Lakhamandal

From Jatland Wiki
Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Map of Dehradun District

Lakhamandal (लाखामंडल) is an ancient Shiva temple complex, situated in the Jaunsar-Bawar region of Dehradun district in the state of Uttarakhand. [1]

Origin

Lakhamandal gets its name from the two words: lakha (Lakh) meaning "many" and mandals meaning "temples" or "lingam". Plenty of artistic works were found in the excavations by the Archaeological Survey of India.[2]

Variants

  • Lakhamandala लाखामंडल, जिला देहारादून, (AS, p.815)
  • Lakha Mandal (लाखा मंडल)

Location

The distance between Mussoorie and Lakhamandal is around 75 km and is extremely scenic. This temple lies 128 km. from Dehradun, and 35 km. from Chakrata on the Mussoorie-Yamunotri road, past Kempty Falls.[3] It is built in North Indian Architectural style, which is common in the hilly regions of Garhwal and Himachal. The Yamuna River flows alongside Lakhamandal village where the temple is situated. Geo-Coordinates- Lat. 30° 43' 55" N: Long 78° 04' 42"E

Lakhamandal around 3 hours away from Mussoorie. The Lakhamandal Temple is dedicated to Lord Shiva. The main attraction is the graphite Shiva lingam, which shimmers when water is poured on it. The temple has an embellished architecture, which reflects the riches of Indian heritage. Thus, it has been declared as a Monument of National Importance. [4]

History

Dinesh Prasad Saklani[5] writes that ....Another hypothesis has been forwarded else where that the King Silavarman probably belonged to Singhapura, mentioned in the Lakhamandala prasati.

In Mahabharata

Lakhamandal figures prominently in the pages of Mahabharata — one of the two major Sanskrit epics of ancient India. The Mahabharata, as we all know, chronicles the story of the dynastic struggle between the sibling clans of the Kauravas and the Pandavas for the throne of Hastinapura. There was intense enmity between the Kauravas and the Pandava brothers, from their youth, well into manhood.

Legend has it that the Kauravas ordered a Lakshagriha (House of Lac) to be built in order to burn alive their cousins, the Pandavas. The Pandavas, however, escaped unscathed, aided by Lord Krishna. The Pandavas escaped by digging tunnels with the help of a miner. There are a number of cave formations near Lakhamandal. It is believed that the Pandava brothers took refuge in these caves.[6]

Ancient Siva Temple, Lakhamandal

Ancient Siva Temple, Lakhamandal

According to Archaeological Survey of India [7] Siva Temple, Lakhamandal, Dedicated to Lord Siva, this temple, popularly known as Lakheswara, was built between 12th -13th cent. A.D in Nagara style. However, fragmentary inscription of Chhaglesa and Prashasti of Princes Isvasra (circa 5th-6th centuries AD), revealed that the antiquity of the site goes much earlier then the existing temple. The Prashasti of Princes Isvasra, belonging to the Royal race of Singhpura, described the construction of a temple in honour of Siva, for the spiritual welfare of her deceased husband Chandragupta, the son of king Jalandhara. Remains of brick temple datable to 5th structures AD, below the ruined of stone temple in the complex is the earliest structural activity at the site.

Recent scientific clearance carried out by ASI revealed large number of structural remains in the temple premises including remains of flat roofed temples assignable to 5th -6th Cent. AD. which through new dimension in the history of the temple architecture of the Central Himalayan region.

लाखामण्डल

लाखामण्डल (AS, p.815): उत्तराखंड के देहरादून ज़िले का एक ग्राम है। यह चकरौता से 22 मील की दूरी पर स्थित है। यमुना नदी के निकट ही यह ग्राम बसा हुआ है। जनश्रुति है कि लाखों प्राचीन मूर्तियाँ इस स्थान से निकली थीं, जिसके कारण इसे लाखामण्डल कहा जाने लगा। यहाँ अब एक ही प्राचीन मंदिर है, जिसमें शिव, दुर्गा, कुबेर, लक्ष्मीनारायण, सूर्य आदि देवों की कलामय मूर्तियाँ हैं। मंदिरों के बाहर छठी शती ई. की दो बड़ी मूर्तियाँ अवस्थित हैं।[8]

यहां की गई थी पांडवों को जीवित जलाने की कोशिश...

प्राचीन पाण्डव गुफा गुप्तेश्वर महादेव
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उत्तराखंड का आदिकालीन सभ्यताओं से गहरा नाता रहा है। यह ऐसे अनेक स्थान मौजूद हैं, जहां एतिहासिक एवं पौराणिक काल के अवशेष बिखरे पड़े हैं। इन्हीं में एक स्थल है देहरादून जिले के जौनसार-बावर का लाखामंडल गांव। माना जाता है कि द्वापर युग में दुर्योधन ने पांचों पांडवों और उनकी माता कुंती को जीवित जलाने के लिए यहां लाक्षागृह का निर्माण किया था। एएसआइ को खुदाई के दौरान यहां मिले सैकड़ों शिवलिंग व दुर्लभ मूर्तियां इसकी तस्दीक करती हैं। यमुना नदी के उत्तरी छोर पर स्थित देहरादून जिले के जौनसार-बावर का लाखामंडल गांव एतिहासिक ही नहीं पौराणिक दृष्टि से भी विशेष महत्व रखता है। समुद्रतल से 1372 मीटर की ऊंचाई पर स्थित लाखामंडल गांव देहरादून से 128 किमी, चकराता से 60 किमी और पहाड़ों की रानी मसूरी से 75 किमी की दूरी पर है। लाखामंडल की प्राचीनता को कौरव-पांडवों से जोड़कर देखा जाता है।

मान्यता है कि कौरवों ने पांडवों व उनकी माता कुंती को जीवित जलाने के लिए ही यहां लाक्षागृह (लाख का घर) का निर्माण कराया था। बताते हैं कि लाखामंडल में वह एतिहासिक गुफा आज भी मौजूद है, जिससे होकर पांडव सकुशल बाहर निकल आए थे। इसके बाद पांडवों ने चक्रनगरी में एक माह बिताया, जिसे आज चकराता कहते हैं। लाखामंडल के अलावा हनोल, थैनामैंद्रथ में खुदाई के दौरान मिले पौराणिक शिवलिंग व मूर्तियां गवाह हैं कि इस क्षेत्र में पांडवों का वास रहा है।

कहते हैं कि पांडवों के अज्ञातवास काल में युधिष्ठिर ने लाखामंडल स्थित लाक्षेश्वर मंदिर के प्रांगण में जिस शिवलिंग की स्थापना की थी, वह आज भी विद्यमान है। इसी लिंग के सामने दो द्वारपालों की मूर्तियां हैं, जो पश्चिम की ओर मुंह करके खड़े हैं। इनमें से एक का हाथ कटा हुआ है। शिव को समर्पित लाक्षेश्वर मंदिर 12-13वीं सदी में निर्मित नागर शैली का मंदिर है।

यहां प्राप्त अभिलेखों में छगलेश एवं राजकुमारी ईश्वरा की प्रशस्ति (पांचवीं-छठी सदी) का उल्लेख हुआ है। इससे ज्ञात होता है कि इस स्थान के पुरावशेष वर्तमान मंदिर से पूर्वकाल के हैं और मंदिर की प्राचीनता पांचवीं-छठी सदी तक जाती है। राजकुमारी ईश्वरा की प्रशस्ति से भी यहां एक शिव मंदिर के निर्माण की पुष्टि होती है। मंदिर परिसर में स्थित दर्जनों पौराणिक लघु शिवालय, एतिहासिक और प्राचीन मूर्तियां पर्यटकों को अपनी ओर खींचती हैं। मंदिर में एक विशाल बरामदा है, जिसके मध्य में एक बड़ा शिवलिंग मंच पर विराजमान है।

ऐसे ही तमाम रहस्यों को देखते हुए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआइ) ने लाखामंडल और हनोल को ऐतिहासिक धरोहर घोषित कर यहां स्थित प्राचीन मंदिरों के संरक्षण की जिम्मेदारी ली हुई है। एएसआइ को 2006 में मंदिर क्षेत्र के पास क्षतिग्रस्त दीवार की खुदाई के दौरान भगवान विष्णु की एक मूर्ति और तीन शिवलिंग मिले थे, जो विभाग के संग्रहालय में संरक्षित हैं।

राजकुमारी ईश्वरा ने बनाया था मंदिर: लाखामंडल में मिले अवशेषों से ज्ञात होता है कि यहां बहुत सारे मंदिर रहे होंगे। लाक्षेश्वर परिसर से मिले छठी सदी के एक शिलालेख में उल्लेख है कि सिंहपुर के राजपरिवार से संबंधित राजकुमारी ईश्वरा ने अपने दिवंगत पति चंद्रगुप्त, जो जालंधर नरेश का पुत्र था, की सद्गति के लिए लाक्षेश्वर मंदिर का निर्माण कराया। लाक्षेश्वर शब्द का अपभ्रंश कालांतर में 'लाखेश्वर' हो गया। लाखेश्वर से ही 'लाखा' शब्द लिया गया। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार उस समय जो प्रांत अथवा जिले कर की अदायगी करते थे, उन्हें मंडल कहा जाता था। इसलिए 'लाखा' के साथ 'मंडल' शब्द जुड़कर यह लाखामंडल हो गया।

लाखों मूर्तियों का मंडल: क्षेत्र का नाम लाखामंडल पडऩे की एक वजह यह भी हो सकती है कि यहां शिव की लाखों मूर्तियां मिलती हैं। दो फीट की खुदाई करने पर ही यहां हजारों साल पुरानी दुर्लभ मूर्तियां निकल आती हैं। 'लाख' यानी बहुत सारे और मंडल का मतलब ऐसी जगह, जहां बहुत सारे मंदिरों का एक विशेष लिंग के साथ वास स्थल हो। संभवत: इसीलिए कालांतर में इसे लाखामंडल कहा जाने लगा।

एएसआइ की ओर से की गई वैज्ञानिक सफाई में यहां बड़ी संख्या में वास्तु संरचनाओं के खंड प्राप्त हुए। इनमें पांचवीं-छठी सदी की सपाट छत के अवशेष प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। यह खोज मध्य हिमालय की मंदिर संचनाओं की प्राचीनता को नए आयाम प्रदान करती है।

लाखामंडल से प्राप्त उमा-महेश्वर का मूर्ति पैनल, गणेश, कार्तिकेय और शिवगणों की मूर्तियां कला का अनुपम उदाहरण हैं। यहां की शिव तांडव मूर्तियां देश के इस उत्तरी भाग को दक्षिण से जोड़ती हैं। प्रतीत होता है कि मध्यकाल की कला परंपरा पूरे देश में विकसित हो चुकी थी। तांडव की नृत्य मुद्रा में शिव एवं तपस्यारत पार्वती, गणेश और कार्तिकेय लाखामंडल की मूर्तिकला में अभिव्यक्ति पा रहे हैं।

जेम्स बेली फ्रेजर ने की थी खोज: लाखामंडल के पुरावशेषों को सबसे पहले वर्ष 1814-15 में जेम्स बेली फ्रेजर प्रकाश में लाए थे। अपनी पुस्तक 'द हिमालया माउंटेंस' में उन्होंने इस स्थल पर शिव मंदिर के अलावा पांच पांडवों के मंदिर, महर्षि व्यास व परशुराम का मंदिर, प्राचीन केदार मंदिर और कुछ मूर्तियों का उल्लेख किया है। पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर ज्ञात होता है कि लाखामंडल प्राचीन काल में आबाद रहा है। ग्राम लावड़ी से प्राप्त महापाषाण संस्कृति के अवशेष इस अवधारणा को पुष्ट करते हैं। इस संस्कृति के अवशेष तत्कालीन मृतक संस्कारों पर विशेष रूप से प्रकाश डालते हैं। इस पद्धति में पत्थरों से निर्मित ताबूत में मृत शरीर अथवा अवशेषों को रखा जाता था।

लाक्षेश्वर मंदिर आकर्षक वास्तुकला और गंवई एवं पुराने जमाने के वातावरण का मिश्रण है। मंदिर वास्तु के साथ-साथ मूर्ति शिल्प में भी लाखामंडल विशिष्ट स्थान रखता है। पत्थर पर लगभग सातवीं सदी में उत्कीर्ण जय-विजय की आदमकद प्रतिमा इस क्षेत्र के मूर्तिशिल्प का उदाहरण है। इसके अलावा शिव-पार्वती, गंगा-यमुना और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी लाखामंडल के मूर्तिशिल्प की विशिष्टता को परिलक्षित करती हैं।

Source: Article by Raksha Ranthari in Jagran, 15.12.2018

External links

References