Haryanavi Music
देसी साज-बाज और संगीत
Author of this article is Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल |
इकतारा
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इसमें एक ही तार होता है । पुराने समय में एक मोटे से बांस के आगे एक तूंबा लगा कर इकतारा बनाया जाता था । ज्यादातर इसे साधु-संत या 'जोगी' रखा करते थे ।
दोतारा
इकतारे का ही एक रूप, पर इसमें दो तार होते हैं - देहातों में इसे 'धुतारी' भी कहा जाता है ।
बैंजू / बैंजो
यह साज भी देसी रागनियों में प्रयोग होता है । इसके तारों को किसी पैने टुकड़े से बजाया जाता है ।
सारंगी
सारंगी में आम तौर पर चार मुख्य तार होते हैं, पर उनके नीचे पैंतीस या चालीस और तार भी होते हैं । चारों मुख्य तार लकड़ी के गुटके पर घुमावदार तरीके से लिपटे होते हैं - गुटकों को घुमाने से स्वरों को नियंत्रित किया जाता है । सारंगी एक ही लकड़ी के टुकड़े को अंदर से खोखला कर के बनाई जाती है । डेढ़-दो फुट लंबे एक डंडे (bow) को इन मुख्य तारों पर घुमाने से ध्वनि निकलती है । पहले कुछ घुमक्कड़ जोगी ही इसको रखते थे । सारंगी का हरयाणवी संगीत में खास स्थान है, सांग में भी यह काम आती थी ।
बीन
यह शब्द संस्कृत के 'वीणा' से निकला है । इसका प्रयोग लोक नृत्यों में किया जाता है । बीन सांप पालने वाले सपेरों का खास साज है ।
बांसुरी
इसे श्रीकृष्ण और सरस्वती देवी से संबद्ध होने के कारण सभी जानते हैं । अर्थ है "बांस (bamboo) से निकलने वाला सुर" । बांस के लंबे से थोथे टुकड़े पर छ:-सात छेद करके बांसुरी बनाई जाती है और यह भारत का पुराना साज माना जाता है और 'मुरली' के नाम से भी जाना जाता है ।
शंख
इसे भी पवित्र साज माना जाता है । श्रीकृष्ण के शंख का नाम 'पांचजन्य' था । शंख अधिकतर मंदिरों में बजाया जाता है, पर रणभूमि में भी इसका प्रयोग होता था ।
हारमोनियम
यह एक विदेशी साज है, पर अब इसका देशीकरण हो चुका है । सांगी और भजनी इसका प्रयोग करते हैं ।
ढोल
यह दोतरफा ड्रम होता है और कसे हुए चमड़े की गोल पट्टी को पीटने से तेज आवाज देता है । इसी का छोटा रूप 'ढ़ोलक' है जो रिवाड़ी और गुड़गांव के अहीरों की खोज है ।
डफ/ ढ़प
यह एकतरफा गोल ड्रम होता है जो हाथ या डंडों से बजाया जाता है । महेन्द्रगढ़ जिले में 'धमाल' नृत्य में और होली की कुश्ती और मेलों में भी इसका इस्तेमाल होता है ।
खंजरी
यह भी डफ का ही रूप है । अंतर केवल इतना है कि इसके चारों ओर घुंघरू बंधे होते हैं - अकेले नृत्य में काम आता है ।
डमरू/ डोरू/ डुगडुगी
यह भी एक ड्रम की शक्ल का साज है और भगवान शिव के नृत्य का साज माना जाता है । 'गूगा' नृत्य में भी यह बजाया जाता है और मदारी भी इसे बजाते हैं । 'डोरू' भी डमरू का एक बड़ा रूप है । इसका एक रूप 'डुगडुगी' भी है जो जादूगर बजाते हैं ।
नगाड़ा
यह भी एक बड़ा ड्रम होता है पर इसका ढ़ांचा तांबे का होता है, बजाते समय जमीन पर रखा जाता है और दो बड़े डंडों से बजाया जाता है । पुराने समय राजा की तरफ से घोषणायें नगाड़ा बजाकर की जातीं थीं ।
तामक/ तामख/ टामक
यह साज लुप्त हो चुका है । यह एक विशाल नगाड़ा होता था जो हर गांव के बीच में चौपाल की छत पर रखा जाता था । शत्रुओं का हमला होने पर इसे बजाया जाता था - इसकी आवाज सुनकर दूसरे गांव वाले भी अपना तामख बजाते थे और इस तरह पूरे इलाके में खबर फैल जाती थी और लोग युद्ध के लिए तैयार रहते थे । हर खाप में कई तामक होते थे । कहावत है : "बाज्या तामक खाप का" । जब कोई बच्चा ज्यादा शरीर को मटकाता है तो मां कहती है "क्यूं तामख तोड़ै सै ?"
घड़ा/ घड़वा
मिट्टी का बर्तन जो कि साज के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है - सबसे सस्ता साज ।
घंटी
पीतल की घंटी जो आम तौर पर कीर्तन और मंदिरों में आरती के समय इस्तेमाल होती है ।
घुंघरू
नर्तक/ नर्तकी द्वारा पैरों में पहने जाते हैं और सुर-ताल में काम आते हैं ।
खड़ताल
ये लकड़े के दो गुटके होते हैं जिन पर छोटे-छोटे घुंघरू और पीतल की ढ़ीली-ढ़ाली गोल पत्तियां लगी होती हैं । दोनों गुटकों को एक दूसरे से भिड़ाने से मधुर ध्वनि निकलती है ।
मंजीरा
कांसे के दो गोल टुकड़ों का जोड़ा जो कि भक्ति-संगीत और नृत्यों में बजाया जाता है । नाथ परंपरा के जोगी अपनी प्रार्थनाओं में भी इसको प्रयोग में लाते हैं ।
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Dndeswal 08:03, 8 July 2007 (EDT)
Also see
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अळगोजा
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दोहरा अळगोजा
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बीन
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छगल बीन
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