शहरी संस्कृति को देहात पर लादने की कोशिश

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शहरी लोग सड़ी संस्कृति देहात पर जबरन न लादें

ग्रामीण परिवार का पहला सम्बंध अपनी बिरादरी से है, दूसरे वह किसी गांव व खाप का अंग है। बिरादरी की तरह गांव व खाप से परिवार का सम्बंध जन्मजात है। क्षेत्र छोड़ कर कहीं जा बसने पर ही गांव व खाप से सम्बंध टूट सकता है। किसी गांव में किसी बिरादरी का अकेला परिवार भी हो सकता है तो पूरे गांव में एक बिरादरी का ही वर्चस्व रह सकता है। दोनो स्थिति में परिवार का अपना महत्व है और जिंदगी को चलाने वाले उसके सवाल। उसे दो तरह के मामलों से वास्ता रहता हैः पहले, परिवार के अपने अन्दरूनी मामले रहते हैं जिनपर अक्सर बिन आमन्त्रण बाहर का दखल नहीं रहता है। आवश्यकता होने पर ही परिवार को पहले अपने कुटुम्ब/कुल और फिर भी जरूरत रह जाए तो बिरादरी से विचार अथवा मामला निपटाने के लिए कहना पड़ सकता है। बिरादरी बैठे तो इसे बिरादरी खाप पद्धति कहते हैं। घर-परिवार के मामला न हों तो गांव के बाद एक से अधिक भाईचारे के निर्धारित गांव के लोग बैठते है जिसे खाप कहा जाता है। दोनों के बीच के अन्तर को न समझ कर शहरी लोग खाप की बात करतंे हैं तो गलतफहमी बनती है। ऑनर किलिंग के मामलों में अखबारी दुनियां ने अपने अभियान में बिरादरी खाप को खाप कह कर नफरत पैदा की है और इस तरह अपना जाट विरोधी अभियान चलाया।

परिवार, कुटुम्ब व बिरादरी निजता का समब्ंध है और गांव व खाप के साथ अपनापन है। दोनो में भाईचारे का दायरा इन्हंे एक रखता है। दोनों तरह के रिश्तों में आपसी द्वंद्व मिलनात्मक प्रकृति का होने से यह एकता बनी रहती है जबतक कि कोई इसे तोड़ने पर उतारू न हो। यह बात घर पर भी लागू होती है और गांव व खाप पर भी। खाप आपसी विवाद सुलझाने की स्वीकार्य पद्धति है जिसपर अब इन महानुभावों को बड़ा एतराज है कि ये गवांर लोग शहरियों से पूछे बिना अपने विवाद सुल्झाने का काम क्यों कर लेते हैं! इस एतराज का कारण ये उस संविधान को बताते हैं जो 65 साल पहले लागू किया गया था। इनका दूसरा बड़ा एतराज इस बात का है कि ये जाट लोग 1956 में बने हिंदु विवाह अधिनियम को क्यों नहीं मानते जो एक ही गोत्र, एक ही गांव में शादी को गैर-कानूनी नहीं कहता है। इनका कहना है कि इस कानून की बजाए इन लोगों को अपने रिवाजों को बदलना होगा। कोई पूछे तब आप लोगों ने सन् 1956 में कानून क्यों बना कर रख लिया था जो अनेक बिरादरियों की प्रथा के उलट मात्र द्विजों की परम्परा है? आगे चल कर पूरी कौम को नाथने के लिए न? चालाकी से समाज नहीं चलता, कानून भी नहीं!

इस खाप विरोधी अभियान के दौरान जब कुछ लोगों ने 1956 के कानून में तबदीली करने की बात उठायी तो इन महानुभावों ने हल्ला मचा कर आसमान सिर पर उठा लिया। एक मांग उठाने से इतनी तिलमिलाहट और बेचैनी किस लिए हो गयी, नहीं बताया। कारण है कि ये लोग सरकार की ताकत से ग्रामीण भारत पर अपनी आधुनिकता को जबरन लादने पर बजिद्द हैं और देहात को जीने का अधिकार देना पसंद नहीं करते। ताकत का नशा इसे ही कहते हैं। यह देश विविधता में एकता का है। एकता इस बात की है कि सब एक देश को अपना मानते हैं। विविधता का मायने है कि हजारों बिरादरियों के देश में यह किसी को अधिकार नहीं है कि धर-परिवार चलाने में बाहरी दखल हो और उनकी रीति-नीति पर दूसरे अपनी संस्कृति जबरन थौंपेंगे। यह उसी संविधान की बात भी है। शहरी लोग संविधान को कितना मानते हैं, यह हम जानते हैं। भूले नहीं हैं कि संविधान का उलंघन करते करते ही यहां गैर-बराबरी का राज कायम हो सका है।

बाहर से आने वाले सेठों के लिए और स्वयं देश के बिगडैल धनवानों के लिए लफंगेपन को आधुनिक संस्कृति कह कर देहात पर लादने के प्रयास ताजा आरम्भ नहीं हुए हैं। बात बहुत आगे बढ चुकी है। स्कूल-कालिज में पढने जाने वाले हमारे देहाती बच्चों के पांव में घंुघरू और हाथ में कटोरा थमा देने वाले लोग उन्हें सैक्स में स्वतन्त्रता का पाठ पढाने आज से नहीं लगे हैं। उन्हें सेठों का बढिया नौकर बनाने के पूरे प्रबंध 1986 की शिक्षा नीति के जरिये पहले ही चालू हैं। देहात के लिए आजादी का अब तक यही अर्थ हुआ है। लेकिन इस सब की सीमा है, यह समझ लेना चाहिए। अन्यथा अपने लिए कांटे तो ये बो ही चुके हैं।

इस हालत में, देहात के लोग बता देना चाहते हैं कि उन्हें ऐसा आधुनिक नहीं बनना है जो पूंजीशाही अपने लिए हमे बनाना चाहती है। इसे वे अपने लिए रख लें। देहात अपनी संस्कृति के दम पर ही आधुनिक बनेगा। यदि वे अपने बच्चों के साथ खिलवाड़ करने पर तुले हैं तो उनका अपना निर्णय होगा। हमें अपनी जिंदगी और अपने बच्चों से मोहब्बत है। अपने जीवन को अपने हाथ संवारेंगे, यह हमारा नैसर्गिक अधिकार है।