आखिर जीत हमारी/भाग 2 - भाग जाइये

From Jatland Wiki
Jump to navigation Jump to search
मुख्य पृष्ठ और विषय सूची पर वापस जायें
भाग-1 पर जायें
भाग-3 पर जायें »»


आखिर जीत हमारी
(वीर रस का एक ऐतिहासिक उपन्यास)
लेखक
रामजीदास पुरी
(उर्फ सय्याह सुनामी)
Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल


भाग 2 - भाग जाइये

एक पहर दिन चढ़ने तक डेढ़ योजन का मार्ग तय कर वे पांचों यात्री गांव के पास पहुंचे । सारा दिन किसी एकान्त स्थान पर ठहर कर, दिन ढ़लते ही वे अपनी शेष यात्रा को आरम्भ करना चाहते थे परन्तु कहां ! इससे ईरानी तो क्या धूमकेतु और महाबाहु भी अनभिज्ञ थे ।


गांव के बाहर एक छोटा सा तालाब था जिसके किनारे एक कुटिया थी जो किसी साधु सन्यासी अथवा ब्रह्मचारी की प्रतीत होती थी, परन्तु इस समय वह खाली पड़ी थी, इसके पास तालाब की पक्की सीढ़ियों पर पैर फैलाकर वे सब अपनी टांगों की थकान मिटाने लगे । सामने गांव के कुएं पर तीन महिलाएं पानी भर रही थीं । पास में खड़ा कुत्ता रह-रहकर भौंक उठता था । एक बूढ़ा बैल कहीं से आकर तालाब के कच्चे घाट पर पानी पीने लगा । बकरी के दो मेमने दौड़े-दौड़े आए, झोंपड़ी के पास खड़ी बेरी के गिरे पत्तों को चबाने लगे ।


थोड़े समय तक विचार में डूबे रहने के पश्चात् रुद्रदत्त की दृष्टि ईरानियों पर स्थिर हो गई, जो धुएँ में छिपे गांव की ओर देख रहे थे । रात्रि के अंधकार तथा मार्ग की थकावट के कारण वह उनकी आकृतियों का अध्ययन समुचित रूप से नहीं कर सका था । अब वह चाहता था कि उसके वास्तविक स्वरूप को भली-भांति समझ सके । वे दोनों काफी सुन्दर थे । उनका रंग लाल गेहुंआ था तथा वे अभिजात वर्ग के दिखाई देते थे । रुद्रदत्त की तीव्र दृष्टि घूमती हुई उनके मुख से हट कर कलाइयों पर आकर ठहर गई । उनके सारे अंगों का निरीक्षण करती हुई वह दृष्टि मुख पर आकर रुक गई । तभी उनकी आंखों में जादूगर के सदृश्य चमक उत्पन्न हो गई ।


"बहराम !"

बहराम ने चौंक कर रुद्रदत्त की ओर देखा, "कहिए क्या कहना चाहते हैं ।" "क्या आप हमारे साथ मिलकर काम करना चाहते हैं ? परन्तु इन दिनों हमें अनेक बार अपना भेष बदलना पड़ता है इसलिए यहां से प्रस्थान करने से पूर्व आपको अपनी राष्ट्रीय वेशभूषा छोड़नी पड़ेगी क्योंकि हिन्दू युवकों के ईरानियों के समान लम्बी-लम्बी दाढ़ियां और बाल नहीं होते । इसलिए इनको भी.....।"


"हम अपने बाल कटवाने को तैयार हैं । जिस महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमने घर-बार यहाँ तक कि अपने प्राणों को भी तुच्छ समझ रखा है उसके लिए तुच्छ बालों का क्या करेंगे ?"

"महाबाहु" रुद्रदत्त ने अपने साथी से कहा, "किसी नाई को ढूंढ़कर लाया जाए ?"

"नहीं, अपितु तुम हजामत का सामान यहीं जुटाओ । हम नहीं चाहते कि दो विदेशियों की भेष बदलने की अफवाह इस गांव में फैले जहां कि हमें सारा दिन व्यतीत करना है ।"

"बहुत अच्छा" । महाबाहु खड़ा हो गया ।

"और देखो, आते समय भोजन सामग्री भी लेते आना । इतने समय में धूमकेतु और मैं रसोई आदि का प्रबन्ध कर रखेंगे ।"


लम्बी डील-डौल और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व वाले महाबाहु ने जब गांव में प्रवेश किया तो पानी भरती युवतियां ठिठक कर खड़ी हो गईं । आने जाने वाले किसानों ने झुककर उसे अभिवादन किया, तथा चौपाल पर खेलने वाले बालकों ने उसके लिए स्थान छोड़ रखा था ।


नाई घर पर नहीं था और न ही बनिये की दुकान खुली थी । ऐसी विषम स्थिति में महाबाहु एक दीवार के सहारे खड़ा होकर कुछ सोचने लगा । तभी एक नन्हीं बालिका अपने पालतू कुत्ते के साथ उधर से गुजरी । एक अजनबी को आते देखकर वह ठिठकी और उसका कुत्ता गुर्राया ।


"यह कुत्ता मेला है जी"

"अच्छा"

"तुम इसको मालोगे तो नहीं ?"

"क्या तुम मेरे बाप को मिलना चाहते हो ?"

"हां, इस दुकान के मालिक से ।"

"वह तो संघ की बैठक में गए हैं ।"

"संघ ?"

"हां ! हां ! मन्दिर"


दुकान के साथ वाला दरवाजा खुल गया और किवाड़ पीछे एक बूढ़ी स्त्री की आवाज सुनाई दी, "महाराज, दुकान का मालिक तो मन्दिर में गया हुआ है । वहां सत्संग लगा हुआ है । बाहर ग्राम से दो बुद्ध भिक्षु धर्मप्रचार के लिए पधारे हुए हैं । सभी लोग वहीं एकत्रित हैं । वहां उनके दर्शनों के लिए किसान लोग भी खेतों में नहीं गए ।"


"दुकान का स्वामी कब तक वापस आएगा ?"

"कौन जाने महाराज, ज्ञान और धर्म की बातें सुनकर तो लोग घर-गृहस्थी को भी भूल जाते हैं । शायद सत्संग समाप्‍त होने के बाद ही आएँ ।"

"मैं कुछ सामग्री खरीदना चाहता था । क्या उनकी अनुपस्थिति में और नहीं दे सकता ?"

"नहीं महाराज, हम स्त्रियां तो चर्खे के सिवाय और कुछ नहीं जानतीं । मालूम पड़ता है आप पथिक हैं । आइये, मैं आपके बैठने के लिए खाट और भोजन के लिए थाली परोस देती हूँ ।"

महाबाहु ने कहा, "आपकी कृपा के लिए अनुगृहीत हूं, परन्तु मुझे भोजन की इच्छा नहीं । मैं तो केवल कुछ वस्तुएं ही मोल लेना चाहता था ।"


"जैसी आपकी इच्छा ।" कहकर उस स्त्री ने दरवाजा बन्द कर लिया । नन्हीं बालिका ने सिर उठाकर महाबाहु की ओर देखा जो सोच रहा था, मुझे वापस जाना चाहिए अथवा मंदिर की ओर । मूंछों में छिपे महाबाहु के चेहरे पर दृष्टि डालकर वह बोली, "तुम मंदिर जाओगे क्या ?"


महाबाहु एकदम चौंक पड़ा, "मंदिर किधर है ?" उसने पूछा ।

"यहीं पास में ही तो है, आओ मेरे साथ आओ ।" नन्हें-नन्हें पग भरती बालिका आगे-आगे चल पड़ी ।


मन्दिर के बाहर सीढ़ियों के दोनों ओर लोगों के जूते इस तरह पड़े दिखाई देते थे मानो किसी नदी के तट पर धूप सेकते हुए कछुओं का भारी समूह बैठा हो । साधारण जूतों के अतिरिक्त कुछ सोने के तल्ले की कढ़ाई वाले जूते भी पड़े थे ।


दुविधा में पड़ा महाबाहु सोच रहा था इस भरी सभा के मध्य में से दुकान के स्वामी को बुलाना कितना अनुचित है । वह उन लोगों का उपदेश सुनने का इच्छुक भी नहीं था । इस प्रकार अनिश्चित सी स्थिति में उसका ध्यान जूतों की कतारों की ओर चला गया, परन्तु उसके कान मन्दिर के अन्दर से आने वाली ध्वनि की ओर लगे थे जो दूर होने पर भी बड़ी स्पष्ट सुनाई दे रही थी ।


"उदारता, सन्तोष और त्याग किसी की बपौती नहीं, सभी लोग लोभ, ईर्ष्या, द्वेष की अग्नि में जल रहे हैं ।"


"यह बैल हमारा है, यह घर मेरा है, इसको बरतने का किसी को अधिकार नहीं । अन्य व्यक्ति किसलिए इसमें कदम रखें, उदारता, सन्तोष और त्याग किस के मन में नहीं बसते, सभी लोग अहंकार, ईर्ष्या और लोभ की अग्नि में जल रहे हैं । यह धन, खेत मेरे अधिकार में आ जाएं, इस लालच की पूर्ति के लिए मनुष्य इतना अन्धा हो जाता है कि उसे यह भी दिखाई नहीं देता कि प्रासाद बनाते समय पड़ौसी की झोंपड़ी तो नष्ट नहीं हो रही । अपने खाने के लिए नाना प्रकार के व्यंजनों को जुटाने में पड़ौसी को भूखे तो नहीं सोना पड़ेगा ? अपने ऊपर ओढी जाने वाली चादर के कारण गरीब आदमी के चिथड़ों की बलि तो नहीं ले रहा हूं । इस प्रकार की विचारधारा से छोटे-छोटे किसान, व्यापारी या छोटी-छोटी झोंपड़ियों वाले गांव, बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं वाले नगर, यहां तक कि बड़े राज्यों के अधिपति भी प्रभावित हैं, प्रत्येक जगह पर स्वतन्त्रता, सरलता और पवित्रता के स्थान पर लूट-खसोट, बेईमानी और स्वार्थ का बोलबाला है । साम्राज्यवाद की लालसा के वशीभूत एक राजा दूसरे के राज्य पर अधिकार करना चाहता है जिससे युद्धों का श्रीगणेश होता है । अगणित नवयुवकों का रक्त पानी की तरह बहता है, माताओं की गोद सूनी हो जाती है, सुहागिनों के सुहाग उजड़ जाते हैं । क्या यह अच्छा नहीं होता कि प्रत्येक राजा अपने ही राज्य पर सन्तोष करे ? अगर इतने से भी उसकी साम्राज्य की लालसा शान्त न हो तो दूसरे राजाओं को उसके द्वारा किए गए युद्ध के आह्वान पर प्रेम और आदर के नाते मिलकर राज्य करने का प्रस्ताव रखना चाहिए तथा प्रजा की सुख-समृद्धि के लिए प्रयत्‍नशील होना चाहिए । इस पर भी अगर दूसरे की इच्छा पूर्ति नहीं होती तो लाखों लोगों को संहार से बचाने के लिए उसे अपना राज्य छोड़ देना चाहिए ताकि अबलाओं का सतीत्व सुरक्षित रह सके । माताओं की कोख भरी रहे । खेत और बस्तियां हरी-भरी रह सकें । इससे अधिक पुण्य और क्या हो सकता है ?"


"आजकल हूणों की सेनाएं भारतवर्ष की सीमा में बढ़ती हुई आ रही हैं । प्रत्येक राजा उनकी इस प्रगति को रोकने के लिए युद्ध कर रहा है, स्थान-स्थान पर रक्त की नदियां बह रही हैं, शवों के ढ़ेर लग जाते हैं, देश में शान्ति समाप्‍त हो चुकी है । न जाने संसार अहिंसा और सन्तोष की किस लिए तिलाञ्जलि दे बैठा है ? क्या हूणों के प्रति भ्रातृत्व की भावना प्रदर्शित करके उनका आक्रामक स्थान पर अतिथि बनाकर स्वागत नहीं किया जा सकता ? क्या उनसे यह नहीं कहा जा सकता कि तुम हमारे शत्रु नहीं अपितु साथी हो, तुम्हारे स्वागत के लिए राज्य के दरवाजे ही नहीं, अपितु हमारे हृदय भी खुले हैं, यह सब वस्तुएं तुम्हारी हैं । राज्य की मान, देश की झूठी सीमाएं निर्धारित करके राजनैतिक अहंकार में डूबे हुए हैं । धर्म, अधर्म, सत्य, अहिंसा ....."


मंदिर से बाहर खड़े महाबाहु को इस भाषण को सुनकर ऐसा अनुभव हुआ जैसे उसके पैरों से जमीन खिसक रही हो, कभी-कभी उसे लगता जैसे वह धधकते अंगारों पर खड़ा है ।


बौद्ध भिक्षु के भाषण से उसे राष्ट्र के अपमान की बू आती दिखाई दी, वह क्रोध से तिलमिला उठा और आवेश से पागल हुआ मन्दिर के आंगन में जा खड़ा हुआ, जहां लोग बैठकर उस धर्म-प्रचारक की वाणी को ग्रहण कर रहे थे । एक पीठिका पर दो भिक्षु बैठे हुए थे तथा तीसरा खड़ा हुआ सब लोगों को अपने प्रवचन सुना रहा था । तीनों के वस्त्र उज्जवल थे, उनके चेहरे से निर्मल शान्ति की ज्योति प्रस्फुटित हो रही थी, तप और आध्यात्मिकता का प्रकाश उनके चेहरे पर दिखाई देता था, देवताओं के समान माया, मोह, ममता की सांसारिक बाधाओं से परे वे किसी आदर्श के प्रतीक लगते थे । खड़ा हुआ भिक्षु अपने मीठे स्वर में जनसमूह को संबोधित कर रहा था ।


"भगवान बुद्ध के भिक्षु और भिक्षुणियों को देखो जिनमें सब वर्गों के लोग हैं - स्त्री, पुरुष, धनी, निर्धन, राजा, रंक सभी ने अपनी सम्पत्ति, घर बार, पुत्र, कलत्र को छोड़कर संसार के माया मोह से मुक्ति प्राप्‍त कर ली है । आज संसार उनका घर है, सब लोग उनके मित्र हैं । उन्होंने सांसारिक शत्रुओं को पराजित करने की अपेक्षा काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार पर विजय पाई है । चांदी, सोने या रेशमी वस्त्रों को एकत्रित करने की अपेक्षा विश्व प्रेम का धन एकत्रित किया है । चोर डाकू, पापी, अत्याचारी सभी के लिए उनके मन में प्रेम है । कोई भी उनका शत्रु नहीं, यदि कोई उन पर क्रोधित होता है, उन्हें गालियां देता है तो वे आशीष वचनों से उसे सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्‍न करते हैं ।"


"इसलिए भगवान् बुद्ध के भक्तजनो, भगवान् बुद्ध की शरण में आओ, अपना सर्वस्व त्यागकर भिक्षु बन जाओ । इससे संसार में सुख और शान्ति फैलेगी । यदि तुम इतना बड़ा त्याग नहीं कर सकते तो सत्य और अहिंसा का व्रत लो, भगवान् के बताये मार्ग पर चलो । यदि तुम्हारा कोई शत्रु तुम्हारे मुख पर थप्पड़े मारे तो उसको मुक्का मारने की अपेक्षा उसके हाथों को प्रेम से सहलाओ । यदि तुम्हारे खेतों पर अधिकार जमाए तो लड़ने की अपेक्षा उसे आशीर्वाद दो कि तुम्हें यह धरती खूब अन्न दे और अपने लिए अन्य कोई बंजर धरती का टुकड़ा लेकर जोत लो और अपने परिश्रम से उसे फुलवारी में बदल डालो । अपने मन से क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष को निकाल दो तथा अपने घरों में बड़े शस्‍त्रों को बाहर फेंक दो ताकि कभी क्रोध की दबी हुई चिन्गारी सुलग उठे तो रक्त की नदियां न बहें, भगवान् बुद्ध के नाम पर मैं तुम से प्रार्थना कर रहा हूँ कि अपने घर के शस्‍त्रों को लाकर हमें दे दो, हम उनको नदी में फेंक देंगे । हम संसार के एक कोने से दूसरे कोने तक भगवान् बुद्ध के अहिंसा के राज्य को फैला रहे हैं । अब तीक्ष्णधार वाले शस्‍त्रों का स्थान मधुर वचनों ने ले लिया है । बर्बरता और अज्ञानता का समय बीत गया है । हम छोटे बड़े, राजा, धनी, गरीब, शत्रु, मित्र, सभी में एक ही आत्मा का प्रकाश देख रहे हैं । झूठी ईर्ष्या, द्वेष और घृणा को छोड़कर अहिंसा के रत्‍नजड़ित रथ पर चढ़कर हम मुक्तिमार्ग की ओर चल पड़े हैं ।"


उपदेश सुनने के अनन्तर अनेक श्रोतागण अपने-अपने शस्‍त्र ला ला कर चबूतरे पर ढ़ेर लगाने लगे ।


यह सारा कार्यक्रम बड़ी शान्ति से चल रहा था । भिक्षु लोग अपने स्थान पर बैठे हुए जनसमूह की ओर ताक रहे थे, ऐसा लगता था मानो उन्होंने जादू के प्रभाव से उनके मन और शरीरों पर अधिकार कर लिया है और वे जैसा चाहें उनसे करा रहे हैं । हथियारों की तो बात ही क्या, अगर वे उनसे उनके पशु, धन, स्‍त्री, पुत्र आदि जो भी मांगते श्रद्धालु जनता वह उनके अर्पण कर देती । परन्तु उस जनसमूह में केवल महाबाहु ही ऐसा व्यक्ति था जिस पर उस भाषण का कोई प्रभाव नहीं हुआ । अपितु एक विरोध की भावना उसके मन में उठ रही थी, उसके सामने ही जब लोग अपने अस्‍त्र-शस्‍त्र बौद्ध भिक्षुओं के समक्ष लाकर पटक रहे थे, और अपने विनाश की स्थिति उज्जवल कर रहे थे, उसका धैर्य छूटने लगा, वह तेज कदम रखता हुआ भिक्षुओं के सामने जा खड़ा हुआ । एक क्षण मौन रहकर उसने अपनी भारी वाणी में पूछा, "क्या मैं भी इस विषय में अपना विचार जनता के सामने प्रकट कर सकता हूं ?"


साधारण अवस्था में इस प्रकार की आज्ञा देते हुए भिक्षु अवश्य कतराते परन्तु आज भिक्षु ऐसा नहीं कर सका, उसने महाबाहु से कहा, "आइये आप .... प्रसन्नता से जनता के समक्ष अपना विचार रखिये, यदि आप हमारे नियमों के विरुद्ध भी कुछ कहेंगे तो हम उदार मन से उसे भी सुनेंगे ।"


लम्बे-चौड़े कद और प्रभावशाली व्यक्तित्व वाला महाबाहु अपनी ओजस्वी वाणी में गरजता हुआ बोला । उसकी हुंकार मात्र से ही सारा जनसमूह शान्त और निस्तब्ध होकर बैठ गया । सब उस व्यक्ति को आश्चर्यचकित होकर देखने लगे, जिसके विषय में कोई कुछ नहीं जानता था कि वह कौन है और कहां से आया है ।


"मेरे देशवासियो ! धर्म-बन्धुओ !" उसने धीर-गम्भीर वाणी में कहना शुरू किया, "मैं एक अपरिचित पथ का यात्री हूं, भोज्य-सामग्री लेने के लिए आपके गांव में चला आया था । यह पता चलने पर कि दुकान का मालिक इस सत्संग में चला आया है, मैं भी इधर निकल आया । मेरा सौभाग्य है कि सारे ग्रामवासियों तथा देवतास्वरूप बौद्ध भिक्षुओं के दर्शन का अवसर मुझे प्राप्‍त हुआ है, मैंने भी आपके समान उनकी मधुर वाणी और मनोहर उपदेश का श्रवण किया है । इस संसार के मायाजाल में फंसे हम जैसे साधारण लोग इतनी उच्च भावनाओं का अनुमान भी नहीं कर सकते । इस ऊंचे ज्ञान को सुनकर मोह माया के बंधन टूटने लगते हैं और पाप भरे इस संसार से विरक्त होकर वन गमन की इच्छा उत्पन्न होती है । इन्हीं के त्याग भरे शब्दों का प्रभाव है कि आप लोग अपने अस्‍त्र-शस्‍त्रों को तिलांजलि देने के यहां आये हैं, ऐसे शस्‍त्रों को जो आपको शत्रुओं से बचाते थे । आपके पशुओं की चोरी से रक्षा करते थे । पूज्य भिक्षुओं का यह उपदेश सुनकर मेरा मन भी प्रभावित हुए बिना न रहा । परन्तु मुझ पर इनके भाषण का बिल्कुल उल्टा प्रभाव पड़ा । उल्टा इसलिए नहीं कि मैं आपकी भांति हिन्दू नहीं, इस कारण भी नहीं कि मैं त्याग और अहिंसा की महत्ता को नहीं समझता । अपितु इसका कारण यह है कि मैं कुछ ऐसी विकट परिस्थितियों से गुजरा हूं । मेरी आंखों ने देश और जाति पर वह अत्याचार होते देखे हैं जिनके आगे सभ्यता और शिष्टाचार का कोई मूल्य नहीं, मेरा तात्पर्य अत्याचारी हूणों की बर्बरता और राक्षसपन से है । सहस्रों ग्राम और नगर खंडहर हो गये, लाखों लोगों का नाश हुआ, अगणित अबलाओं का सतीत्व लूटा गया, हरी-भरी खेतियां जलाकर राख कर दी गईं । यह ठीक है कि इन बर्बरों के भाले की नोंक अभी आपके गांव तक नहीं पहुंची, परन्तु उनके अमानुषिक अत्याचार की कहानियां आज समूचे देश के कानों में गूंज रहीं हैं । कोई कारण नहीं कि वह आप तक न पहुंची हो । हमारे साधु-सन्यासी और भिक्षु यही उपदेश देते हैं कि किसी प्राणी को दुःख मत दो, किसी छोटे से छोटे जीव को मत सताओ । उनके इस कथन के प्रति किसी को इन्कार नहीं, परन्तु संसार में प्रतिदिन होने वाली घटनाओं को देखकर हमें बड़े दुःख से कहना पड़ता है कि सांसारिक व्यवहार और राजनीति में बुरे लोगों के साथ सच्चाई करने में हमेशा धोखा खाना पड़ता है । आप लोग हूणों को ही देखें, क्या आप में से कोई बता सकता है कि हिन्दुस्तान और हिन्दुओं ने इनका क्या बिगाड़ा था, इन पर किसी प्रकार का आक्रमण किया था अथवा इनको किसी अधिकार से वंचित रखा था, जिस कारण इन निर्दयी अत्याचारियों ने अहिंसा और शान्ति के पुजारी भारतीयों का नरमेध आरम्भ कर दिया, मनमानी लूट-खसोट शुरू कर दी । सैंकड़ों गांवों, हजारों एकड़ लहलहाती खेती को भस्मसात् कर दिया । सब स्थानों पर भारतीयों ने अपने शिष्टाचार और अहिंसा की ढ़ाल से इन को रोकना चाहा परन्तु प्रत्येक स्थान पर बर्बरता तथा बरछों की मार से यह दीवार टूटकर खंड-खंड हो गई । खम्भों से बंधे पिता-पुत्रों ने अपनी आंखों से बहिन और बेटियों पर राक्षसी बलात्कार होते देखा, उसी प्रकार पुजारी और भक्तों के सन्मुख उनके प्रिय देवताओं की मूर्तियों को खंडित किया गया, गगनचुम्बी मन्दिरों के तोरणों को धूल में मिला दिया गया ।"


“भाइयो, हमारे यह खलिहान और चौपाल, मुस्कुराते गृहस्थ और मन्दिरों की अक्षय पवित्रता देश की स्वतन्त्रता पर अवलम्बित है । देश की स्वतन्त्रता से साथ ही हमारा सम्मान जीवित है । इसकी प्रतिष्ठा के साथ ही इन महात्माओं, भिक्षुओं और सन्यासियों की दशा भी सुरक्षित है । देश की स्वतन्त्रता प्रत्येक भारतीय स्‍त्री-पुरुष आबाल वृद्ध को प्रिय है । इसकी रक्षा के लिए प्रत्येक को अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए कटिबद्ध रहना चाहिये । इन भिक्षुओं ने अहिंसा के आदर्श का केवल एक ही पक्ष लोगों के सामने रखा है । आप लोग अगर मुझे आज्ञा दें तो मैं आप को बताऊं कि इसका एक अन्य स्वरूप भी है और संसार के राजनीतिज्ञों की दृष्टि में अहिंसा के जिस रूप को माना गया है उसे आप के सामने उपस्थित करूँ । मैं मानता हूँ कि इसको बताने के लिए मेरे पास सुन्दर शब्द नहीं और न ही आप लोगों को प्रभावित कर देने वाले तर्क हैं । परन्तु मेरे पास सच्चाई और वास्तविकता का वह भीषण चित्र है जिसके कारण मैं आप जैसे समझदार व्यक्तियों के सामने भी बोलने का साहस करने लगा हूँ ।“


“हिन्दू अथवा ईरानी, अरब अथवा चीनी सब जातियां सृष्टि के आदि से ही प्रत्येक उस मनुष्य को जो उनसे प्रेम करता है, सुख देती रही हैं, प्रेम करती रही हैं, और शत्रुता रखने वाले अथवा कष्ट देने वाले प्राणियों को नष्ट करने का प्रयत्‍न करती रही हैं । अपने जीवन के सुख सम्मान और स्वतन्त्रता को सुरक्षित करने के लिए प्रत्येक आक्रमणकारी से लोहा लेती आई हैं । जब तक मनुष्य मनुष्य रहेगा देवता या कुछ और नहीं बन जाता वह यही कुछ करता रहेगा और यही करते रहना चाहिए । अहिंसा का व्यवहार उन लोगों के साथ चाहिए जो भले और सच्चे हों परन्तु उन लोगों के साथ अहिंसा बर्ताव जो धर्मान्धता, बर्बरता, अंधे जोश के मद में लूट-पाट, मारकाट की राक्षसी प्रवृत्ति का आश्रय लेकर हमारी शान्ति को नष्ट करने के लिए हम पर आक्रमण करें और अपने अत्याचारों से हमारे घर में हाहाकार उत्पन्न कर दें उन लोगों से अहिंसा और शिष्टाचार का व्यवहार करना मूर्खता ही नहीं अपितु पाप भी है ।”


“भाइयो, गाय जो अपने अमृत समान दूध से हमें पुष्ट करती है, वे बैल जो हमारी बंजर भूमि को जोत जोतकर लहलहलाती खेतियों के रूप में बदल देते हैं, उनके पालने के लिए हमें चारा अनाज की बालियां आदि देना शोभा देता है परन्तु उन हिंसक प्राणियों को जो हमारी भेड़-बकरियों को खा जायें और अवसर पाकर हमारे बच्चों को उड़ा ले जायें, उनका नाश करने के लिए हमें अपने शस्‍त्रों का प्रयोग करना चाहिए । इन देवस्वरूप भिक्षुओं के समान पवित्र आत्माओं, सम्पत्तियों, महात्माओं आदि की सेवा के लिए फल-फूल देना हमारा कर्त्तव्य है, इनके चरणों की धूल अपने मस्तक पर लगाना हमारा धर्म है, परन्तु वे लोग जो हमारे घरों में सेंध लगाकर खून पानी से इकट्ठी की गई हमारी धन सम्पत्ति को लूट ले जायें, हमारे पालतू पशुओं को हांक ले जायें, उनको हमें अपने पैने शस्‍त्रों से छेद डालना चाहिए, उनकी खोपड़ियां फोड़ देनी चाहियें । मानव सभ्यता सौन्दर्य और मानव रक्षा के लिए दुष्टों को दंड तथा सज्जनों को सराहना और पुरस्कार मिलना ही चाहिए ।”


"न्याय के ऊँचे सिद्धान्त और आत्म-रक्षा के जन्मसिद्ध अधिकार के आगे अहिंसा अथवा दया की न कभी किसी मनुष्य ने परवाह की और न ही प्रकृति ने की । परमात्मा जिसे सच्चा न्यायकारी कहा जाता है अथवा इस प्रकार कहना चाहिए कि जिससे बढ़कर सच्चा न्यायकारी कोई है ही नहीं, वह स्वयं मनुष्य को भले-बुरे कर्मों का फल देते समय ऐसी बातों की परवाह नहीं करता । उसके द्वारा भेजी गई मृत्यु उस समय की मानव की परिस्थितियों की परवाह नहीं करती । वह नहीं सोचती कि मां के प्यार से वंचित बच्चा भूख से तड़फकर बिलबिलाया करेगा और यह नन्हा-सा प्राणी समय के थपेड़े खाने के लिए अकेला रह जाएगा । अपने अटल नियमों का संचालन करते हुए यह न्यायकारी ईश्वर दयामय और करुणामय होता हुआ भी किसी पर दया नहीं करता और वास्तव में प्रकृति के कण-कण को उसकी नियमित सीमा के भीतर न रखते हुए मानव के विकास और सभ्यता की रक्षा के लिए इन्हें एक तरफ हटा ही देना चाहिए । यदि कोई लुटेरा अथवा अत्याचार करने वाली जाति किसी दूसरे देश अथवा जाति को गुलामी की जंजीर में जकड़ना चाहती है, उसके कन्धों पर दासता का जुआ रखना चाहती है, तो उस देश के नवयुवकों का यह कर्त्तव्य है कि वे अपनी चौड़ी छाती और विशाल भुजाओं से उस विनाशकारी बाढ़ को रोकने के लिए दीवार बनकर खड़े हो जायं, अपनी खड्गों की बिजलियों और बरछों की अग्निशिखाओं से उसे सुखा-जलाकर भस्म कर दें । विदेशी अत्याचारियों का बार-बार उल्लेख करके मैं आप लोगों को उत्तेजित करने का आरोप नहीं लेना चाहता परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि हूणों का संकट मकड़ी के तार से बंधी खड्ग के समान हमारे सिरों पर लटक रहा है जो किसी समय भी चाहे दहकती दोपहर की प्रखरता में अथवा रात्रि के अंधकार के सन्नाटे में आप लोगों तक पहुंच सकता है । इसलिए भविष्य के ज्ञाताओं और परिस्थिति तथा वास्तविकता को समझने वाले भिक्षुओं से आज्ञा लेकर आप लोगों से प्रार्थना करूंगा कि शस्‍त्रों को, जो आपकी जान और सम्पत्ति की रक्षा करते हैं, नदी में न बहायें अपितु अपने पास सम्हालकर रखें ताकि आने वाले समय में ये आप की रक्षा के काम आ सकें । शस्‍त्र अपने आप किसी के विनाश का कारण नहीं होता । जब आपने किसी निरपराध मनुष्य अथवा पशु-पक्षी को दुःख नहीं देना तो इनका रखना किस प्रकार अहिंसा के व्रत को भंग करने वाला हो सकता है ? प्रभु न करे परन्तु संकट के समय आप मेरी बातों की सच्चाई को स्वीकार करेंगे कि एक पथिक के तुच्छ परामर्श को स्वीकार करके शस्‍त्र-विहीन होने से बच गए थे । परिस्थितियां स्वयमेव भविष्यवाणी कर रही हैं कि शीघ्र ही वह समय आने वाला है । एक भारतवासी होने के नाते आप लोगों का कर्त्तव्य है कि प्रत्येक व्यक्ति हूणों के आक्रमण के समय राज्य सेनाओं के साथ मिलकर उन पर टूट पड़े । यदि आप में साहस की कमी हो और आत्मरक्षा की क्षमता न हो तो अवश्य अपने शस्‍त्रों को फेंक दें जिससे आपकी रक्षा का बोझ किसी को उठाना ही न पड़े ।"


लोगों के हाथ रुक गए, जिन्होंने अपने शस्‍त्रों को चबूतरे पर रखा था उन्होंने उन्हें उठा लिया, रास्ते चलते पथिक की बातों में उन्हें सच्चाई और वास्तविकता का आभास हुआ, उसके भाषण ने उनके मन पर जादू के समान प्रभाव किया । वह आपस में कहने लगे, "हां भाई, यह व्यक्ति सच कहता है, यह सब हमारे ही कल्याण के लिए कह रहा है ।" इस प्रकार के भाव उनके मन को उद्वेलित कर रहे थे । उन में कुछ व्यक्ति उचित शब्दों से यात्री का धन्यवाद करने के लिए उसकी ओर बढ़े, परन्तु ठीक उसी समय द्वार पर एक शोर सा सुनाई दिया जिससे सारे जन-समूह में हलचल मच गई ।


यह कोलाहल किसी आने वाले संकट की सूचना थी जो प्रायः गावों को सावधान करने के लिए किया जाता था । विशेषतः उस समय जब टिड्डी दल का आक्रमण होने वाला हो, अथवा किसी नदी नाले का बांध टूट गया हो । तब लोगों की आवाजें भय और विवशता से लड़खड़ा रही थीं । सब लोग कांप रहे थे । बौद्ध भिक्षु जो महाबाहु के मुख से अहिंसा की नवीन व्याख्या सुनकर खिजे बैठे थे, उनकी आंखें भी जिज्ञासा की उत्कण्ठा से चमक उठीं । अपने पीछे भयग्रस्त किसानों को लिए गांव का मुखिया चौपाल पर आया और सबको सम्बोधित करते हुए घबराये हुए स्वर में केवल तीन वाक्य ही कह सका – “हूणों ने सारंगपुर को लूटकर जला दिया है । राक्षसों के सदृश उन्होंने भीषण अत्याचार और मारपीट की है और अब वह इधर ही बढ़े चले आ रहे हैं ।”


भिक्षुओं की आंखें पथरा गईं, एक क्षण के लिए वे जड़ समान वहीं के वहीं बैठे रह गए । जनसमूह की स्थिति ऐसी विकट हो गयी जैसे किसी ने आकाश से सांपों की भरी पिटारी फेंक दी हो । किसी अज्ञात आपत्ति से बचने के लिए वे लोग हड़बड़ाहट में एक-दूसरे से भिड़ जाते थे और फिर एक दूसरे को देखकर लज्जा से सहानुभूतिपूर्ण शब्दों में क्षमा याचना करने लगते थे । इस प्रकार सब लोग सहायता की इच्छा से एकत्रित होकर खड़े हो गए ।


परन्तु महाबाहु ने भिन्न-भिन्न स्थानों पर खड़े हुए बीस-तीस नवयुवकों को देखा जो आने वाली विपत्ति से टक्कर लेने के लिए तैयार थे । यदि उन्हें इस बात का पता चल जाये कि आक्रमणकारियों की संख्या थोड़ी है और वह एक टोली के रूप में आ रहे हैं तो ये लोग अपने सम्मान की रक्षा के लिए उन पर टूट पड़ेंगे ।


समीप खड़े हुए लोगों में से एक वृद्ध व्यक्ति ने अजीब सा भाव प्रदर्शित करते हुए भिक्षुओं से कहा, "अभी-अभी आप लोग कह रहे थे कि विश्व प्रेम का भाव उत्पन्न कर लेने पर प्रत्येक प्रकार के दुःख दूर हो जाते हैं, कोई किसी से शत्रुता नहीं करता । इसलिए आप अपने हथियारों को नदी में फेंक देने की सलाह देते थे । अब यह अत्याचारी हूण हत्या और लूट मचाने हमारे ऊपर चढ़े आ रहे हैं । आप अपने विश्व प्रेम का अनोखा चमत्कार दिखाइये और विनाश से हमारी रक्षा कीजिए ।"


भिक्षु ज्ञान और तर्क की योग्यता रखते हुए भी शान्त थे । वे इस प्रकार के अनेक उत्तर देने की क्षमता रखते थे, परन्तु इस स्थिति में जिसे अत्याचार की आंधी ने उत्पन्न कर दिया था, इसके निराकरण का कोई उपाय नहीं पा रहे थे । उनके चेहरों पर घबराहट के चिन्ह लक्षित हो रहे थे और वह एक लज्जा की भावना का अनुभव कर रहे थे । उन्होंने पूर्णतः अपने पर काबू पा रखा था । उनमें इतनी शक्ति थी कि वह क्रोध को दबाये रखें परन्तु एक ऐसे जनसमूह पर जिस पर थोड़ी देर पहले उनकी वाणी का पूर्ण प्रभाव था और जो उनके आदेश पर बड़े से बड़ा बलिदान करने के लिए कटिबद्ध थे, उनके द्वारा प्रस्तुत तथ्यों का इस प्रकार असत्य सिद्ध हो जाना और अल्पबुद्धि ग्रामीणों के सन्मुख अपनी स्थिति को इतना विवश पाना इस घबराहट और दुःख का मुख्य कारण था । वे इस प्रत्यक्ष आक्षेप का कोई उत्तर नहीं दे सकते थे ।


व्याख्यान देने वाले भिक्षु को जैसे कुछ स्मरण हो आया हो, वह बोला - "हमारा एक साथी कई वर्ष हुए हप्‍तालियों के देश में धर्म प्रचारक के रूप में रह आया है । वह इनकी भाषा को बड़ी अच्छी तरह जानता है और उनसे बातें भी कर सकता है । हमें जहां तक हो सके, इन हूणों को समझाने का प्रयत्‍न करना चाहिए । बताइये हूणों की सेना कहां आ रही है ?"


"सागरपुर के मार्ग पर" सूचना लाने वाला बोला, "अब वे कोई दस कोस तक पहुंचे होंगे ।"

"तो आओ ! हमारे साथ चलकर बताओ ।"


समाचार देने वाले ने इन्कार करते हुए कहा, "नहीं महाराज, मैं आप लोगों के साथ नहीं आऊँगा, अपने गांव वालों के साथ रहकर जीना मरना मुझे मंजूर है, परन्तु घर से दूर किसी पगडंडी के किनारे शत्रुओं के बरछे से ढ़ेर हो जाना मुझे स्वीकार नहीं ।"


कोई भी व्यक्ति भिक्षुओं के साथ जाने को तैयार न हुआ । उस स्तब्ध वातावरण को भंग करते हुए वह भिक्षु स्वयमेव बोला, "तो हम अकेले ही जाते हैं । यदि वे गाँव में आन पहुँचे तो रोकना असम्भव हो जायेगा । आप लोग मार्ग छोड़ दीजिए ।"


सब लोग एक तरफ हट गए, उनके मध्य से गम्भीर कदम रखते हुए वे भिक्षु मन्दिर के आंगन से बाहर चले गए ।


अब हमें क्या करना चाहिये ? किस उपाय से काम लिया जाये ? क्या अत्याचारी हूण भिक्षुओं के प्रभाव से रुक जायेंगे ? सारा जन समूह महाबाहु को घेरकर खड़ा हो गया और इस संकट के समय उसे सहायता करने के लिए कहने लगा ।


महाबाहु ने कहा, "भाइयो, मैं स्वयमेव एक पथिक हूँ, उल्टा आप लोगों को मुझे शरण देनी चाहिए ।" उनमें से एक बोला, "आपका सुगठित शरीर और प्रभावशाली व्यक्तित्व किसी साधारण यात्री के समान नहीं । यह सत्य है कि अकेले आप हूणों के बहते हुए प्रवाह को रोक नहीं सकते हैं । परन्तु आप हमें कोई ऐसा मार्ग सुझाएं जिससे हम इस विनाश से बच सकें । हम अत्यधिक घबरा गए हैं ।"


महाबाहु ने एक दृष्टि लोगों पर डाली और एक क्षण चुप रहकर बोला "अधिक विनाश से बचने का यही एक उपाय है कि आप निर्लज्ज बनकर गाय, बछड़े और बहू-बेटियां उनके अर्पण कर दें ।"

"इस अपमान की कल्पना तो हम स्वप्न में भी नहीं कर सकते । वह हमारे शवों के ऊपर से निकलकर ही उनको हाथ लगा सकते हैं । अपमानित होकर जीने से क्या लाभ ?"


भीड़ में से कितनी ही आवाजें आईं ।

महाबाहु बोला, "तो आप लोगों का क्या अभिप्राय है कि यदि मरना ही है तो ऐसी मौत मरा जाये जिससे शत्रुओं की भी उतनी ही हानि हो जितनी हमारी ? हम भेड़-बकरियों की तरह मिनमिनाते और भय से कांपते हुए प्राण न दें अपितु एक-एक पग पर साका करते हुए सिंहों के समान दहाड़ के और सन्मुख चोटें खाते हुए प्राण विसर्जन करें ।"


"हाँ ! हाँ ! हम सम्मान से जीना और सम्मान से मरना चाहते हैं ।"


"मैं भी आप लोगों के साथ उस पक्षी की तरह जो एक रात किसी वृक्ष पर बसेरा करने के कारण उस में आग लग जाने पर कृतज्ञता प्रकाशन के लिए जल मरता है, कन्धे से कन्धा भिड़ाकर बलि होने के लिए तैयार हूँ । यदि इस युद्ध में आप मेरे नेतृत्व को महत्त्व देते हो तो मैं अपनी सेवाएं प्रस्तुत करने में पीछे नहीं हटूँगा ।" परन्तु इस से पूर्व वह समाचार लाने वाले से बोला, "तुम बता सकते हो कि हूणों की कितनी सेना आ रही है ?"


"सारनपुर में तो वह अढ़ाई सौ के करीब थे परन्तु उनमें से आधे लूट का माल लेकर वापस चले गये हैं ।"

'बहुत ठीक', महाबाहु की आंखें तेज से उदीप्‍त हो उठीं । उसने शीघ्रता से भीड़ में से अस्सी नब्बे शस्‍त्रधारी नवयुवकों को ऐसे छांट लिया जैसे कोई घिसे सिक्के छांटकर निकाल लेता है ।


"शेष व्यक्ति .... " वह आदेश देता हुआ बोला, "अपने-अपने घरों में चले जाएं और अपने दरवाजे बन्द कर छतों पर चढ़ जायें । हम लोग आक्रमणकारियों को गांव में प्रवेश करने नहीं देंगे, अगर कोई टुकड़ी बलपूर्वक गांव में प्रविष्ट हो जाए तो आप लोग अपने पैने तीरों से, पत्थरों से उन बिना बुलाए अभ्यागतों की खूब अच्छी तरह से सेवा करें ।"


"वीरो" महाबाहु उन नवयुवकों को सम्बोधित करते हुए बोला, "आप लोगों को हार-जीत की अपेक्षा अपने कर्त्तव्य का अधिक ध्यान करना होगा । इन आक्रमणकारियों से देश की रक्षा करना प्रत्येक युवक का मुख्य कर्त्तव्य है । आप लोगों के शौर्य की परीक्षा की घड़ी आन पहुंची है । अपनी माताओं के दूध का मूल्य चुकाने का समय आ गया है । आप लोगों को धैर्य से काम लेना होगा, किसी घबराहट अथवा जल्दबाजी की आवश्यकता नहीं । मुझे इस प्रकार के युद्धों का काफी अनुभव है, मैं हर आने वाली आपत्ति से आपको जागरूक करता रहूंगा और सबको यथायोग्य आदेश देता रहूंगा । आप लोगों में से एक युवक वृक्ष पर चढ़े और देखे कि हूणों की सेना भिक्षुओं को कहां पर मिलती है तथा उनकी भेंट का क्या परिणाम होता है । यह बात सत्य है कि भिक्षुओं तथा सन्यासियों के उपदेश आक्रमणकारियों के मार्ग में बाधक नहीं बनते, फिर भी अपना कार्यक्रम निश्चित करने के लिए हमें इस परिणाम की प्रतीक्षा करनी होगी । भिक्षुओं से भेंट की सूचना हमें एकदम देकर वृक्ष से उतर आना ।" एक फुर्तीला युवक आज्ञा पालन करने के लिए बाहर खजूर के पेड़ पर चढ़ने के लिये चला गया ।


"अब आप पच्चीस-पच्चीस की टोलियों में विभक्त हो जाओ, जिनमें से एक दल मन्दिर की रक्षा के लिए यहीं रह जाये और दूसरा द्वार की रक्षा के लिए चला जाये तथा तीसरा द्वार के दोनों तरफ की बुर्जियों पर चढ़ जाये । आक्रमणकारियों की सेना सीधे द्वार पर आयेगी, अतः हवेली की टुकड़ी हूणों के द्वार के समीप आते ही उन पर अपने-अपने तीरों की मार आरम्भ कर दें । चोट खाई हुई हूण सेना हवेली की ओर अवश्य मुड़ेगी और किले की दीवार तोड़ने का प्रयत्‍न करेगी । दीवार तोड़ने से पूर्व ही द्वार की टुकड़ी निकल कर उन पर टूट पड़े और अपने पैने शस्‍त्रों की मार से उन्हें धराशायी करने का यत्‍न करे । इसमें कोई सन्देह नहीं कि उनकी भारी संख्या के सामने हमारे नवयुवक न टिक सकेंगे इसलिए धीमे-धीमे पीछे हटते हुए उन्हें गांव में प्रविष्ट होने का अवसर दिया जाये ।"


"उसी समय हवेली के युवक ऊपर से उतरकर उनका मार्ग रोकें और शत्रुओं को धराशायी करने के लिए अपनी जान तक की बाजी लगायें । जब लोहे से लोहा टकरा रहा हो, युवक एक दूसरे के साथ जूझ रहे हों, तीसरी टुकड़ी मौत और विजय का प्रण लेकर युद्ध में आ कूदे और फिर जो होगा देखा जायेगा ।"


नवयुवकों के हृदय उत्साह से भर गये । उनकी धमनियों में गर्म रक्त प्रवाहित होने लगा । बताए हुए क्रम के अनुसार सब नवयुवक तीनों टुकड़ियों में विभक्त हो गये । अभी वे अपना स्थान लेने के लिए सीढ़ियों से नीचे उतर ही रहे थे कि खजूर पर चढ़े व्यक्ति ने सूचना दी कि हूणों की सेना के सेनापति ने तीनों भिक्षुओं के सिर धड़ से अलग कर दिये हैं और गांव की ओर बढ़े चले आ रहे हैं । वह संख्या में सत्तर के करीब दिखाई देते हैं ।


हवेली की छत पर चढ़े धनुर्धारी नवयुवकों का नेतृत्व संभालते हुए महाबाहु ने दूर से आते हूणों को देखा और सबने अपने तूणीर से तीर निकालकर धनुषों पर चढ़ा लिए । ज्यों ही हूण सेना के घुड़सवार द्वार के निकट आये, उन पर तीरों की वर्षा होने लगी । अनेक सैनिक और उनके घोड़े घायल होकर गिर पड़े ।


महाबाहु की बाणवर्षा इतनी तीव्र गति से हो रही थी कि हूण सेना के तीन नायक धराशायी होकर गिर पड़े । हवेली की छत पर बैठे ग्रामीण नवयुवक महाबाहु को इतनी शीघ्रता से बाण छोड़ते देख कर विस्मय विमुग्य हो गये । उन्हें अपने कर्त्तव्य से च्युत होते देख महाबाहु ने उन्हें टोका ।


गांव की रक्षा के लिए बनाई गई महाबाहु की योजना इतनी सुन्दर थी कि उस पर आचरण करके शत्रुओं के आक्रमण को पूर्णतः असफल बनाया जा सकता था परन्तु हूण सिपाहियों की हठधर्मी के कारण जिसकी उन्हें आशा नहीं थी, उन्हें उनका कड़ा मुकाबला करना पड़ा । बचे हुए हूण सिपाहियों में से आधों ने द्वार को तोडना शुरू कर दिया, शेष ने मरे हुए घोड़ों की आड़ में लेटकर बाणवर्षा आरम्भ कर दी तथा लेटे-लेटे आड़ लेकर द्वार की ओर बढ़ने लगे । परन्तु यह प्रयत्‍न उन्हीं के लिए घातक सिद्ध हुआ । जिस समय हूणों के तीर हवेली के कमरों को तोड़ रहे थे, महाबाहु अपने युवकों को लेकर गुप्‍त रूप से नीचे उतर आया । उस समय हूणों की संख्या मुश्किल से पच्चीस-छब्बीस रह गयी थी जिनको आमने-सामने के युद्ध में ही हराया जा सकता था ।


गांव का द्वार यद्यपि युद्धों के लिए नहीं लगाया गया था परन्तु फिर भी इतना कमजोर नहीं था कि कुछ घायल सैनिक कन्धों के जोर से तोड़ सकें । बार-बार की असफलता से तंग आकर हूणों ने अपने शस्‍त्रों से उस पर प्रहार करना प्रारम्भ किया और जोर-जोर से हुंकार मारने लगे । उधर गांव वालों ने भी उनके साहस को नष्ट करने के लिए जय-जयकार करना आरम्भ कर दिया । अचानक ही यूं अनुभव हुआ जैसे भिड़ों के पांच-छः छत्ते आक्रमणकारियों पर टूट पड़े हों जिससे उनकी आवाजें चीखों और कराहटों में बदल गईं और वह चक्कर खाकर गिरते से प्रतीत हुए । असल में महाबाहु ने गांव के पिछले द्वार को खोलकर छुपते-छुपते वृक्षों और खेतों की ओट से निकलते अचानक शत्रुओं पर अन्धाधुन्ध बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी थी । घबराकर हूणों में भगदड़ मच गई परन्तु महाबाहु के बाणों ने किसी को जाने न दिया । फिर भी एक हूण सैनिक अपनी जान बचाकर भाग गया ।


विपत्ति और मौत के मंडराते बादल, दो घड़ी पूर्व जिन से रक्षा पाने का कोई रास्ता दिखाई नहीं देता था, योजना, साहस और आत्मोत्सर्ग का सहारा लेकर जिस आसानी से दूर हो गए उसकी खुशी में ग्रामीण युवकों ने अपने गगनभेदी नारों से आकाश मंडल को गुंजा दिया । सारा गांव आनन्द और उत्साह से परिपूर्ण हो उठा । ग्रामवधुएं अपनी-अपनी छतों पर खड़ी होकर मंगल गान गाने लगीं । परन्तु इस प्रसन्नता में भी अकेला महाबाहु मन्दिर की सीढ़ियों पर उदास भाव से खड़ा सोच रहा था कि मेरी अवस्था तो उस लड़के की सी हो गई है जो घर में आग लग जाने पर पानी के लिए कहारों को बुलाने गया और मार्ग में मुर्गों की लड़ाई का तमाशा देखने लग गया हो ।


वह एकदम चौंक पड़ा और अपनी प्रशंसा करने वाले ग्रामीणों को रास्ते के लिए एक ओर धकेलता हुआ बोला, "मुझे आज्ञा दीजिए । मैं और मेरे साथी एक आवश्यक कार्य से आगे जा रहे थे और मैं उन्हें बाहर ठहराकर उनके लिए गांव से खाद्य सामग्री लेने आया था कि...."


सामने खड़ी गांव वालों की भीड़ ने उसके वाक्य को पूरा होने से पूर्व कहा, "हम आप लोगों के लिए भोजन तैयार करते हैं ।" यह कहते हुए वे घरों को दौड़ गए । उन्होंने अपनी स्‍त्रियों को अभ्यागतों के स्वागतार्थ भोजन बनाने के लिए आदेश दिया । सारे गांव वाले संकट से रक्षा करने वाले इस साहसी युवक के लिए पकवानों का ढेर बनवा लाये । महाबाहु के अनेक बार कहने पर भी कि वे केवल पांच ही व्यक्ति हैं, कृतज्ञता प्रकाशनार्थ अपने साथ पचास व्यक्तियों की भोज्य सामग्री लेकर महाबाहु के साथ गांव से बाहर चल पड़े ।


गांव से बाहर सूनी कुटिया के आंगन में महाबाहु के दोनों साथी देवताओं के समान दिखाई पड़ रहे थे । उनके शरीर लम्बे-चौड़े तथा शान्त, जिनके चेहरों पर ओजस्विता टपक रही थी । उनके दोनों ईरानी साथी कुटिया में बैठे हुए थे ।


ग्रामवासियों के साथ नीची दृष्टि किए महाबाहु आकर अपने साथियों के पास खड़ा हो गया । थोड़ी देर शान्त रहकर अपनी देरी का कारण बताने के लिए कुछ कहना चाहा तभी रुद्रदत्त, जिसने प्रतिभा से गत रात्रि ईरानियों को आश्चर्यचकित कर दिया था, बोला, "महाबाहु ! हम तुम्हारी बात फिर सुनेंगे, वह सब घटनाएं जो विलम्ब का कारण बनीं हैं, हम से छुपी नहीं हैं । हूण लुटेरों का आक्रमण, उनका विनाश हमने आड़ में खड़े होकर सब देखा है । तुम्हारे बाणों के प्रहार से बच निकले अन्तिम हूण को शापूर ने मेरे आदेश से यमलोक पहुंचा दिया है । इस वृक्ष की ओट में पड़े हूण सवार की खोपड़ी और पसलियों में फंसे मेरे श‍स्‍त्र अभी तक निकाले नहीं गए । उसके घावों में अभी तक खून रिस रहा है । मुझे सब से पूर्व इन उदारचित्त गांव वालों का धन्यवाद करना है जो हम जैसे अपरिचित पथिकों का सत्कार करने पहुंचे हैं । प्रिय मित्रो ! प्रत्येक बर्तन में लाया हुआ थोड़ा-थोड़ा खाद्य पदार्थ इन बड़ के पत्तों पर परोसो और जब हम अपना भोजन समाप्‍त कर लें तो थोड़ा पानी पिलाकर हमें छुट्टी दे दो ताकि हम आप लोगों को कष्ट के लिए धन्यवाद देते हुए अपने गन्तव्य स्थान को प्रस्थान करें । परन्तु जाने से पूर्व आप लोगों को कटु सत्य से अवश्य अवगत करा जाना चाहता हूं कि आप लोगों ने मानवता और सभ्यता के शत्रु हूणों की टोली को उचित पुरस्कार दिया है । क्योंकि वे दूसरों की स्वतन्त्रता का अपहरण कर उनकी सम्पत्ति लूटना, बिना कारण ही जनता का रक्त बहाना अपने जीवन का सबसे बड़ा काम समझते हैं, किन्तु आज की परिस्थितियों का आपको ज्ञान होना चाहिए । साठ-सत्तर हूणों का इस प्रकार वापिस अपने शिविर में न पहुंचना उनके बड़े अधिकारियों से छुपा न रहेगा । अथवा किसी राह जाते यात्री या किसी द्रोही व्यक्ति द्वारा उन्हें इस घटना की सूचना अवश्य मिल जायेगी या किसी हूणों की टोली के इधर आ निकलने पर अपने साथियों की इस विनाशलीला को देखकर वह उत्तेजित हुए बिना न रहेगी । ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाने पर उन बर्बरों द्वारा जिस नृशंसता का नग्न नृत्य किया जाएगा यह बताकर मैं आप लोगों को भयभीत नहीं करना चाहता । परन्तु मैं तुम लोगों को ऐसी स्थिति आने से पूर्व शीघ्रातिशीघ्र इस गांव को छोड़कर जितनी दूर तुम लोग जा सकते हो, चले जाने की सलाह देता हूँ । आप लोग अपने स्‍त्री बच्चों को लेकर सब प्रकार के मोह छोड़कर किसी बलवान हिन्दू राजा के राज्य का आश्रय लो जो आपकी रक्षा करने के योग्य हो । इसमें कोई संदेह नहीं कि आज हूणों की बाढ़ रोकने में कोई समर्थ नहीं हो पा रहा । जो भी राजा या रावल इनके मार्ग में आता है, तिनके की तरह मसल दिया जाता है । परन्तु वह दिन दूर नहीं जब हिन्दुस्तान के सच्चे योद्धा कन्धे से कन्धा भिड़ाकर अपनी तलवारों की धारों से इनकी गर्दनों को उड़ा देंगे और शरणार्थी किसान, व्यापारियों, कलाकारों और आप जैसे अनेक ग्रामवासियों को अपने गांवों और नगरों में वापिस आकर चैन की नींद सोने का सौभाग्य प्रदान करेंगे तथा सर्वत्र सुख और शान्ति का साम्राज्य छा जायेगा ।"


धूमकेतु अपने गम्भीर तथा शान्त रहने वाले साथी की इतनी लम्बी वक्‍तृता सुनकर उसके मुंह की ओर देखने लगा । गांव वालों के चेहरे प्रसन्नता के स्थान पर गम्भीर हो गए । जिस समय वह उन अद्‍भुत यात्रियों को भोजन खिला रहे थे तो किसी अज्ञात भय की आशंका से रह-रहकर उनकी अंगुलियाँ कांप उठतीं थीं ।


•••



मुख्य पृष्ठ और विषय सूची पर वापस जायें
भाग-1 पर जायें
भाग-3 पर जायें »»