खेजड़लो

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खेजड़ी पर लगी है मींझर

भूमिका

राजस्थानी भाषा की यह कविता कन्हैयालाल सेठिया की 'मींझर' कविता संग्रह से ली गई है. यह राजस्थान के रेगिस्तान में पाए जाने वाले वृक्ष खेजड़ी के सम्बन्ध में है. इस कविता में खेजड़ी की उपयोगिता और महत्व का सुन्दर चित्रण किया गया है.

खेजड़ी का वृक्ष राजस्थान के लोगों के लिए बहुत उपयोगी है. यह जेठ के महीने में भी हरा रहता है. ऐसी गर्मी में जब रेगिस्तान में जानवरों के लिए धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता तब यह छाया देती है. जब खाने को कुछ नहीं होता है तब यह चारा देता है, जो लूंग कहलाता है. इसका फूल मींझर कहलाता है. इसका फल सांगरी कहलाता है, जिसकी सब्जी बनाई जाती है. यह फल सूखने पर खोखा कहलाता है जो सूखा मेवा है. इसकी लकडी मजबूत होती है जो किसान के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है. इसकी जड़ से हल बनता है. अकाल के समय रेगिस्तान के आदमी और जानवरों का यही एक मात्र सहारा है. सन १८९९ में दुर्भिक्ष अकाल पड़ा था जिसको छपनिया अकाल कहते हैं, उस समय रेगिस्तान के लोग इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिन्दा रहे थे. इस पेड़ के निचे अनाज की पैदावार ज्यादा होती है. पांडवों ने अंतिम वर्ष के अज्ञातवास में गांडीव धनुष इसी पेड़ में छुपाया था.

यह वृक्ष विभिन्न देशों में पाया जाता है जहाँ इसके अलग अलग नाम हैं. राजस्थानी में यह खेजडी, जांटी या जांट कहलाता है. पंजाबी में जंड कहते है, गुजराती में इसे समी या सुमरा कहते है. सिन्धी में यह कंडी कहलाता है. तमिल में वणी कहते हैं. युनाइटेड अरब अमीरात में इसे गफ कहते हैं जहाँ का यह राष्ट्रीय वृक्ष है. अंग्रेजी में यह Prosopis cineraria नाम से जाना जाता है.

राजस्थानी कविता खेजड़लो

खेजड़ी का चारे के लिये छांगना

म्हारै मुरधर रो है सांचो,

सुख दुख साथी खेजड़लो।

तिसां मरै पण छयां करै है,

करड़ी छाती खेजड़लो।।


आसोजां रा तप्या तावड़ा,

काचा लोही पिळघळग्या,

पान फूल री बात करां के,

बै तो कद ही जळबळग्या,

सूरज बोल्यो छियां न छोडूं,

पण जबरो है खेजड़लो,

सरणै आय'र छियां पड़ी है,

आप बळै है खेजड़लो।।


सगळा आवै कह कर ज्यावै,

मरु रो खारो पाणी है,

पाणी क्यां रो ऐ तो आंसू,

खेजड़लै ही जाणी है,

आंसू पीकर जीणो सीख्यो,

एक जगत में खेजड़लो,

सै मिट ज्यासी अमर रवैलो,

एक बगत में खेजड़लो।।


गांव आंतरै नारा थकग्या,

और सतावै भूख घणी,

गाडी आळो खाथा हांकै,

नारां थां रो मरै धणी,

सिंझ्या पड़गी तारा निकळ्या,

पण है सा'रो खेजड़लो,

'आज्या' दे खोखां रो झालो,

बोल्यो प्यारो खेजड़लो।।


जेठ मास में धरती धोळी,

फूस पानड़ो मिलै नहीं,

भूखां मरता ऊंठ फिरै है,

ऐ तकलीफां झिलै नहीं,

इण मौकै भी उण ऊंठां नै,

डील चरावै खेजड़लो,

अंग-अंग में पीड़ भरी पण,

पेट भरावै खेजड़लो।।


म्हारै मुरधर रो है सांचो,

सुख दुख साथी खेजड़लो,

तिसां मरै पण छयां करै है,

करड़ी छाती खेजड़लो।।

सन्दर्भ

कन्हैयालाल सेठिया की 'मींझर' कविता संग्रै सूं साभार


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