Badd

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भारत की प्रसिद्ध जड़ी बूटी ग्रन्थमाला-४
बड़
लेखक : स्वामी ओमानन्द सरस्वती

प्रकाशक - हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)
तृतीय संस्करण (२००० कापी) : २०४७ विक्रमसंवत्
मुद्रक - जैय्यद प्रैस, बल्लीमारान, दिल्ली-६.

Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल
The author - Acharya Bhagwan Dev alias Swami Omanand Saraswati

नम्र निवेदन

बड़ - आवरण पृष्ठ

साधारण मनुष्य चाहे ग्रामवासी हो चाहे बड़े कस्बे वा बड़े नगर में निवास करता हो, प्रायः सभी का एक ही स्वभाव है कि छोटे मोटे रोगों पर वैद्य, हकीम वा डाक्टर के घर का द्वार शीघ्र ही नहीं खटखटाते । अपने घर, खेत, जंगल के आस पास पड़ौस में सुगमता से जो भी घरेलू औषध मिल जाये उसी को झट उपयोग करते हैं । किन्तु प्रतिदिन दृष्टि में आने वाले जाने पहचाने पौधे वृक्ष वनस्पति बड़, नीम, पीपल आक, ढाक आदि का यथार्थ ज्ञान न होने से अनेक रोगों की चिकित्सा इन के द्वारा भलीभांति वे नहीं कर सकते । जो पीपल, बड़ आदि सभी लोगों के आगे पीछे, घर और बाहर लोगों को सर्वत्र और प्रतिक्षण दिखाई देते हैं और अत्यन्त सुलभ हैं, उनसे द्वारा अनेक रोगों की स्वयं चिकित्सा भी कर सकें, इसी कल्याण की भावना से "भारत की प्रसिद्ध जड़ी बूटी" नामक ग्रन्थ माला का चतुर्थ पुष्प बड़ (बरगद) आपको भेंट किया जाता है ।


इसमें सामान्य रूप से रोगों का निदान वा पथ्य अपथ्य, चिकित्सा आदि पर भी प्रकाश डाला है । आशा है इससे पाठक लाभ उठायेंगे ।


- ओमानन्द सरस्वती

दो शब्द

प्रभु की सृष्टि में असंख्य जड़ी-बूटियां हैं जो परम दयालु पिता ने प्राणिमात्र के लाभार्थ उत्पन्न की हैं, जिनके उत्पन्न करने के साथ-साथ अपनी परम पवित्र वेदवाणी द्वारा उनके पवित्र ज्ञान का प्रकाश भी ऋषियों के पावन हृदय में किया । इसीलिए युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द ने यह उदघोषित किया - वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है और वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों (श्रेष्ठ मनुष्यों) का परम धर्म वा परम कर्त्तव्य है । वेदों का एक उपवेद आयुर्वेद है जिसका प्रसार प्राणिमात्र के हितार्थ ऋषि मुनियों ने देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर में किया । उन विद्वान ऋषियों ने वेद के अनुसार चरक सुश्रुत और निघण्टु आदि आयुर्वेद के ग्रन्थों की रचना की । वेद तथा उपवेद आयुर्वेद के पढ़ने तथा उसके अनुसार आचरण करने से हम सच्चे ज्ञान की प्राप्ति कर सकते हैं । अलपज्ञ होने से मनुष्य अनेक त्रुटियां करता है, भूलें करता है, अतः दुःख भोगता है । रोगी पड़ता है, रोग के कारण बड़ा दुःख भोगता है । आश्चर्य तो यह है कि उसके चारों ओर रोग की औषध विद्यमान होते हुए भी अपनी अलपज्ञता के कारण यह रोगग्रस्त हो दुःख पाता है । "पानी में मीन प्यासी, मुझे देखत आवे हांसी" वाली लोकोक्ति के अनुसार मानव की दुर्गति हो रही है । इस दुर्दशा से बचाने के लिए यह बड़ अथवा बरगद जो भारत की प्रसिद्ध वनस्पति (वृक्ष) है, उस पर एक छोटी सी पुस्तक लिख रहा हूं । जिसमें बड़, जो भारत का एक प्रसिद्ध वृक्ष है जिसे यहां के आबाल, वृद्ध, वनिता सभी भली भांति जानते हैं, आयुर्वेद शास्‍त्रों में जिसका पर्याप्‍त वर्णन मिलता है, जिससे छोटे बड़े वैद्य तथा ग्रामीण जनता भी परिचित है तथा कुछ-कुछ औषध रूप में भी प्रयोग करते हैं । किन्तु उनको यह ज्ञान नहीं कि वट वृक्ष स्वयं एक औषधालय है । सामान्य लोगों की तो बात दूर रही, अच्छे-अच्छे वैद्य डाक्टरों को भी इसका ज्ञान नहीं ।


जब मैं नीम, पीपल की पुस्तक लिख कर प्रकाशित करवा चुका तो स्वभावतः मेरे विचार में आया कि इनके साथी तथा इनके समान गुणी वृक्ष बड़ पर भी पुस्तक लिखनी चाहिये क्योंकि ये तीनों वृक्ष मिलकर ही त्रिवेणी कहलाते हैं । जैसे नीम और पीपल औषध के रूप में बहुत उपयोगी वृक्ष हैं, उसी प्रकार बरगद (वट वृक्ष) भी इससे न्यून लाभप्रद औषध नहीं है । वट वृक्ष की प्रसिद्धि तो अनेक कारणों से भी है । भारत के "अक्षय वट" प्रसिद्ध हैं । प्रयाग के किले में, उज्जयिनी (उज्जैन) में तथा हरयाणा में बास (पेटवाड़) के अक्षय वृक्ष को मैंने कई बार देखा है । यह वट वृक्ष बहुत ऊंचा तथा फैला हुआ नहीं है । इसके छोटे-छोटे पत्ते हैं । बहुत वर्षों से यह न घटता है, न बढ़ता है । वैसे भी लोग इसे सहस्रों वर्ष पुराना कहते हैं । यह एक शिवमन्दिर वा शिवालय में लगा हुआ है । इस शिव मन्दिर की निर्माण शैली वा स्थापत्यकला से ज्ञात होता है कि यह कभी बौद्ध मन्दिर था । फिर किसी समय इसमें परिवर्तन करके इसे शिवालय के रूप में बदल दिया । इन अक्षय वटों को भारतीय पौराणिक लोग बहुत पवित्र तथा देवता मानकर दर्शनार्थ बड़ी भारी संख्या में आते हैं तथा पूजा करते हैं । यह तो अवश्यमेव ही विचारणीय है कि इतना पुराना होने पर भी न तो यह बढ़ता ही है न जीर्ण शीर्ण होकर घटा ही है । इसमें भी कुछ विशेष गुण होने चाहियें । छोटे पत्ते होने से इसे "बड़ी" भी कह सकते हैं । इसके विषय में वनस्पति विशेषज्ञों को शोध-कार्य (खोज) करना चाहिये ।


दूसरे जिस वृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध ने घोर तपस्या करके तत्त्वज्ञान की प्राप्‍ति की थी, वह वट (बड़) का ही वृक्ष था । इसकी एक शाखा वा टहना (दाढ़ी वाला) काटकर भारत से लंका में ले जाकर लगाया गया था जो आज तक विद्यमान है । कुछ ही समय पूर्व इसी लंका वाले वट वृक्ष की शाखा वहां से लाकर पुनः भारतवर्ष में आरोपित की गई है । इसके नीचे महात्मा बुद्ध ने तपस्या की थी । इसीलिए वट वृक्ष का नाम "बोधिवृक्ष" निघण्टुओं में अंकित मिलता है । वैश्रवणावास (महात्मा बुद्ध का आवास) भी इसीलिए इसका नाम है क्योंकि वैश्रवण (महात्मा बुद्ध) का यह आवास स्थान रहा है । इसकी छाया भी शीतल, सुखद और रोगनाशक है । वानप्रस्थियों का वृक्ष मूल निकेतन माना है अर्थात् वृक्षों के मूल (जड़ों) में घर बनाकर वानप्रस्थियों को रहना चाहिए । इसी कारण महात्मा बुद्ध ने भी इसके नीचे आसन लगाया था । वट वृक्ष की दाढ़ी जब भूमि में गड़कर तने का रूप धारण कर लेती है तो स्वयं बड़ की जड़ों में घर सा बन जाता है और वन में रहने वाले साधु सन्यासियों और वानस्प्रस्थियों को वट वृक्ष की मूलों (जड़ों) में बना बनाया घर मिल जाता है, अतः उनके लिए "वृक्षमूलनिकेतन" आवास बनाकर रहने की शास्‍त्रों में आज्ञा है ।


वट वृक्ष स्वभाव से शीतल होने से रक्त तथा पित्त के रोगों को दूर करने वाला है । तृषा (प्यास), छर्दि (वमन) तथा मूर्च्छा आदि रोगों को दूर भगाता है । स्त्रियों के श्वेतप्रदर, रक्तप्रदर तथा पुरुषों के स्वप्नदोष प्रमेह अर्थात् धातु संबन्धी सभी रोगों को दूर करने वाली अपूर्व वा अद्वितीय औषध है । इन रोगों को दूर करने के लिए यह रामबाण औषध है, यही लिखा जा सकता है । पुरुष की धातु वा वीर्य संबन्धी सब निर्बलता को दूर करके पुंसत्व शक्ति अथवा स्तम्भन शक्ति प्रदान करता है । स्त्रियों के रज संबन्धी दोषों को दूर करता है तथा श्वेतप्रदर, रक्तप्रदर, कटिपीड़ादि स्त्रियों के सभी दुःखदायी रोगों का अपहरण करता है तथा उनकी सर्वप्रकार की निर्बलता को दूर करके सन्तानोत्पन्न करने का सामर्थ्य प्रदान करता है । वन्ध्या को पुत्र-पुत्रियों वाली माता बना देता है । जो गृहस्थ संतान के अभाव में दुःखी नरक के तुल्य होता है उसमें गृहस्थ का सुखदायक फल सन्तान प्रदान करके स्वर्ग समान बना देता है । फिर सांसारिक लोगों के लिए इससे बढ़कर और अधिक देवता वा देववृक्ष वा यज्ञवृक्ष और कौन सा होगा ? अतः उसे पौराणिक भाई देववृक्ष मानकर पूजा करते हैं । किन्तु इसकी यथार्थ में पूजा तो यह है कि इसे अधिक संख्या में हम लगायें तथा जल, खाद और बाड़ द्वारा इसकी रक्षा करके इसकी वृद्धि करें और औषध रूप में इसका सदुपयोग करके लाभ उठायें तथा ऋषि-मुनियों के गुण गायें ।


वेद भगवान् में भी न्यग्रोध (वट वृक्ष) तथा अश्वत्थ (पीपल) के वृक्षों को "महावृक्षाः" महान् वृक्ष कहा गया है क्योंकि इनमें महान् गुण हैं । आकृति व विस्तार में महान् हैं । इस विषय में आगे विस्तार से लिखा है कि यह छायादार वृक्ष बरगद केवल छाया, लकड़ी प्रदान करके हमें सुखी ही नहीं बनाता किन्तु इसके पंचांग हमें अमृतरूप औषध के रूप में अनेक प्रकार के रोगों को दूर करके सुख प्रदान करते हैं । वृक्षों में ये हमारे लिए अमृत हैं । दुःखों से और रोगों से छुटकारा दिलाकर भवसागर से तैराने वाले तीर्थ हैं । इसीलिए इनका नाम त्रिवेणी यथोचित रखा गया है । पौराणिक भाइयों का तीन नदियों का संगम स्थान तीर्थराज प्रयाग चाहे त्रिवेणी हो वा न हो, किन्तु यह मैं निश्चय से कह सकता हूं कि इन तीन महान् वृक्षों (बड़, पीपल और नीम) का नाम त्रिवेणी सर्वथा यथार्थ और सच्चा है । इन तीनों का यथोचित औषध के रूप में प्रयोग दुःखविनाशक और सुखदायक है । स्वर्ग सुख के साधनों को प्राप्‍त कराने वाला है ।


क्योंकि रोगी कभी सुखी नहीं हो सकता है, वह तो दीन दुःखी सदैव दूसरों पर भार ही रहता है । क्योंकि "धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्" प्रत्येक मनुष्य के पुरुषार्थ चतुष्टय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं । मानव धर्मानुसार अर्थ वा धन कमाकर उसका धर्म के कार्य में व्यय करता है जिससे उसकी कामनायें (सांसारिक इच्छायें) पूर्ण हो जाती हैं । फिर वह संसार से विरक्त होकर जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्‍ति कराते हैं । अतः वट, पीपल और नीम ही सच्ची त्रिवेणी हैं । इसलिए ये महान् वृक्ष शारीरिक रोगों से विमुक्ति दिलाकर भवसागर से तराकर पार ले जाते हैं और यथार्थ सच्ची त्रिवेणी तीर्थ बनकर "पहला सुख निरोगी काया" प्रदान करते तथा अन्तिम सुख जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति कराते हैं । वट वृक्ष इस त्रिवेणी का तीसरा भाग है । अतः इसमें स्नान करें अर्थात् इसका सदुपयोग करें । रोगों से छुटकारा पाकर अपनी जीवन साधना करें । "ओ३म् क्रतो स्मर, कृतं स्मर" वेद की इस पवित्र वाणी के अनुसार आचरण करें, अपने कृत कर्मों का निरीक्षण करें तथा ओ३म् का स्मरण करते हुए पवित्र आचरण करें तथा मोक्ष के भागी बनें ।


इसीलिये हमारे पूर्वज अपने पवित्र भारत-देश में बहुत प्राचीन काल से नगरों में, ग्रामों में, सड़कों पर, तड़ाग वा तालाबों पर सर्वत्र ही बड़, पीपल और नीम - इन तीन वृक्षों को लगाते आ रहे हैं । इनमें श्रद्धा से जल सिंचन करते हैं, बाड़ लगाकर इनकी रक्षा करते हैं ।


आज मुझे हर्ष है कि इस त्रिवेणी नीम, पीपल और बड़ पर मैंने छोटी-छोटी तीन पुस्तकें लिखकर तथा छपवाकर पाठकों के हाथों तक पहुंचा दीं । यह बड़ की पुस्तक आज हमारे पाठकों के हाथ में है । इनके गुणों का वर्णन तथा औषध रूप में इनके सेवनार्थ आयुर्वेद के अपने तथा अनेक वैद्यों के अनुभव पाठकों की सेवा में उपस्थित कर रहा हूं । यह परम पिता परमात्मा की परम कृपा से हो सका है । आशा है मेरे इस प्रयास से पाठक लाभान्वित होंगे । हमारी पुत्री ब्रह्मचारिणी वेदवती शास्त्री ने इन तीन पुस्तकों की "प्रेस कापी" परिश्रम से लिखकर तैयार की है, इसके लिए आशीर्वाद सहित आभार ।


- ओमानन्द सरस्वती


वट (बड़) बरगद

बरगद का पेड़

आयुर्वेद शास्त्रों में वट वृक्ष के विषय में इस प्रकार लिखा है ।


वट के नाम

धन्वन्तरीय निघन्टु में बड़ के नाम निम्नलिखित हैं :

वटो रक्तफल: शृंगी न्यग्रोध: .......
क्षीरी वैश्रवणावासो बहुपादो वनस्पति ॥७६॥

१. वट २. रक्तफल ३. शृंगी ४. न्यग्रोध ५. क्षीरी ६. वैश्रवणावास ७. बहुपाद नाम वाला वनस्पति वृक्ष है ।

इसके फलों का पकने पर लाल रंग होता है, इसीलिए रक्त के समान इसके फल होने से रक्तफल इसका नाम है । इसके फल रक्त-वर्धक हैं तथा रक्तसंबन्धी रोगों को दूर करने वाले इसके फल होते हैं, इसलिए वट का नाम रक्तफल है । शृंगी पर्वत के समान ऊंचा होने से यह शृंगी भी कहलाता है ।

न्यग्रोध क्षीरी वृक्ष है क्योंकि इसके सारे भागों में क्षीर (दूध) बहुत मात्रा में होता है अतः इसका क्षीरी नाम है । पांच क्षीरी वृक्ष प्रसिद्ध हैं, उनमें एक वट का वृक्ष भी है । वैश्रवणावास - महात्मा बुद्ध का नाम वैश्रवण है । वटवृक्ष महात्मा बुद्ध का निवास-स्थान था । उन्होंने इसी के नीचे तपस्या की थी इसीलिये इसको बोधि वृक्ष भी कहते हैं । बौद्ध साधुओं को भी वैश्रवण कहते हैं - वे भी इस बोधि वृक्ष को पवित्र मानते हैं तथा इसके नीचे वास करते हैं, इसीलिए इसका नाम वैश्रवणावास है । इसकी जटायें भूमि में टिकने पर इसके बहुत पाद (पैर) हो जाते हैं । इसीलिये इसका नाम बहुपाद है । यह वृक्ष महावृक्ष होने से वन का पति है, राजा है, अतः इसे वनस्पति कहते हैं । यह बिना पुष्प के फल देता है इसलिए भी इसको वनस्पति कहते हैं ।

राजनिघन्टु में वट वृक्ष के नाम इस प्रकार दिये गये हैं -

स्यादथ वटो जटाली न्यग्रोधी योहिणी अवरोही च ।
विटपी रक्तफलश्च स्कन्धरुहो मण्डली महाच्छायः ॥११३॥
श्रंगी यक्षवासो, यक्षतरुः पादरोहिणी नीलः ।
क्षीरी शिफारुहः स्याद् बहुपादः स तु वनस्पतिर्नवभूः ॥११४॥

वट, जटाल, न्यग्रोध, रोहिणी, अवरोही, विटपी, रक्तफल, स्कन्धरुह, मण्डली, महाच्छाय, शृंगी, यक्षवास, यक्षतरु, पादरोहिणी, नील, क्षीरी, शिफारुह, बहुपाद और और इस वनस्पति का नवभूः भी नाम है । इसका वनस्पति नाम इसलिये है कि इसके बिना फूल के ही फल लगते हैं । कौशिका व्याकरण ग्रन्थ में आता है -

फली वनस्पतिर्ज्ञेयो, वृक्षा: पुष्पफलोपगाः ।
औषध्यः फलपाकान्ता लता गुल्माश्च वीरुधः ॥

अर्थ : बिना पुष्प के जिन वृक्षों को फल लगते हैं उनको 'वनस्पति' (वन का स्वामी) कहते हैं - जैसे बड़, गूलर आदि । जिनको फूल और फल दोनों लगते हैं उन्हें वृक्ष कहते हैं जैसे वेतसा, आम आदि हैं जिन्हें पुष्प और फल दोनों लगते हैं ।

फल पक जाने पर जिनका विनाश व समाप्‍ति हो जाती है वे गेहूं, यव आदि औषधियां कहलाती हैं । लता (बेल) और फैलने वाली गिलोय, चमेली आदि और गुल्म छोटे पौधे, झाड़ आदि का नाम वीरुध है ।


बड़ के गुण

धन्वन्तरीय निघन्टु में निम्न गुण वट वृक्ष के अंकित हैं -

वटः शीतः कषायश्च स्तम्भनो रूक्षणात्मकः ।
तथा तृष्णाछर्दिमूर्छा-रक्तपित्त-विनाशनः ॥

अर्थ - वट वृक्ष शीत ठंडा होता है, इसका स्वाद कषाय कषैला होता है । यह स्तम्भन शक्ति बढाता है और रूक्ष प्रकृति वाला है । यह तृष्णा (प्यास) छर्दि वमन को दूर करता है और रक्तपित्त के सभी रोगों को दूर करता है, किसी भी अंग से - नाक, मुख, मूत्र व गुदा-द्वार आदि - से बहने वाले रक्त अर्थात् नकसीर, बवासीर आदि को भी बंद करता है । रक्त और पित्त संबन्धी रोगों - दाद, खुजली, फोड़े, फुन्सी, प्यास, जलन और पित्तज्वर आदि को भी दूर भगाता है ।

राजनिघन्टु में नीचे लिखे गुण वट वृक्ष के दिये हैं ।

वटः कषायः मधुरः शिशिरः कफपित्तजित् ।
ज्वरदाहतृषणामोह व्रणशीफापहारकः ॥११५॥

अर्थात् बड़ का वृक्ष कषाय कषैला, मीठा और ठण्डा होता है, कफ और पित्त के रोगों को जीतने वाला है, इनको समूल नष्ट करता है । ज्वर, बुखार, दाह, जलन, तृषा, प्यास, मोह मूर्च्छा, फोड़ा और जखमों की अच्छी औषध है । इनको नष्ट करने वाला है और सर्व प्रकार के शोफ, शोथ, सूजन को दूर करने वाला है । पित्त और कफ के रोगों को दूर करने का स्वयं एक औषधालय है । इसलिए महावृक्ष, यज्ञवृक्ष और यक्षवृक्षादि इसके नाम हैं । इसका स्वाद भी बहुत अच्छा है । यह मधुर और स्वादु होने से चंचल चटोरे रोगी के लिए अच्छी औषध है, वह भी इसका सेवन कर सकता है । आबाल वृद्ध वनिता सबके लिए सेव्य तथा हितकारी है ।


नदी वट वा नदी का बड़


नदीवटो यज्ञवृक्षो सिद्धार्थो वटको वटी ।

अमरासंगिनी चैव क्षीरकाष्ठा च कीर्तिता ॥११६॥


नाम - नदीवट, यज्ञवृक्ष, सिद्धार्थ, वटक, वटी, अमरासंगिनी, क्षीरकाष्ठा और कीर्तिता - ये आठ नाम नदी पर स्थित वट के हैं ।


वटी कषायमधुरा शिशिरा पित्तहारिणी ।

दाहतृष्णाश्रमश्वास विच्छर्दिशमनी परा ॥११७॥


गुण - नदी पर उगने वाले बड़ को वटी के नाम से जाना जाता है । यह कषाय (कसैला), मधुर (मीठा), शिशिर (ठंडा), पित्तरोगों को हरण करने वाला है । गर्मी के रोगों को दूर करता है । दाह, जलन, तृष्णा, प्यास, श्रम (थकावट), श्वास, दमा और विच्छर्दि पर परम औषध है । उपरोक्त रोगों को दूर करने की सर्वोत्तम औषध है - अद्वितीय है, अपनी समानता नहीं रखता है ।


बड़ के वट, न्योग्रधादि संस्कृत के नाम पहले लिख चुके हैं । इनके अतिरिक्त भांडीर, श्रंगी, यमप्रिय, वृक्षनाथ, शुंगी अनेक नाम वट वृक्ष के और भी मिलते हैं ।


अन्य नाम - हिन्दी बड़, वट, बरगद । गुजराती - बड़, बड़ली । मराठी - बड़ । बंगाली बड़-वोट । कोंकणी - बड़ । पंजाबी - बरगद, बेरा, बोहर, बोहिर, बोड़ । उत्तर-पश्चिम प्रान्त में कुरकू, वोरा इसके नाम हैं । तमिल - बडम, आल, कदम इत्यादि । उर्दू - बरगद । फारसी - दरख्ते-रेशा । अंग्रेजी – Banyan Tree । लेटिन Ficus Bengalensis.


सामान्य ज्ञान

वट वृक्ष जिसका प्रसिद्ध नाम बड़ वा बरगद है, प्रायः भारत भर के सभी प्रान्तों में मिलता है । हिमालय पर्वत के जंगल तथा दक्षिणी भारत की पर्वतमालाओं पर यह वृक्ष स्वयं उत्पन्न होता है । इस वृक्ष के स्वयं उत्पन्न होने से यह जंगली वृक्ष वन का स्वामी अर्थात् वनस्पति कहलाता है । ग्रामीण लोग इसे यज्ञीय वृक्ष (बहुत उपयोगी) होने से पवित्र और देववृक्ष मानते हैं तथा ग्राम के आस पास खूब लगाते हैं । भारतीय जनता आबाल-वृद्ध वनिता सभी वट वृक्ष को भली भांति जानते हैं । इसके गुणों का ज्ञान प्रायः लोगों को बहुत ही न्यून है । सामान्य जनता की बात तो दूर रही, वैद्य डाक्टर भी इसका बहुत ही थोड़ा ज्ञान रखते हैं, अतः औषध के रूप में इसका उपयोग बहुत ही थोड़ा किया जाता है । बड़ का वृक्ष बहुत लंबा, चौड़ा, ऊंचा अर्थात् विस्तार वाला होता है । कलकत्ता के विशाल बड़ को कौन नहीं जानता, हजारों व्यक्ति उसके नीचे विश्राम कर सकते हैं । भारत में इस जितना मोटा (घेरेवाला) वृक्ष और कोई नहीं होता । इसके मुख्य पिंड (तने) की मोटाई व गोलाई ३० फुट तक देखने में आती है । बड़ का पेड़ छायाप्रधान तरु है, यह वृक्षों का राजा है । इसके तने काटकर लगा दिये जायें तो नए वृक्ष बन जाते हैं, इसीलिए बड़ का नाम नवभू है । वट वृक्ष की आयु बहुत लम्बी है । जिस वट वृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध ने तपस्या की और तत्त्वज्ञान की प्राप्‍ति की थी, ऐसा बौद्ध लोग मानते हैं, वह वृक्ष बहुत दीर्घकाल तक रहा और उसकी शाखा काट कर जो लंका में लगाई गई थी, वह तो आज भी लंका में विद्यमान है । उसकी एक शाखा कुछ वर्ष पूर्व काटकर भारत में पुनः लगाई गई है । अतः वट वृक्ष की आयु कई हजार वर्ष तक हो सकती है, इसलिए भी वेद में महावृक्ष नाम से न्यग्रोध का नाम अंकित मिलता है –


यत्राश्वत्था न्यग्रोधा महावृक्षा शिखण्डिनः ।

तत्परेताप्सरसः प्रतिबुद्धा अभूतन ॥४॥

- काण्ड ४ प्रपा० ६ अनुवाद ८


"कृमिनाशनम्" विषयक मन्त्रों में यह मन्त्र आया है । यहां न्यग्रोध (बड़) को महावृक्ष लिखा है । मोटा, लंबा, ऊंचा और सबसे विस्तार वाला वृक्ष होने से इस विशाल वृक्ष को वेद ने भी महावृक्ष की संज्ञा दी है । इस वृक्ष की शाखा भूमि की ओर नीचे नत हो जाती हैं । बहुत विस्तार वाला होने से बहुत अधिक छाया वाला वृक्ष है । क्योंकि इसके पत्ते लम्बे, छोटे और मोटे होते हैं तथा घिनके (एक दूसरे से मिले हुए) होते हैं, इसलिए इसकी छाया बहुत घनी और सुखदायी होती है । शीतल गुण होने से शान्तिप्रद छाया वाला यह वृक्ष विद्वानों, याज्ञिक लोगों और यक्षों को प्रिय होता है, इसलिए इसके यक्षतरु, यक्षावास आदि नाम हैं । महात्मा बुद्ध को भी इन्हीं गुणों के कारण प्रिय था और बौद्ध भिक्षुओं को भी यह प्रिय है, इसलिए इसका नाम वैश्रवणावास है । दीर्घ आयु होने से तथा बहुत जोड़ों वाला होने से यह सुदृढ़ वृक्ष ध्रुव नाम को यथार्थ करता है ।


जटायें - इसकी शाखाओं तथा तनों से लाल और पीले रंग के अंकुर फूटकर भूमि की ओर बढते हैं - इनको बड़ की जटा अव्रोह व दाढी कहते हैं । ये जटायें बढते-बढते पृथ्वी में घुस जातीं हैं और खम्बे के समान दिखाई देतीं हैं । इसके ये बहुत से पाद (पैर) बन जाने से यह बहुपाद कहलाता है । इसके किसी भी स्कन्ध को काटकर लगा दें तो नया बड़ का वृक्ष बहुत शीघ्र ही बन जाता है । इसलिए इसका नाम "स्कन्धज" (स्कंध से उत्पन्न होने वाला) है । जटाओं के फैलने वा बढ़ने के कारण इसका नाम "जटालः" है । इन जटाओं के कारण इसका विस्तार होता है, इसका घेराव बहुत ही बढ जाता है । भूमि के अंदर इस वृक्ष की जड़ें सौ-सौ हाथ के घेराव तक फैल जातीं हैं । फिर इसकी छाया के विस्तार का क्या ठिकाना - हजारों व्यक्ति इसके नीचे सरलता से विश्राम कर सकते हैं । पशु, पक्षी, मूर्ख, विद्वान, सन्त महात्मा, याज्ञिक तथा योगी - सभी को इस वृक्ष की छाया अत्यंत प्रिय है ।


जिस प्रकार परम दयालु पिता का आश्रय वा छाया देवों को प्रिय होती है उसी प्रकार वट की छाया भी सर्वप्रिय है । इन जटाओं का नाम अवरोह है अतः इसका नाम अवरोही भी है ।


भावप्रकाश निघण्टु में इसके गुण निम्नप्रकार से लिखे हैं -


वटः शीतो गुरुर्ग्राही कफपित्तव्रणापहः ।

वर्ण्यो विसर्पदाहघ्नः कषायो योनिदोषहत् ॥


अर्थ - बड़ शीतल, भारी, ग्राही, वर्ण को उत्तम करने वाला कषैला है । कफ पित्त व्रण विसर्प दह तथा योनिदोषों को नष्ट करता है ।


पाश्चात्य डाक्टरों का मत


वट वृक्ष बल देने वाला तथा कषाय है । यह सोमरोग (श्वेत प्रदर), आम, रक्तातिसार, ऊर्धवार्घः रक्तार्शप्रवृत्ति, सूजाक वा धातु (शुक्र) की क्षीणता में प्रयोग होता है । हाथ पैरों के फटने में इसका प्रलेप हितकर है । साथ ही यह दन्तपीड़ा की महौषधि है ।


यूनानी मत


यूनानी मत से बड़ शीतल और रूक्ष (खुश्क) होता है और इसका दूध कामोद्दीपक, पौष्टिक, फोड़े को पकाने वाला, सूजन को दूर करने वाला, अर्श (बवासीर) में लाभदायक है । नाक के रोगों में भी लाभदायक है । सूजक को लाभ करता है । बड़ की जड़ रक्त के बहने को रोकती है और कामोद्दीपक है । इसकी मूल, सूजाक, उपदंश, पित्तविकार, रक्तातिसार (खूनी दस्त) और यकृत की सूजन में लाभदायक होती है । इसके पत्ते घाव को अच्छा करते हैं और पित्तविकार को भी दूर करते हैं ।


यूनानी मत में बड़ काबिज (ग्राही) है । फोड़े फुन्सी को शुद्ध (साफ) करता है तथा कफ और पित्त के दोषों को दूर करता है । इसकी नई कोंपलें वायु को बिखेरती अर्थात् वायु रोगों को दूर करती हैं । इसकी कोपलों को छाया में सुखाकर कूट छानकर समान भाग मिश्री मिलायें । इसकी मात्रा छः माशे प्रातःकाल खाली पेट गाय के धारोष्ण दूध के साथ लेवें । सात दिन के प्रयोग से वीर्य का पतलापन तथा अन्य धातु रोग दूर होते हैं । इस औषध से सूजाक और गुर्दे की जलन दूर होती है ।


जख्म - अधिक चोट लगने पर जब बड़ा जख्म हो जाये और उसमें टांके लगाने की आवश्यकता पड़े तो उसके मुख को मिलाकर बड़ के पत्तों को गर्म करके जख्म पर रखकर दृढ़ता से बांध दें और तीन दिन तक पट्टी न खोलें । वह झख्म बिना टांके लगाये भी भर जायेगा ।


गञ्ज - बड़ के पत्तों को जलाकर राख बनायें और अलसी के तैल में मिलाकर शिर के गञ्ज पर लेप करने वा लगाने से लाभ होता है


बड़ के पत्तों की राख में मोम और घी मिलायें और मरहम बना लें और जख्म पर लगयें । कुछ दिन में जख्म भर जायेगा ।


सूजन


१. बड़ के पत्तों पर घी चुपड़कर उनको गर्म करके सूजन पर बांधें । इससे सूजन दूर हो जायेगी ।


२. शरीर के किसी भी अंग पर सूजन हो तो प्रारम्भ में ही उस सूजन पर बड़ का दूध लगाना प्रारम्भ कर दें । इससे सूजन का बढ़ना तो तुरन्त ही रुक जायेगा, कुछ दिनों में सूजन समाप्‍त हो जायेगी । जैसे बदगांठ पर बड़ के दूध के लेप से बहुत लाभ होता है । कई बार तो बड़ के दूध के लेप करने पर बदगांठ बैठ जाती है । उसके दोष समाप्‍त होते ही वह विनष्ट हो जाती है । यदि वह अधिक बढ़ जाये तो वह पक कर फूट जायेगी और धीरे-धीरे उसका जख्म भी भर जायेगा ।


चोट पर - चोट पर बड़ के दूध का लेप करने से लाभ है । हाथ पैर की मोच पर लेप करने से उसमें भी लाभ होता है ।


बड़ की छाल


बड़ की छाल कषैली तथा फोड़ों की जलन को दूर करने वाली होती है । बड़ की छाल तथा पीपल की छाल समभाग लेकर उबालकर क्वाथ बना लें और गर्म-गर्म कुल्ले करने से मसूड़ों की सूजन और जलन, दांतों की पीड़ा दूर होती है । बड़ का दूध सूजन को दूर करता है तथा कामशक्ति को बढ़ाता है ।


धातु रोग तथा बवासीर

बड़ का दूध प्रतिदिन प्रातःकाल ३ माशे लेवें तथा समभाग मिश्री वा देशी खांड मिलाकर सूर्योदय से पूर्व खायें । जैसे-जैसे यह अनुकूल पड़ता जाये, इसकी थोड़ी-थोड़ी मात्रा बढायें। यदि कोई हानि न हो तो ग्यारहवें दिन इसकी मात्रा १० माशे तक पहुंचा देवें । फिर इसकी मात्रा धीरे-धीरे घटाते जायें । ग्यारहवें दिन इसकी मात्रा ३ माशे की करके इसका प्रयोग बंद कर दें । यह २१ दिन का वट-दुग्ध का कल्प (कोर्स) है । इसके प्रयोग से सर्वप्रकार के अर्श (बवासीर) में लाभ होता है । वीर्य का पतलापन, शीघ्रपतन और प्रमेह आदि धातु सम्बन्धी सभी रोग दूर होते हैं । हृदय, मस्तिष्क और यकृत को यह शक्ति देता है और स्तंभन करता है ।


कर्ण रोग - कान के अन्दर बड़ का दूध टपकाने से कान के कीड़े मर जाते हैं और कान की फुंसियां ठीक हो जाती हैं । बकरी का दूध ३ माशे थोड़ा गर्म करें । इसमें तीन बूंद बड़ के दूध में डालकर तुरन्त कान में डालें । तीन दिन में कान के कीड़े मर जायेंगे ।


आंख का जाला - बड़ के दूध को आंख में डालने से आंख का जाला कट जाता है ।


दाँत पर


१. हिलते हुए दांत पर बड़ का दूध लगाने से वह दांत सरलता से निकाला जा सकता है । कई बार लगायें किन्तु दूसरे दांत पर न लगे, यह ध्यान रखें ।

२. बड़ का दूध खराब दांत पर लगाने से दांत की पीड़ा दूर हो जाती है । बड़ की दातुन करने से थोड़े हिलते हुए दांत जम जाते हैं । उनका हिलना बंद हो जाता है ।


आयुर्वैदिक मत


आयुर्वेद शास्त्रों के अनुसार बड़ के सभी अंग कषैले होते हैं । इसका स्वाद कषैला होते हुए भी मधुर है । यह शीतल आंतों का संकोचन करता है । कफ, पित्त और व्रणों (फोड़ों) को नष्ट करने वाला है । वमन, ज्वर, योनिदोष, मूर्च्छा और विसर्प में लाभदायक है । यह कान्ति को बढ़ाता है । इसके पत्ते व्रणों के लिए लाभदायक हैं । नवीन पत्ते गलित कुष्ट में लाभप्रद हैं । बड़ का दूध वेदना नाशक है और जख्मों को भरने वाला है । इसके सूख पत्ते पसीना लाने वाले हैं । इसके कोमल पत्ते कफनाशक होते हैं । बड़ की छाल स्तम्भक होती है ।


खारवे वा खारिये - वर्षा ऋतु में किसान जल में कार्य करते हैं अथवा उन्हें कार्यवश जल में बार-बार जाना होता है । इससे उनके पैरों की उंगलियों में खारवे वा खारिये हो जाते हैं, उनमें खुजली तथा जलन हो जाती है । उन पर बड़ का दूध लगाने से शीघ्र अच्छे हो जाते हैं ।


वायु रोग - वायु वा चोट के कारण कमर के दर्द और संधियों के सूजन पर बड़ के दूध का लेप करने से बहुत लाभ होता है ।


मूत्र रोग - बहुमूत्र रोग में बड़ की जड़ का क्वाथ देने से लाभ होता है । बड़ की एक वा दो नर्म कोंपलों का रस गोदुग्ध में देने से सुजाक में पेशाब की दाह जलन न्यून हो जाती है ।

रक्तशोधक - बड़ की जड़ के तन्तुओं के प्रयोग से रक्त शुद्ध होता है । रक्त शुद्ध करने के लिए यह सीसापरेला का कार्य करते हैं ।


शीत निर्यास - बड़ की छोटी शाखाओं का शीत निर्यास कफ के साथ रक्त आने के रोग को दूर करता है । इसका शीत निर्यास एक प्रभावशाली पौष्टिक औषध है, यह मधुमेह को दूर करता है ।


फलों के बीज - फलों के बीज शीतल तथा पौष्टिक होते हैं । इनका चूर्ण समभाग खांड मिलाकर गाय के दूध के साथ खिलाने से उपरोक्त रोगों में लाभ करते हैं ।


गठिया पर - जोड़ों के दर्द वा गठिया की सूजन पर बड़ के दूध का लेप करने से पीड़ा दूर होती है ।


दाढ़ की पीड़ा पर - बड़ के दूध में फोया भिगोकर जिस दाढ़ में पीड़ा हो, पर रख दें तो दाढ़ का दर्द दूर हो जायेगा

बड़ के पत्ते

बड़ के पत्तों को गर्म करके फोड़ों पर बांधने से फोड़े पक कर फूट जाते हैं तथा उनकी पीड़ा भी दूर होती है । बड़ के पत्तों का भुड़ता बनाकर बांधने से बिना पके फोड़े पक जाते हैं तथा पके हुए फोड़े शुद्ध होकर अच्छे हो जाते हैं ।


बड़ के पीले पत्ते


पीले पके हुए पत्तों को चावल के साथ पकाकर उन चावलों का गाढ़ा पिलाने से पसीने आते हैं । पसीना दिलाने के लिए इसका प्रयोग होता है । पीले पत्तों का घनसत्त्व प्रमेह, स्वप्‍नदोष आदि रोगों की अनुभूत औषध है ।


कमर की पीड़ा - कमर में पीड़ा हो तो उस पर बड़ के दूध का लेप करने से कमर की पीड़ा दूर होती है ।


कण्ठमाला पर - बड़ के दूध को बार-बार लगाने से वा लेप करने से कण्ठमाला में लाभ होता है । दूध दिन में कई बार लगाने तथा कई दिन तक लगाने से बड़ा लाभ होता है ।


उपदंश - बड़ के पत्तों को जलाकर उनकी भस्म को जल में रखकर खाने से उपदंश (आतशिक) में लाभ होता है ।


मूत्रकृच्छ्र - बड़ का दूध पताशे में भर ३ दिन तक प्रातःकाल खाने से मूत्रकृच्छ्र रोग मिट जाता है ।


कोंपलें - बड़ की कोमल कोंपलें छाया में सुखाकर उनको पीसकर उनमें समानभाग मिश्री मिलाकर दूध की लस्सी के साथ लेने से मूत्रकृच्छ रोग दूर होता है ।


जड़ - पीपल की जड़ घिसकर ठंडाई के समान पीसकर पिलाने से मूत्रकृच्छ दूर होता है ।


मधुमेह - बड़ की छाल का क्वाथ बनाकर पिलाने से मूत्र में शक्कर आना बंद हो जाता है और जल की वृद्धि होती है ।


वीर्य की निर्बलता - बड़ के पत्तों की खाल का क्वाथ वा रस को गाढ़ा करके उसमें पौष्टिक औषधियां मिलाकर पीने से वीर्य की निर्बलता और मूत्रकृच्छ रोग दूर हो जाता है । इससे स्त्रियों का श्वेतप्रदर भी दूर होता है ।


श्वेतप्रदर - बड़ के पत्तों को छाया में सुखाकर कूटकर कपड़छान कर लें और समभाग मिश्री वा खांड मिला लें । प्रातःसायं छः माशे गाय के दूध के साथ लेने से श्वेतप्रदर रोग एक मास के सेवन से दूर हो जायेगा ।


रक्तप्रदर - रक्तप्रदर, खूनी बवासीर आदि रोगों में रक्त का बहना (निकलना) जब किसी भी औषध से बंद न होता हो तो बड़ के दूध की ५ से ७ बूंदें दिन में ३ वा ४ बार देने से तुरन्त बंद हो जाता है ।


धातु रोग - बड़ की दाढ़ी को पीसकर मात्रा डेढ़ माशे से तीन माशे तक खाकर ऊपर से दूध पीवें । इससे तुरन्त प्रमेह और धातु रोग दूर होते हैं । यही औषध उपरोक्त प्रकार से स्त्रियों को खिलायें तो श्वेतप्रदर रोग दूर होता है ।


बड़ के फल

बड़ का फल

इनके फलों को जो पक कर लाल हो गये हों, छाया में सुखा लें तथा इन्हें कूट छान लें । मात्रा १ माशे से प्रारंभ करें । खिलाकर ऊपर से धारोष्ण गोदुग्ध पिला देवें, प्रात:-सायं दोनों समय देवें । स्त्रियों को खिलाने से श्वेत प्रदर और पुरुषों को खिलाने से स्वप्नदोष, प्रमेह और सभी धातु रोग दूर होंगे ।


पाक


जैसे अश्वगन्ध पाक तथा च्यवनप्राशादि अवलेह बनाये जाते हैं उसी प्रकार वट वृक्ष के फलों का पाक तथा अवलेह बनाकर रोगियों को खिलाने से बहुत ही लाभ होगा । बड़ के फलों का कुछ वैद्य धातु रोगों में तथा स्त्रियों के श्वेतप्रदरादि रोगों में बहुत प्रयोग करते हैं । इससे लाभ भी होता है । बड़ के पत्तों तथा फलों का घनसत्त्व बनाकर रोगियों को खिलाने से उपरोक्त रोगों में बहुत ही लाभ होते देखा गया है । इस वृक्ष को सामान्य छायादार वृक्ष समझकर औषध रूप में लोग बहुत ही न्यून प्रयोग करते हैं ।


अग्निदाह - बड़ की कोंपलों को गाय के दूध से बनी दही के साथ पीसकर अग्नि में जले हुए स्थान पर लगाने से शान्ति मिलती है ।


कुचों पर - बड़ की जड़ को बारीक पीसकर कुचों (स्तनों) पर लेप करने से कुच कठोर होते हैं ।


अतिसार - बड़ का दूध नाभि में भरने से और आस-पास लगाने से अतिसार (दस्त) मिट जाता है ।


रक्तातिसार - बड़ की नई कोंपलों के शीतनिर्यास में एक बड़ी मात्रा में टेनिन होता है । यह रक्तातिसार और अतिसार रोगों में उपयोगी रहता है ।


रक्तपित्त - शरीर के किसी भाग, मुख, नासिका गुदादि से यदि रक्त बाहर निकलता है, इसे 'रक्तपित्त' कहते हैं । बड़ के पत्तों की नुगदी में शहद और शक्कर (खांड) मिलाकर खाने से रक्तपित्त का रोग दूर होता है ।


वमन - (१) बड़ की दाढ़ी की राख को शीतल जल के साथ खिलाने से वमन (कै) बन्द होता है । (२) बड़ की दाढ़ी के नर्म अंकुरों वा शाखाओं को घोटकर छानकर पिलाने से किसी भी औषध से न दूर होने वाला वमन दूर होता है ।


रक्त का वमन - इसकी नर्म डालियों का फांट बनाकर पिलाने से रक्त का वमन (कै) दूर हो जाता है ।


बड़ की दाढ़ी को जलाकर राख कर लें । फिर उसे जल में भिगो लेवें । जब वह जल निथर जाए तो उस जल को पिलावें । इसे बार-बार पिलाने से वमन दूर हो जाता है तथा प्यास भी मिट जाती है । जलन भी इससे दूर होती है ।


पुष्पों के विषय में मत


सामान्य रूप में सभी मानते हैं कि बड़ का वृक्ष पुष्परहित है, इसके पुष्प नहीं आते । पुष्प न होने से इसका एक नाम वनस्पति है और चरक शास्त्र ने भी वनस्पति की परिभाषा इस प्रकार की है - "अपुष्पाः फलवन्तो ये ते वनस्पतयं स्मृताः" । यहां पर "ननु नच" करने की आवश्यकता नहीं, पुष्प रहित फल वाले वृक्ष वनस्पति नाम से स्मरण किए जाते हैं । सभी की यही मान्यता है । किन्तु कोई-कोई विद्वान ऐसा मानते हैं कि अपुष्पा का अर्थ पुष्प रहित नहीं है किन्तु इसका अर्थ "अदृष्टपुष्पा" अर्थात् गुप्‍तपुष्प है जिसके पुष्प दिखायी नहीं देते । इसीलिए ऐसे विद्वान बड़, गूलर और पलक्ष (पाखर) पिलखन आदि को गुप्‍त पुष्प वाले मानते हैं । वे अदृष्ट पुष्प व गुप्‍त पुष्प वाले वृक्षों को वनस्पति मानते हैं । वे इसका समाधान इस प्रकार करते हैं कि इन वृक्षों का पुष्प पुष्पधि में रहता है, पुष्पधि के भीतर रहता है । वे कहते हैं कि बिना पुष्प के फल असम्भव है । वे यह मानते हैं कि पुष्प होते हैं, वे पुष्प गोफों (शुंग वा टूसों) के अन्दर रहते हैं । इनका क्रम है कि पुष्प इनके आवर्त्तों से बने होते हैं, और इनके नीचे रहते हैं । ऊपर से प्रतीत होता है कि यह वृक्ष का अग्रभाग है किन्तु यदि इसके गोफों को दो भागों में विभक्त कर दें तो देखेंगे कि ऊपर के आवरण की प्रत्येक तह में बहुत बारीक सूत्र हैं । यही पुष्प के पुंकेशर हैं जो आगे चलकर फल का आकार धारण कर लेते हैं । पुष्प, पुष्पदल, पुंकेशर, गर्भकेशर आदि की तरह ऊपर न खिलकर भीतर ही खिलते हैं । अतः इसे न देखकर साधारण लोग यही कहते हैं कि इसमें फूल नहीं होते, यह पुष्पहीन वृक्ष है । किन्तु पुष्पाभाव में बीज का भी अभाव ही रहेगा । अतः बिना पुष्प के कोई वृक्ष फलित नहीं होता । अतः अपुष्पा का अर्थ उपरोक्त मत रखने वाले विद्वान "अदृष्टपुष्पा" मानते हैं । इसका यह अर्थ भी कुछ ठीक सा ही प्रतीत होता है । व्यवहारांश हम पहले लिख चुके हैं । इसके व्यवहार में आने वाले अंश त्वक् (छाल), जटा (दाढ़ी), दूध, बीज, फल और कोंपलें तथा पत्ते हैं । दोनों ही मत ठीक प्रतीत होते हैं ।


इसके क्वाथ की मात्रा २ तोले से ५ तोले तक होती है । बीज की चूर्ण मात्रा १ माशे तक है । दूध की मात्रा सामान्य रूप से तो एक-दो बूंद से लेकर दस बूंद तक है, कुछ लोग एक माशे से तीस तोले तक खिला देते हैं । किन्तु पहले थोड़ी ही मात्रा में खिलाना अच्छा रहता है । यदि रोगी को अनुकूल पड़े तो शनैः शनैः अधिक मात्रा में बढ़ाकर दिया जा सकता है । इसके फूलों को छाया में सुखाकर बीज रहित करके खिला देते हैं । इनके चूर्ण को एक माशे से दो तोले तक गोदुग्ध के साथ खिलाने से यह बहुत बल देता है । यह शक्तिप्रद, वृष्य और आयु बढ़ाने वाला रसायन है ।


नासूर वा नाडीव्रण


बड़ के दूध में सांप की कांचली की राख मिलाकर उसमें पतले कपड़े को भिगोकर तर कर लें । उसकी बत्ती को नाडीव्रण (नासूर) में भरने से कुछ ही दिनों में नासूर भर जाता है । यह प्रयोग लगातार एक मास तक करना होता है । प्रतिदिन बत्ती को बदल देना चाहिये । कभी-कभी तो नासूर कुछ ही दिनों के प्रयोग से अच्छा हो जाता है ।

कर्नल चोपड़ा के अनुसार बड़ का दूध व्रण और जख्म के लिए एक मूल्यवान संकोचक पदार्थ है ।


फोड़े


१. बड़ के पत्तों का पुल्टिश बनाकर पीपवाले फोड़ों पर बांधने से फोड़े पक कर पीले हो जायेंगे तो बड़ के पत्तों को चावलों के साथ बफारे देने से फोड़े फूटकर अच्छे हो जाएंगे ।

२. बड़ के पत्तों का भुड़ता बनाकर बांधने से फोड़ा पक कर फूट भी जाता है तथा अच्छा भी हो जाता है ।


कच्चे फलों का उपयोग - इसके कच्चे फलों को छाया में सुखाकर तथा कूटकर कपड़ छान कर लें । मात्रा १ तोला गाय के दूध के साथ प्रातः सायं पीने से पुंस्तव शक्ति तथा कामशक्ति बढ़ती है ।


विपदिका (बिवाई) पर - पैरों की विपादिका वा बिवाई में बड़ का दूध भरने से बिवाई की पीड़ा दूर हो जाती है और बिवाई का जख्म भरकर वह सर्वथा ठीक हो जाती है ।


दांतों का मंजन

योग - बड़ की छाल, कत्था श्वेत, काली मिर्च, सैंधा लवण - सब समभाग लेकर कूटकर कपड़छान करें । प्रतिदिन प्रयोग करें । इससे दांतों के रोग पीड़ा, हिलना, मैल, दुर्गन्धि आदि दूर होते हैं और दांत सुदृढ़ तथा शुद्ध होकर श्वेत हो जाते हैं ।


दुर्गन्धि - यदि दांतों से दुर्गन्ध आती है तो रूई की फुरेरी को बड़ के दूध में भिगोकर दांतों के छिद्र व रोगी दांत पर रखें । जो दांतों में छिद्र व गढे हो गये हों उनमें रूई से बार-बार बड़ का दूध लगाने से दुर्गन्धि, दांत की पीड़ा सब दूर हो जाते हैं । बड़ के दूध को अनेक बार हिलने वाले दांत पर लगाया जाये तो वह आसानी से उखाड़ा जा सकता है ।


हृदय रोग

हृदय के सभी रोगों की चिकित्सा साधारण औषधियों से नहीं होती किन्तु हीरे मोती आदि अमूल्य रत्‍नों की पिष्टी और भस्मों का प्रयोग हृदय के रोगों को दूर करने के लिए दीर्घकाल तक रोगियों को कराया जाता है किन्तु इन बहुमूल्य औषधियों का प्रयोग तो धनी ही कर सकते हैं । बेचारे निर्धन लोग किस औषध का प्रयोग करें ? उनके लिए भी बड़ और अर्जुन आदि वृक्ष भगवान ने उत्पन्न किये हैं जो बिना मूल्य के सबको ही सुलभ हैं । यह दिल की धड़कन आदि को दूर करने में हीरे-मोती से न्यून नहीं हैं । इसका श्रद्धा से प्रयोग करें और लाभ उठायें ।

१. बड की हरे रंग की कोमल कोंपल वा नर्म-नर्म हरे पत्ते ६ माशे लेवें और ६ माशे अर्जुन वृक्ष की नर्म-नर्म छाल लेवें । दोनों १० तोले शुद्ध ताजे जल के साथ खूब घोट पीसकर छान लें और दो तोला कूजा मिश्री मिला कर प्रातः तथा सायं दोनों समय रोगी को पिलायें । इससे कुछ ही दिनों में दिल की धड़कन तथा हृत्पीड़ा दूर होगी ।

२. बड की हरी-हरी कोमल पत्तियां वा कोंपल १ तोला लेकर १० तोले जल के साथ खूब रगड़ पीस कर छान लें तथा दो तोले मिश्री व खांड देशी मिलाकर तो-तीन सप्ताह के प्रयोग से हृदय सम्बन्धी सर्वप्रकार के विकार व रोग दूर हो जायेंगे । दवा प्रात:काल तथा सायंकाल दोनों समय पिलायें ।

३. प्रवाल पिष्टी दो रत्ती उपरोक्त औषध के साथ प्रातः तथा सायं खिलायें तो सोने पर सुहागे का कार्य होगा । दिल के सभी रोग बहुत शीघ्र ही दूर होंगे ।

४. उपरोक्त द्वितीय नंबर की बड़ की कोंपलों की औषध के साथ प्रवाल पंचामृत मात्रा दो रत्ती प्रातः सायं रोगी को देने से हृदय संबन्धी सभी रोग, दिल की पीड़ा और निर्बलता कुछ समय के सेवन से दूर होंगे ।

५. प्रवाल की शाखाओं को बारीक पीसकर कपड़छान कर लें तथा चन्द्रमा की चांदनी में सात भावनायें बड़ के कोमल पत्तों के रस की देवें तथा इसी प्रकार सात भावनाएं कमल के लाल फूलों के रस की भी चन्द्रमा की चांदनी में सात भावनाएं देवें । फिर इसकी मात्रा दो रत्ती मधु के साथ रोगी को प्रातः सायं चटाएं और इस रामबाण औषध का जादू के समान प्रयोग करके तुरन्त ही देखें । इसकी जितनी प्रशंसा करें थोड़ी है । हृदयरोग को दूर करने के लिए सर्वोत्तम औषध है ।

६. मोती तथा प्रवाल पंचामृत को भी पांचवें योग के समान तैयार कर लें तो यह औषध भी अपने ही प्रकार की होगी । हृदय के रोगियों पर इस प्रकार की औषधों का प्रयोग अच्छे वैद्य सभी करते हैं । हमारी भी अनुभूत है । आयुर्वेद शास्त्र की यह जादूभरी औषध है ।

बड़ का सत्त्व

बड़ का पंचांग (जड़, पत्ते, फल, छाल तथा दाढी) - पाँचों समभाग ले लेवें तथा इन्हें अधकुटी कर के किसी मिट्टी वा कली वाले पात्र में आठ गुणा शुद्ध जल डालकर भिगो देवें । न्यून से न्यून चौबीस घंटे पड़ा रहने दें, फिर इसे भली भांति मलकर आग पर चढावें । जब आठवां भाग रह जाये तो उतारकर मलकर छान लें और छाने हुए जल को आग पर मंदी आंच से पकायें, गाढा जब अफीम के समान हो जाए तो इसे उतारकर सुरक्षित रखें, यही बड़ का घनसत्त्व है । यह केवल पत्तों, केवल छाल तथा दाढ़ी वा फलों से भी तैयार किया जा सकता है ! यह घनसत्त्व बहुत गुणकारी है । इसका अनेक औषधों में उपयोग होता है ।

हृदयरोग - उपरोक्त सत्त्व की गोलियां १ रत्ती से दो रत्ती तक बना लें । रोगी की शक्ति, आयु के अनुसार मात्रा १ गोली से २ गोली तक जल, शर्बत अथवा गोदुग्ध के साथ प्रातः सायं दोनों समय देवें । निर्धनों के लिये ये हीरे मोती की गोलियां हैं । ये गोलियां हृदय की निर्बलता, पीड़ा तथा धड़कन को दूर करती हैं । धनी लोगों को स्वर्ण, चांदी के वर्क में लपेट कर दी जा सकती हैं । अथवा मोती, प्रवाल भस्म पिष्टी आदि के साथ मिलाकर देवें । बहुत ही लाभदायक औषध है । इस बड़ के सत्त्व को यदि भांप की गर्मी से तैयार कर लिया जाए तो और भी अधिक गुणकारी होगा । जब क्वाथ को छान लें तो उसे किसी छोटे पात्र में चढ़ाकर किसी दूसरे पात्र के मुख पर रख दें जिसमें जल उबल रहा हो और नीचे वाले पात्र का मुख भीड़ा हो । इस प्रकार जल की भांप की उष्णता से पककर जो घनसत्त्व तैयार होगा वह अधिक गुणकारी होगा ।

मस्तिष्क वा शिर के रोग

स्मरणशक्ति

१. बड़ की अन्तरछाल लेकर छाया में सुखा लें, फिर कूट कर कपड़छान कर लें । इसके समान वा द्विगुणी शुद्ध देशी खांड या मिश्री कूटकर मिला लें, इसको कपड़छान कर लें । इसकी मात्रा ३ से ६ माशे तक है, शक्ति एवं रोग के अनुसार घटा तथा बढा भी सकते हैं । इसका सेवन प्रातः सायं गाय के दूध के साथ करें अथवा दूध को गर्म करके शीतल करके उसके साथ लेवें । इससे स्मृति व स्मरणशक्ति बढती है, भूलने का रोग दूर होता है ।

२. उपरोक्त चूर्ण को बड़ के दूध में भिगोकर प्रयोग करें तो सोने पर सुहागे का कार्य देगा । चूर्ण की मात्रा बड़ के दूध में भिगोकर केवल एक माशा कर देवें ।

३. मिश्री को बड़ के दूध में भिगोकर दो-दो रत्ती की गोली बनायें तथा इनका प्रयोग गोदुग्ध वा जल के साथ करें । इससे मन की स्थिति सुधरेगी, अश्लील विचार निर्बलता दूर होकर स्मरण शक्ति तथा मस्तिष्क की शक्ति बढेगी ।

४. बड़ के घनसत्त्व की ऊपर लिखी हुई गोलियां प्रातः सायं ब्राह्मी बादाम, खसखस की ठंडाई के साथ लेने से मस्तिष्क संबन्धी सभी विकार शिर पीड़ा, सिर घूमना, सिर में चक्कर आना, अंधेरी आना, सब वस्तुएं घूमती हुई दिखाई देना, भूल जाना, स्मृतिविभ्रमादि सभी रोग दूर होते हैं । बादाम सायंकाल भिगो दें । उनके छिलके उतारकर आठ दस दाने, ब्राह्मी छः माशे, खसखस ३ माशे सब को रगड़ छानकर जल में घोल मिश्री मिला कर ठंडाई बना लें । इस ठंडाई के साथ प्रातः बड़ के सत्त्व की गोलियों के प्रयोग से मस्तिष्क वा शिर संबन्धी सभी रोग दूर होते हैं । यदि इस ठंडाई में कुछ बूंद बड़ के दूध की और दोनों समय डाल लिया करें तो अधिक लाभ होगा ।

५. बड़ की कोंपल नर्म-नर्म दो तोला लेकर जल के साथ कपड़ छान कर लें । उपरिलिखित बादाम आदि की ठंडाई के साथ रगड़ कर पिलायें । लाभ होगा ।

बड़ का क्वाथ

नजला जुकाम पर - बड़ के कोमल पत्तों से क्वाथ को आजकल की भाषा में बड़ की चाय भी कह सकते हैं । प्रचलित चाय से तो बहुत सी हानियां ही होतीं हैं किन्तु बड़ की चाय बहुत ही गुणकारी है । यह जहां जुकाम आदि की औषध है, वहीं पुष्टिप्रद तथा वीर्यवर्धक है । विदेशी ढंग की चाय धातु रोगों को उत्पन्न करने वाली है ।

निर्माण-विधि - बड़ की कोमल किन्तु लाल-लाल कोंपलों को लेकर छाया में सुखा रखें । मात्रा छ: माशे लेकर आध सेर जल में क्वाथ करें । चौथाई (आधा पाव) रहने पर उतारकर छान लेवें तथा विधिपूर्वक खांड तथा दूध मिलाकर पीवें व रोगी को पिलायें । प्रात: सायं इस क्वाथ को चाय के समान पीने से रोगी का जुकाम नजला दूर होता है । अच्छी औषधि है तथा मस्तिष्क की निर्बलता को दूर करके स्मरणशक्ति को बढ़ाती है । धातुरोग, स्वप्नदोष, प्रमेह को दूर करती है तथा इसके विपरीत प्रचलित चाय सभी रोगों को बढ़ाती है ।

दाढ़ी की चाय - बड़ की बारीक-बारीक दाढ़ी की शाखाओं (रेशों) को काट-कूट कर छाया में सुखाकर सुरक्षित रखें । मात्रा छ: माशे उपरिलिखित विधि से क्वाथ (चाय) बनायें तथा दूध-खांड मिलाकर पिवें और पिलायें । इसके प्रयोग से जुकाम नजला दूर भागता है, प्रमेह नष्ट होता है, शरीर हृष्ट-पुष्ट तथा रोग-रहित होता है । यह देशी चाय (क्वाथ) सर्वप्रकार से लाभप्रद है, इसमें हानि कुछ नहीं । विदेशी ढंग की चाय (जहर) को हटाकर उसके बदले में बड़ की चाय का प्रयोग करें, यह औषध तथा खुराक दोनों है, दवा की दवा तथा गिजा की गिजा है ।

नींद दूर करने की बड़ की चाय

वैसे निद्रा आना अच्छे स्वास्थ्य का लक्षण है किन्तु अधिकता सबकी बुरी ही होती है । "अति सर्वत्रं वर्जयेत्" - अति सर्वत्र वर्जित है । इसी प्रकार अतिनिद्रा और अतिजागरण दोनों ही बुरे हैं, सब कुछ यथोचित ही चाहिए । अतिनिद्रा कभी-कभी रोग का रूप धारण कर लेती है । कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं जो हर समय ऊंघते रहते हैं । हर समय सोने वाले को किसी कार्य में सफलता नहीं मिल सकती । वैसे तो विदेशी ढ़ंग की चाय भी नींद को दूर भगाती है किन्तु साथ-साथ वह भूख को भी दूर करती है तथा अनेक रोग उत्पन्न करती है । बड़ के पत्तों का क्वाथ वा चाय उसमें मीठे के स्थान पर लवण डालकर पिलाया जाये तो नींद की मात्रा शनैः शनैः कम हो जाती है ।

विधि इस प्रकार है । बड़ के बड़े-बड़े तथा सख्त पत्ते छाया में सुखाकर अर्धकुटे (जौकुट) कर लेवें । मात्रा १ तोला एक सेर जल में उबालें । एक पाव शेष रहने पर उसमें दो माशे सैंधा लवण मिलाकर प्रातः सायं कुछ-कुछ गर्म ही पिलायें । इसके कुछ दिन के प्रयोग से अतिनिद्रा का रोग दूर होगा । फिर इसका प्रयोग छोड़ देवें । सदैव इसके प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं ।

नेत्र रोग

वैसे तो नेत्रों के रोगों की सैंकड़ों औषध हैं । कोई औषध किसी रोग में कार्य करती है और कोई किसी में काम आती है । जिन रोगों में बड़ द्वारा लाभ होता है वे यहां अंकित करते हैं ।

दृष्टि की दुर्बलता – काले सुर्मे को पहले त्रिफले आदि में शुद्ध कर लें, फिर इस सुर्मे को बड़ के दूध की भावना देकर एक दिन खरल करें । सूख जाने पर कई बार कपड़ छान कर लें तथा सांचे में डालने के योग्य बनायें । फिर रात्रि को सोते समय आंखों में सलाई से डालें । इसके लगातार सेवन करने से धुन्ध, जाला, फोला, लाली, पानी आना तथा दृष्टि की दुर्बलता आदि रोग दूर होते हैं । एक बार एक सलाई डालने से लाभ न हो तो तीन सलाई तक डाल सकते हैं । जितना सहन हो सके तथा लाभप्रद हो, उतना ही प्रयोग करें ।

दुखती आंखों में बड़ का दूध थोड़ी मात्रा में डालने से लाभ होता है । प्रात:काल और सायंकाल बड़ के दूध की एक-एक सलाई डालने से आंख का धुन्ध-जाला कट जाता है । दृष्टि ठीक हो जाती है ।

दुखती आंखों में बड़ के दूध से जहां लाभ होता है वहां बड़ की कोंपलों के प्रयोग से भी लाभ होता है । बड़ की नर्म-नर्म कोपलें तोड़ें, तब उनके दूध वा जल में सलाई उसी समय भिगोकर तुरन्त आंखों में लगायें । इससे आँख की लाली दूर तथा अन्य नेत्र रोगों में भी लाभ होगा ।


अतिसार (दस्त)


योग - बड़ की जड़ का छिलका छाया में शुष्क पीसकर छान लें । मात्रा ३ माशे प्रातः, दोपहर तथा सायंकाल छाछ के साथ अथवा चावलों के जल वा मांड के साथ देवें । यदि ये उपलब्ध न हों तो ताजा जल के साथ देवें । इससे मरोड़े वाले दस्त (पेचिस) शीघ्र दूर होंगे । भूख लगने पर मूंग चावल की खिचड़ी, गाय की छाछ वा दही के साथ देवें ।

२. यदि पेचिस में आंव मिली हुई आती हो और मरोड़ बंद न होती हो तो रोगी को बड़ का दूध ३ माशे पिलायें, इससे शीघ्र लाभ होगा ।

३. गंगाधर रस में ३ माशे बड़ का दूध मिलाकर देवें तो सोने पर सुहागे पर कार्य होगा ।

४. बड़ की कोपलें तीन माशे, मिश्री एक तोला, दोनों को खूब घोटकर मिश्री मिलाकर पिलाने से अत्यन्त लाभ होगा । बरगद का दूध नाभि में भरने तथा कुछ इधर-उधर लेप करने से दस्त बंद हो जाते हैं ।


जी मिचलाना


१. आमाशय में गड़बड़ होने से जी मिचलाता है तथा वमन होती है । बड़ के पत्ते दो तोले, लौंग ८ ले लें । दोनों को घोटकर एक तोला मिश्री मिलाकर जल मिलाकर छान लें । थोड़े-थोड़े समय के पीछे एक वा दो घूंट १५-१५ मिनट के पीछे पिलाते रहें, जी मिचलाना तथा वमन भी बन्द हो जायेगी ।

२. बड़ की दाढ़ी की बारीक-बारीक शाखायें ३ माशे जल मे साथ पीस कर छान लें और रोगी को मिश्री मिलाकर पिलायें । जी मिचलाना, खूनी कै (वमन) आदि सब ठीक हो जायेंगे । एक बार पिलाने से पूर्ण लाभ न हो तो कई बार पिलायें । रोग दूर होगा ।


अर्श (बवासीर)

योग - बड़ के कोमल पत्ते २ तोले पाव भर जल में घोटकर पिलायें । इसके पिलाने से रक्त भी बंद होगा । कुछ दिन के प्रयोग से अर्श से छुटकारा मिल जायेगा ।

२. प्रातःकाल नित्यकर्म से निवृत हो खाली पेट मिश्री वा देशी खांड ३ माशे, इसमें बड़ का दूध १० बूंदें डालकर खालें और प्रतिदिन एक बूंद बड़ के दूध की बढाते जायें । कुछ खांड वा मिश्री भी बढाई जा सकती है । २५ बूंदों तक बढायें । फिर एक-एक बूंद घटाते जायें तथा १० बूंद तक लौटकर औषध लेना छोड़ देवें । यह बड़ के दूध का पच्चीस दिन का कल्प (कोर्स) करें । इस प्रकार श्रद्धा से सेवन करने से सब प्रकार की अर्श (बवासीर) से छुटकारा हो जाता है ।

३. मस्सों की मरहम - बड़ की सूखी लकड़ी को जलाकर कोयले बना लें । २ तोले कोयले को पीसकर कपड़छान कर लें । गाय का मक्खन १ छटांक जिसे न्यून से न्यून कांसी की थाली में जल से ११ बार तो धोवें ही, १०१ बार धोने से बहुत लाभ होगा । दोनों को मिलाकर खरल करके मरहम बना लें यदि इसमें ३ माशे अमृतधारा मिलाकर बंद मुख की शीशी में रख लें तो औषध अच्छी बन जायेगी । औषध बिना अमृतधारा मिलाये भी लाभ करेगी । प्रातः-सायं शौच से निवृत होकर इसको मस्सों पर लगायें, कुछ दिन में मस्से बिना कष्ट के ही दूर हो जायेंगे ।

मस्सों पर वृहत् कासीसादि तैल के लगाने से भी मस्से बिना कष्ट के समाप्‍त हो जाते हैं ।

४. बड़ की लकड़ी को छाया में सुखाकर कोयले बनाकर कूट पीस कर कपड़ छान कर ३ माशे की पुड़िया बना लो । प्रातः सायं एक एक मात्रा जल के साथ देवें । कुछ दिन के प्रयोग से अर्श नष्ट हो जायेगा ।

बादी बवासीर - बड़ की छाल २ तोले आध सेर जल में उबालें । पावभर रहने पर गाय का घी वा बादाम रोगन १ तोला इसमें मिला लें । किन्तु छानने के पीछे मिलायें, इसमें मिश्री वा देशी खांड मिलाकर थोड़ा गर्म रहने पर पिलायें । दोनों समय प्रयोग करें, कुछ ही समय में बादी बवासीर दूर होगी ।

यदि मस्सों में कष्ट हो तो भूभल में दो प्याज भूनकर छीलकर चटनी बनाकर गाय के घी में भूनें । इसकी टिकिया सोते समय मस्सों पर गर्म-गर्म बांधें तथा सेकें । तुरन्त लाभ होगा ।

नासिका के रोग

१. नकसीर - बड़ के पत्ते जो लाल रंग के तथा कोमल होते हैं २ तोले, आंवले का छिलका २ तोले - दोनों को खूब बारीक पीस कर जल मिलाकर नकसीर के रोगी के मस्तिष्क पर प्रातः-सायं दो बार प्रतिदिन लेप करें । नकसीर में लाभ होगा ।

२. बड़ की कोंपलें २ तोले, नागकेसर १ तोला - दोनों को खूब रगड़ कर घोटें तथा तीन तोले मिश्री मिलाकर तीन खुराक बना लें । गाय के मक्खन के साथ लेने से नकसीर दूर हो जायेगी । कई दिन लगातार लेवें । गर्म वस्तुओं का सेवन न करें । धूप गर्मी में बाहर न घूमें । अग्नि के पास कार्य न करें । ठंडे जल से स्नान करें ।

३. नाक में यदि घाव हो वा फुंसी हो तो बड़ का दूध रूई के फोहे से कई बार लगायें - आराम हो जायेगा ।

४. बरगद की कोमल कोंपलें २ तोले घोट पीस कर जल के साथ छान लें तथा २ तोले मिश्री मिलाकर दिन में दो बार पिलायें । नकसीर में लाभ होगा ।

५. बड़ की अन्तरछाल छाया में सुखाकर खूब बारीक पीस लें तथा कपड़छान कर लें । फिर इसे सुरक्षित रखें तथा इसकी नसवार (हुलांस) बार-बार लेते रहें । नकसीर में लाभ होगा ।

६. बड़ का घनसत्त्व मिश्री मिलाकर दिन में दो समय प्रातः वा सायं गाय के धारोष्ण दूध के साथ लेवें । गर्म बीजों से परहेज करें ।

७. शुद्ध मिट्टी के ढ़ेले (उपले) पर शीतल जल डालकर नासिका से कुछ समय तक सूंघते रहने से तेज से तेज नकसीर बंद हो जाती है । जलपीपल के कई दिन पीने से नकसीर का रोग समूल नष्ट हो जाता है ।

दमा खांसी

इसी पुस्तक में बड़ की छालादि की चाय वा क्वाथ का उल्लेख किया है । उसके सेवन से खांसी जुकाम में लाभ होता है । उसका लगातार प्रयोग करना चाहिये । कुछ योग और नीचे लिखे हैं ।

१. बरगद का सत्त्व १ तोला, काली मिर्च एक तोला, सैंधा लवण ६ माशे तीनों को मिलाकर रगड़ कर चने के समान गोली बनायें तथा मुख में एक दो गोली रखकर चूसें, शीघ्र लाभ होगा, खांसी दूर होगी ।

२. बड़ के सत्त्व की जल के साथ रगड़ घोटकर चणे के समान गोलियां बना लें तथा दिन में कई बार चूसें । लाभ होगा, कास को दूर करेगी ।

३. बड़ की अन्तरछाल छाया शुष्क ३ माशे, जल १ पाव में उबालें । एक छटांक रहने पर मधु वा मिश्री मिलाकर रोगी को सायंकाल पिलाकर सुला दें । जुकाम खांसी में लाभ होगा । इस काढ़े में मधु मिश्री न डालकर लवण भी डाला जा सकता है ।

४. बड़ की छाल ३ माशे, शहतूत के पत्ते ३ माशे, सैंधा लवण ३ माशे - इन का पावभर जल डालकर क्वाथ बनाकर पिलायें, आधा पाव रहने पर मलकर छान लें तथा सोते समय पिलाने से खांसी जुकाम तथा गले के रोगों में लाभ होगा ।

खांसी वा दमे के रोग में इन उपरोक्त क्वाथों का दीर्घकाल तक प्रयोग करने से पथ्य से रहने से लाभ होगा ।

आयुवर्धक

बड़ के वृक्ष की बड़ी लम्बी आयु होती है । वटवृक्ष के नीचे रहने, विश्राम करने, इसके पंचांग का सेवन करने से आयुवृद्धि होती है ।

दाढ़ी का सत्त्व - बड़ की दाढ़ी के लाल लाल बारीक तन्तु वा शाखाएं जो पतली-पतली होती हैं, ले लेवें । इनमें चूने का पानी मिलाकर ठंडाई के समान घोटें और निचोड़कर शुद्ध वस्त्र में से रस छान लें । इसे अग्नि पर चढ़ायें । इसका मल निथारने के लिए उबाल देकर दूध की लस्सी के छींटे देकर उतार लें । मैली उतारकर छानकर शुद्ध कर लें और चीनी के पात्र में वा जर्मनी स्टील के पात्र में डालकर किसी भीड़े मुख के पात्र पर जो जल से पूरित हो, उसके ऊपर रख दें, उसे आग पर चढ़ा देवें । इसे भांप की गर्मी से पकावें । जब पककर गाढ़ा हो जाये तो उतारकर एक-एक रत्ती की गोलियां बनायें । प्रातः सायं एक-दो गोली गाय के धारोष्ण दूध के साथ देवें । यह औषध आयु बढ़ाने वाली रसायन है । धातु के रोगों को दूर करने वाली अच्छी औषध है । इसको अन्य औषधियों के साथ वा अकेले दोनों प्रकार प्रयुक्त कर सकते हैं । बड़ की छाल दाढ़ी पत्ते जड़ फल सभी आयुवर्धक रसायन हैं । इन सब का घनसत्त्व आयुवर्धक तथा पुष्टिकारक है । इनकी सैंकड़ों प्रकार की औषध कई प्रकार बनाई जा सकती है केवल थोड़े परिवर्त्तन से, जो धातुरोगों को दूर करने के लिए बहुत ही लाभप्रद सिद्ध होगी । जैसे बड़ की छाल, चाहे दाढ़ी की छाल ले लेवें, छाया में सुखा लें । इनको कूटकर समान मिश्री मिला लें अथवा वैसे ही गाय के धारोष्ण दूध के साथ प्रातः सायं देवें । अथवा इनके छिलकों का क्वाथ बनाकर छानकर खांड मिश्री मिलाकर पिलायें । चाहे जल के साथ लेवें । ये सब औषध धातुरोगों को दूर करने वाली हैं । स्वप्नदोष को दूर करने के लिए दाढ़ी का चूर्ण जल से लेने पर बहुत ही लाभ होता है । बड़ का सत्त्व भी अत्यन्त लाभकारी है ।

पाक

अश्वगंध नागौरी १ तोला, सितावर १ तोला, विधरा के बीज (शुद्ध) १ तोला, तालमखाना १ तोला, ऊटंगन के बीज १ तोला सब को कूट कर कपड़छान कर लें । इनको बड़ के दूध में भिगोयें तथा एक बड़े गोले में छिद्र करके भर दें तथा उसका कटा हुआ भाग उसी पर लगा दें तथा १ पाव गेहूं का गूंदा हुआ आटा लपेटकर सुखा लें । फिर इसे गाय के घृत में तल लें । जब यह पककर लाल हो जाये, उतारकर उसे कूट पीस लें तथा इसमें मधु इतना मिलायें कि इसके लड्डू से बन जायें । इसे ४० भागों में बांट लें । प्रातःकाल एक मात्रा गाय वा बकरी के दूध के साथ लेवें । चालीस दिन तक इसका प्रयोग करते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करें । तेल, खटाई, कच्चा मीठा, मिर्च, अचार का सेवन न करें । इससे बाजीकरणशक्ति, स्तम्भनशक्ति तथा बल प्राप्‍त होगा । यह औषध स्‍त्री-पुरुष दोनों को दी जा सकती है । निर्बलता को दूर कर बलवान् बनाती है । सन्तान उत्पन्न करने की शक्ति प्रदान करती है । बाजीकरण औषधियों में छुआरे, अफीम, बड़ के दूध का प्रयोग करके भी औषधि बनती है । अफीम आदि नशे वाली वस्तुओं के सेवन से दूर ही रहना हितकर है । सामान्य औषधियों के सेवन से लाभ अधिक तथा स्थायी होता है ।


शिंगरफ भस्म

शिंगरफ की डली २ तोले, मिट्टी के सकोरे में डालकर ऊपर से पांच छः तोले बड़ का दूध डाल देवें तथा कपरोटी करके सुखा लें । ऊपर आध सेर कपड़े की चीरन लपेट कर आग देवें, निर्वात स्थान पर आग देवें । शीतल होने पर श्वेत रंग की भस्म निकाल लें । मात्रा आधा रत्ती से १ रत्ती तक मक्खन वा मलाई के साथ खिलायें । खूब बाजीकरण तथा शक्तिवर्धक है ।


मासिक धर्म - बरगद की दाढी, बायविडंग, सोये के बीज, हालू मेथा, कलौंजी, गुलाब के फूल, सौंफ - प्रत्येक तीन-तीन माशे, सबको अधकुटी करके क्वाथ बनाकर इसमें २ तोले गुड़ मिलाकर रोगी को प्रातः सायं पिलायें । कुछ दिनों के ही प्रयोग से रुका हुआ मासिक धर्म चालू हो जाता है ।


मासिक धर्म की अधिकता - बड़ की कोमल-कोमल कोंपलें २ तोला लेकर २ छटांक जल में घोटकर छान लें तथा कुछ मिश्री मिला लें । प्रातःकाल तथा सायंकाल दोनों समय पिलायें । दो-चार मात्रा देने से ही मासिक धर्म की अधिकता हट जायेगी ।


संतान के लिए

१. बरगद की नर्म-नर्म कोंपलें, नागकेसर, कंघी खरैंटी, मुलहटी - इन सबको समभाग लेवें, सबको बारीक पीस लेवें । कपड़छान करके मात्रा ४ माशे प्रातः-सायं गाय के दूध के साथ लेने से निःसन्तान स्त्री संतानवती हो जाती है ।


२. बड़ की ताजी कोंपलें, धाय के फूल, कमल के फूल, कंटकारी की जड़ - सब समभाग लेवें । अर्धकुटी कर लें । इनमें से ६ माशे दूध में पीसकर देवियों को प्रयोग करायें । इसके प्रयोग से सन्तानार्थ स्त्री गर्भ धारण करती है ।


३. वटवृक्ष की कोंपलें, शिवलिंगी - दोनों समभाग लेवें । मात्रा २ माशे से ४ माशे तक गाय के दूध के साथ प्रयोग करने से देवियां गर्भधारण करती हैं ।


४. बड़ की कोंपल, अश्वगन्ध नागौरी, नाग केसर - तीनों को समभाग लेवें । अर्धकुटी करके मात्रा २ माशे जल वा दूध के साथ देवें । गर्भ धारण करने में स्त्रियां समर्थ होती हैं ।


५. अश्वगंध नागौरी १ तोला, बड़ की नर्म कोंपलें १ तोला - दोनों को पीसकर लुगदी बनायें । गाय का घी १ तोला, गाय का दूध १ पाव, सबको मिलाकर पकायें । जब चौथाई भाग दूध जल जाये तो उतार कर छान लें । इसमें मिश्री मिलाकर स्त्रियों को पिलायें, कुछ दिन के प्रयोग से गर्भवती हो जायेंगी ।

६. नागकेसर, सुपारी, बड़ की कोंपलें - समभाग लेकर पीस लें । मात्रा ६ माशे गाय के दूध के साथ सेवन करने से स्त्रियां गर्भधारण करतीं हैं ।


स्‍त्रियों का प्रदर रोग

१. वट वृक्ष की हरी ताजी, अन्तरछाल उतारकर छाया में सुखा लें । इसे बारीक पीसकर छान लें, समभाग खांड वा मिश्री मिला लें । मात्रा ३ माशे से ६ माशे तक प्रातः सायं ताजा जल वा गोदुग्ध के साथ लेवें । शीघ्र ही पूर्ण लाभ होगा ।


२. बड़ की छाल का चूर्ण १ छटांक, अशोक छाल १ छटांक, मिश्री १ छटांक सबको कपड़छान कर लें । मात्रा ६ माशे प्रातः सायं ताजे जल वा गोदुग्ध के साथ लेवें । सर्वप्रकार के प्रदर रोग का कुछ ही दिन में नाश होगा । मिर्च, खटाई, कच्चा मीठा, अचार आदि गर्म पदार्थों का सेवन न करें । ब्रह्मचर्य का पालन अत्यन्त आवश्यक है ।


३. बड़ की लाल-लाल कोंपलें १ तोला, गोखरू १ तोला - दोनों को कूटकर गाय के आधा सेर दूध में १ पाव जल डालकर उबालें । जल के जलने पर उतारकर छान लें, यथेच्छा मिश्री मिलाकर ठंडा करके पीवें । प्रातः-सायं इस प्रकार कुछ दिन पीने से प्रदर तथा कमर की पीड़ा तथा निर्बलता सभी दूर होंगे । प्रातः सायं इस प्रकार कुछ दिन पीने से प्रदर तथा कमर की पीड़ा तथा निर्बलता सभी दूर होंगे ।


४. कमर की पीड़ा अथवा गठिया दर्द हो, बड़ का दूध लगावें । इसका लेप करने से दोनों दूर होंगे । इसी प्रकार चोट की पीड़ा पर बरगद का दूध लगाने से वह भाग जायेगी ।


५. हड़ताल वर्किया १ तोला की डली लेकर इसे आक के दूध में भिगोकर डुबोये रखें । प्रतिदिन दूध बदलते रहें । फिर आध सेर बड़ के फलों की नुगदी बनाकर उसके बीच में डली रख देवें तथा इसके ऊपर एक डेढ़ सेर पुराना वस्त्र लपेट देवें और ऐसे स्थान पर जहां वायु न लगता हो, रखकर एक शिरे पर आग रख दें । जल जाने पर श्वेत रंग वाली तथा वजन वाली भस्म की डली निकलेगी । बारीक पीसकर सुरक्षित रखें । जीर्ण ज्वर, धातु क्षीणता, प्रदर तथा यकृत् के लिए विशेष लाभदायक है । मक्खन वा मलाई में देवें ।


धातु रोगों पर

पुरुषों के धातु रोगों के लिए बड़ का वृक्ष सचमुच एक औषधालय है । जैसे प्रमेह, स्वप्नदोष, पेशाब में धातु का गिरना, नपुंसकता, वीर्य की न्यूनता - इन सब को दूर करने के लिए वट वृक्ष एक बहुमूल्य वनस्पति है । इसे धातु रोगों को दूर करने के लिए कल्पवृक्ष कह सकते हैं । किन्तु लोग इसे सामान्य वृक्ष समझकर कोई लाभ नहीं उठाते । धातु रोगों की चिकित्सार्थ कुछ योग नीचे देते हैं । धातु रोगों की चिकित्सा बड़ी कठिन है । प्रमेह आदि रोग बहुत कठिनाई से दूर होते हैं किन्तु भगवान् ने इन रोगों को दूर करने के लिए बड़ की वनस्पति में विशेष गुण भर दिये हैं । इसके द्वारा चिकित्सा करने में शीघ्र लाभ होता है ।


बड़ का घनसत्त्व - बड़ के जो पत्ते पककर पीले होने पर गिर जाते हैं, उन्हें इकट्ठे कर लें । उनमें से २० सेर पत्तों को ४८ घण्टे तक किसी मिट्टी के पात्र अथवा कली वाले बरतन में भिगोये रखें । फिर इसे कढ़ाई में चढ़ाकर उबालें और पकावें । जब पत्ते जल जायें तब नीचे उतारकर रखें । शीतल होने पर खूब मल छान लें । फिर उस जल को पकायें । मंदी आंच जलायें, पानी जलने पर जब गाढ़ी औषध रह जाये, उसे सुरक्षित रखें । यह बड़ का सत्त्व है । इसे मैंने अनेक बार तैयार करके सैंकड़ों रोगियों पर धातु रोगों में प्रयोग करके देखा है । स्वप्‍नदोषादि रोगों की अचूक औषध है । इसको अकेला भी प्रयुक्त किया जा सकता है तथा अन्य औषधों में मिलाकर भी प्रयोग करते हैं । इसके योग इस प्रकार हैं ।


१. बड़ का घनसत्त्व एक तोला, अश्वगंध नागौरी एक तोला, सितावर एक तोला, गोखरू एक तोला, विदारीकन्द एक तोला, विधारा के बीज (शुद्ध) एक तोला - सबको कूट छान लें, सबके समभाग मिश्री मिला लें । मात्रा एक माशा शीतल जल के साथ प्रातः सायं छात्र-छात्राओं को देवें । ब्रह्मचारिणियों को सदा थोड़ी मात्रा में तथा सदैव जल के साथ देने से धातु विकार, स्वप्‍नदोष, श्वेतप्रदर, प्रमेह रोग दूर होते हैं । सहस्रों रोगियों पर अनुभूत है । गृहस्थ तथा वीर्यहीन निर्बल व्यक्तियों को गाय के दूध के साथ तथा एक माशा से ५ माशे तक दे सकते हैं । यह औषध बहुत ही वीर्यवर्धक तथा पुष्टिकारक है, धातु के सभी विकारों को दूर करके शरीर को बलवान् बनाने वाली औषध है । मिर्च, खटाई, कच्चा मीठा, अचार, लहसुन प्याज आदि गर्म वस्तुओं का सेवन न करें तथा ब्रह्मचर्य से रहें । फिर इस विचित्र औषध का प्रयोग करें और इसका प्रभाव देखें ।


२. बड़ के पीले पत्तों का सत्त्व १ तोला, अश्वगन्ध १ तोला, सितावर १ तोला, कुरंड (बहुफली) १ तोला, गोखरू १ तोला, मूसली श्वेत १ तोला, विधारा के बीज १ तोला, वंशलोचन १ तोला, विदरीकन्द १ तोला, कलई भस्म १ तोला तथा अफीम शुद्ध छः माशे - सबको कपड़छान कर पीस कर ब्राह्मी के क्वाथ वा स्वरस से मूंग के समान गोली बनायें । मात्रा १ वा दो गोली जल वा दूध के साथ प्रातः सायं प्रयोग करं । स्वप्‍नदोष, प्रमेहादि धातु रोगों की अचूक जादूभरी औषध है । एक मास के प्रयोग से प्रमेह आदि धातुरोग समूल नष्ट हो जाते हैं । इसकी मात्रा ३ गोली तक बढ़ाई जा सकती है । यह औषध बाजीकरण स्तम्भक है । स्‍त्री-पुरुषों को सन्तान के योग्य बनाती है । औषध के प्रयोग के दिनों में गृहस्थ लोगों को भी ब्रह्मचर्य व्रत से रहना चाहिये ।


३. बरगद का सत्त्व ८ तोला, कलई भस्म १ तोला, अश्वगन्ध नागौरी २ तोला, बहुफली ४ तोले, सितावर २ तोले, वंशलोचन २ तोले - सब की दो-दो रत्ती की गोलियां बनायें । एक गोली से चार गोली तक जल वा दूध के साथ प्रयोग करने से प्रमेह समूल नष्ट हो जाता है । कमर की पीड़ा तथा प्रदररोग भी दूर होता है ।


४. बरगद का सत्त्व १ तोला, हरमल के बीज १ तोला, मिश्री दो तोला - सबको कपड़छान कर लें । मात्रा १ माशा जल वा दूध के साथ प्रयोग करने से प्रमेह, प्रदर होनों ही दूर होते हैं ।


५. बड़ की कोमल-कोमल कोंपलें १ पाव, अश्वगन्ध नागौरी १ छटांक, सितावर १ छटांक, कुरंड (बहुफली) आधा पाव - सबको बारीक पीसकर जल डालकर ठंडाई के समान घोंटें और कपड़छान कर लें । कलई वाले पात्र में पकायें । गाढ़ा होने पर वंशलोचन वा कौंच के बीजों का चूर्ण १ छटांक मिला लें तथा फिर २ रत्ती की गोलियां बनायें । मात्रा एक दो गोली खिलाकर गोमाता का धारोष्ण दूध पिलायें । प्रमेह, स्वप्‍नदोष, शीघ्रपतन, धातुक्षीणता, श्वेतप्रदर आदि सभी रोग नष्ट होते हैं । गर्म पदार्थों का सेवन न करें । ब्रह्मचर्य से रहें तो पूर्ण लाभ होगा ।


६. गाय का धारोष्ण ताजा दूध आधा सेर, इसमें १० बूंदें बड़ के दूध की डालें और दो वा तीन तोले शुद्ध मधु वा मिश्री डालकर प्रातः सायं पिलायें । पिलाने से पूर्व इन्हें अच्छी प्रकार मिला लें । इसके प्रयोग से स्वप्‍नदोष, प्रमेह, धातु की निर्बलता तथा श्वेतप्रदर सभी नष्ट होते हैं । सेवनकाल में ब्रह्मचर्य से रहें । इसके प्रयोग से गृहस्थ के फल सन्तान की प्राप्‍ति होती है ।


बड़ के दूध का कल्प

पहले लिख चुके हैं बड़ के दूध को पताशे वा मिश्री वा देशी खांड में डालकर प्रतिदिन सेवन करने से स्वप्‍नदोष, प्रमेह रोग दूर होते हैं । किन्तु एक ४२ दिन का कल्प बड़ के दूध का करने से प्रमेह आदि रोग सब समूल नष्ट हो जाते हैं ।


विधि - एक बताशे में बड़ के दूध की १ बूंद डालकर रोगी को खिलायें । दूसरे दिन दो बताशे तथा दो ही बड़ के दूध की बूंदें डालकर खिलायें । इसको प्रतिदिन एक-एक बताशा तथा एक-एक बड़ के दूध की बूंद भी बढ़ाते जाएं । यहां तक २१ बताशे तथा २१ बूंदें बड़ के दूध तक पहुंच जाएं । फिर एक एक बूंद वा बताशा घटाना आरम्भ करें और एक तक पहुंचकर औषध का प्रयोग बंद कर देवें । प्रमेह स्वप्‍नदोष को दूर करने की उत्तम औषध है । इससे वीर्य की वृद्धि होकर निर्बलता दूर होकर शक्ति और बल बढ़ जाता है ।


ज्वर

योग - बड़ का छिलका (छाया शुष्क) १ तोला जौकुट करके आध सेर जल में उबालें । जब आध पाव रह जाये तो १ माशा सैंधा लवण १ माशा नौसादर दोनों को पीसकर इसके साथ पिलायें । इस प्रकार दिन में तीन चार बार इस क्वाथ को गर्म-गर्म पिलायें । विषमज्वर व मौसमी ज्वर से छुटकारा मिलेगा ।


२. यदि गर्मी के कारण ज्वर हो, प्यास बहुत लगती हो तो बड़ की दाढ़ी की शाखाओं का क्वाथ मिश्री मिलाकर दो तीन बार पिलायें । पूर्ण लाभ होगा । दाह (जलन), प्यास, ज्वर सब दूर होंगे ।


मोतीज्वर (मोतीझारा) - बड़ की कोमल-कोमल कोंपलें एक तोला, बाजरा (अन्न) एक तोला लेवें । दोनों को एक पाव पानी में उबालें । जब पानी आध पाव रह जाये तब छान लें और मोतीझारे के रोगी को पिला दें । यह औषध मोतीझारे को दूर करने के लिए लाभप्रद है, प्रयोग करें और लाभ उठायें ।


पुराने जख्म वा नासूर

आक का दूध एक तोला, बड़ का दूध आधा तोला लेकर मिलाकर इसमें बत्ती भिगोकर नासूर में रखें । वैसे यदि बड़ा छिद्र हो तो ये मिले हुए दूध जख्म के अंदर डाल दें । इसके सेवन से एक सप्‍ताह में नासूर का जख्म भर जायेगा । कई बार आक का दूध चढ़ जाता है और उपद्रव खड़े हो जाते हैं । बड़ा कष्ट हो जाता है । ढ़ाक के पत्ते उबाल कर उसके गर्म जल से झारने से लाभ होगा । आक की औषधि ढ़ाक है ।


तैल - बड़ की कोमल कोंपलों का रस निकाल कर उसके समान तिलों का तैल लेकर मन्दाग्नि पर पकायें । जब पानी जल जाये, केवल तैल शेष रह जाये, उसे उतारकर छान लें और सुरक्षित रखें । इस तैल को दिन में दो तीन बार नासूर पर लगायें । पूर्ण लाभ होगा ।


सांप की कांचली की भस्म, बड़ के दूध में मिलाकर रूई की बत्ती भिगोकर नासूर में रखें और ऊपर भी लगायें । इससे अतिशीघ्र नासूर ठीक हो जायेगा ।

किसी भी प्राणी की हड्डी चर्बी घी वा तैल में जलाकर लगाने से नासूर दूर होता है । हमारा बार-बार का अनुभूत है । सर्प की कोंचली भी सर्प का जीर्ण हुआ चर्म ही है, अतः यह भी लाभकारी है ।


भस्म - शिंगरफ, हड़ताल वरकिया की भस्में बड़ के दूध तथा अन्य पंचांगों द्वारा बनाई जाती हैं जो बाजीकरण तथा स्तम्भक और शक्तिवर्धक होती हैं । चतुर वैद्य कुछ परिवर्तन परिवर्धन औषध निर्माण में कर लेते हैं ।


शीशा भस्म - शुद्ध शीशा १ छटांक लोहे की कढ़ाई में चढ़ायें । जब शीशा गल जाये तो एक एक पत्ता बड़ का डालते रहें । इस प्रकार चालीस पत्ते डाल देवें और बड़ की दाढ़ी की लकड़ी से हिलाते रहें और अग्नि भी बड़ की लकड़ियों की जलायें । जब सारे पत्ते जल कर शीशे की भस्म हो जाये तो उसको खरल में डाल पीसकर बड़ की कोमल पत्तियों के रस की भावना देकर छोटी-छोटी टिकिया बनाकर एक सकोरे में बन्द करके कपरोटी कर सुखा लें तथा ५ सेर उपलों की आग देवें । शीतल होने पर निकाल लेवें । मात्रा १ रत्ती मक्खन वा मलाई में खिलायें । इसके सेवन से प्रमेह धातु रोग निर्बलता दूर होगी । शक्ति आयेगी ।


२. शुद्ध शीशा अग्नि पर चढ़ाकर गंधक की चुटकी देवें और बड़ की लकड़ी से चलायें । भस्म होने पर इसमें बड़ के पत्तों के रस की भावना देवें तथा फिर कपरोटी करके गजपुट की आग देवें । इस प्रकार कई भावनायें देने से यह भस्म अर्श (बवासीर) के लिए अच्छी सिद्ध होगी । मात्रा दो रत्ती मक्खन वा मलाई से रोगी को खिलायें । रक्तार्श वा खूनी बवासीर के लिए अच्छी औषध है । इसी प्रकार अनेक भस्में तथा औषध वट वृक्ष के द्वारा बनाई जा सकती हैं ।


जितनी औषध इस पुस्तक में लिखी हैं, उनसे पाठक लाभ उठायेंगे तो मैं अपना परिश्रम सफल समझूंगा । इसमें जो कुछ लिखा गया वह सब साक्षात्कृधर्मा ऋषियों की कृपा है, इससे लाभ उठायें ।


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Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल


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