Jat History Thakur Deshraj/First Edition

From Jatland Wiki
Jump to navigation Jump to search
विषय सूची पर वापस जायें (Back to Index of the book)
अगले भाग (भूमिका) पर जायें »»


जाट इतिहास
लेखक: ठाकुर देशराज
This chapter was converted into Unicode by Dayanand Deswal and Wikified by Laxman Burdak
प्रथम संस्करण में उनकी बात

प्रथम संस्करण में उनकी बात

पंडित ताड़केश्वर शर्मा

जाट जगत की सेवा में आज इस ‘जाट इतिहास’ को रखा जा रहा है। परन्तु लेखक ने जिन आकांक्षाओं को लेकर इतिहास लिखने का संकल्प किया था, वे पूरी नहीं हुईं। उन्होंने समझा था कि जाट-जाति जाग पड़ी है और सावधान जाति में जो लक्षण होते हैं वह उसमें हैं। वह अपने पर अभिमान भी करती होगी। किन्तु उनका यह खयाल गलत निकला। या तो जाट-जाति पूर्णतया सोई हुई है या जिन मनुष्यों से वह बनी है वे जातीय गौरव की ओर से उदासीन हैं।

जिस किसी तरह वे जी-जान से अन्वेषण में जुट पड़े और इतना बड़ा ग्रन्थ बना ही डाला। बीच में वह जिन कठिनाइयों से गुजरे मेरा तो विश्वास है कि अगर कोई दूसरा व्यक्ति होता तो अधूरा ही छोड़ देता। मैं रानीगंज से जब ‘अर्द्ध शताब्दी’ अजमेर के लिए जाते हुए उनके पास पहुंचा तो देखता हूं, देवीजी श्रीमती उत्तमा देवी जी, कुंवर शेरसिंह, छोटी लड़की सुवीरा (धर्मपत्नी ठाकुर देशराज जी), उनके पुत्र और पुत्री बीमार हैं और आप इतिहास लिख रहे हैं। कुशलता का समाचार पूछा तो कहने लगे सब ठीक ही हैं हां, बुखार तो करीब-करीब सबको आ रहा है। मैं हैरान हो गया, कैसे आदमी हैं सब बीमार हैं और उन्हें लिखने की धुन सवार है। जब देवीजी और कुंवर शेरसिंह को देखा तो स्तंभित रह गया। वह सूखकर कांटा हो रहे थे। छोटी लड़की के तो बचने की उम्मीद भी नहीं थी और अर्द्ध-शताब्दी से लौटने के एक सप्ताह बाद तो उसकी मृत्यु का समाचार मिल ही गया। कुछ समय पश्चात् वह स्वयं भी बीमार हुए पर इतिहास की धुन सवार रही। दो-तीन दिन तक निराहार रहे परन्तु लिखे बिना न रहे।

मैं उनके पास पुनः पहुंचा तब वह बीमारी से उठने पर भी जितना श्रम कर रहे थे, मुझसे नहीं हुआ। इधर बसंतपंचमी पर इतिहास के प्रकाशित हो जाने का नोटिस भी निकाल दिया था और उधर जाट स्टेटों का यह हाल था कि बार-बार प्रार्थना करने पर भी राजगान की फोटो और मैटर कुछ भी न मिला। यहां तक कि कई स्थानों से तो कुछ भी उत्तर नहीं था। अर्थाभाव भी कम नहीं था। हारकर


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-xiii


वह अस्वस्थ होते हुए भी रानीगंज, झरिया, कलकत्ता आदि स्थानों पर गए। इस दौरे में श्री ठाकुर गोपीचन्दजी परिहार (कठवारी) भी उनके साथ रहे। दौरे में रुपया और मैटर बहुत कुछ नहीं, तो सन्तोषजनक मिल गया। तब पंजाब के मैटर को पूरा करने के लिए पंजाब का दौरा किया। लाहौर, पटियाला, फरीदकोट, संगरूर, करांची (सिन्ध) स्थानों की प्रसिद्ध-प्रसिद्ध लाइब्रेरियों और अन्वेषकों से भेंट की। सर्व-साधारण लोगों से भी बहुत कुछ जानकारी हासिल हुई। इसमें सन्देह नहीं कि पंजाब में बहुत ज्यादा सामग्री मिल सकती थी, परन्तु समय और रुपया दोनों ही की कमी थी। 25 तारीख को जब मैं पंजाब के दौरे से लौटा तो ज्ञात हुआ कि उनके भाई के पुत्र उतर गए (मृत्यु हो गई) और वह उसी दिन पिलानी चले गए थे। आए तब मुंह उतरा हुआ था, मन का दुःख छिपा नहीं रहता। शाम को बातचीत में उन्होंने बताया कि लड़का मेरी गोद में आना चाहता था, पर मैं कैसा कठोर हूं, इस लोभ से कि कम से कम आधे पेज का हर्ज हो जाएगा, उसे गोद में भी न लिया। यह कहते हुए उनकी आंखों में आंसू भर आए।

पुत्र के शोक से उनके भाई भी आधे हो रहे थे। जब वह रात को सोये हुए थे तो यकायक कै और दस्त और जाड़े का दौरा हुआ। एकदम चेहरा फक हो गया। बड़बड़ाने लगे। एक घण्टे में ही ऐसी गफलत हुई कि ठाकुर साहब घबरा उठे। उनमें कुछ बोलने की ताकत भी न थी। आंखों में आंसू दिखाई पड़ने लगे। मैं स्वयं अवाक् हो गया। सुबह होते-होते कुछ फायदा हुआ। ऐसे विकट समय में भी वह इतिहास को न भूले और कहा - पंडितजी ! प्रेस में मैटर देने जाना है न ? देखिए सात बज गए होंगे, गाड़ी न छूट जाए। अतः बेतरतीब रफ मैटर प्रेस भेज दिया गया।

राजपूत, अहीर, गूजर यहां तक कि अछूतों के सम्बन्ध में भी जिस समय साहित्य के ढेर के ढेर बढ़ रहे थे, उस समय जाटों का कोई अपना निजी इतिहास-ग्रन्थ न था, जिसके आधार पर वह इतना तो बता दें कि वह कौन हैं? और जो लिखा जा रहा था, उसके प्रति वे उदासीन थे। लाख प्रयत्न करने पर 7 आर्डर उनको मिले। इससे उनको बड़ी निराशा हुई। लेखक अगर किसी अन्य जाति का इतिहास लिखता तो अधिक सफल होता। पर तो भी सहृदय पाठक उनकी कठिनाइयों को ध्यान में रख ग्रन्थ में रही त्रुटियों पर नजर डालेंगे तो नगण्य होंगी, क्योंकि बहुत से काम को तो वह स्वयं न देख सके। मैं भी अधिक समय बाहर रहने के कारण प्रेस में न रह सका। अतः शुद्धि-पत्र भी पूरा न हो सका। आशा है पाठक वर्ग उल्लिखित कठिनाइयों को देखते हुए रुष्ट न होंगे।


ताड़केश्वर
जाट इतिहास अन्वेषण कार्यालय
ता० 16-1-1934 ई०

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-xiv


इति

विषय सूची पर वापस जायें (Back to Index of the book)
अगले भाग (भूमिका) पर जायें »»



Back to Books on Jat History