Jinadatta Suri

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Jinadattasuri (जिनदत्त सूरि) (1075-1154) was a Jain Apabhramsa poet and monk.

Life

He was born in 1075 and died in 1154. He was a contemporary of Hemchandra and a disciple of Jinavallabhsuri.[1]

Works

His Upadesharasayana-rasa (1143) is a didactic poem of 80 verse written in the form of a Rasa. In appreciation of his teacher Jinavallabhsuri, he wrote a didactic poem in 32 verses titled Kalaswarupakulakam in Apabhramsa and Chachchari.[2][3]

नरहड़ में जिनदत्त सूरि का चित्रित काष्ठ फलक सं. 1175

त्रिभुवन गिरि वर्तमान राजस्थान के करौली नगर से 24 मील की दूरी पर स्थित है। 12 वीं शताब्दी में राजा कुमारपाल वहाँ का शासक था। करौली और उसका निकटवर्ती क्षेत्र मध्य काल में ब्रजमंडल के अंतर्गत था, और वहाँ के राजा शूरसेन जनपद (प्राचीन मथुरा राज्य) के उन यादवों के वंशज थे, जिनके नेता श्रीकृष्ण थे। त्रिभुवन गिरि के राजा कुमारपाल ने जैन मुनि जिनदत्त सूरि जी से प्रतिबोध प्राप्त किया था, और उन्हें एक चित्रित काष्ठ फलक भेंट किया था। श्री जिनदत्त सूरि ने सं. 1169 में आचार्य पद प्राप्त किया था; अतएव उक्त काष्ठ फलक का निर्माण काल सं. 1175 के लगभग माना जा सकता है। उसका परिचय देते हुए श्री भँवरलाल नाहटा ने लिखा है,- इस फलक के मध्य में हाथी पर इन्द्र व दोनों ओर नीचे चामरधारी नवफण पार्श्वनाथ भगवान का जिनालय है, जिसकी सपरिकर प्रतिमा में उभय पक्ष अवस्थित हैं। दाहिनी ओर दो शंखधारी पुरुष खड़े हैं। भगवान के बायें कक्ष में पुष्प-चंगेरी लिये हुए एक भक्त खड़ा है, जिसके पीछे दो व्यक्ति नृत्यरत हैं। वे दोनों वाद्य यंत्र लिये हुए हैं। जिनालय के दाहिनी ओर श्री जिनदत्त सूरि जी की व्याख्यान सभा है। आचार्य श्री के पीछे दो भक्त श्रावक एवं सामने एक शिष्य व महाराजा कुमारपाल बैठे हुए हैं। महाराजा के साथ रानी तथा दो परिचारक भी विद्यमान हैं। जिनालय के वायीं तरफ श्री गुणसमुद्राचार्य: विराजमान हैं, जिनके सामने स्थापनाचार्य जी व चतुर्विध संघ हैं। साधु का नाम पंडित ब्रह्माचंद्र है। पृष्ठ भाग में दो राजा हैं, जिनके नाम चित्र के उपरि भाग में सहणअनंग लिखे हैं। साध्वी जी के सामने भी स्थापनाचार्य हैं, और उनके समक्ष दो श्राविकाएँ हाथ जोड़े खड़ी हैं। इस काष्ठ फलक में जिस नवफण पार्श्वनाथ जिनालय का चित्र है, सूरि महाराज की जीवनी के आधार पर हम कह सकते हैं कि यह जिनालय नरहड़-नरभट में उन्होंने स्वयं प्रतिष्ठापित किया था। पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा को नवफणमंडित बनवाने की प्रथा गणधर सार्ध-शतक वृत्यनुसार श्री जिनदत्त सूरि जी महाराज से ही प्रचलित हुई थी। यह काष्ठ ब्रजमंडल की मध्यकालीन जैन चित्रकला का एक दुर्लभ उदाहरण है। इस समय यह जैसलमेर (राजस्थान) के ग्रंथ-भंडार में संख्या 241 के 'चंद्रपन्नति सूत्र' नामक ग्रंथ के साथ संलग्न है। नाहटा जी का कथन हैं, यह काष्ठ फलक पहिले उस ग्रंथ के साथ था, जिसे राजा कुमारपाल ने लिखवाया था। वह ग्रंथ इस समय उपलब्ध नहीं है, और यह काष्ठ फलक अन्य ग्रंथ चंद्रपन्नति सूत्र के साथ लगा दिया गया है। [4]

Further reading

Jinadatta Sūri. Gaṇadharasārdhaśataka, ed. Gandhi, Three Apabhraṃśa Works.


References

  1. Amaresh Datta (1988). Encyclopaedia of Indian Literature. Sahitya Akademi. p. 1841. ISBN 978-81-260-1194-0.
  2. Sujit Mukherjee (1998). A Dictionary of Indian Literature. Orient Blackswan. p. 327. ISBN 978-81-250-1453-9.
  3. Shah, Parul (31 August 1983). "5". The rasa dance of Gujarata (Ph.D.). Vol. 1. Department of Dance, Maharaja Sayajirao University of Baroda. pp. 139–140. hdl:10603/59446.
  4. Braj Discovery

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