Palasi
Author:Laxman Burdak, IFS (R) |
Palashi (पलासी) is a village on the Hooghly River river, located approximately 50 kms north of the city of Krishnanagar in Kaliganj CD Block in the Nadia District of West Bengal, India.
Variants
Origin
The name Palasi is derived from the Palasa tree (Butea frondosa or Butea monosperma). The British East India Company referred to it as Plassey.
Location
Palashi is located in the Nadia District of West Bengal, India at 23.80°N 88.25°E. It has an average elevation of 17 m (56 ft).
History
It is particularly well known due to the Battle of Plassey fought there in June 1757, between the private army of the British East India Company and the army of the king of Bengal, Nawab Siraj Ud Daulah.[1]
Palashi achieved historical significance when, on 23 June 1757, the Battle of Plassey was fought between the forces of Siraj Ud Daulah, the last reigning Nawab of Bengal (and his French support troops), and the troops of the British East India Company, led by Robert Clive. This event, part of the Seven Years' War, ultimately led to the establishment of British rule in Bengal and, eventually, the whole Indian subcontinent. During British rule Plassey became part of Nadia District of Bengal.[2]
पलासी
विजयेन्द्र कुमार माथुर[3] ने लेख किया है ...पलासी (AS, p.535) का प्रसिद्ध युद्ध 1757 में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला तथा ईस्ट इंडिया कंपनी की सेनाओं के बीच हुआ था जिसमें क्लाइव की कूटनीति के कारण अंग्रेजों की विजय हुई. पलासी के युद्ध के परिणाम स्वरुप अंग्रेजों का प्रभुत्व बंगाल में स्थापित हो गया. इस युद्ध से अंग्रेजों को भारतीय राज्यों के दुर्बल सैनिक संगठन का पता चल गया. कहा जाता है कि पलाश अथवा ढाक के वृक्षों की बहुतायत होने से ही इस गांव को पलासी कहा जाता था. यह भागीरथी (गंगा) के वाम तट पर बसा है.
पलासी का युद्ध
प्लासी का युद्ध 23 जून, 1757 ई. को लड़ा गया था। अंग्रेज़ और बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की सेनायें 23 जून, 1757 को मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील दूर 'नदिया ज़िले' में भागीरथी नदी के किनारे 'प्लासी' नामक गाँव में आमने-सामने आ गईं। सिराजुद्दौला की सेना में जहाँ एक ओर 'मीरमदान', 'मोहनलाल' जैसे देशभक्त थे, वहीं दूसरी ओर मीरजाफ़र जैसे कुत्सित विचारों वाले धोखेबाज़ भी थे। युद्ध 23 जून को प्रातः 9 बजे प्रारम्भ हुआ। मीरजाफ़र एवं रायदुर्लभ अपनी सेनाओं के साथ निष्क्रिय रहे। इस युद्ध में मीरमदान मारा गया। युद्ध का परिणाम शायद नियति ने पहले से ही तय कर रखा था। रॉबर्ट क्लाइव बिना युद्ध किये ही विजयी रहा। फलस्वरूप मीरजाफ़र को बंगाल का नवाब बनाया गया। के.एम.पणिक्कर के अनुसार, 'यह एक सौदा था, जिसमें बंगाल के धनी सेठों तथा मीरजाफ़र ने नवाब को अंग्रेज़ों के हाथों बेच डाला'।
बंगाल पर अंग्रेज़ों का अधिकार: यद्यपि प्लासी का युद्ध एक छोटी-सी सैनिक झड़प थी, लेकिन इससे भारतीयों की चारित्रिक दुर्बलता उभरकर सामने आ गई। भारत के इतिहास में इस युद्ध का महत्व इसके पश्चात् होने वाली घटनाओं के कारण है। निःसन्देह भारत में प्लासी के युद्ध के बाद दासता के उस काल की शुरुआत हुई, जिसमें इसका आर्थिक एवं नैतिक शोषण अधिक हुआ। राजनीतिक रूप से भी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थिति मज़बूत हुई। बंगाल अंग्रेज़ों के अधीन हो गया और फिर कभी स्वतंत्र न हो सका। नया नवाब मीरजाफ़र अपनी रक्षा तथा पद के लिए अंग्रेज़ों पर निर्भर था। उसकी असमर्थता यहाँ तक थी, कि उसे दीवान रायदुर्लभ तथा राम नारायण को उनके विश्वासघात के लिए दण्ड देने से भी अंग्रेज़ों ने मना कर दिया। प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल में 'ल्यूक स्क्राफ़्ट्रन' को नवाब के दरबार में अंग्रेज़ रेजिडेंट नियुक्त किया गया।
क्लाइब की धन पिपासा: मीरजाफ़र रोबर्ट क्लाइव की कठपुतली के रूप में जब तक अंग्रेज़ों की महत्वाकांक्षा को पूरा कर सकने में समर्थ था, तब तक पद पर बना रहा। उसकी दयनीय स्थिति पर मुर्शिदाबाद के एक दरबारी ने इसे कर्नल क्लाइव का गीदड़ की उपाधि दी थी। स्वयं को बंगाल का नवाब बनाये जाने के उपलक्ष्य में उसने अंग्रेज़ों को उनकी सेवाओं के लिए 24 परगनों की ज़मींदारी से पुरस्कृत किया और क्लाइव को 234,000 पाउंड की निजी भेंट दी। साथ ही 150 लाख रुपये, सेना तथा नाविकों को पुरस्कार स्वरूप दिये गये। बंगाल की समस्त फ़्राँसीसी बस्तियाँ अंग्रेज़ों को दे दी गयीं और यह निश्चित हुआ, कि भविष्य में अंग्रेज़ पदाधिकारियों तथा व्यापारियों को निजी व्यापार पर कोई चुंगी नहीं देनी होगी। इतना सब कुछ लुटाने के बावजूद भी मीरजाफ़र क्लाइव की बढ़ती धनलिप्सा की पिपासा को शान्त नहीं कर सका, जिसके परिणामस्वरूप 1760 ई. में उसे पदच्युत कर उसके जमाता 'मीर कासिम' को बंगाल का नवाब बनाया गया।
अंग्रेज़ों व मीर कासिम के मध्य सन्धि: भारतीय इतिहास में इस वर्ष को 'शांतिपूर्ण क्रांति का वर्ष' कहा जाता है। 27 सितम्बर, 1760 को अंग्रेज़ों एवं मीर कासिम के मध्य एक संधि हुई, जिसके आधार पर मीर कासिम ने कम्पनी को बर्दवान, मिदनापुर तथा चटगांव के ज़िले देने की बात मान ली और इसके साथ ही दक्षिण के सैन्य अभियान में कम्पनी को 5 लाख रुपये देने की की बात कही। सन्धि की अन्य शर्ते निम्नलिखित थीं-
- मीर कासिम ने सिल्हट के चूने के व्यापार में कम्पनी के आधे भाग को स्वीकार किया। मीर कासिम ने कम्पनी के मित्र अथवा शत्रु को अपना मित्र अथवा शत्रु मानना स्वीकार किया। दोनों पक्षों ने एक दूसरे के आसामियों को अपने-अपने प्रदेशों में बसने की छूट दी। कम्पनी नवाब के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी।
मीर कासिम के प्रयत्न: अलीवर्दी ख़ाँ के बाद बंगाल के नवाब के पद पर कार्य करने वालों में मीर कासिम सर्वाधिक योग्य था। उसने अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से मुंगेर स्थानान्तरित की, क्योंकि वह मुर्शिदाबाद के षडयंत्रमय वातावरण से स्वयं को दूर रखना चाहता था। उसने अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से गठित करने के लिए मुंगेर में तोड़ेदार बंदूक़ों एवं तोपों के कारखानों की स्थापना की तथा सैनिकों की संख्या में वृद्धि की। इसने अपनी सेना को गुर्गिन ख़ाँ नामक आर्मेनियाई के नियंत्रण में रखा। मीर कासिम ने अपने ख़िलाफ़ षडयंत्र कर रहे बिहार के उप-सूबेदार राम नारायण, जिसे अंग्रेज़ों का समर्थन प्राप्त था, को सेवा से हटाकर मरवा दिया। उसने एक और कर 'खिजरी जमा', जो अभी तक अधिकारियों द्वारा छुपाया जाता रहा था, भी प्राप्त किया। मीर कासिम को राज्य की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए प्रयत्नशील देखकर अंग्रेज़ अधिकारी बौखलाये, क्योंकि उन्हें यह बर्दाश्त नहीं था, कि बंगाल में ऐसा कोई व्यक्ति शासन करे, जो उनके आर्थिक हितों को हानि पहुँचाता हो।
बक्सर का युद्ध: मीर कासिम ने देखा कि अंग्रेज़ 'गुमाश्ते दश्तक' (बिना चुंगी के व्यापार का अधिकार पत्र) का दुरुपयोग कर रहे हैं, और चुंगी देने की व्यवस्था का उल्लंघन कर रहे हैं। अंग्रेज़ों ने दस्तक का धन लेकर भारतीय व्यापारियों को भेजना प्रारम्भ कर दिया था, जिसका परिणाम यह हुआ, कि जो धन चुंगी के रूप में नवाब को मिलता था, वह भी समाप्त होने लगा। अन्ततः मीर कासिम ने व्यापार पर से सभी आन्तरिक कर हटा लिए, जिससे भारतीय व्यापारियों की स्थिति अंग्रेज़ व्यापारियों की तरह ही हो गई। मीर कासिम के इस निर्णय से अंग्रेज़ अधिकारी स्तब्ध रह गये। सम्भवतः उसका यही निर्णय कालान्तर में बक्सर के युद्ध का कारण बना। बक्सर के युद्ध से पहले मीर कासिम अंग्रेज़ों से निम्नलिखित युद्धों में पराजित हुआ-
गिरिया का युद्ध - 4 सितम्बर अथवा 5 सितम्बर, 1762 ई.
करवा का युद्ध - 9 जुलाई, 1763 ई.
उद्यौनला का युद्ध - 1763 ई.
संदर्भ: भरतकोष-प्लासी युद्ध
External links
References
- ↑ Robins, Nick. "This Imperious Company – The East India Company and the Modern Multinational – Nick Robins – Gresham College Lectures". Gresham College Lectures. Gresham College
- ↑ Plassey – Imperial Gazetteer of India, v. 20, p. 156.
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.535