आखिर जीत हमारी/भाग 4 - अमानुषिकता

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आखिर जीत हमारी
(वीर रस का एक ऐतिहासिक उपन्यास)
लेखक
रामजीदास पुरी
(उर्फ सय्याह सुनामी)
Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल


भाग 4 - अमानुषिकता

बूढ़ी भिक्षुणी, जिसका मस्तिष्क ज्ञान और तपस्या की कठोर साधना से देदीप्यमान था, भिक्षुओं के मठ के पास पहुंची । जीवन के प्रति अनासक्त होने पर भी आज उसकी आंखों में अधीरता दृष्टिगोचर हो रही थी । रह-रहकर उसके पग डगमगा जाते थे जो अवस्था विशेष से उत्पन्न न होकर किसी बहुत बड़ी घटना के फलस्वरूप ही दिखाई देते थे । वह सिवाय किसी बड़े धार्मिक उत्सव के और कभी इस मठ में नहीं आती थी । किसी काम के लिए वह अपने मठ से बाहर निकली थी कि उसने भिक्षुओं के मठ से इस प्रकार की आवाज सुनी जिससे किसी अज्ञात भय की आशंका से वह कांप उठी और उसका मन किसी अपशकुन की कल्पना करने लगा । इस बात को जानने के लिए कि वहां क्या हो रहा है, उसके पांव आप से आप उठकर मठ की तरफ बढ़ने लगे ।


मठ के अन्दर से गर्म पानी की नाली बाहर निकलती थी । दीवार के पास जिस स्थान से वह नाली बाहर आती थी वहां से गुजरते हुए भिक्षुणी का पैर अचानक उस गाढ़े पानी के ऊपर पड़ गया जो बड़ी तीव्र गति से बाहर आकर गिर रहा था । छपाक से पैर के गिरते ही बूढ़ी भिक्षुणी के साफ सफेद वस्‍त्रों पर कीचड़ के छींटे फैल गए जिन्हें देखकर वह घबराहट से हड़बड़ा उठी ।


"लाल छींट, लाल कीचड़ !"


वह रुकी और एक दम दो कदम पीछे हट गई, जैसे किसी ने धक्का देकर उसे पीछे की ओर धकेल दिया हो । उसकी विस्फारित आंखें नाली की ओर उठ गईं जहां से लाल-लाल पानी बड़ी तेजी से बाहर निकल रहा था । वह अपने स्थान पर जड़वत् खड़ी की खड़ी रह गई । इसके बाद उसने नीचे झुककर उस कीचड़ में अपनी अंगुली डुबोकर देखी ।


"ओह मेरे ईश्वर, इसमें तो रक्त है ! रक्त !!"


दो क्षण तक भिक्षुणी की सारी चेतना लुप्‍त हो गई । वह अवसन्न-सी खड़ी अपनी अंगुली को देखती रही, फिर बड़ी घबराहट से सीधी पगडंडी को छोड़कर ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर भागती हुई अपने मठ की ओर बढ़ने लगी । कांटे की झाड़ियों में उलझकर उसकी चादर फट गई, मार्ग में पड़े एक पत्थर से ठोकर खाकर वह गिरते-गिरते बची ।


महिला मठ के बाहर द्वार पर कुछ अधेड़ और युवा भिक्षुणियां खड़ी बूढ़ी भिक्षुणी को दौड़ते हुए आते देख रही थीं । धीरे-धीरे वहां पर भिक्षुणियों का समूह एकत्रित होने लगा । उन लोगों ने समझा शायद किसी हिंस्र पशु के भय के कारण वह भागी चली आ रही है । परन्तु पगडंडी बिल्कुल साफ थी । इसलिये उन सबका विस्मय भय में बदल गया ।


द्वार पर एकत्रित भिक्षुणियों की पास आकर वह रुकी और अस्फुट शब्दों में जो कुछ उसने समझा था, कह दिया । अज्ञात भय से कांपती हुई सब भिक्षुणियां एकदम घबराकर वन में इस्ततः भागने लगीं ।


भिक्षुओं के मठ के द्वार से, रक्त से रंजित खड़गें लिए, छः हूण सिपाही निकले । भगवान् बुद्ध की स्वर्ण मूर्ति उनके हाथों में थी ।


"फटे कम्बल, काठ के प्याले, और फूंस के बिस्तर ....।"

"खाली ! सब खाली !! पूर्णतः निस्तब्ध !!!"


सहसा उनकी दृष्टि भय से वन में भागती स्‍त्रियों की तरफ गई "अरे, वह देखो !"


वे बड़े जोर से चिल्लाये मानो कोई पहाड़ी रींछ चीखा हो, और उनकी तरफ दौड़ने लगे । झाड़ियों में से एक चीख निकली और उसके पश्चात् एकदम मौत का सा सन्नाटा व्याप्‍त हो गया और सब स्‍त्रियां उनकी आंखों से ओझल हो गईं । परन्तु सिपाही, जो जंगलों में छुपी लोमड़ियों और कुंजों में छिपे बारहसिंगों तक को ढ़ूंढ निकलते थे, उनकी तीव्र दृष्टि से भला वे कैसे बच सकतीं थीं ! शीघ्र ही उन्होंने उन छिपी भिक्षुणियों को बाहर निकालकर भेड़ बकरियों की तरह एक स्थान पर इकट्ठा कर लिया और उन्हें खदेड़ते हुए एक तरफ को चल पड़े ।


"लोमड़ियो ! क्या तुम हमें धोखा देकर छुपना चाहती थीं ?"


विदेशी भाषा न समझ आने पर भी वे उनके आशय को समझ गई और भय से कांपती हुईं बोलीं - "आप हमारी हत्या क्यों करना चाहते हैं ? हम वीतरागी भिक्षुणियां हैं, हमने संसार का त्याग कर रखा है । आप लोग किस लिए भगवान् बुद्ध की मूर्ति का अपमान करते हैं ?"


"दुबली, पतली, सुन्दर ! यदि धन नहीं तो ये ही सही, दिल बहलाव के काम तो आयेंगी ही ।"


उन छः हूण सैनिकों ने छः सुन्दर युवा भिक्षुणियों को जिनके नक्श तीखे और सुन्दर थे, तपस्या की कठोर साधना ने जिनकी आंखों के मद को सुखाया नहीं था, छांट लिया और शेष सब को नंगा करके उन्हीं की चादरों से वृक्ष से बांध दिया और बड़ी फुर्ती से उन असहाय भिक्षुणियों की छातियां काट डालीं । एक भयंकर चीत्कार से सारा वायुमंडल कांप उठा । वृक्षों पर बैठे पक्षी भी भय से उड़ने लगे । भिक्षुणियों के घावों से निकलती खून की धारायें उनके शरीर को भिगोती हुईं पृथ्वी पर गिरने लगीं । कटी छातियों को अपनी तलवार से उन्हीं की चादर की रस्सियों से पिरोकर उन नृशंस आतताइयों ने छः हार बनाये । उन हारों को पकड़े वह भय से निश्चेष्ट उन छः सुन्दरियों की ओर बढ़े जिन्हें उन्होंने अपने लिए छांटा था ।


"हे सुन्दरियो, तुम्हारे कानों में न तो कर्णफूल हैं, न हाथों में कंगण ! स्‍त्रियों का श्रंगार किए बिना उनसे प्रेम करना पाप है इसलिए यही अद्‍भुत हार पहन लो" अब वह टूटी फूटी भारती भाषा में कह रहे थे ।


आतंक और निर्ममता के इस भयंकर दृश्य को न देख सकने के कारण उनकी आंखें बंद हो गईं । रक्त से लथ-पथ मानव के के गर्म-गर्म टुकड़ों को अपने गर्दन और छातियों पर लगते देखकर उनके शरीरों से ठंडे पसीने की धारायें बहने लगीं । उनकी चीखें निकलने लगीं और निश्चेष्ट होकर वे भूमि पर गिर पड़ीं ।


अपने कठोर हाथों से उन्हें उठाते हुए वे अट्टहास कर उठे और बड़े जोर से उन्हें झकझोरते हुए बोले - "नाचो सुन्दरियो, नाचो । हम तुम्हारा नाच देखना चाहते हैं ।" और वे जोर से खिलखिलाकर हंसने लगे ।


विभ्रान्त सी खड़ी स्‍त्रियों ने इस आवाज को सुनकर अपने आंखें खोलीं, भय से घबराई हुई अपने पांवों को इधर-उधर रखने लगीं ।


"नाचो, अच्छी तरह नाचो !" रक्त से भीगी खड़गों को उनकी ओर करते हुए भूखे भेड़ियों की तरह हूण गरजे । उसी समय जंगल से शेर ने दहाड़ लगाई । मृत्यु को इतने निकट देखकर वे विपत्तिग्रस्त भिक्षुणियां तेज आंधी में हिचकोले खाती लताओं की तरह डोलने लगीं । उनके मस्तिष्कों में अतीत की वे स्मृतियां घूम गईं जब वे भिक्षुणियां नहीं बनी थी अपितु उससे भी पहले जब वयःसन्धि में उनका अल्हड़पन मुखरित हो रहा था । कुछ भूली बातें भूला अभ्यास भय की चोट खाकर ऊपर उठा और उनके पांव की गति नाच की ताल पर आप से आप चल पड़ी । एक विचित्र नाच जिसमें मस्तिष्क हृदय की और हृदय मस्तिष्क की शरण मांग रहा था । एक अचेतन सी अवस्था जहां आत्मा .... उस पक्षी की भांति जो अपने को व्याघ्र के चंगुल में फँसा हुआ पाकर तड़प रहा हो, प्रतीत हो रही थी । आंखों में दहशत और पापपूर्ण वासना लिये वे हूण सिपाही उनकी ओर बढ़े । उनके समीप आने पर हतभागी भिक्षुणियों ने अपनी गर्दन झुका ली ताकि वे अपनी खड़ग के एक ही वार से उनके इस पापपूर्ण अध्याय को समाप्‍त कर दें । परन्तु उन दुष्टों ने उनको मारने के स्थान पर उन्हें शीघ्रता से अपनी क्रूर बाहों में भर लिया और पशुत्व का परिचय देने लगे ।


वायु का वेग थम गया । एक घुटन सी वातावरण में छा गई थी । यूं लगता था मानो कोई भयंकर आंधी आने वाली है । पास ही भगवान् बुद्ध की मूर्ति धूलि में पड़ी हुई थी । सहसा वन की ओर से सनसनाता हुआ एक बाण आया और एक हूण की टांगों को छीलता हुआ पृथ्वी में गड़ गया । झाड़ियों में से एक घायल सिंह लड़खड़ाता गर्जता हुआ नीचे लुढ़का, तड़पा और ठंडा हो गया ।


छहों हूण उठ खड़े हुए और बाण आने की दिशा की ओर देखने लगे । दूर एक बांका सजीला युवक अपने घोड़े पर बैठा भागा चला आ रहा था । एक हूण अपने स्थान से चलकर उस मृत सिंह की पसलियों से बाण खींचने लगा । घुड़सवार ने दूर से उसे ललकारा और चिल्लाया "इसे मत छेड़ो, यह मेरा शिकार है"।


परन्तु हूण ने उसकी परवाह न की, बाणों समेत उसने मृत सिंह को अपनी भुजाओं पर उठा लिया ।


"मैं कहता हूं उसे यहीं रख दो ।"


"बको मत" विजय तथा बल के घमण्ड में चूर हूण सैनिक ने सवार को झिड़का और मृत सिंह को भुजाओं में लिए उसके समक्ष तनकर खड़ा हो गया । क्रोधाभिभूत सवार अपने घोड़े से कूदा और उसने अपनी खड़ग के एक ही वार से उस विदेशी हूण के मस्तक को धड़ से अलग कर दिया । उसकी गर्दन उछलकर दूर जा गिरी और धड़ शेर के साथ ही जमीन पर लुढ़क गया ।


शेष पांचों हूण जिन्हें सवार ने अभी तक देखा ही नहीं था, अपने साथी का इस प्रकार अन्त देख क्रोध में चीखते हुए उस युवक पर प्रहार करने के लिए उसकी तरफ दौड़ पड़े और उन्होंने सवार को घेर लिया । इनके आने से पूर्व ही सवार युद्ध के लिए तैयार हो चुका था । उसने अपनी ढ़ाल कन्धे से उतारकर हाथ में पकड़ ली तथा निर्भीक होकर उन पांचों के साथ युद्ध करने लगा ।


जिस समय भिक्षुणी भिक्षुणियों के मठ की कुशलक्षेम जानने के लिए जा रही थी उस समय अत्याचार और विनाश का यह कांड नहीं हुआ था । इधर .... गांव के बाहर एक तालाब के किनारे बनी तीन झोंपड़ियों के पास एक ओजस्वी वृद्ध बैठा हुआ कुछ लिख रहा था । उससे थोड़ी ही दूर दूसरी ओर मुंह किए कुछ लोग जो शायद इसी गांव के रहने वाले थे और उस वृद्ध के नौकर प्रतीत होते थे, आपस में कुछ बातचीत कर रहे थे ।


"इन यात्रियों को देखा है ?"


"हाँ ! अपने को यात्री कहते हैं परन्तु क्या यात्रियों का यही रंग-ढ़ंग होता है ? मैले कपड़े, आँखों में रात्रि के जागरण की खुमारी, घुटने और कोहनियाँ छिली हुई और घोड़ों पर न काठियाँ और न अन्य सामान ।"


"और इनके साथी ! हे मेरे भगवान् !"

"हाँ, एक के तो हाथ पाँव बंधे हुए थे, चेहरे भूतों के समान विकृत, मुंह लहूलुहान तथा कपड़े रक्त में भीगे हुए !"

"जैसे डाकू और हत्यारे हों ।"


"अरे, वह डाकू हत्यारे नहीं तो और कौन थे ? मैंने जब कहा कि यदि ठहरना ही है तो गाँव की धर्मशाला में क्यों नहीं ठहरते, इन झोंपड़ियों में ठहरना .... ऐसा क्या आवश्यक है ? तो कहने लगे कि हाँ, सब कुछ ऐसी ही बात है । तुम तो सुन रहे थे !"


"मैंने ही तो कहा था कि इन झोंपड़ियों के वासी किसी को अपने पास ठहराना अच्छा नहीं समझते । यदि आप लोग गाँव में जाना पसन्द नहीं करते तो अच्छा है कि आम्र वृक्षों के उस पार मन्दिर के खण्डहर में जाकर विश्राम करो । क्यों जी, एक दो कमरे तो अब भी वहाँ रहने योग्य हैं न ?


दूसरा अपनी धुन में बोला, "अच्छा हुआ कि वे वहाँ से चले गये । पर परदेशी कोई भी क्यों न हो, मैं तो उन पर विश्वास नहीं करता चाहे वह कितना ही दीन और गऊ बनकर क्यों न आये ।"


"क्यों भाई, अपनी गऊओं का कुछ पता चला?"

"तुम गऊओं की बात कहते हो, उनके साथ तो उनको ढूंढ़ने वाला भी वापस नहीं आया । हरिगोपाल कल शाम से अभी तक घर वापस नहीं आया है ।"

"कहीं किसी बाघ आदि ने तो उनको नहीं खा लिया ?"

"हां, ऐसी सम्भावना तो है परन्तु बाघ तो दूर ऊँची-ऊँची पहाड़ियों में रहते हैं । मैदान में तो कोई भूला भटका ही आ पाता है ।"


कारण कुछ भी क्यों न हो परन्तु उनके खो जाने से बड़ी चिन्ता उत्पन्न हो गई । इधर का कष्ट तो सहा जा सकता है परन्तु छोटे-छोटे बछड़ों का माँ के अभाव में दिन रात रम्हाना बड़ा कष्टकर बन जाता है । छोटे महाराज विज्ञानान्द जिन्हें कभी औषधि निर्माण से अवकाश नहीं मिलता, उनकी करुण पुकार सुनकर कई बार काम छोड़कर बाहर आ खड़े होते हैं और उनको सांत्वना देने के लिए उनकी पीठों पर हाथ फेरते रहते हैं ।"


"सच है", दूसरे ने ठंडी सांस लेकर कहा । चिन्ता की रेखायें उसके माथे पर फैल गईं । एक क्षण चुप रहने के पश्चात् वह बोला, "बड़े महाराज न जाने किस प्रकार के सन्यासी हैं । उन्हें किसी बात की चिन्ता नहीं, मोह माया और ममता नहीं । महीनों चुप बैठे रहते हैं । मन आया तो संसार के कोलाहल में वापस लौट जाते हैं और छोटे-छोटे बच्चों से इतना घुल-मिल जाते हैं मानो वे इन्हीं के बच्चे हों, बड़े-बूढ़ों से किसी प्रकार की बातचीत नहीं करते । परसों स्‍त्रियों के एक उत्सव में जाकर उनमें इस प्रकार सम्मिलित हो गए मानो वे उनके धर्मगुरु हों, और उनसे अपनी पूजा करवा आये । अगर कभी वन में जाने का अवसर आया तो पागलों के समान पशु-पक्षियों की तरफ खड़े-खड़े देखते रहते हैं ।"


"क्या तुम्हें मालूम नहीं?" दूसरा बोला, "मुझे किसी ने बताया कि ये तक्षशिला विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के आचार्य थे । अब भी दिन-रात उसी के अध्ययन और मनन में संलग्न रहते हैं और नित्य-प्रति उसी के विषय में कुछ न कुछ लिखते रहते हैं ।"


"मनोविज्ञान ! क्या ?"


"तुम ठीक कहते हो भाई । मैं जब भी किसी काम से उनके पास गया हूँ तो मेरी बात बिना सुने ही वे मेरे प्रश्नों का उत्तर ठीक-ठीक दे देते हैं । पहले मैं यही सोचता था कि वे अपने योग बल से मेरे मन की बात जान लेते हैं क्योंकि कई बार मैंने उन्हें समाधि में भी देखा है । पर अब तुमसे उनकी वास्तविक योग्यता का पता लगा ।"


"परन्तु मनोविज्ञान भी योग का ही एक अंग है ।"


नौकर का वाक्य गले में अटका ही रह गया कि दूर कोई वन में से बेतहाशा भागा चला आ रहा था । पास आने पर पता चला यह तो आचार्य जी थे जिनके विषय में नौकर अभी-अभी कह रहा था । यह दार्शनिक तो हमेशा सिर नीचा किये चिन्तामग्न अवस्था में डूबा हुआ धीरे-धीरे चलने वाला व्यक्ति है, आज इस प्रकार सुधबुध खोकर क्यों भागा चला आ रहा है ? यह विचार उन दोनों के मन में आया और वे घबराकर उठ खड़े हुए ।


"छोटे स्वामी कहां हैं? गोपाल कहाँ है और तुम लोगों के कुल्हाड़े, फावड़े, गंडासे आदि चारा काटने के हथियार कहां हैं ?”


दोनों नौकरों ने आचार्य की तरफ बड़े अविश्वास से देखा और आचार्य की फटी-फटी आँखों में कुछ पाने के लिए घूर-घूरकर देखने लगे । उन्हें लगा आज से पूर्व जो आचार्य लोगों के मन का भेद जान लेता था, आज उसका अपना मन भ्रान्त हो गया है ।

एक नौकर ने रुकते-रुकते पूछा, "हम और हमारे हथियार यहीं हैं परन्तु आप अपनी घबराहट का कारण बतायें, जिसके लिए आप इतने ....।"


आचार्य ने भिक्षुणियों के मठ की ओर संकेत करते हुए कहा, "वहाँ एक ऐसा बीभत्स काम हो रहा है जिसे आँखें देख नहीं सकतीं ।"


"क्या डाकू आ गए हैं ?"

"डाकू ! डाकू भी उतने नीच और कमीने नहीं होते जितने नृशंस वे लोग हैं । उनके कुकृत्य का वर्णन करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं ।"


पहला नौकर बोला - "यद्यपि मैं आपका अभिप्राय पूर्णतः नहीं समझ सका, फिर भी अगर आप हमें डाकुओं से सामना करने के लिए ले जाना चाहते हैं तो अपने स्थान पर मैं आपको ऐसे व्यक्तियों का पता बताता हूँ जो हम लोगों से अधिक साहस तथा दृढ़तापूर्वक उनका सामना कर सकते हैं । वे लोग परदेसी हैं, जो भग्न मन्दिर में आकर ठहरे हैं । हमें उनके पास जाकर सारी स्थिति समझानी चाहिए । वह पहले यहीं ठहरना चाहते थे परन्तु हमने उन्हें ....।"


अधीरचित्त आचार्य ने नौकरों की बात पूरी होने से पहले ही कहा, "अरे, तुमने उन्हें यहां आश्रय क्यों नहीं दिया ?" फिर वह बिना किसी ओर ध्यान दिये उस भग्न मन्दिर की ओर दौड़ पड़े ।


रुद्रदत्त ने गहरी दृष्टि से आचार्य की ओर देखा । सब बातें सुनने के बाद उसने अपने साथियों से कहा, "धूमकेतु ! महाबाहु !! तथा बहराम !!! तुम लोग आचार्य के साथ जाओ ।"


तीनों आचार्य के बताये स्थान की ओर इस वेग से दौड़ पड़े जैसे कोई हिंस्र प्राणी अपने शिकार की ओर दौड़ता है ।


पाँच और एक का रोंगटे खड़े कर देने वाला युद्ध सारे वातावरण में सनसनी उत्पन्न कर रहा था । हूणों के घेरे में फंसे उस युवक का सारा शरीर क्षत-विक्षत हो गया था । शरीर से रक्त की धारायें फूट रहीं थीं । कनपटी और आधे गाल की खाल कटकर गर्दन पर लटक रही थी । उसका अंगरखा पेट और छाती पर से फट गया था । धोती चीथड़े-चीथड़े हो गई थी तथा उसके गले में पहने मूल्यवान हार के मनके भूमि पर बिखरे पड़े थे । चारों तरफ से हो रहे आक्रमणकारियों के अगणित प्रहारों को रोकते-रोकते वह बेसुध-सा हो रहा था, उसकी आँखों के आगे अंधकार छा रहा था । अंग शिथिल पड़ गये थे । उतनी फुर्ती से अब उसकी खड़्ग नहीं चल रही थी । दूसरे हाथ की ढ़ाल अब उसे बोझ के समान लग रही थी । अत्यधिक रक्तस्राव और थकावट से वह निढ़ाल होकर गिर पड़ने की स्थिति में पहुंच गया था ।


परन्तु इस आसन्न मृत्यु की घड़ी में भी उसकी इच्छाशक्ति उतनी ही प्रबल थी । वह गिरता-गिरता भी शत्रुओं के प्रहारों को रोक रहा था । आखिर एक हूण का वार उसके कन्धे को छूता हुआ पेट पर जा लगा जिससे उसकी आंतें बाहर निकल आईं । ढ़ाल फेंककर उस वीर ने एक हाथ से अपना कोट सम्भाला और दूसरे से उन पर प्रहार करना चाहा । परन्तु वह बेसुध होकर भूमि पर गिर पड़ा जो उसी के रक्त से चिक्कण हो रही थी । तीन हूण भूखे भेड़िये की तरह उसकी इहलीला समाप्त करने अपनी खड़्गों को लेकर उसकी ओर लपके परन्तु पीछे से सनसनाते बाण उनकी खोपड़ियों में आ चुभे ।


"जीवित है ।" महाबाहु ने घायल सवार की छाती पर हाथ रखने के पश्चात् कहा "यदि किसी कुशल वैद्य की सहायता मिल जाती तो सम्भव है इसके प्राण बच जायें ।"


"इसका प्रबन्ध हो जायेगा" पीछे से दौड़कर आता हुआ आचार्य बोला, "परन्तु भय है कहीं मार्ग में दम न तोड़ दे । इसे बड़े घाव लगे हैं, सारा शरीर क्षत-विक्षत हो चुका है ।"


"आचार्य", दोनों नौकर जो आचार्य के पीछे पीछे भाग रहे थे, बोले "क्या छोटे महाराज के पास इन्हें ले चलें?"


"हां, परन्तु देखना, इसे सावधानी से उठाना ।"


नौकरों ने फुर्ती से घायल सवार के हार के बिखरे मोती एकत्र किए और उसे उठाकर झोंपड़ी की तरफ चल पड़े ।


मृत हूणों की ओर दृष्टि डालकर जब धूमकेतु और महाबाहु बहराम को लेकर घायल व्यक्ति के पीछे-पीछे चलने लगे तो आचार्य बोला, "ठहरिये ! इन राक्षसों के शिकार कुछ अन्य व्यक्ति भी हैं जिन्हें हमारी सहायता और सहारे की आवश्यकता है । आइये !" वह उन तीनों युवकों को लेकर एक ओर चल पड़ा ।


"मैं प्राकृतिक दृश्यों और भगवान की बनाई इस मनोहर छटा का आनन्द उठाने के लिए उस सामने वाली पहाड़ी पर बैठा था कि मैंने देखा हूण लुटेरों की एक छोटी सी टुकड़ी भिक्षुओं के मठ में घुस गई तथा थोड़े समय के पश्चात् जब वह बाहर निकली तो उन सिपाहियों की खड़गें रक्त से सनी थीं तथा भगवान् बुद्ध की स्वर्ण मूर्ति उन्होंने अपनी बगल में दबा रखी थी । फिर वे भिक्षुणियों के मठ की ओर गए । परन्तु भिक्षुओं की हत्या का समाचार भिक्षुणियों के मठ में पहले पहुंच गया था । इसलिए उनके पहुंचने से पूर्व ही वन में जा छुपीं । परन्तु इन दुष्टों ने उन्हें ढ़ूंढ निकाला और उनमें से कई भिक्षुणियों को वृक्षों से बांध दिया और कुछ स्‍त्रियों के सतीत्व पर आक्रमण किया । दूर होने के कारण जो कुछ हुआ, उसे मैं अच्छी तरह नहीं देख सका ।"


सरकण्डे के झुण्ड को पार कर उनकी आंखें एक ऐसे दिल दहला देने वाले नारकीय अत्याचार के दृश्य से टकराई जिसने न केवल इन पीड़ित स्‍त्रियों के शरीरों को बीभत्स बना दिया था अपितु देखने वाले के मन और आंखों को क्षुब्ध कर रहा था । नंगे शरीर वाली, देवी के समान पवित्र, गौ के समान शीलवान् चालीस भिक्षुणियां वृक्षों से बंधी हुई थीं । उनकी बेसुध गर्दनें एक ओर लटक रही थीं और कईयों की आंखों से अविरल अश्रुधारायें बह रहीं थीं । उनकी कटी हुई छातियों से रक्त टपक टपक कर भूमि को भिगो रहा था । और छः युवा भिक्षुणियां .... अत्याचारी विदेशियों ने जिनके साथ बलात्कार किया था, पृथ्वी पर मुर्दों के समान पड़ीं थीं, मानो उनका सम्मान धरती में समा गया हो और मन, ऐसा लगता था मानो उन अपवित्र शरीरों को छोड़कर कहां अन्यत्र चला गया हो ।


"ओह, मेरे प्रभु !" महाबाहु के मुंह से वेदना भरी आह निकली ।


"विदेशी राक्षसो !" क्रोध में भरकर धूमकेतु बोला, "हिन्दू देवियों पर अत्याचार करने का तुम्हें ऐसा कठोर दण्ड दिया जाएगा कि इतिहास के सिवाय भूमण्डल में तुम्हारा अस्तित्व ही न रह सकेगा । हम भारतीय युवक या तो तुम्हें इस सृष्टि से ही मिटा देंगे या स्वयं को ।"


बहराम कई पग पीछे हटा और दूसरी ओर मुंह करके खड़ा हो गया । वह सन्यासी उन छः स्‍त्रियों के ऊपर चादर डालने और सहारा देने के लिए उनकी ओर बढ़ा ।


"सन्यासी महाराज" वह स्‍त्रियां सूखे कण्ठों से चिल्लाईं, "हमें हाथ मत लगाओ । हमारे शरीर भ्रष्ट हो चुके हैं । हमारा शरीर नष्ट हो चुका है, हम गन्दगी में रेंगने वाले कीड़े के समान हो गई हैं । अगर आप हमारे साथ सहानुभूति रखते हैं तो चिताएं बनवाएं । अग्नि की भीषण ज्वालाओं में ही हम अपनी कलुषित आत्मा की जलन मिटा सकती हैं । इस अपमानित जीवन को लेकर अब हम जीना नहीं चाहतीं । न जाने किन पापों के फलस्वरूप आज हमें यह दिन देखना पड़ा है । न जाने कौन सा प्रायश्चित हमारे इस कलंक को धो पाएगा ।"


"देवियो ! भिक्षुणियो !!" सान्त्वना भरे शब्दों में आचार्य ने कहा । उनकी आंखों में अश्रु उमड़ आये । उनका कण्ठ रुक गया । कोहनियों के सहारे उठती हुई भिक्षुणियां विस्मयाभिभूत होकर एक दूसरे की तरफ देखने लगीं, जैसे वे आपस में किसी को पहचान ही न रहीं हों । धूल में सनी अपनी हथेलियों से उन्होंने अपनी आंखें मलीं । क्या सपने देख रहीं हैं अथवा .... सहसा उनकी दृष्टि कटी छातियों वाली अपनी सहयोगिनियों की तरफ गई जो रक्त से स्नात बेसुध सी खड़ीं थीं । जब उन्होंने अपनी गर्दनों में लटकते हुए उन हारों को देखा जो उनकी बहिनों के मांस से पिरोकर बनाए हुए थे, वे घबराकर उछल पड़ीं । उन्होंने उस माला को उतार फेंका और चीखती चिल्लाती वन की तरफ भागने लगीं, मानो किसी सर्प का स्पर्श होने से घबरा उठीं हों । उनका शरीर पास खड़ी कटीली झाड़ियों से क्षत-विक्षत हो गया और वे बेसुध होकर झाड़ियों पर गिर पड़ीं ।


"हे मेरे प्रभु ! ओह भगवान् !!" सन्यासी ठंडी सांस भरता हुआ उन विक्षिप्‍त ललनाओं की ओर भागा ।


धूमकेतु ने शीघ्रता से वृक्षों के साथ बंधी भिक्षुणियों को खोला और उन्हें चादरें ओढ़ा दीं । तत्पश्चात् वह उन भिक्षुणियों की ओर बढ़ा जो झाड़ियों में उलझी बेसुध पड़ीं थीं ।


"आओ मेरी हतभागिनी बहनो ! काश हम पहले पहुंच सकते ।" सन्यासी स्‍त्रियों से बोला, "आओ, तुम मेरे साथ सामने की झोंपड़ियों तक चलो । वहां मेरा साथी तुम्हारी मरहम पट्टी कर देगा ।"


"हमारे घावों की मरहम पट्टी ! ओह ! इन घावों की जलन को तो अग्नि की ज्वाला ही शान्त कर सकती है । हम प्रायश्चित करना चाहती हैं । सन्यासी बाबा, यदि आप वास्तव में हम पर उपकार करना चाहते हैं तो कृपया हमारे लिए चिताएं बनवाइये । आप नहीं जानते महाराज, हमारी जन्म-जन्मान्तर की कमाई लुट चुकी है, हमारी वर्षों की तपस्या नष्ट-भ्रष्ट हो चुकी है । इस असहाय आघात से हमारी आत्मा व्याकुल हो रही है परन्तु यह पापी शरीर उसको पकड़े बैठा है ।"


"ओह ! देवियो ...." इस उत्तर से सन्यासी पत्थर की मूर्ति के समान जड़ हो गया । महाबाहु का शरीर काँप उठा, वह कहने लगा - "बहिनो ! माताओ !! इस अत्याचार और पापपूर्ण स्थिति का सामना आप लोगों को देखना नसीब न होता यदि हमें समय पर इस बात का पता लग जाता । परन्तु होनी को कोई टाल नहीं सकता । जो दुर्घटना हो चुकी है उसे अब मिटाया नहीं जा सकता । यह सच है कि आप लोगों को असह्य अत्याचार का शिकार होना पड़ा है । इतनी दुर्दशा होने पर कोई भी भारतीय नारी जीवित रहना पसन्द नहीं करेगी । इस घृणित जीवन से मौत हजार गुनी अच्छी है । चाहे हमें यह कार्य करते हुए कितनी ही वेदना हो रही हो, परन्तु तब भी हम आपके लिए चिताएं तैयार कर देते हैं । परन्तु इससे पूर्व कि हम आपके लिए चिताएं बनायें मेरी करबद्ध प्रार्थना है कि मेरी बात को सुन लें ।"


"जिन छः दुष्ट हूणों ने आप लोगों पर अत्याचार किया है, वे मौत के घाट उतार दिये गये हैं । परन्तु मेरी बहिनो, केवल छः ही नहीं, अपितु कितने सहस्र इन्हीं के समान अपने अमानुषिक कुकृत्यों से भारतभूमि को पददलित कर रहे हैं । अगणित नारियों का सतीत्व नष्ट कर रहे हैं । कितने शान्तिप्रिय ग्रामीण किसानों, सन्यासियों, भिक्षुओं को मौत के घाट उतार रहे हैं, हमारे पवित्र स्थानों को जला रहे हैं, हमारे देवी-देवताओं का अपमान करते फिर रहे हैं । कितने ही गांव और नगर उनके अत्याचारों का शिकार हो चुके हैं । ज्ञान और शान्ति का देश आज हाहाकार की ज्वालाओं में जल रहा है, सारा देश इन आतताइयों के पैरों तले रौंदा जा रहा है । ऐसी विकट स्थिति का मुकाबला करने के लिए प्रत्येक युवक के अन्दर देशप्रेम की जोत जगानी है ताकि वे अपने देश की मान मर्यादा की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए कटिबद्ध हो जाएं और इस उठते तूफान को अपने वज्र समान कठोर वक्ष की दीवार से रोक दें । सोई जाति को जागृत करने के लिए प्रचार की अत्यधिक आवश्यकता है । मैं सन्यासी बाबा से तथा आपसे प्रार्थना करता हूं, आप लोग देश जागृति के पुण्य कार्य में अपना योग दें । देश के एक कोने से दूसरे कोने तक आप पर किये गये अत्याचारों का दिग्दर्शन कराते हुए लोगों में वह प्रतिकार की अग्नि प्रज्वलित करें जिस से हूण अत्याचारी भस्मसात् हो जायें । इस समय जब कि अपने घर में आग लग रही है, ज्ञान, ध्यान, पूजा, पाठ अच्छे नहीं लगते । देवियो, आप सन्यासी बाबा के कार्य में हाथ बटायें । यदि आप बोल नहीं सकती तब भी आप का यह रूप देश में प्रतिहिंसा की अग्नि जलाने में समर्थ है । यह सत्य है कि आप उदार हैं । दुष्टों को क्षमा की सामर्थ्य भी आपमें है और यह भी ठीक है कि इतना अपमान सहने के पश्चात् आप के आत्मबलिदान के निश्चय में बाधा उत्पन्न करना ठीक नहीं । अपने इस घृणित और अपमानित रूप को स्थान-स्थान पर दिखाते फिरने की सलाह देना भी बड़ा भारी अपराध है। परन्तु उन अनेक देवियों के लिए जिन्हें किसी भी दिन आप ही की तरह अपमान सहना पड़ेगा या जो इन राक्षसों के हाथों अपना सब कुछ नष्ट कर चुकी हैं, का बदला लेने के लिए अथवा उन असंख्य माताओं के हृदय की आग को शान्त करने के लिए जिनकी लाज इन दुष्टों की खड़्ग का शिकार हो चुकी है, उन स्‍त्रियों के लिए तुम लोगों की आवश्यकता है । वह एक ऐसी आवश्यकता है जिस के बिना हमारे सारे प्रयत्‍न, हमारा भविष्य अंधकार में विलीन हो जायेगा । मेरी तुम लोगों से प्रार्थना है कि अपने लिए भले ही मर जाओ परन्तु अपनी जाति के लिए, अपने देश के लिए जीती रहो, उस समय तक जब तक कि इस देश का एक-एक हिन्दू अपनी मर्यादा के लिए, अपने देश की स्वतन्त्रता के लिए, अपने हाथ में खड़ग पकड़कर इन विदेशियों का शिरच्छेदन न कर दे । देवियो ! यह जाति जिसने सम्पूर्ण संसार को विद्या ज्ञान का अक्षय भंडार मुक्तहाथ से लुटा दिया था, जिस प्रकार इस देश के महापुरुषों ने अपने पराये का भेद न रखते हुए सम्पूर्ण संसार में अपने ज्ञान की गरिमा को बढ़ाया, अज्ञानियों और निरक्षर देशों के अज्ञान के अंधकार को नष्ट कर अमर ज्ञान के दीपक जलाये, उस देश पर एक ऐसी जाति, जिसकी कोई संस्कृति नहीं, यहां तक कि जो मानव कहलाने का अधिकार नहीं रखती, हम पर आक्रमण कर हमें नष्ट कर रही है, जिस जाति के सैनिक सूअरों और बकरों के समान कामी तथा भेड़ियों के समान हिंसक और निर्दयी हैं, अपने अन्धे पशुबल और अटूट संगठन के बल से हमारी श्रेष्ठता और उच्चता को कुचलते हुए बढ़ रहे हैं । क्या सारे पीड़ित पुरुष तथा स्‍त्रियां आप ही की तरह चिता में जल मरेंगे ? नहीं, भारत कायरों के समान आत्मघात नहीं करेगा । अपने सम्मान की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए यहां का प्रत्येक पुरुष लड़ मरेगा । इसलिए देवियो, एक बार अपनी ओजस्वी वाणी से राष्ट्र की आत्मा में प्राण फूंक दो, ताकि इस बढ़ते अत्याचार की बाढ़ को अपने त्याग और बलिदान के अटूट बन्धन से रोका जा सके ।"


जैसे-जैसे महाबाहु का व्याख्यान जोर पकड़ता गया, तैसे-तैसे उन निराश तथा अपने आपको घृणित और अपमानित समझने वाली भिक्षुणियों के हृदय आत्म-बलिदान तथा जातीय प्रेम से फूलने लगे । कटी छातियों वाली भिक्षुणियां अपनी वेदना भूल गईं। जो केवल निर्वाण प्राप्‍ति और सम्मान को ही सर्वोपरि समझती थीं, आज उनमें राष्ट्र अभिमान की ज्योति प्रज्वलित होने लगी । उस बूढ़े दार्शनिक की आंखों में आग की चिंगारियां फूटने लगीं, बूढ़ी भिक्षुणी एक पग आगे बढ़ कर बोली, "धर्मपुत्र ! तुम्हारी बातों में हमें ज्ञान का वह प्रकाश मिला है जो हमारे भावी जीवन को मार्ग दिखायेगा । हम सब आततायी हूणों से पीड़ित मानवता की रक्षा के लिए अपनी कटी छातियों पर लिखे अत्याचार की कहानी सुनाती हुई घूमती फिरेंगी । जन-जन में स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर अपना तन, मन, धन अर्पण करने की भावना भड़कायेंगी और समूचे देश में क्रान्ति की वह आग लगायेंगी जिसकी ज्वाला में ये आततायी राक्षस जलकर भस्म हो जायें । अब से हमारी वाणी से ज्ञान, तपस्या और निर्वाण की बात नहीं निकलेगी, अपितु देश और जाति के सम्मान की रक्षा के लिए आग की चिंगारियाँ निकलेंगीं ।”


उन लाज लुटी युवतियों ने जमीन पर पड़े उन हारों को जिन्हें उन्होंने सर्प के समान डसने वाला समझकर गले से उतारकर फेंक दिया था, उठाकर फिर से गले में डाल लिया और बोलीं, "हमारे शरीरों की फटी चादरें और बहते रक्त की धाराओं का रूप इसी प्रकार विद्यमान रहेगा । हूणों के अत्याचारों की मुंह बोलती कहानी यह कटी छातियों के हार हमारे गले में पड़े रहेंगे । हम शपथपूर्वक कहती हैं कि तब तक हम चैन न लेंगीं जब तक कि पापी हूणों की सेनाएं भारतीय योद्धाओं से पराजित होकर नष्ट-भ्रष्ट नहीं हो जातीं । हम एक दिन से अधिक एक स्थान पर नहीं ठहरेंगी । इसके पश्चात् हे वीर आत्माओ ! जिस प्रकार राष्ट्र की पुकार को जन-जन को सुनाने का हमने बीड़ा उठाया है, उसी प्रकार तुम भी एक भीख हमें दे देना । हमारे इन कलुषित शरीरों को पवित्र करने के लिए सात-सात मन लकड़ियों की एक-एक चिता और चिंगारी दिला देना ताकि हम भगवान् के दरबार में अपनी करुण गाथा सुना सकें ।


"माताओ और बहनो !" तुम जो कुछ हमें कहोगी, हम करेंगे । सारी जाति अपनी हुतात्माओं और सतियों की राख को अपने मस्तक पर धारण करेगी । उन चिताओं पर प्रतिवर्ष मेले लगेंगे और तुम्हारा नाम इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा ।"


"इधर आओ बहिना !" सन्यासी बोला, "हम सबने राष्ट्र सेवा की शपथ ली है । एक क्षण भी नष्‍ट करने का अभिप्राय है लाखों भाई बहिनों का क्रूर हूणों के हाथों संहार और स्‍त्रियों का अपमान !"


महाबाहु ने भगवान् बुद्ध की स्वर्ण प्रतिमा उठा ली और सब लोगों के साथ चल पड़ा । उसकी खड़ग का मुट्ठा अहिंसा के देवता के साथ रगड़ खा रहा था ।


वह वैद्य जो रसों, रसायनों, विषों और उपविषों के ज्ञान में अत्यधिक अधिकार रखता था, शल्य चिकित्सा में भी अद्वितीय था । सब लोगों के पहुंचने से पहले ही उसने घायल घुड़सवार के घावों को सी दिया और उन पर पट्टी बांध दी थी । वह अपने कार्य में इतना मस्त था कि उसे सबके आने की खबर तक न लगी । उसने औषधि की एक खुराक मरणासन्न घायल के मुख में डाली । औषधि पहुंचते ही उस वीर का शरीर हिला और उसकी मूर्छा टूट गई । वह इतना कमजोर हो गया था कि उसे कुछ भी याद नहीं रहा । अपनी स्मृति को सजग करने के लिए वह इधर-उधर देखने लगा, मानो यह पहचानने का प्रयत्‍न कर रहा हो कि वह कहां है और ये लोग कौन हैं ?


"मेरा विचार है किन्हीं विदेशी सैनिकों के साथ युद्ध करते करते मैं घायल हो गया था ।"


"हां, यह सत्य है । परन्तु तुम लेटे रहो, अधिक बोलने अथवा हिलने का प्रयत्‍न मत करो ! आक्रमणकारी मारे जा चुके हैं और तुम एक हिन्दू सन्यासी की कुटिया में हो जहां तुम्हें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी चाहिए ।" धीरे से घुड़सवार ने अपनी गर्दन सिर के नीचे रखे तकिये पर गिरा दी ।


"कौन ? आचार्य जिज्ञासानन्द जी ?" धूमकेतु ने तक्षशिला के पुराने शिक्षक को पहचान लिया था ।


आचार्य जिज्ञासानन्द ने गर्दन मोड़ी । "ओह, धूमकेतु और महाबाहु ! और यह ईरानी विद्यार्थी ....?"


"किसे मालूम था कि आपके यहां दर्शन होंगे?" दोनों हिन्दुओं और ईरानियों ने सन्यासी के चरण छुए ।


"और यह हमारे वेदान्त आचार्य .... इनको आप लोगों ने नहीं पहचाना ?"


चारों शिष्यों ने अपने दूसरे गुरु के चरण स्पर्श किए और उनकी रण रज अपने मस्तक पर लगाई । वृद्ध सन्यासी बाबा ने आशीर्वाद देते हुए कहा, "मैं भी तो इन्हें पहचान नहीं सका ।"


"वास्तव में हम लोगों की भेंट ही ऐसी स्थिति में हुई कि ...."


वेदान्ती बाबा ने अन्तःकरण से आशीष देते हुए कहा, "महाबाहु, यद्यपि तुम्हारी रुचि वेदान्त की अपेक्षा राजनीति, शस्‍त्रास्‍त्र संचालन में अधिक थी, इस दृष्टि से तुम मेरे प्रकट रूप से शिष्य नहीं रहे, फिर भी एक ही कुल के विद्यार्थी होने के नाते तुम भी शिष्यों की श्रेणी में आते हो । किसी प्रकार का परिचय न होते हुए भी तुमने मेरी सहायता करके न केवल शिष्यता का ऋण चुकाया, अपितु मुझे एक ऐसा पाठ पढ़ाया जिससे मेरे ज्ञानचक्षु खुल गए । आज मुझे पता चला कि केवल वेदान्त की गुत्थियां सुलझाने में ही संसार का कल्याण नहीं, अपितु ज्ञान और शस्‍त्र, क्षत्रिय और ब्राह्मण दोनों ही समाज के पूरक अंग हैं । आज मैं अनुभव कर रहा हूँ कि मेरा कर्त्तव्य देश के प्रति भी कुछ है, इसके लिए भी मैं तुम्हारा आभारी हूँ । हम सब तुम्हारे कहने के अनुसार देश के कोने-कोने में घूमेंगे । दुखियारी भिक्षुणियो ! हम हूणों के अत्याचार की गाथा सुनाते हुए सारे देश में प्रबल प्रतिहिंसा की अग्नि प्रज्वलित करेंगे ताकि सारा देश हूणों के खून से देश की अगणित पीड़ित सन्तानों का तर्पण कर सके । आज से बैठकर खाना और नींद भर सोना हराम है । ध्यान, ज्ञान, पूजा-पाठ उस समय तक नहीं करेंगे जब तक मातृभूमि का कोना-कोना इन आतताइयों के चंगुल से मुक्त नहीं हो जाता ।"


"गुरुदेव, आपने हमारी जिम्मेदारी को संभालकर हमारे कंधों के भार को हल्का कर दिया ।"


"आज से ही हम अपने यज्ञ की अग्नि में समिधा लगाते हैं । इसी गांव से हम अपना काम आरम्भ करते हैं । मैं गाँव में जाकर सब लोगों को एकत्रित करता हूँ । अब हम जीवन और मृत्यु का युद्ध करेंगे । उसका पहला जत्था भी इसी गाँव से तैयार होगा । देवियो, आप जैसी साध्वी और गंगाजल की तरह पवित्र इन भिक्षुणियों की कटी छातियों और लुटे हुए सम्मान की चिंगारी सारे देश में आग लगाने के लिए काफी है ।"


"इनके अतिरिक्त गुरुदेव ! सामने के खंडहरों में ठहरे मेरे मित्र के साथ अत्याचार के कुछ और भी चित्र हैं जिनको देखकर पत्थर हृदय भी पसीज जायेगा।"


"अरे हाँ ! मैं तुम्हारे मित्र और उनके घायल साथियों को भूल ही गया था । मैं उन्हें भी यहीं बुलवाता हूँ ।"


महाबाहु बोला, "वे अपने ही स्थान पर ठीक हैं, श्री जिज्ञासानन्द जी ! आप पहले इन देवियों की मरहम पट्टी करें । फिर घावों पर लगने वाली दवाई तथा शक्तिवर्द्धक औषधियाँ लेकर, जिस खंडहर में सब लोग ठहरे हुए हैं, वहाँ जायें । जाते समय थोड़ा गर्म दूध और खाद्य सामग्री भी लेते जाइयेगा तथा एक नौकर यहाँ पर हम सबके भोजन का प्रबन्ध करे । जितनी देर में हम वहाँ का काम सम्भाल कर के वापस आते हैं, तब तक वेदान्ती जी महाराज लोगों को एकत्र कर आज की सभा का आयोजन करें ।"

वेदान्ती महाराज ने थोड़े ही समय में सारे गाँव को एकत्र कर लिया । किसान-जमींदार, दुकानदार, वृद्ध, स्‍त्रियाँ और पुरुष सन्यासी महाराज की आवाज पर गाँव की चौपाल में इकट्ठे हो गए । गाँव का बच्चा-बच्चा खेतों, खलिहानों गली बाजार से सिमट कर वहाँ पर आन उपस्थित हुआ । स्वार्थहीन, हमेशा ध्यान पूजन में निमग्न रहने वाले वीतरागी बाबा ने आज किस लिए हमें बुलाया है ? अथवा कोई विशेष बात होगी । सारा एकत्रित समूह आश्चर्य में डूबा चौकी पर शान्त खड़े सन्यासी बाबा की ओर टिकटिकी लगाये देख रहा था । उसका दुबला-पतला शरीर, शुभ्र दाढ़ी और हीरे के समान चमकने वाली आंखें सारे जनसमूह पर अपना सम्मोहन छोड़ रहीं थीं । प्रत्येक व्यक्ति बड़े शान्त भाव से अपने स्थान पर खड़ा था । कभी-कभी हल्की-हल्की कानाफूसी की फुसफुसाहट सुनाई देती और फिर शान्त हो जाती । गाँव के कुत्तों तक की आवाज सुनाई नहीं देती थी ।


कुछ नये व्यक्तियों के सभास्थल में प्रवेश करते समय सारे जनसमूह का ध्यान उधर आकर्षित हुआ । उनके पीछे-पीछे रक्त से भीगी, फटे चीथड़े पहने, कटी छातियों वाली भिक्षुणियाँ नीचा सिर किये चली आ रहीं थीं । उनके बाद तीन युवकों का सहारा लिए तीन आदमी आगे बढ़ रहे थे, जिनके सारे शरीर की चमड़ी को दुष्ट हूणों ने उतार दिया था । उनके सारे शरीर में से रक्त रिस रहा था । वे सब लोग चौकी के पास आकर खड़े हो गए । इस अद्‍भुत दृश्य को देखकर सारा जनसमूह संतृप्‍त भाव से एक दूसरे की ओर देखने लगा, मानो किसी ने उनकी जबान को ताला लगा दिया हो ।

महाबाहु वेदान्ती बाबा के पास चिन्तित भाव से खड़ा था । यह सोच रहा था कि आचार्य जी यद्यपि महान् विद्वान हैं और अपमान की चोट से उनका हृदय भी तिलमिला रहा है । परन्तु उन्होंने कभी इस प्रकार भाषण नहीं दिया जिससे जनता की सुप्‍त भावनाओं को जगाया जा सके, भले ही वह आध्यात्मवाद के विषय में कितना ही गम्भीर और सारगर्भित भाषण दे सकते हों, आत्मा, परमात्मा, जड़ और चेतन, जगत की रहस्यमय गुत्थियों को सुलझा सकते हों, परन्तु जनता के मर्मस्थल को छूकर देश और जाति के लिए प्राणोत्सर्ग करने की भावना को उद्दीप्‍त नहीं कर सकते । वह चाहता था आज जिस पवित्र यज्ञ का आरम्भ हो रहा है, फीका न रहे । अतः वह व्याख्यान को आरम्भ करने के लिए तैयार सन्यासी बाबा के पास जाकर बोला - "यदि आप आज्ञा दें तो मैं पहले अपना भाषण दे लूँ ?"


"बोलो ! हाँ, अवश्य बोलो !! अपितु मेरा तो विचार है कि आज का भाषण तुम्हीं दो । तुम अच्छे वक्ता हो । मैं बाद में तुम्हारे भाषण का अनुमोदन कर दूँगा ।"


महाबाहु ने बोलने के लिए गला साफ किया और फिर वह अपनी ओजस्वी वाणी में गरजा ।


"देश बन्धुओ ! आज पुण्यभूमि भारत पर जो विदेशियों का अत्याचार और अनाचार बढ़ रहा है वह किसी से छुपा नहीं है । और जो अब तक नई बातों से अनभिज्ञ हैं, यह अत्याचार के इन नमूनों को जो आपके सामने खड़े हैं, देखें कि किस प्रकार अनाथों, अबलाओं और देश के सच्चे सपूतों को कष्ट दिया गया है । आपको पता होना चाहिए कि चीनी तुर्किस्तान की वह असभ्य और खूंखार जाति हमारे प्रिय देश के ग्राम-ग्राम और नगर-नगर में लूटमार करती फिरती है । सीमाप्रान्त के दो-चार राजाओं ने इस बाढ़ को रोकना चाहा परन्तु आपस में एकता न होने के कारण वे लोग एक-एक कर नष्ट हो गए । देश में शस्‍त्र धर्म का अभाव देखकर उन्होंने बिना बाधा के देश में मार-काट आरंभ कर दी । उन्होंने इतना भयंकर अत्याचार करना आरम्भ कर दिया है जो पशुत्व की सीमा को भी पार कर गया है और जिसका वर्णन सुनने मात्र से मनुष्य का सारा शरीर सिहर उठता है । वे लोग उद्यानों, खेतों और खलिहानों को आग लगाते फिरते हैं, कोमल और नन्हें बच्चों को भूनते खाते हैं । मन्दिरों, मठों को धराशायी करते फिरते हैं । भिक्षुओं, सन्यासियों की हत्या करते हैं, अबलाओं और भिक्षुणियों के सतीत्व को लूटते फिरते हैं । वह अत्याचार की आँधी जो अभी तक यहाँ नहीं पहुंची थी, उसके लक्षण यहाँ भी प्रकट होने शुरू हो गए हैं । आज उन्होंने पास के बौद्ध विहार के भिक्षुओं को तलवार के घाट उतार दिया, भिक्षुणियों की छातियाँ काट कर उनकी माला अपने गलों में धारण की । इन तीन उच्च घराने के व्यक्तियों की खालें खिंचवाकर इन्होंने लटका रखा था । हम ही जानते हैं कि किस प्रकार हमने जीवन और मृत्यु के बीच लटकते इन लोगों को वहाँ से छुड़ाया है । भले ही हमने उन लोगों को मार दिया है परन्तु इस प्रकार की उनकी अगणित टोलियां बढती चली आ रही हैं । वह सब लोगों के साथ ऐसा व्यवहार करेंगे जैसा इनके साथ आपको दिखाई देता है । वह तुम्हारे घर की प्रत्येक वस्तु को लूट लेंगे । तुम्हारे बच्चों को अपने भालों की नोंक से छेद डालेंगे, तुम्हारी स्‍त्रियों को छीन लेंगे, तुम्हारे घरों को जला देंगे, बड़े बूढ़ों की खालें खिंचवा लेंगे । और अब तो अपने साथियों की मृत्यु का बदला लेने के लिए न जाने किन-किन नए तरीकों को अपनाकर प्रतिशोध की ज्वाला बुझायेंगे । इसलिए हे देश बन्धुओ ! आत्म-रक्षा और देश की रक्षा के लिए तैयार हो जाओ, सारे देश में वह जागृति की लहर चलाओ कि चप्पे-चप्पे जमीन के लिए विदेशियों को लड़ना पड़े । गली-गली युद्ध-क्षेत्र बन जाए । प्रत्येक भारतीय त्रिशूलधारी शंकर के समान रिपु-मर्दन के लिए संहारक बन जाये, नारियां रण-चण्डी का रूप धारण कर शत्रुओं के दांत खट्टे कर दें । सारा देश प्रलयंकारी उद्‍घोष से शत्रुओं के दिल दहला दे और उनको यमलोक पहुंचा कर इस पृथ्वी को पवित्र करे ।"


"वीरो और वीरांगनाओ !! हमारे देश और जाति पर संकट के बादल उमड़ आये हैं । विनाश की बिजलियाँ हमारे चारों ओर चमक रही हैं । मौत की आंधियाँ चल रहीं हैं । इस समय कर्त्तव्य और बलिदान के चप्पुओं से हम देश और जाति की नाव को किनारे लगा सकते हैं । इसलिए हे मेरे वीरो, उठो ! शस्‍त्र संभालो और सिद्ध कर दो कि जिस प्रकार विद्या, बुद्धि-ज्ञान में कोई हमें हरा नहीं सका, उसी प्रकार हमारे खड़ग का वार सहने की शक्ति भी संसार की किसी जाति में नहीं है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस धर्म-युद्ध के लिए हमें महीनों अथवा सालों लड़ना पड़ सकता है । इसलिए सब लोग प्रतिज्ञा करो कि हम देश के स्वतंत्र होने तक अपना सुख-चैन, सगे-संबंधी, मित्र, स्‍त्री, बच्चे सब को छोड़ देंगे । यहाँ तक कि समय आने पर हम अपने शरीर की भी बलि दे देंगे । इतना दृढ़-संकल्प हमें अवश्य सफलता के सोपान पर चढ़ा ले जायेगा ।"


"भाइयो और बहनो ! खेत जोतने वाला किसान जिस प्रकार अपना रक्त-पसीना एक कर देता है ताकि समय आने पर वह सुख-चैन के दिन बिता सके । जिस प्रकार व्यापारी लोग धनोपार्जन के लिए अपना दिन का सुख-चैन बलिदान कर देते हैं ताकि शाम को आनन्द की नींद आ सके । उसी प्रकार जातियों के जीवन में उथल-पुथल का समय आता है, कभी संघर्ष की दीवारों से टकराना पड़ता है और कभी आनन्द की सुरभि से अपने तन मन को आह्‍लादित करना पड़ता है । जब घर में आग लगी हो, ऐसे समय चैन की बंसी बजाना कहाँ तक हमें शोभा देता है ?"


"भाइयो ! अब आप लोग अपने कर्त्तव्य को स्मरण करो । समय की पुकार है, अपने व्यक्तिगत काम छोड़ कर देश की स्वतंत्रता के युद्ध में कूद पड़ो । आज का तुम्हारा बलिदान, तुम्हारे बच्चे, तुम्हारी माँ बहिनों और भाइयों के जीवन को अक्षय सुख प्रदान करेगा । आओ, आज हम सब आपस के विरोध भुला दें । सब लोग चाहे वह किसी धर्म, सम्प्रदाय अथवा श्रेणी से संबन्ध रखते हों, एकता के सूत्र में बंध जायें और मां भारती की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व होम कर दें ।"


महाबाहु थोड़ी देर के लिए रुका, उसने शान्त खड़े जनसमूह पर दृष्टि डाली । उसके भावों के उतार चढ़ाव को देखा, अपने गले को साफ करता हुआ वह फिर बोला –


"मेरे प्यारे देशवासियो, मेरी आंख देख रही है कि तुम्हारा मन अपने कर्त्तव्य पर मर-मिटने के लिए तत्पर हो रहा है । जिस प्रकार मेरे हृदय की ज्वालाएं तुम्हारे हृदय में पहुँच रहीं हैं, उसी प्रकार तुम लोगों के हृदय की तड़प का मुझे अनुभव हो रहा है । यही सम्मानपूर्वक जीने की लालसा जिसके आगे हूण-यवन-तातार-शक कोई भी क्यों न हो, जलकर राख हो जाएगा । कोई भी शिकारी उसी समय तक सिंह को परेशान कर सकता है जब तक वह सो रहा होता है । परन्तु एक बार सजग हो जाने पर वह अपने एक ही पंजे की मार से उसकी बोटियां तक नोंच लेता है । उसी प्रकार तुम लोग सुप्‍त सिंह के समान हो, यह घर तुम्हारा है । जब चालीस कोटि सिंह मिलकर दहाड़ेंगे तो सारा भू-मंडल थरथरा उठेगा ।"


"अगला कार्यक्रम निश्चित करने के लिए कि हमें किस प्रकार अपने आप को संगठित कर शत्रुओं से लोहा लेना है, वह सब हम आज रात्रि को मन्दिर के प्रांगण में एकत्र होकर सोचेंगे ।"


महाबाहु का व्याख्यान समाप्‍त होने के पश्चात् कई क्षणों तक सन्नाटा छाया रहा । धीरे-धीरे लोगों में हरकत हुई, एक गगनभेदी जयकारे से वायुमंडल गूंज उठा ।


महाबाहु के ओजस्वी भाषण को सुनकर दोनों वृद्ध सन्यासियों की नसों में भी गर्म रक्त प्रवाहित हो गया, वे भी युवक सैनिकों की तरह अपनी छातियाँ फुलाकर खड़े हो गये । घायल तथा भिक्षु-भिक्षुणियों के नथुने क्रोध से फूलने लगे और वे प्रतिशोध की भावना से भूखी नागिन के समान फुंकार उठीं । उनकी आँखों में चिंगारियाँ निकल रहीं थीं ।


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