Mera Anubhaw Part-2/Lobh-Lalach

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रचनाकार: स्वतंत्रता सेनानी एवं प्रसिद्ध भजनोपदेशक स्व0 श्री धर्मपाल सिंह भालोठिया

ए-66 भान नगर, अजमेर रोड़, जयपुर-302021, मो. 9460389546

लालच बुरी बला ...भजन क्रमांक:63-67

63. शील सबर सन्तोष बड़ा कोई

।। भजन-63।। (अस्थिर मन)
।। दोहा।।

मन लोभी मन लालची, मन चंचल मन चोर।

मन के मते न चालिये, पलक-पलक मन ओर

तर्ज - चौकलिया

शील सबर संतोष बड़ा कोई, देख लियो आजमा के।

उसी ठिकाणे आना हो, दुनिया में धक्के खाके।। टेक ।।


सुनियो सजनों बात मेरे, एक आई याद पुरानी।

घर-घर में चर्चा होती, ये है मशहूर कहानी।

जहाँ तक मेरा विचार, बात ये झूठी नहीं बखानी।

बिना विचारे काम करे, होती है आखिर हानि।

फिर पछताये क्या बनता, गलती पर ध्यान लगाके।

उसी ठिकाणे आना हो .........।। 1 ।।

लहटूरा शुभ नाम कहीं, एक सज्जन पुरूष कहाया।

साधारण बुद्धि का मनुष्य, ईश्वर ने अजब बनाया।

घर में देवी जी ने रोज, नया तूफान उठाया।

खान-पान पहरान पति का, नाम पसंद नहीं आया।

इससे पीछा कब छूटेगा, कहन लगी पछताके।

उसी ठिकाणे आना हो ........।। 2 ।।

झगड़ा होता देख किसी ने, देवी को समझाया।

किसी गाँव में एक बन्दे का, लक्खी नाम बताया।

चली वहाँ से लक्खी के घर, आके डेरा लगाया।

टूटी खटिया लोहे की परात, चूल्हा फूटा पाया।

सुबह ही लक्खी चून माँगणे, चाल्या झोली ठाके।

उसी ठिकाणे आना हो .........।। 3 ।।

यहाँ से किसी ने देवी जी, घर सूरा के पहुँचाई।

सूरा के घर आ देवी ने, मन में खुशी मनाई।

उस पर हमला कर दिया था, आ गये पड़ौसी भाई।

लात व घूँसा मार-मार के, मरम्मत खूब बनाई।

दिन छिपते ही भागा सूरा, अपनी जान बचाके।

उसी ठिकाणे आना हो .........।। 4 ।।

इतने में एक बन्दे का कहीं, अमरा नाम बताया।

अमरा नाम सुना देवी के, तन में आनन्द छाया।

कितना सुन्दर नाम है इसकी, अमर रहेगी काया।

लेकिन आप जानते हैं, ईश्वर की अदभुत माया।

रात को अमरा मर गया, सुबह ही आ गये लोग जलाके।

उसी ठिकाणे आना हो .........।। 5 ।।

जगह-जगह धक्के खाये, नहीं कहीं मिले घी बूरा।

आखिर हो लाचार चली, बोली वहीं पटेगा पूरा।

लक्खी चून माँगता देखा, भागता देखा सूरा।

अमरा भी मैनें मरता देखा, पति भला लहटूरा।

कहे धर्मपालसिंह चरण पकड़ लिए, लहटूरा के आके।

उसी ठिकाणे आना हो.........।। 6 ।।

64. जरा सा धीरे चलो मनुवां - मन की दौड़़

।। भजन-64।। (मन की दौड़)

तर्ज - जरा सो टेढो होजा बालमा, म्हारो पल्लो लटके............


जरा सा धीरे चलो मनुवां, इस दुनिया की दौड़ में।। टेक ।।


तू लोभी तू लालची सै, तू चंचल तू चोर।

तेरे पीछे कहाँ तक जाऊँ, पलक-पलक तू ओर।

गौर करके देखूँ मिले नहीं, तू अपनी ठोड़ में ।।

जरा सा धीरे चलो मनुवां ........।। 1 ।।

पल में बम्बई कलकत्ता, तू पल में बीकानेर।

श्रीनगर चण्ड़ीगढ़ दिल्ली, जयपुर जा अजमेर।

देर नहीं लगाई पल की, तू पहुँचा चितौड़ में।

जरा सा धीरे चलो मनुवां.......।। 2 ।।

हजारों कोस की तेज गति से, घूमे तू रोजाना।

मेरे लिए तो एक कोस भी,मुश्किल आना जाना ।

पैमाना जितना उतने, पैर पसारो सोड़ में।।

जरा सा धीरे चला मनुवां........।। 3 ।।

मैं बिस्तर में सोया रात को, अपने पैर पसार।

आधी रात तू हुआ रवाना, गया समुंदर पार।

त्यार दिन निकले पहले, पाया तू मेरी खोड़ में।।

जरा सा धीरे चलो मनुवां........ ।। 4 ।।

धीरे-धीरे चलो सफलता, मिलेगी परमानेन्ट।

तेरी चाही बनती कोन्या, बात सेन्ट-परसेन्ट।

अक्सीडेंट तू हो जागा, एक थोडे़ से मोड़ में।।

जरा सा धीरे चलो मनुवां........।। 5 ।।

कभी तू चाहे बनज्या, मेरा चक्रवर्ती राज।

आसमान की सैर करूँ मैं, चलें हवाई-जहाज।

ताज कोहिनूर का सिर पै, हरदम रहूँ मरोड़ में।।

जरा सा धीरे चलो मनुवां........।। 6 ।।

आमदनी कम खर्चा ज्यादा, तेरा अजब कमाल।

इस हालत में करोड़पति भी, बन जाता कंगाल।

चाल छोड़ के पुरानी, तूं मर जागा होड़ में।।

जरा सा धीरे चलो मनुवां........।। 7 ।।

कौन माई का लाल इसा, जो तेरा साथ निभावे।

‘भालोठिया’ धरती पर, तूँ आकाश में महल बनावे।

गावे जोड़-जोड़ के गीत, तू आ जावे तोड़ में ।।

जरा सा धीरे चलो मनुवां........।। 8 ।।

65. दो घोड़ों का सवार

।। भजन-65।।(अपरिमित मन)

तर्ज - म्हारी सुरता हे रंगरेजण, म्हारो मन रंग दे........


दो घोड़ों का सवार, मार खाया करता।। टेक ।।


साहूकार से कहे मैं तेरा, चोर से कह दे तेरा।

दोनों ओर से गया वो बन्दा, नहीं तेरा नहीं मेरा।

उसका कौन करे एतबार, दोनों से जाया करता।।

दो घोड़ों का सवार........।। 1 ।।

आज बहुत से लोग जो देखे, करते हेराफेरी।

बीच-बीच में फिरे भटकता, गन्दी आदत गेरी।

उसको मिलती है फटकार, अपमान कराया करता ।।

दो घोड़ों का सवार........।। 2 ।।

एक जगह पर ध्यान जमाके, कदम अगाड़ी धरता।

सारी दुनिया बदल जाये, अपनी मनचाही करता।

एक दिन बनता वो सरदार, मैदान में आया करता।।

दो घोड़ों का सवार........।। 3 ।।

जो कोई बन्दा सच्चे दिल से, बनता जिसका साथी।

जिस दिन पड़े जरूरत उनको, मिलता त्यार हिमाती।

धर्मपाल सिंह यार नहीं आँख चुराया करता।।

दो घोड़ों का सवार........।। 4 ।।

66. फँसग्या माया जाल में

       ।। भजन-66।। अति लोभ का फल (माया मिली न राम)

तर्ज - गंगाजी तेरे खेत में............


फँसग्या माया जाऽऽऽल में, एक राम भगत साहूकार।

मिला एक राऽऽऽत में, अति लोभ का परिणाऽऽऽम ।। टेक ।।


लोभी लाला रटता माला, राम के फिराक में।

आक का कीड़ा आक में राजी, ढ़ाक का कीड़ा ढ़ाक में।

स्वार्थी बन्दा होकर अन्धा, रहे माया की ताक में।।

एक दिन आके अलख जगाके, राम ने किया प्रवेश।

सेठ के द्वारे आन पधारे, धार के साधु का भेष।

हाथ कमंडल कान में कुंडल, लम्बी डाढ़ी सिर पै केश।।

हमेशा गली और गाऽऽऽळ में, करे उसका प्रचार।

लगन लगी नाऽऽऽथ में, रोज सुबह और शाऽऽऽम ।। 1 ।।

सेठ के घर में, पल-पल भर में, ताजा मिले खाण नै माल।

पान मिठाई, दूध मलाई, बालूशाही दिल खुशहाल।

बड़ा समोसा, इडली डोसा, हलवा, पूरी, सब्जी दाल।।

करके दर्शन होते प्रसन्न, रोजाना सेठानी सेठ।

संत शरण में ध्यान चरण में, फूलों की चढ़ावें भेंट।

साधु नहाके खाना खाके, गद्दी पर लगावे लेट।।

प्लेट कटोरी थाऽऽऽल में, सब्जी और अचार।

मिले एक स्याऽऽऽत में, सेव संतरे आऽऽऽम ।। 2 ।।

एक दिन आई, माया ताई, था डाकण का भेष निराला।

आँख लाल, बेढंगी चाल, धोले बाल बदन था काला।

एडी ऊँची, नंगी बूची, गल में खोपड़ियों की माळा।।

कहे सेठाणी, बच्चे खाणी, बाहर लिकड़ क्यों रही थूक।

मत धमकाओ, रोटी लाओ, माया न्यू लगावे हूक।

बाहर धरा मिट्टी का ठेकरा, उसमें डाले झूठे टूक।।

चूक नहीं करी चाऽऽऽल में, सोने का बरतन त्यार।

सेठजी लो हाऽऽऽथ में, ये अपना बरतन थाऽऽऽम ।। 3 ।।

बोल के गन्दा, हुआ शर्मिन्दा, सेठ करे पश्चाताप।

बक्सो माता, बन के दाता, हमसे जो हो गया पाप।

करूँ निवेदन, शाम का भोजन, मेरे घर पै जीमो आप ।।

हलवा पूरी, दाल चूरी, सेव संतरे दाख छुहारे।

घर आँगन में, हर बरतन में, धरे नमूने न्यारे-न्यारे।

थाली कचौली कुण्डा बरोली, सोने के बना दिये सारे।।

प्यारे धरे लगें साऽऽऽळ में, बरतन एक सौ चार।

बात की बाऽऽऽत में, कर दिया काम तमाऽऽऽम ।। 4 ।।

लोभ में फँस के, लाला हँस के, बुढ़िया से करे अरदास।

रात को जाना, पड़े दुख पाना, मेरे घर पर करो निवास।

करूँगा सेवा, खाईये मेवा, हाजिर रहूँ आपके पास।।

बन के भोली, माया बोली, मेरे नहीं कोई घरबार।

रहूँ उमर भर, आपके घर पर, मेरी शर्त करो स्वीकार।

ये बैठा साधु, मोडा बाद्धू , इसके मारो जूते चार।।

प्यार से करूँ सवाऽऽऽल मैं, दो इसके धक्के मार।

नहीं ये जमाऽऽऽत में, मोडा नमक हराऽऽऽम ।। 5 ।।

सेठ ने ताजा, करा तकाजा, कहे संत से हाथ जोड़।

चल दे बाबा, नहीं ये ढ़ाबा, अब तो म्हारा पीछा छोड़।

बाहर लिकड़, क्यों रहा अकड़, मैं दूँगा तेरे सिर नै फोड़।।

ठाके झोली, चिमटा डोली, चाल पड़ा था दीनानाथ।

माया चल दी, जल्दी-जल्दी, लाला ने पकड़ा था हाथ।

मारा झटका, सेठजी पटका, माया गई राम के साथ।।

‘भालोठिया’ के स्वरताऽऽऽल में, अति लोभ का सार।

दोनों गये साऽऽऽथ में, माया मिली ना राऽऽऽम ।। 6 ।।

67. अति लोभी नर, नहीं करे सबर

भजन-67 (अति लोभ का परिणाम )

तर्ज - मन डोले, मेरा तन डोले...........

अति लोभी नर , नही करे सबर , करके मित्र से घात,

बिगाड़ी बनी बनाई बात।। टेक ।।

अति स्वार्थी एक बन्दा था, गोधू उसका नाम था।

समुन्दर के किनारे रहता, बैठा सुबह शाम था।

आमदनी का साधन उसका, एक ही प्रोग्राम था।

कछुआ मच्छी पकड़ा करता, रोजाना का काम था।

दिया डाल, दरिया में जाल , एक कछुआ लगा था हाथ।

बिगाड़ी बनी बनाई बात ।। 1 ।।

मित्र बनके कछुए ने फिर, पारधी से करा सवाल।

घर तक जाने की छुट्टी दे, करूँ आपको मालामाल।

पारधी सुनकर खुश हो गया, छोड दिया कछुआ तत्काल।

मार के गोता, कछुआ घर से, लाया था किरोड़ी लाल।

लोभी का मन, हो गया प्रसन्न, ये खूब हुई मुलाकात।

बिगाड़ी बनी बनाई बात।। 2 ।।

लाल देखकर के गोधू के, मन में हो गई खुशी अपार।

अथाह समुन्दर के पानी में, लाल पडे सैं बेशुमार।

एक लाल और मंगवालूँ तो, मौज करे मेरा परिवार।

वापिस नहीं छोडूँगा इसको, यदि करेगा ये इनकार।

बनूँ मालोमाल, घर में दो लाल , उजाला हो दिन रात।

बिगाड़ी बनी बनाई बात।। 3 ।।

एक लाल और ल्यादे, नहीं तो मारूंगा आज तेरे को।

कछुआ बोला ल्याऊँ मिलाके, इसके ठीक बराबर हो।

गोता मारकर के कछुए ने, दरिया में दिया लाल डबो।

बाहर निकल के न्यू बोला, भाई लेना एक ना देना दो।

कहे धर्मपाल, था बुरा हाल, गोधू का सूख रहा गात।

बिगाड़ी बनी बनाई बात।। 4 ।।



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