खाप पर प्रचलित गलतफहमिया व निवारण
खाप पर चर्चा का आरम्भ पहले प्रचलित गलतफहमियों के जाल को हटाने के साथ होना चाहिये। सवाल पर भ्रम रचना के अनेक कारण बने हैं। एक-एक को परखना होगा। इस चर्चा की आवश्यकता पड़ने का कारण यह बना है कि एक दशक से अधिक हो गया जब खाप के विरुद्ध देश के प्रचार माध्यमों, विशेष कर अखबारों में चले एकतरफा अभियान के कारण अब तक ग्रामीण भारत की जीवनशैली ही शक के घेरे में पड़ गयी है। उसे दकियानूसी बताने वाले उछाल पर हैं और स्वयं आधुनिक बने हुए हैं। आधुनिकता का पैमाना भी अपना। इस दुष्प्रचार की कसरत में जिस तरह की शब्दावली व वाक्यविन्यास का प्रयोग हुआ है उससे इस अभियान के असली मकसद पर ही शक खड़ा होता है। तब पूरे सवाल को सामने रखना जरूरी बन गया है। भाषा-विज्ञान के जानकार जानते हैं कि वाक्यविन्यास व शब्दावली का प्रयोग खास प्रभाव छोड़ता है, यही भाषा का प्रयोजन है। फिर, प्रचार चलाने वाले कोई बच्चा बुद्धि नहीं हैं कि भाषा का प्रयोग प्रयोजन रहित हो। कुछ ‘ऑनर किलिंग’ की घटनाओं को लेकर विगत एक दशक से अधिक चलते आ रहे इस अभियान पर ध्यान देेने से स्पष्ट होता है कि निशाना मात्र इन घटनाओं पर रोष जताना नहीं है, बल्कि इसके पीछे मकसद कहीं अधिक गहरा है। प्रचार का रूप प्रयोजन हेतु संगठित प्रयास का है, इसीलिए इसे अभियान कहना सर्वथा उचित है। खाप के सवाल पर यह चर्चा आरम्भ करने में संवाद की हमारी जरूरत का यह बुनियादी कारण है।
इस प्रचार द्वारा लांछन अभियान का परिणाम है कि ग्रामीण भारत की ऐसी प्रथा पर गलतफहमियों का अंधकार छा चुका है जो उसके सामाजिक जीवन कों सांस देती है। उत्तर भारत के एक विशेष क्षेत्र में खाप शब्द प्रचलित है। दूसरे भागों में इस प्रथा के लिए अलग अलग शब्द प्रयोग में आतें हैं। अनेक जगह इसें केवल पंचायत भी कहा जाता है तो कहीं पॉल शब्द का प्रयोग होता है।
जब इस अभियान का निशाना वह क्षेत्र आया जहां इस प्रथा के लिए खाप शब्द का प्रयोग होता है तब मकसद का एक दूसरा कोणा भी खुला। यह अधिक गम्भीर है। इन सब पहलुओं को ध्यान में रख कर चर्चा का आरम्भ हुआ है, क्योंकि स्वयं ग्रामीण क्षेत्रों में भी नासमझी का आलम देखने में आता है, खास कर नयी पीढी के लोगों में यह कमजोरी व्याप्त है।
खाप कोई संस्था नहीं
यह पहले दर्जे का भ्रम है कि खाप कोई बनी बनाई संस्था है। इस भ्रम के कारण खाप के खाते में अनेक बेमतलब लांछन जुड़ गये हैं। खाप कोई संस्था या संगठन नहीं, प्रथा (व्यवहार) है। ध्यान से परखें तो खाप पद्धति का स्वरूप स्वयं बताता है कि मानव जाति ने जब से खेती-बाड़ी के लिए एक जगह टिक कर रहना आरम्भ किया तभी से यह पद्धति उसकी फितरत का हिस्सा बन गयी है। बस, आगे चलकर क्षेत्र विशेष में इसे खाप का नाम दे दिया गया और जरूरत के अनुसार इसे तराश लिया गया है जिससे खाप लोकतन्त्र का अनुपम रूप बन चुकी है। भारत के पुराने इतिहास में जिसे अनेक पर्यटकों ने ‘लिटिल रिपब्लिक’ यानी लघु लोकतन्त्र का नाम दिया था खाप उसी का नाम है। पूंजी कमाने की अंधी दौड का आरम्भ होते ही, सन् 1991 के बाद से अपने को अति आधुनिक होने का गुमान लेकर चलने वाले लोगों को भ्रम हो गया लगता है कि वे ग्रामीण भारत को जैसा चाहेंगे हांकेंगे और उसे भी अपने जैसा आधुनिक बना कर छोडेंगे। अभियान का सुर यही है। देहात को भी बता देना चाहिए कि वह ऐसा आधुनिक बनने से इंकार करता है। स्पष्टता अच्छी बात है। देश इन मुट्ठीभर लोगों का ही नहीं देहातियों का भी है। ये लोग खाप को अपनी जहर भरी शब्दावली में पेश करने पर जुटे हुए हैं। खाप वह नहीं है, जैसा वे कहते हैं। यह मानने को दिल नहीं करता कि ये लोग अनजान या बेवकूफ हैं। लेकिन चालाक हैं और अनेक धूर्त हैं, यह अब तक साफ हो चुका है। एक खास मकसद लेकर चलने वाले लोगों का देहात विरोधी अभियान चल रहा है जिसका सीधा सम्बंध धन की अंधी दौड़ के साथ जुड़ा हुआ है। यह हम आगे देखेंगे।
देश के प्रचार माध्यमों, खासकर अखबारों में खाप के विरुद्ध लांछन अभियान वह मान कर चल रहा है कि यह एक संस्था है। इधर, इस दुष्प्रचार अभियान के दौरान खाप के कुछ चौधरियों द्वारा बिना सोचे बयानबाजी में अपनाये लहजे के चलते अखबारों को अवसर मिल गया है कि खाप को एक संस्था बताया जाए तभी विरोधियों का मकसद पूरा होगा। संस्था को ही उनका तन्त्र कानूनन प्रतिबंधित कर पायेगा, पद्धति को रोक पाना सांप की बूम्बी में हाथ देने जैसा कर्म होगा, यह बात ये लोग जानते हैं। किन्तु, खाप के इतिहास व कार्यपद्धति पर ध्यान दिया जाए तो स्वयं स्पष्ट है कि यह धारणा गलत है। असल में खाप एक प्रथा का नाम है। इसे संस्था या संगठन मानना या रूप देना विरोधियों के जाल में फंसने जैसा होगा!
सर्वप्रथम एक बात स्पष्ट होनी चाहिए। यह प्रथा जिसका रूप खाप शब्द के साथ जुड़ा हुआ है दुनियां का ऐसा कोई कोणा नहीं जहां के ग्रामीण क्षेत्र में इसका प्रयोग न होता हो। मनुष्य के साथ यह सार्वभौमिक प्रथा है। जैसे जैसे मनुष्य ने समूह में रहना, जीना सीखा यह प्रथा उसका अंग बनती चली गयी। यह प्रथा है अपनी समस्याओं को मिल बैठ कर आपस में सुलझाना। शहरों में जो लोग बसते चले गये इसका उनके जीवन से सम्बंध टूटता चला गया, क्योंकि शहरी जीवन समूह की जगह व्यक्ति केन्द्रित होता है। शहरी जीवन का समूह मात्र व्यक्ति का जोड़ रहता है जबकि ग्रामीण क्षेत्र में जीवन रिश्तो पर टिके समूह का होता है, दोनों में यह बुनियादी फर्क है जिसे आम तौर पर चर्चा में अनदेखा किया जाता है और भ्रम का लाभ कुछ लोग उठा ले जाते हैं। यह बात खाप शब्द प्रयोग होने वाले क्षेत्रों में तो पूरी तरह सच है।
खाप शब्द प्रयोग होने वाले क्षेत्र में मनुष्यजाति की इस प्रथा का सबसे ंअच्छा रूप बन पाया। इसका इतिहासिक कारण है। इस क्षेत्र में पारिवारिक खेती करने वाले कबीलों, जातियों में अपने कर्म पर अधिक भरोसा रहा है। यहां कबीलों व जातियों-गोत्रों के रिश्तों पर टिके गांव बसे। यह क्षेत्र किसी बाहरी परम शक्ति पर विश्वास न करके अपनों में मिलकर रहने, सोचने-समझने व कर्म पर अधिक विश्वास करता आया है जिनकी जिंदगी खेती व खेती से जुडे काम पर चलती है। यह भी एक कारण है कि खाप के विरोधी इससे इतने परेशान नज़र आते हैं।
चूंकि भारत में व्यक्ति अधिकार वाली चुनाव पद्धति का चलन आजादी के बाद आरम्भ हुआ जिसका सम्बंध राज की ताकत में साझेदारी का सवाल प्रमुख है, उससे यहां राजनीतिक पार्टियों अथवा संगठन बना कर इस दौड़ में शामिल होने का रिवाज हो गया है। उससे महत्वाकांक्षी लोगों में संगठन की अजब तरह की समझ बन गयी है और इसे वे ‘संगठन में शक्ति’ की कहावत के अनुसार प्रयोग करने में लगे रहते हैं। इसका प्रभाव देहात के लोगों पर भी पड़ा है। किन्तु यह मानना पड़ेगा कि यह परायी पद्धति है जिसका कृषि पर आधारित मौलिक ग्रामीण जीवन शैली से कोई मेल नहीं बैठता है। खाप शब्द को लेकर ग्रामीण क्षेत्र में बहुत महानुभाव इसका एक राजनीतिक पार्टी की तरह प्रयोग करने लगे हैं जिससे इस प्रथा को हानि पहुंच रही है। वर्तमान में टकराव का यह मूल कारण है जब दोनो में अन्तर को न समझ कर व्यवहार किया जाता है। खाप को संगठन या संस्था की तरह मान कर चलने वाले स्वयं उसके हिमायती महानुभाव इस खतरे को अनदेखा करते हैं और इस प्रथा को चोट पहुंचाने का कारण बनते हैं, भले अनजाने सही। खाप के विरुद्ध अभियान चलाने वाले चालबाज लोग तो इसे संस्था बताने पर जुटे हुए ही हैं, इससे उनको शिकार करने की सुविधा होती है। यह पहली बात है जिसपर समझ को स्पष्ट करना होगा।