ।।
गंगादास सुभ कर्म करें तजकर बदगोई ।
तन मन पर उपकार समझ जन उत्तम सोई ।।
सन्दर्भ - जाट समाज आगरा, अप्रेल २००८ पृष्ठ ४