खाप विरोधी जिहाद बड़ी योजना का अंग

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खाप विरोधी जिहाद वृहद योजना का अंग

खाप विरोधी जिहाद एक वृहद योजना का अंग है और उसका लक्ष्य देश के अपने सांस्कृतिक परिदृष्य को पलटने का है। जिहाद का स्वरूप सर्वग्रासी है। इसका अहसास बहुत लोगों को नहीं है, उनको भी नहीं जो इस जिहाद के निशाने पर पहले आ गये हैं। पूरे शासनतन्त्र द्वारा पोषित यह जिहाद समाज में फंस गये किसी छुटपुट कांटे को निकाल कर सरे-राह लाने की मामूली कसरत मानने की गलती नहीं करनी चाहिए। देश का शासनतन्त्र बीते दो दशक से यहां के चेहरे को पलटने की जिस ताबडतोड कशमकश में लगा हुआ है उस पर निगाह रखने से साफ है कि यह समय देश के लिए निर्णयकारी पलटा खाने की जमीन पुख्ता करने का आ गया है जब सरकार लिए गये अपने एजेण्डे पर उठने वाले किसी विरोध की सम्भावना को पूरी तरह मिटाने का प्रबंध करने में लगी हुई हैं। अन्यथा, समुचित उत्तर खोजना कठिन है कि अचानक एक भरीपूरी कौम को उसकी चिर परिचित मान्यताओं पर ललकारने का काम शासकों द्वारा ठीक इस समय हाथ में क्यों लिया गया जब आर्थिक क्षेत्र में जगतीकरण के अमरीकी एजेण्डे का जहर रंग लाने लगा है और चारों ओर संताप का सा माहौल है। उपलब्ध सेकंतों से साफ है कि जिहाद का समय और प्रथम निशाने को भी सोच समझ कर चुना गया है।

जाट राजा-रजवाड़ों के सही/गलत चित्र से उत्पन्न आग्रहों/पूर्वाग्रहों को अलग छोड़ कर देखा जाए ंतो परम्परागत व पारिवारिक श्रम पर आधारित खेती-किसानी में रची-बसी जाट कौम अपनी कुछ विशेषताओं की धनी रही हैं जिन्हें समाज में पुनः प्रतिष्ठित किया जाए तो भविष्य संवर सकता है। यही खासियतें वर्तमान शासतन्त्र के लिए खतरे की घंटी है जो देश को पूंजीप्रदत्त हैवानियत व दकियानूसी चारण संस्कृति में फंसाने का मंसूबा पाले हुए है जो संस्कृति आम आदमी के काम की नहीं है, जो पहले ही अपनी सडांध को इतर में लपेटे फिरती है। यहां आत्म-सम्मानी जाट कौम ऐसी खासियतों की मालिक रही है जिसे पेशे व जीवनशैली के बतौर अब शासक अपनी राह का रोड़ा मानने लगे हैं। इतिहास में घरेलू व बिरादरी के अन्दरूनी मामलों में किसी शक्तिशाली से शक्तिशाली का भी दखल बर्दाश्त न करने, अपनी नसों में उसी तरह रची-बसी लोकतान्त्रिक जीवनपद्धति के प्रति घनिष्ट लगाव तथा दूसरों के प्रति सहिष्णु जाट कौम को जब इस जिहाद का पहला निशाना चुना गया तो अचरज नहीं हुआ। यह सब शासतन्त्र के मौजूदा ओढे गये एजेण्डे में फिट नहीं बैठता है।

विविधता में एकता पर गर्व करने वाले देश में ऐसी पराई सांस्कृतिक एकरूपता थौंपने के जिहाद का ठोस कारण है। वर्ष 1991 में अचानक सरकार ने देश की (मालिक) जनता से पूछे बिना ‘जगतीकरण, निजीकरण, उदारीकरण के विनाशकारी किन्तु लच्छेदार नारे के अधीन सेठियागिरी के प्रतीक अमरीकी एजेण्डे को यहां लादना आरम्भ किया था। और सेठसाहूकारों के लिए धन के अलावा दूसरा कुछ मायने नहीं रखता जिस धन के लिए वे किसी सीमा तक गिर सकते हैं तो दूसरों को गिरा सकते हैं। यह सब करने की ताकत उनकी खड़ी हो गयी है। यही आज की त्रासदी है। पता चलने पर भी थौंपे गये एजेण्डे को पलटने के वास्ते उस समय विरोध नही उठा। राजनेताओं व राजनीतिक दलों ने लोगों का साथ नहीं दिया। हर बार की तरह वे कहते कुछ रहे, जमीन इस ऐजेण्डे की तैयार करने में कंधा लगाते रहे! बीते बीस साल से जमीनी तैयारी कर लेने के बाद उसी एजेण्डे के अनुरूप अब देश की पूरी फितरत, पूरे मूल्यबोध व धरोहर को बदलने के लिए यह सांस्कृतिक उलटफेर का प्रयास सरकार ने चालू किया है। इस अभियान में प्रयोग शब्दावली, मुहावरे और तर्कों का यही निचोड़ निकलता है। बाहर से पूंजी के साथ आने वाली ‘संस्कृति’ के लिए रास्ता हमवार बनाने हेतु खाप को विकास विरोधी, देश विरोधी, दकियानूसी और भाईचारे एवं घर-परिवार की घेराबंदी जैसे पुरातनपंथी विचार की धनी बताना आरम्भ किया था जिससे जिहाद के इरादों को पकड़ना सहज हुआ।

मामला जाट कौम तक सीमित नहीं है। यह तो पहला निशाना बनी। शासनकला में रचे-बसे द्विजों को छोड़ कर अपनी ईमानदार मेहनत के भरोसे जीवन चलाने वाली सभी कौम अपनी संस्कृति को प्यार करती हैं। कोई नहीं चाहता कि उसे जड़ से उखाड़ने का कोई जाबर प्रयास करे। यह सब की बुनियादी चाह है। देश की बात इसी में फिट होना चाहिए अन्यथा उसेे तो मुनाफेदार बाजार बना लिया है। इस संवाद में बात शासकों की लीक से हट कर अवाम के सन्दर्भ में हुई है, इसलिए किन्हीं को खटक सकती हैं। किन्तु साफ कहने का वक्त आया हुया है। खतरा बड़ा है। वक्त आम लोगों का हैं। उन्हें आगे आ कर कमान लेनी चाहिए।