रिश्तों की छतरी खाप पर विकास विरोधी तमगा
रिश्तों की छतरी खाप पर विकास विरोधी तोहमत
मनुष्य की मौलिक प्रकृति मिल कर रहने-चलने की है। यह मिलनसारी स्थाई अथवा अस्थाई ढंग की रह सकती है। स्थाई मिलनसारी का सबसे बेहतर नमूना परिवार है जो खेती-किसानी के उद्भव के साथ वजूद में आया और तब से चलता संवरता आ रहा है। अस्थाई मिलनसारी उद्योगों के जमाने से जुडा हुआ चलन है। अनौपचारिक प्रकृति वाले घर-परिवार से भिन्न औपचारिक किस्म के संगठनों में अस्थाई किस्म की मिलनसारी चलती है। निकटतम प्रवृति का समाज परिवार एवं बिरादरी का नाम है। यह समाज गांवों में निवास करता है। घर-परिवार मनुष्य की मिलनसारी का सबसे निकट के रिश्ते का नाम है जहां चूल्हे पर सबका साझा है और संवेदनाओं का मिलन है। कुटुम्ब व बिरादरी का रिश्ता परिवार के साथ जुड़ता है। गांव व गौहॉंड में भाईचारे का रिश्ता बनता है जहां खेत की सीम मिलती है और गऊ/भैंस बिन दिक्कत फेरा लगा ले सकती हैं। गौहांॅंडी भाईचारे के बिना गऊ/भैंस यानी पशुपालन व खेती-किसानी नहीं फलती जबतक कि पूंजी पर आधारित मुनाफे के फार्म की खेती-उद्योग इसकी जड़ नहीं खोदता। हरयाणा सहित भारत का बहुत बड़ा भाग अभी तक परिवार के श्रम पर आधारित खेती-किसानी का क्षेत्र है जिसके पास अपने श्रम के अतिरिक्त जीविका का अन्य साधन नहीं बचा है। साझे के साधन भी हाथ नहीं रहे।
उद्योग-वाणिज्य ने एक मिथक की रचना करके अपनी यात्रा का आरम्भ किया था कि उत्पादन-वितरण का उसका ढंग ही समाज से अभाव को समाप्त करके वैभव का रास्ता है। यह मिथक लगभग चार सौ साल का है। इसकी गाड़ी निजी लोभ की भावना खड़ी करके आगे चली जिसने समाज की नींव को हिला कर तोड़ने का सामान जुटाया। आज की अफरातफरी का यही कारण बना। लेकिन देखते हैं कि चार सदी के सांस उखाड़ने वाले प्रयास के बावजूद अफरातफरी, रिश्तों की तोड़फोड़ व आपसी मारकाट के अलावा समाज में अभाव की समाप्ति व वैभव का लक्ष्य मात्र लक्ष्य ही बना हुआ है। चंद मुट्ठीभर लोगों को छोड़ कर बहुसंख्यक लोगों को दरिद्रता के भंवर से यह काफिला निकालने में सर्वथा अक्षम साबित हुआ है। दुनियां में एक भी देश ऐसा नहीं जहां उद्योग-वाणिज्य ने यह लक्ष्य हासिल करने में सफलता पाई हो। उल्ट, तनाव, भय, अशांति व युद्ध का दर्द गहरा होता जा रहा है। भारत में हालात बेहतर नहीं हुए है।
हरयाणा में जबसे इस पूंजी के काफिले ने गति पकड़ी कारों की गहमागहमी के साथ ही बेमतलब की दोड़, अपराध, तनाव एवं निजी मारकाट की स्थिति बनी है, नये नये रोगों का सिलसिला चला है, रिश्तों का कत्ल मुखर हुआ है। तब, उद्योग-वाणिज्य के वैभव वाले मिथक पर चल कर जीवन को बर्बाद करने का क्या औचित्य बच जाता है? इस मिथक को जन्म देने वाले पश्चिमी देशों में ही इससे पीछा छुड़ाने की ललक उठने लगी है; वे पारिवारिक खेती की तरफ मुड़ रहे हैं जिसकी प्रतिघ्वनि संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वर्ष 2014 को फैमिली फार्मिंग वर्ष मनाने के निर्णय में मिलती है। उसी तरह, घर-परिवार की महत्ता को स्वीकारा जा रहा है जिसके बिना व्याप्त अफरातफरी ने उन्हें कहीं नहीं पहुंचाया। स्थाई व अस्थाई मिलनसारी के भेद को समझने की कसक उनमें देखी जा रही है। तब, इस मिथक पर सरपट दौड़ कर भारत क्यों अपनी नस्लों को बर्बाद करने पर लगा रहेगा?
खाप के विरुद्ध जब कोई दस-पन्द्रह साल पहले ऑनर किलिंग का सवाल उठा कर नये नये जिहादियों द्वारा हमला बोला गया जिसमें मीडिया व सरकारी धन पर पलने वाले एन जी ओ सैक्टर सबसे मुखर हेैं तो दलील उठी कि यह भाईचारा क्या होता है, यह तो अठारवीं सदी में रहने की जिद्द है, रिश्ते क्या होते हैं, यह तो आदमी को गुलाम बना कर रखने की लकीर है? रिश्तों की बंदिश कों आदमी के मानवीय अधिकारों का उलंघन बताया गया।
याद रहे जब खाप के विरुद्ध यह जिहाद छेड़ा गया वह समय परिवार के श्रम पर चलने वाली खेती को तबाह करके स्पेशल इकॉनिमिक जोन (एस. ई. जेड)़ यानी विशेष आर्थिक क्षेत्र के नाम से सेठियागिरी की शुरुआत का था। इसकी मार्फत अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व की भाजपा सरकार ने वर्ष 2000 में ‘नयी कृषि नीति-2000’ नाम से घोषित निर्णय के जरिये पूंजी आधारित खेती के लिए सरमायेदारों के हाथो में खेती को सौंपने का बिगुल बजाया था जिसमें गांव की छोटी पारिवारिक खेती बड़ी रुकावट मानी गयी थी।
खेती और खेती की जमीन को सेठों के हाथ में सौंपने की राह को आसान करने के लिए तब परिवार के बंधन और भाईचारे पर हमला आरम्भ हुआ था ताकि पूंजी की खेती के रास्ते की रुकावटें दूर हो सकंे। सरकार जानती थी कि रिश्तों की बंदिश रहेगी तो परिवार रहेगा; भाईचारा रहेगा तो खाप रहेगी। दोनों रहेंगे तो गांव की खेती-किसानी जड़ पकडे रहेगी जो उनके विनाशी विकास की रफ्तार को रोकेे रहेंगे। यही कारण था कि इन जिहादियों ने अपने हमले में रिश्तों व भाईचारे की छतरी खाप पर विकास विरोधी होने का आरोप उस समय लगाया जब अटल बिहारी की सरकार इस नीति के जरिये विकास का मतलब खेती की जमीन को रिलांयस जैसे घरानों को सौंप देने में बता रही थी।
उस सरकार द्वारा सेठियागिरी में तय की गयी ‘नीति’ को आगे बढाने के लिए मामला प्रेम विवाह जैसी सवंेदनाओं को आड़ बना कर खाप विरोधी अभियान चला। देहाती परिवारों के युवा-युवतियों को चारा बनाया गया। परिणाम स्वरूप, पूंजी की सेवा में यह सांस्कृतिक युद्ध स्वयं किसानों मजदूरों के घर में चालू किया गया ताकि समाज की भावना को नष्ट करके बदले में इन जिहादियों का अपना ‘व्यक्ति’ मुखी समाज बन सके। अस्थाई मिलनसारी को स्थाई मिलनसारी की जगह प्रतिष्ठित करने की साजिश! मकसद है पूंजी के काफिले को आगे बढाने की कसरत। यह सेठियागिरी के हक में एक समरस समाज के विरुद्ध साजिश नही ंतो क्या है? पत्रकारों का ईमानदार भाग इसका हिस्सा क्यों बने?