Churu Jile Men Prachin Jat Ganarajyon Ka Itihas

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चूरु जिले में प्राचीन जाट गण राज्यों का इतिहास
                                  लेखक – लक्ष्मणराम बुरड़क, सेवा निवृत IFS 

सन्तुलित इतिहास की आवश्यकता - इतिहास देश और जातियों के उत्थान और पतन का दर्पण है।समाज के निर्माण, उत्थान और विकास में इतिहास की अहम् भूमिका होती है। ऐतिहासिक तथ्यों की खोज अत्यंत दुसाध्य और खर्चीला कार्य है और यह कार्य उन परिस्थितियों में और भी दुष्कर हो जाता है जबकि विभिन्न कालों से संबन्धित जानकारी उपलब्ध न हो तथा जैसी कि जाट परंपरा रही है, ऐतिहासिक जानकारी अभिलेखित नहीं की गई हो। जब कोई समुदाय नेता विहीन होता है तो इतिहास ही राह दिखाता है और आगे बढने की प्रेरणा देता है। दुर्भाग्य से अब तक इस कौम के इतिहास को सही ढंग से उजागर नहीं किया गया। समाज का मनोबल ऊंचा करने के लिये हर समाज का तथ्यपरक सन्तुलित इतिहास का होना और इसकी जानकारी समाज को होना आवश्यक है। मुगलों के लगातार आक्रमण और लम्बे समय तक राज करने से भारतीय इतिहास में असन्तुलन पैदा हो गया। समाज वैज्ञानिक कहते हैं कि किसी कौम को समाप्त करना है तो उसके इतिहास को लुप्त करादो। वह कौम स्वयं ही समाप्त हो जायेगी।

जाट इतिहास का संकलन - समय की मांग है कि अब जाट इतिहास संकलित किया जावे। जाट कीर्ति संस्थान चूरु द्वारा चूरू अंचल के जाट इतिहास का लेखन कार्य हाथ में लिया गया है। यह एक सराहनीय कार्य है। प्रस्तुत लेख में मेरे द्वारा जाटलैंड वेबसाईट (www.jatland.com) पर विभिन्न स्रोतों से संकलित चूरु जिले से संबन्धित स्थानों और गोत्रों के इतिहास पर आधारित विवरण दिया जा रहा है। लेख के अंत में संदर्भ सूची दी गई है परंतु यदि पाठक विस्तृत संदर्भ देखना चाहते हों तो जाटलैंड वेबसाईट पर जाकर उस गांव या गोत्र के विवरण में देख सकते हैं। चूरु जिले में स्थापित प्राचीन जाट गण राज्य - प्रस्तुत लेख में चूरु जिले में स्थापित प्राचीन जाट गण राज्यों का इतिहास दिया जा रहा है। राजस्थान के प्राचीन जाट गण राज्य गोत्र के रूप में संगठित थे। इन्हीं की प्रतिरूप हरयाणा और पश्चिम उत्तरप्रदेश में खाप व्यवस्था थी। चूरु जिले का अधिकांश भाग यहाँ राठोड़ों के आगमन से पूर्व प्राचीन जांगलप्रदेश का हिस्सा था। चूरू जिले का प्राचीन हरयाणा का भाग होने का भी उल्लेख इतिहासकारों द्वारा किया गया है। उल्लेखनीय है कि भगवान हर (शिव) के मैदानी क्षेत्रों में आगमन के समय प्राचीन हरयाणा का गठन हुआ था। तत्समय राजस्थान का उत्तर-पूर्वी भाग (गंगानगर, हनुमानगढ़, झुंझनुं एवं चूरू) प्राचीन हरयाणा में सम्मिलित था।

ददरेवा के बुरड़क - चुरू जिले की राजगढ़ तहसील में ददरेवा स्थित है। इसका प्राचीन संस्कृत नाम दरिद्रेरक है। बुरड़क गोत्र के बडवा श्री भवानीसिंह राव की बही के अभिलेखों में ददरेवा का सम्बन्ध बुरड़क गोत्र के इतिहास से है। बुरड़क गोत्र के चौहान संघ की शाखा होने के कारण जाट इतिहासकारों द्वारा इसका संज्ञान नहीं लिया गया। अजमेर के चौहान वंश में राजा रतनसेण के बिरमराव पुत्र हुए । बिरमराव ने अजमेर से ददरेवा आकर राज किया । संवत 1078 (1021 ई.) में किला बनाया । इनके अधीन 384 गाँव थे । बिरमराव की शादी वीरभाण की बेटी जसमादेवी गढ़वाल के साथ हुई । इनसे तीन पुत्र उत्पन्न हुए:

1. सांवतसी - सांवतसी के पुत्र मेलसी, उनके पुत्र राजा घंघ, उनके पुत्र इंदरचंद तथा उनके पुत्र हरकरण हुए । इनके पुत्र हर्ष तथा पुत्री जीण उत्पन्न हुयी। जीणमाता कुल देवी संवत 990 (933 ई.) में प्रकट हुयी ।
2. सबलसी - सबलसिंह के बेटे आलणसी और बालणसी हुए। सबलसी ने जैतारण का किला संवत 938 (881 ई.) में आसोज बदी 10 को फ़तेह किया । इनके अधीन 240 गाँव थे। बालणसी साँभर से उठकर आये और माघ सुदी बसंत पंचमी के दिन संवत 821 (765 ई.) को चूरु के पश्चिम में बालरासर गाँव बसाया। संवत 825 (768 ई.) में बालरासर से उठकर चौधरी मालसी बुरड़क ने चैत सुदी राम-नवमी के दिन कारी गाँव बसाया।
3. अचलसी – जानकारी उपलब्ध नहीं।

सबलसी के बेटे आलणसी के पुत्र राव बुरड़कदेव, बाग़देव तथा बिरमदेव पैदा हुए । आलणसी ने संवत 979 (922 ई.) में मथुरा में मंदिर बनाया तथा सोने का छत्र चढ़ाया । ददरेवा के राव बुरड़कदेव के तीन बेटे समुद्रपाल, दरपाल तथा विजयपाल हुए। राव बुरड़कदेव (b. - d.1000 ई.) महमूद गजनवी के आक्रमणों के विरुद्ध राजा जयपाल की मदद के लिए लाहोर गए। वहां लड़ाई में संवत 1057 (1000 ई.) को वे जुझार हुए। इनकी पत्नी तेजल शेकवाल ददरेवा में तालाब के पाल पर संवत 1058 (1001 ई.) में सती हुई । राव बुरडकदेव से बुरड़क गोत्र प्रसिद्ध हुआ। राव बुरड़कदेव के बड़े पुत्र समुद्रपाल के 2 पुत्र नरपाल एवं कुसुमपाल हुए। समुद्रपाल राजा जयपाल के पुत्र आनंदपाल की मदद के लिए 'वैहिंद' (पेशावर के निकट) गए और वहां पर जुझार हुए । संवत 1067 (1010 ई.) में इनकी पत्नी पुनयानी साँभर में सती हुई । समुद्रपाल नाम से संकेत मिलता है कि संभवत: किसी समुद्र किनारे के गण-राज्य के प्रभार में रहे होंगे।

बालणसी बुरड़क द्वारा बालरासर बसाना - चौहान शासन संघ में बुरड़क गोत्र के बड़वा की बही के अनुसार चौधरी बालणसी बुरड़क सांभर से उठकर आये और माघ सुदी बसंत पंचमी के दिन संवत 821 (765 ई.) को बालरासर गाँव बसाया। 85 हाथ गहरा पूणी पांच हाथ चौड़ा पक्का कुवा चिनवाया। इसकी गूण अगुणी (पूर्व) दिशा में रखी। गाँव से उत्तर दिशा में बालाणु नाम से जोहड़ खुदवाया। इसके नीचे सवा पांच सौ बीघा जमीन छोड़ी। शिव बद्रीनारायण का मंदिर बनवाया। उल्लेखनीय है कि उस समय ‘सिंह’ उपनाम का प्रचलन नहीं था बल्कि शिव/बुद्ध के उपासक अपने नाम के आगे ‘सी’ का प्रयोग करते थे। संवत 825 (768 ई.) में बालरासर से उठकर चौधरी मालसी बुरड़क ने चैत सुदी राम-नवमी के दिन झुंझुनू जिले में कारी गाँव बसाया। गाँव में 90 हाथ गहरा पूणी पांच हाथ चौड़ा पक्का कुवा और पनघट कराया। चार मरवे बनाये और इसकी गूण उत्तर दिशा में रखी। गोपीनाथजी का मंदिर बनवाया. ब्राह्मण धनराज ने पूजा की। 51 बीघा जमीन मंदिर के लिए दी। कारंगा गाँव से आथुनी सवा दो सौ बीघा जमीन बीरभाण चौहान के समय छोड़ी। संवत 835 (778 ई.) में कारी गाँव हांसी के राव राजा बीरभाण चुहान के अधीन था।

बुरड़क राजधानी सरणाऊ कोट की स्थापना: चौधरी मालूराम बुरड़क, धरणी जाखड़, कंवर आलणसी बुरड़क और वीरभाण ने कारी गांव से आकर वर्तमान सीकर जिले के हर्ष-पर्वत के समीप बुरड़क राजधानी सरणाऊ कोट की बसावट करी और सरणाऊ में गढ़-किला की स्थापना करी। गढ़ की नींव लगवाई, अगुणा दरवाजा रखा, गढ़ में जनाना और मरदाना महल बनाये, गढ़ में बारा-दरी बैठक बनायी। गढ और गांव का चौतरफा परकोटा बनाया। आगे अलग दरवाजा बनाया। चारों तरफ़ खाई और खाई के चारों तरफ़ धूल-कोट बनाया।

संवत 1032 (975 ई.) में दिल्ली के राजा महीपाल तंवर से 84 गांव ईजारे पर लिये और हुकुम तासीर प्राप्त की। 6 महिने का दीवानी और फौजदारी अधिकार प्राप्त किया। काठ, कोरडा, घोडी, नगर, निशान एवं जागीरदारी के पूरे अधिकार प्राप्त हुए। गाँव में हालूराम जी बुरड़क के नाम पर हालानी बावड़ी बनाई। जीणमाता के नाम पर 104 पेड़ी की बावड़ी बनाई और बाग लगाया। गढ की गोलाई 1515 गज करायी। शिवबद्री केदारनाथ, आशापुरी माता तथा हनुमान के तीन मन्दिर बनाये। पूजा ब्राह्मण रूघराज ने की। मंदिर खर्च के लिए 152 बीघा जमीन डोली छोड़ी। अमावास, ग्यारस और पूनम का पक्का पेटिया बांधा। यह यह काम पौष बदी 7 संवत 1033 (977 ई.) में किया। बुरड़कों की राजधानी सरनाऊ संवत 1032 से संवत 1315 (975 - 1258 ई.) तक रही। सरनाउ-कोट का पतन और बुरड़क गोत्र का गोठड़ा तगालान जिला सीकर से पुनरुत्थान चूरु जिले से असंबंध होने से यहाँ नहीं दिया जा रहा है। सरनाऊ वर्तमान में उजाड़ है और दाताराम गढ़ तहसील जिला सीकर में हर्ष पर्वत के निकट स्थित है। बुरडक गोत्र के इतिहास का पूरा विवरण जाट समाज पत्रिका, आगरा के अप्रेल 2011 अंक में पृष्ठ 22-24 पर तथा मई 2011 अंक में पृष्ठ 23-26 पर दो भाग में छपा है।

भुखरेड़ी के भूकर – चूरु जिले में स्थित भुखरेड़ी गाँव का संबंध भूखर गोत्र के इतिहास से है। ठाकुर देशराज के अनुसार आरम्भ में यह साँभर के निकट आबाद थे। इनके राज्य की शैली भोमिया चोर की थी, किन्तु आगे चलकर अन्य लोगों से यह जमीन का कर लेने लग गए। इससे इनका नाम भूमि-कर लेने से भूकर हुआ।चाहुमान के वंशजों का एक दल नवीं शताब्दी में जब साँभर की ओर आया तो इन्हें नये धर्म में दीक्षित चौहनों ने वहां से निकल जाने पर बाध्य कर दिया। कहा जाता है, भूकर और चौहान उस समय तक एक ही थे जब तक कि चौहान लोग आबू के यज्ञ में जाकर नवीन हिन्दू धर्म में दीक्षित न हुए थे। भाट लोगों के हस्त-लिखित ग्रन्थों में लिखा हुआ है कि खेमसिंह और सोमसिंह दो भाई थे। इन्ही की अध्यक्षता में भूकर लोगों ने सांभर प्रदेश को प्रस्थान कर दिया।हिरास नामक स्थान बसाकर खेमसिंह के साथी अपना प्रभाव बढ़ाने लगे। सोमसिंह ने जंगलदेश में पहुंचकर भूकर नाम से नगर भुखरेड़ी बसाया। कई पीढ़ियों के बाद इनमें से कुछ लोग पानीपत की ओर चले गए और कुछ सीकर जिले के गाँव गोठड़ा भुखरान चले गए। गोठड़ा भुखरान के चौधरी रामबक्ष उसी खानदान में से थे। चौधरी रामबक्स एवं उनके पुत्र पृथ्वी सिंह ने शेखावाटी किसान आंदोलन में महती भूमिका अदा की।

सिद्धमुख के कसवां - कसवां जाटों के भाटों तथा उनके पुरोहित दाहिमा ब्रह्मण की बही से ज्ञात होता है कि पड़िहार शासन संघ से कंसुपाल 5000 फौज के साथ मंडोर छोड़कर पहले तालछापर पर आए, जहाँ मोहिलों का राज था। कंसुपाल ने मोहिलों को हराकर छापर पर अधिकर कर लिया। इसके बाद वह आसोज बदी 4 संवत 1125 मंगलवार (19 अगस्त 1068) को सीधमुख आया। वहां रणजीत जोहिया राज करता था जिसके अधिकार में 125 गाँव थे। लड़ाई हुई जिसमें 125 जोहिया तथा कंसुपाल के 70 लोग मारे गए। इस लड़ाई में कंसुपाल विजयी हुए। सीधमुख पर कंसुपाल का अधिकार हो गया और वहां पर भी अपने थाने स्थापित किए। सीधमुख विजय के बाद कंसुपाल सात्यूं (चुरू से 12 कोस उत्तर-पूर्व) आया, जहाँ चौहानों के सात भाई (सातू, सूरजमल, भोमानी, नरसी, तेजसी, कीरतसी और प्रतापसी) राज करते थे। कंसुपाल ने यहाँ उनसे लड़ाई की जिसमें सातों चौहान भाई मारे गए। चौहान भाइयों की सात स्त्रियाँ- भटियाणी, नौरंगदे, पंवार तथा हीरू आदि सती हुई। कंसुपाल से होने वाली संतान कसवां गोत्र में प्रसिद्ध हुई । फाल्गुन सुदी 2 शनिवार, संवत 1150 ( 18 फरवरी, 1049) के दिन कंसुपाल का सात्यूं पर कब्जा हो गया। फ़िर सात्यूं से कसवां लोग समय-समय पर आस-पास के भिन्न-भिन्न स्थानों पर फ़ैल गए और उनके अपने-अपने ठिकाने स्थापित किए।

ज्ञानाराम ब्राह्मण की बही के अनुसार कंसुपाल के बाद क्रमशः कोहला, घणसूर, महसूर, मला, थिरमल, देवसी, जयसी और गोवल सीधमुख के शासक हुए। कोहला नामक कसवा जाट सरदार ने संभवत: कोलहासर अथवा कोलासर बसाया जो वर्तमान रतनगढ़ का पुराना नाम है।वर्ष 1803 में राठोड़ शासक राजा सूरतसिंह के पुत्र कुँवर रतनसिंह के नाम पर कोलासर का नाम रतनगढ़ किया गया।

गोवल कसवा के 9 लडके थे - चोखा, जगा, मलक, महन, ऊहड, रणसी, भोजा और मंगल। इन्होने अलग अलग ठिकाने कायम किए जो इनके थाम्बे कहे जाते थे। चोखा के अधिकार में 12 गाँव थे जिनमे से एक था: दूधवा। भाटों की बही के अनुसार कंसुपाल के एक वंशज चोखा ने संवत 1485 माघ बदी 9 शुक्रवार (31 दिसम्बर 1428) को दूधवाखारा पर अधिकार कर लिया। शेरे बीकानेर चौधरी हनुमान सिंह बुडानिया दूधवा खारा के वरिष्ठ स्वतन्त्रता सेनानी रहे हैं। इन्हें पूर्व प्रधान मंत्री स्व. इंदिरा गाँधी एवं राष्ट्रपति वी.वी. गिरी द्वारा स्वतंत्रता की 25 वीं रजत जयंती पर लाल किले के दीवाने हाल में ताम्र-पत्र भेंट कर सम्मानित किया गया था।

विक्रम की 16 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अन्य जाट राज्यों के साथ कसवां जाटों के राज्य को भी राठोडों ने अधिकृत कर लिया। यद्यपि मूल रूप में कसवां जाटों के प्रमुख सीधमुख के कंवरपाल ने राठोडों की अधीनता ढाका युद्ध 1488 ई. के बाद ही स्वीकार कर ली थी, लेकिन हो सकता है कि बाकी कस्बों के स्थानीय ठिकानों पर छोटे-मोटे भूस्वामी काबिज बने रहे हों, जिन्हें हराकर राठोडों ने शनैः शनैः उन सब ठिकानों पर अधिकार कर लिया।

सिद्धमुख और कांजण के चाहर - संवत 1324 विक्रम (1268 ई.) में कंवराराम चाहर व कानजी चाहर ने नसीरुद्दीन शाह के वारिस बादशाह गियासुद्दीन बलवन (1266 -1287) को पांच हजार चांदी के सिक्के एवं घोड़ी नजराने में दी। बादशाह बलवान ने खुश होकर कांजण (चूरु जिले में राजगढ़ के पास) का राज्य दिया। 1266 -1287 ई तक गयासुदीन बलवान ने राज्य किया। सिद्धमुख एवं कांजण दोनों जांगलप्रदेश में चाहर राज्य थे। राजा मालदेव चाहर उनके राजा थे। जांगलप्रदेश के सात पट्टीदार लम्बरदारों (80 गाँवों की एक पट्टी होती थी) से पूरा लगान न उगा पाने के कारण दिल्ली का बादशाह खिज्रखां मुबारिक (सैयद वंश) नाराज हो गए। उसने उन सातों चौधरियों को पकड़ने के लिए सेनापति बाजखां पठान के नेतृतव में सेना भेजी। खिज्रखां सैयद का शासन 1414 ई से 1421 ई तक था। बाजखां पठान इन सात चौधरियों को गिरफ्तार कर दिल्ली लेजा रहा था। यह लश्कर कांजण से गुजरा। अपनी रानी के कहने पर राजा मालदेव ने सेनापति बाजखां पठान को इन चौधरियों को छोड़ने के लिए कहा, किन्तु वह नहीं माना। आखिर में युद्ध हुआ जिसमें मुग़ल सेना मारी गयी। इस घटना से यह कहावत प्रचलित है कि -

माला तुर्क पछाड़याँ दे दोख्याँ सर दोट ।
सात जात (गोत) के चौधरी, बसे चाहर की ओट ।

ये सात चौधरी सऊ, सहारण, गोदारा, बेनीवाल, पूनीया, सिहाग और कसवां गोत्र के थे।

विक्रम संवत 1473 (1416 ई.) में स्वयं बादशाह खिज्रखां मुबारिक सैयद एक विशाल सेना लेकर राजा माल देव चाहर को सबक सिखाने आया। एक तरफ सिद्धमुख एवं कांजण की छोटी सेना थी तो दूसरी तरफ दिल्ली बादशाह की विशाल सेना। राजा मालदेव चाहर की अत्यंत रूपवती कन्या सोमदेवी थी। कहते हैं कि आपस में लड़ते सांडों को वह सींगों से पकड़कर अलग कर देती थी। बादशाह ने संधि प्रस्ताव के रूप में युद्ध का हर्जाना और विजय के प्रतीक रूप में सोमदेवी का डोला माँगा। स्वाभिमानी राजा मालदेव चाहर ने धर्म-पथ पर बलिदान होना श्रेयष्कर समझा। चाहरों एवं खिजरखां सैयद में युद्ध हुआ। इस युद्ध में सोमादेवी भी पुरुष वेश में लड़ी। युद्ध में दोनों पिता-पुत्री एवं अधिकांश चाहर मारे गए।

गाजसर एवं सहजूसर के डूडी - चूरू के उत्तर की तरफ पास में ही गाजसर नामक गाँव बसा हुआ है। यह गाँव भालेरी - चूरू सड़क मार्ग पर बसा है। इसको डूडी जाटों ने बसाया था। इसके संस्थापक गजा डूडी थे। इनके नाम से गाँव का नाम गाजसर पड़ा। गजा और सहजा दो भाई थे। सहजा ने सहजूसर गाँव बसाया। गजा डूडी के एक लड़की थी, जिसका नाम आभलदे था। एक दिन सुबह के समय आभलदे कुएं से सर पर दोघड़ लेकर आ रही थी। रास्ते में एक सांड और झोटा लड़ रहे थे। तभी एक बारात उधर से आई। वह बारात सांड और झोटा की लड़ाई देखकर रुक गयी। आभलदे ने सर पर रखे दोघड़ सहित ही सांड और झोटे को अलग कर दिया। इस पर बारातियों ने कहा - इस युवती से पैदा होने वाला बच्चा अवश्य वीर होगा। आभलदे की शादी मंगल सारण शायद भाडंग (तारानगर) गाँव में हुई थी। गाजसर गाँव के सात बास थे। यहाँ एक बड़ा गढ़ बताते हैं जो अब नष्ट हो गया है। यह गाँव चूरू से पहले का बसा हुआ है। यह लगभग 625 विक्रम संवत (568 ई.) पूर्व का है। इस तिथि के संबंध में गहन अनुसंधान की आवश्यकता है। बडवा के अनुसार डूडीयों का निकास गाजसर से होना बताया है।

बीदासर के मोठसरा - मोठसरा गोत्र के बड़वा के अनुसार किसी समय में सुजानगढ़ तहसील के गाँव बीदासर में मोठसरा जाटों की पट्टी थी। बीदावतों के साथ प्रारम्भिक युद्ध में उनको हरा दिया था परंतु राठोड़ शक्ति बढने पर मोठसरा जाटों को यहाँ से भालेरी के लिए पलायन करना पड़ा। बाद में वहाँ से नहराना (भादरा तहसील) चले गए जहां अब भी वे निवासरत हैं। भाड़ंग एवं पूलासर के सारण - राठोड़ों के आगमन से पहले सारण जाटों की राजधानी तरानगर तहसील का गाँव भाड़ंग थी। खेजड़ा, फोग , बुचावास , सूई , बदनु , सिरसला आदि इस राज्य में जिलों के नाम थे। चूरू जनपद के जाट इतिहास पर दौलतराम सारण डालमाण ने अनुसन्धान किया है। पृथ्वीराज चौहान के बाद अर्थात चौहान शक्ति के पतन के बाद भाड़ंग पर किसी समय सारण जाटों का आधिपत्य स्थापित हो गया था जो 16 वीं शताब्दी में राठोडों के इस भू-भाग में आने तक बना रहा। पहले यहाँ सोहुआ जाटों का अधिकार था और बाद में सारण जाटों ने छीन लिया। जब 16 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में राठोड़ इस एरिया में आए, उस समय पूला सारण यहाँ का शासक था और उसके अधीन 360 गाँव थे। पूला सारण ने अपने नाम पर पूलासर (तहसील सरदारशहर) बसाया था जिसे बाद में सारण जाटों के पुरोहित पारीक ब्राह्मणों को दे दिया गया। पूला की पत्नी का नाम मलकी था, जिसको लेकर बाद में गोदारा व सारणों के बीच युद्ध हुआ। मलकी के नाम पर ही बीकानेर जिले की लूणकरणसर तहसील में मलकीसर गाँव बसाया गया था। सारणों में जबरा और जोखा बड़े बहादुर थे। उनकी कई सौ घोड़ों पर जीन पड़ती थी। उन्हीं के नाम पर जबरासर और जोखासर गाँव अब भी आबाद हैं, मन्धरापुरा में मित्रता के बहाने राठोडों द्वारा उन्हें बुलाकर भोज दिया गया और उस स्थान पर बैठाने गए जहाँ पर जमीन में पहले से बारूद दबा रखी थी। उनके बैठ जाने पर बारूद आग लगवा कर उन्हें उड़ा दिया गया।

लूद्दी (वर्तमान राजगढ़) के पूनिया - लूद्दी चुरू से 38 मील उत्तर-पूर्व में और सीधमुख से 16 मील दक्षिण-पूर्व में राजगढ़ कसबे के पास है। यह पूनिया जाटों की राजधानी थी। किसी समय लूद्दी स्मृद्ध कस्बा रहा होगा, लेकिन अब यह अति साधारण गाँव है। पूनियों के अधीन 360 गाँव थे। ठाकुर देशराज ने लिखा है कि पूनिया जांगल देश में ईसा के प्रारम्भिक काल में पहुँच गए थे। उन्होने इस भूमि पर 16 वीं सदी के पूर्वार्ध तक राज किया। रठोड़ों के आगमन के समय इनका राजा कान्हादेव था। कान्हा बड़ा स्वाभिमानी योद्धा था। उसने राव बीका की अधीनता स्वीकार नहीं की। अंत में राठोडों ने उसके दमन के लिए उनके एरिया में गढ़ बनाना प्रारंभ किया। दिन में राठोड़ गढ़ बनाते थे और पूनिया जाट रात को आकर गढ़ ढहा देते थे। कहा जाता है कि राजगढ़ के बुर्जों में कुछ पूनिया जाटों को चुन दिया गया था। बड़े संघर्ष के बाद ही पूनियों को हराया जा सका था। पूनियों ने राठोड नरेश रामसिंह को मारकर बदला चुकाया।

मालासी के दहिया - सुजानगढ़ तहसील के मालासी गाँव को मालाराम दहिया जाट ने बसाया था । माला राम ने यहाँ एक कुँआ बनाया । माला राम दहिया के वंशज आज भी इस गाँव में काफी संख्या में बसते हैं । कहते हैं कि दहिया जाट की पुत्री को लेने जवाई आया । जवाई का नाम रिक्ता राम था । रिक्ता राम हंसमुख और मिलन सार नौजवान थे । ससुराल में शाम को औरतें कुकड़ला गीत गाने लगीं । सालियों और सालों को मजाक सूझी । वे रिक्ता राम को कुंवे पर ले गए और कुवें में उलटा लटका दिया । मजाक में जीजा रिक्ता राम के हाथ छूट गए और रिक्ता राम कुए में जा गिरा । उसके प्राण पखेरू उड़ गए । आस पास के गांवों के लोग इकट्ठे हुए और एक राय से फैसला किया कि जवाई रिक्ता राम प्रेम के प्रतीक के रूप में कुर्बान हुए अतः ये बाल बच्चों के देवता माने जायेंगे । तभी से उन्हें 'रिक्त्या भैरू' के रूप में पूजा जाता है । नवजात बच्चों का जडूला यहाँ इस गाँव के कुए पर चढाया जाता है । यहाँ हरयाणा, पंजाब, दिल्ली, आसाम, मध्य प्रदेश, गुजरात तक के श्रद्धालु आते हैं ।

पिचकराई ताल के सींवर - तेजू पीर के रूप में 1200 ई. सन के लगभग सींवर जाट गोत्र में लोकदेवता का अवतरण हुआ। वे अपनी शूरवीरता, शहादत तथा रूहानियत की बदोलत लोकदेवता तेजू पीर के रूप में प्रसिद्ध हुए। राजस्थान के चूरू जिले की सरदारशहर तहसील के पिचकराई गाँव के पातवाणा में इनके बलिदान स्थल पर वीर तेजूपीर का धाम है। यहाँ प्रतिवर्ष वैशाख सुदी 4 को मेले का आयोजन होता है। तेजू जी सूफी संत फरिदुदीन शक्करगंज (1173 -1265) के शिष्य होने के कारण तेजू पीर कहलाये।

तेजू जी की बहन अंचला अत्यंत रूपवती तथा बलशाली थी। लंगड़खां अंचला से शादी करना चाहता था। सींवरजनों ने बाई जी अंचला की शादी मान गोत्रीय जाट सूआराम जी से करदी। इस पर लंगड़खां ने सेना सहित खोजेर पर हमला कर दिया। तेजू जी ने सींवरजनों सहित सेना लेकर आन-बान की रक्षा हेतु डटकर घमासान युद्ध किया। सींवर सेना के पराक्रम से लंगड़खां की सेना भा गयी। लंगड़खां के सिपाहियों ने पीछे से छुपकर तेजूजी व रातूजी का शीश तलवार से काट दिया। इसके उपरांत भी दोनों भाइयों की धड़ें लगातार लड़ती रहीं और लंगड़खां की सेना का संहार करने लगी। तेजू जी व रातू जी का शीश जोहड़ घुराणा में गिरा। इनके धड़ लड़ते-लड़ते पांच कोस आ गए। इस घटना से लंगड़खां घबरा गया। उसने दोनों धड़ों को नील का छींटा दिया, तब वे शिथिल होकर गिरे। दोनों की धड़ें जोहड़ पातवाणा में गिरी। सींवरजनों ने लंगड़खां की सेना का पूरी तरह सफाया कर दिया। पातवाणा जोहड़ में राजा तेजू जी व रातू जी का अंतिम संस्कार उनके वंशजों ने किया। इस जगह धाम बना हुआ है। यहाँ प्रतिवर्ष वैशाख सुदी 4 को मेला भरता है। इनके अनुयायी इन्हें तेजू पीर व दादो जी महाराज के नाम से पूजते हैं।

ठठावता के भड़िया - रतनगढ़ तहसील के गाँव ठठावता के भड़िया गोत्र के अभिलेख बड़वा से प्राप्त नहीं हुये परंतु जनश्रुति के अनुसार गाँव ठठावता 12 वीं सदी के अंत में ठठा नाम के भड़िया गोत्री वीर जाट सरदार द्वारा बसाया गया था। गाँव के चारों ओर ठठा भड़िया ने भाई बहनों के नाम चारागाह जमीन छोड़ी गई जिनके नाम हैं – किसनाणु, गोगाणु, रामाणी, उकलाई, हिराणु आदि। वर्तमान में ठठावता में कोई भड़िया नहीं रहता है। भड़िया गोत्र के अभिलेख बड़वा से प्राप्त कर गहन अनुसंधान की आवश्यकता है। भड़िया गोत्री जाटों ने पश्चात में सीकर जिले के रोल और बांठोद गाँव भी बसाये।

चूरु शहर की स्थापना: कालेर एवं नैन जाटों द्वारा - इतिहासकार डॉ. पेमाराम के अनुसार चूरु की स्थापना कालेर जाटों द्वारा किए जाने का उल्लेख है तथा इसका प्राचीन नाम ‘कालेरा बास’ था। चूरू के शोधपूर्ण इतिहास में लेख है कि ठाकुर बाघ के ज्येष्ठ पुत्र बणीर थे, जिनका ठिकाना घांघू था। भाटियों का एक दल पशुओं को लेकर खारिया आया हुआ था। उनके एक लड़की विवाह योग्य थी। ठाकुर बणीर का खारिया में भाटियों की लड़की से विवाह हो गया। भाटी सरदार ने तत्कालीन परंपरा के अनुसार अपनी बेटी को ‘कालेरा बास’ के चौधरी सरदार के गोद बैठा दिया। कालांतर में भटियानी के चार पुत्र हुए। इनमे बड़े का नाम मालदेव था। ठाकुर बणीर के स्वर्गवास पश्चात ठाकुर मेघराजसिंह घांघू की गद्दी पर काबिज हो गया । अतः मालदेव की माँ अपने बच्चों को लेकर कालेरा बास के धर्म पिता चौधरी सरदार के पास आ गयी। चौधरी ने उनका लालन-पालन किया। एक दिन मालदेव ने नाना चौधरी को उनकी बिरादरी सहित भोज के लिए आमंत्रित किया। सबको खूब शराब पिलाई और जब जब होश खो बैठे तो मालदेव ने सब को क़त्ल कर चूरू पर कब्ज़ा कर लिया। यह घटना संवत 1598 (वर्ष 1541 ई.) की है।‘ कालेरा बास’ की जगह मालदेव ने चूरू नाम दे दिया। कालेरा बॉस का धूलकोट संभवत: नगर के पूर्वी भाग में 'डाकोतों के मोहल्ले' (प्राचीन कालेरा बास) में स्थित ऊँचे टीले पर था। वहां एक छोटा सा मंडप है जिसमें स्लेटी रंग की पत्थर की मूर्ती है, जिसे मोहल्ले वाले जाटों का भोमिया बतलाते हैं।

ठाकुर देशराज के अनुसार 'नैन’ शाखा अनंगपाल के एक वंशज नैनसी के नाम पर चली। कालांतर में ये लोग डूंगरगढ़ तथा रतनगढ़ तहसील में आकर आबाद हुए। इनमें श्रीपाल नामक व्यक्ति का जन्म संवत 1398 (1341 ई.) में हुआ, जिनके 12 लड़के हुए, जिनमें राजू ने लद्धोसर, दूला ने बछरारा , कालू ने मालपुर, हुक्मा ने केऊ, लल्ला ने बीन्झासर और चुहड़ ने चुरू आबाद किया। इतिहासकार डॉ. पेमाराम के अनुसार नैन गोत्र जाट यहाँ के प्राचीन निवासी हैं। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में चुहड़ जाट द्वारा चूरु के बसाने का वर्ष 1620 ई. अभिलेखित किया गया है तथा इस बात की पुष्टि इंपीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया खंड 10 (पृ.335) से भी होती है।

विशेष अनुरोध – जाटों का इतिहास अत्यंत शानदार रहा है। जाट समाज के हर सदस्य से अनुरोध करूंगा कि जाट इतिहास पढ़े, समझें और अन्य भाईयों को भी बतावें। हम स्कूल कालेजों में मुगल आक्रांताओं का इतिहास पढ़ते हैं, राजपूतों का इतिहास पढ़ते हैं परन्तु आक्रांताओं का और समाज शोषकों का दृढ़ता से सामना करने वाले देशभक्त जाटों का इतिहास नहीं पढ़ने को मिलता। यदि पाठ्य पुस्तकों में कहीं जाट शब्द आता है तो केवल इतना आता है कि जाट एक विद्रोही जाति रही है। जाटों ने विद्रोह शासक की गलत नीतियों के विरुद्ध किया है। जाट इतिहास लिखने के प्रयास निश्चय ही सफल होंगे और जाट समाज के प्रति भरी गई दुराग्रह की भावना दूर होगी। समग्र जाट इतिहास लेखन से सही तस्वीर धीरे-धीरे सामने आ रही है। समाज के लिए ख़ुशी की बात है कि NCERT पुस्तकों में यह समावेश हो चुका है कि गुप्त सम्राट धारण गोत्र के जाट थे। (देखें - भारत का इतिहास - कुलदीपराज दीपक, अध्याय-12, कक्षा-11)

संदर्भ

1. Churu in Britannica: http://www.britannica.com/EBchecked/topic/117390/Churu

2. Churu in Imperial Gazetteer of India, v. 10, p. 335

3. Dr Pema Ram, The Jats Vol. 3, ed. Dr Vir Singh,Originals, Delhi, 2007 pp.203, 204, 205, 206,209, 212

4. गोविन्द अग्रवाल, चुरू मंडल का शोधपूर्ण इतिहास, पृ.सं. 112-113 , 115-116, 163-165, 170-171

5. बड़वा राव भवानीसिंह की बही, गाँव महेशवास, जिला जयपुर, राजस्थान

6. दयालदास ख्यात, देशदर्पण, पेज 20

7. चौधरी हरिश्चंद्र नैन, बीकानेर में जनजाति, प्रथम खंड, पेज 18, 335-337

8. ठाकुर देशराज: जाट इतिहास, 1992, पृ 597-598,613-614

9. पाऊलेट, बीकानेर गजेटियर, p. 90

10. लक्ष्मणराम महला:सर्व-समाज बौद्धिक एवं प्रतिभा सम्मान समारोह स्मारिका, जून-2013

11. अनूप सिंह चाहर, जाट समाज आगरा, नवम्बर 2013, पृ. 28-27

12. मनसुख रणवां: राजस्थान के संत-शूरमा एवं लोक कथाएँ, 2010, पृ.58

13. दौलतराम सारण डालमाण,. जाट बन्धु, आगरा, 25 फ़रवरी 2012.

14. http://www.jatland.com/home/Main_Page

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