Peepal

From Jatland Wiki
Jump to navigation Jump to search

.

भारतीय जड़ी बूटी-३


पीपल


लेखक


स्वामी ओमानन्द सरस्वती


प्रकाशक - हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)


Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल


The author - Acharya Bhagwan Dev alias Swami Omanand Saraswati


नम्र निवेदन

पीपल - आवरण पृष्ठ

साधारण मनुष्य चाहे ग्राम कस्बे अथवा बड़े नगर वा किसी भी स्थान पर निवास करते हों, प्रायः सभी का एक ही स्वभाव है कि वे छोटे मोटे रोगों पर वैद्य, हकीम वा डाक्टर का द्वार शीघ्र ही नहीं खटखटाते । अपने घर, खेत, जंगल, आस पास पड़ौस में कोई घरेलू औषध जो भी सुगमता से मिल जाये उसी का तुरन्त सेवन वे करते हैं । किन्तु प्रतिदिन दृष्टि में आने वाले जाने पहचाने पौधे वृक्ष पीपल, नीम, बड़, आक, ढाक आदि का यथार्थ ज्ञान न होने से अनेक रोगों की चिकित्सा इन के द्वारा भलीभांति वे नहीं कर सकते । जो पीपल, नीम, आक आदि हमारे आगे पीछे, घर और बाहर सर्वत्र उपलब्ध हैं, उनसे अनेक रोगों की चिकित्सा भी करके व्यर्थ के कष्ट से बच सकें इसी कल्याण की भावना से भारत की प्रसिद्ध जड़ी बूटी नामक ग्रन्थ माला का तृतीय पुष्प पिप्पल वा पीपल पाठकों की भेंट किया जा रहा है । इसमें सामान्य रूप से रोगों का निदान वा पहचान, चिकित्सा उपचार पथ्यादि पर भी प्रकाश डाला है । आशा है हमारे प्रेमी पाठक इनको पढ़कर तथा इन औषधियों का यथोचित सेवन करके लाभ उठाने की कृपा करेंगे । यह ग्रन्थमाला अनेक पुस्तिकाओं के रूप में प्रकाशित होती रहेगी । आगे बड़, बबूल, खदिर, रोहितक, मिर्च, नींबू, अदरक और घृतादि पर शीघ्र ही लिखकर पाठकों को भेंट करेंगे ।

- ओमानन्द सरस्वती

दो शब्द

परमपिता परमात्मा की सृष्टि में असंख्य वृक्ष अथवा जड़ी-बूटियां हैं, जो उसने दया करके प्राणिमात्र के कल्याणार्थ उत्पन्न की हैं । जिनके उत्पन्न करने के साथ-साथ अपनी परम पवित्र वेदवाणी द्वारा उनके पवित्र ज्ञान का प्रकाश भी ऋषियों के हृदय में किया । इसी लिए इस युग के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द ने यह उदघोषित किया - वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है और वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का अथवा मानवमात्र का परम धर्म है । वेदों का एक उपवेद आयुर्वेद है जिसके ग्रन्थों की रचना प्राणिमात्र के हितार्थ ऋषि मुनियों ने की है । वेद तथा उपवेद आयुर्वेद के पढ़ने से तथा उसके अनुसार आचरण करने से हम सच्चे ज्ञान की प्राप्ति कर भयंकर रोगों तथा दुःखों से बच सकते हैं । अलपज्ञ होने से मानव अनेक त्रुटियां वा भूल करता है और उसके फलस्वरूप अनेक दुःख भोगता है, रोगी पड़ता है, और दुःख पाता है । आश्चर्य यह है कि इसके चारों ओर रोग की औषध होते हुए भी अपनी मूर्खता के कारण यह रोगों में फंसकर दुःख भोगता है । "पानी में मीन प्यासी, मुझे देखत आवे हांसी" वाली लोकोक्ति के अनुसार मानव की दुर्गति हो रही है । इस दुर्दशा और दुःख से बचाने के लिए यह पीपल की पुस्तिका लिख रहा हूं । पीपल भारत का एक प्रसिद्ध वृक्ष है जिससे भारत का आबाल, वृद्ध, वनिता सभी भली भांति परिचित हैं । चरक, सुश्रुत और निघण्टु आदि आयुर्वेद शास्‍त्रों में इसका पर्याप्‍त वर्णन मिलता है जिसे छोटे बड़े वैद्य, ग्रामीण लोग भी जानते तथा कुछ-कुछ औषध रूप में प्रयोग भी करते हैं । किन्तु पीपल अनेक रोगों के लिए स्वयं औषध ही नहीं, अपितु औषधालय का रूप है । किन्तु इसका यथोचित ज्ञान अच्छे-अच्छे वैद्यों और डाक्टरों को भी नहीं, फिर सामान्य लोगों की क्या बात है । नीम, बड़ और पीपल तीन वृक्षों को एक साथ लगाते हैं तथा इसका नाम त्रिवेणी कहकर पुकारते हैं । यह दुःखों, रोगों से छुड़ाकर सुखी करता और सच्चे तीर्थ का कार्य करता है । वेद के पवित्र ग्रन्थों में अश्वत्थ वा पीपल के विषय में अनेक मन्त्र मिलते हैं जिनको अर्थ सहित नीचे दिया जाता है । पाठक इससे लाभ उठायेंगे, पूर्ण आशा है ।


अथर्ववेद में अश्वत्थ सम्बन्धी पांच मन्त्र मिलते हैं, जो निम्नलिखित हैं -


अश्वत्थो देवसदनस्तृतीयस्यामितो दिवि ।

तत्रामृतस्य चक्षणं देवाः कुष्ठमवन्वत ॥

(अथर्व० कां ५, सू० ४, म० ३)


इसी प्रकार का एक मन्त्र और अथर्व० ६ कांड, ९५ सूक्त, २० अनुवाक में भी मिलता है ।


अर्थ - अश्वत्थ वृक्ष की छाया देवताओं के बैठने योग्य है । जहां वीर और उनके अश्वों के बैठने योग्य पीपल की छाया है, वहां देवताओं को भी ब्राह्मणों और विद्वानों के लिए पीपल वृक्ष की छाया बहुत हितकारक है । इसलिये पीपल को देवसदन कहते हैं । वीरों और विद्वानों के ठहरने का स्थान है, यह स्थान मध्यम और निकृष्ठ अवस्था से परे है । अर्थात् द्वितीय वा तृतीय दर्जे का यह स्थान नहीं, यह सर्वोत्तम प्रकार का स्थान है । श्रेष्ठ गति वालों का यह उत्तम स्थान है । इसके सेवन से अमृत की (शुद्ध प्राणों की) शुद्ध वायु की प्राप्‍ति होती है । देव विद्वान् लोग पीपल के स्थान की, रोगनाशक स्थान की प्राप्‍ति की मांग करते हैं ।


शमीमश्वत्थ आरूढस्तत्र पुंसवनं कृतम् ।

तद्वै पुत्रस्य वेदनं तत्स्त्रीष्वा भरामसि ॥

(अथर्ववेद कां ६, सू. ११ मं. १)


जो अश्वत्थ (पीपल) का वृक्ष शमी वृक्ष पर उत्पन्न होकर आरूढ रहता है अर्थात् जो पीपल का वृक्ष शमी वृक्ष के ऊपर उगता है और उसी पर बड़ा होकर रहता है, चढा रहता है, उस पर ही सवार रहता है (जिसकी जड़ भूमि में नहीं जाती), वह पीपल का वृक्ष पुंसत्व शक्ति देने वाला होता है । वह पुत्रदा अर्थात् पुत्रोपन्न करने वाला होता है । इसका औषध रूप में सेवन किया जाये तो पुत्र की प्राप्ति करवाता है । ऐसे पीपल के फल, छाल, पत्र और दाढी, बल्कल आदि का स्त्रियों को सेवन कराने से उनका बांझपन दूर होता है और पुत्र की प्राप्ति होती है । इससे अधिक पुत्रदा औषध क्या होगी जिसका प्रतिपादन स्वयं वेद भगवादन् करता है । पुत्रदा योग पीपल संबन्धी अगले पृष्ठों में लिखे हैं ।


यत्राश्वत्था न्यग्रोधा महावृक्षा: शिखण्डिन: ।

तत्परेताप्सरस: प्रतिबुद्धा अभूतन ॥

(अथर्ववेद ४ कां, ३७ सू. ४ मं)


अर्थ : जिन स्थानों पर पीपल, बड़ आदि ऊंचे ऊंचे महावृक्ष होते हैं वहां पर अश्वारोही बलवान योद्धा होते हैं । पीपल के, बड़ के वृक्षों के नीचे उनके अश्व तथा वे स्वयं भी विश्राम करके सब रोगों से मुक्त रहते हैं । आकाश में दूषित वायु से उत्पन्न होने वाले छूत के रोगों, प्लेग, चेचक, हैजा, ज्वर आदि से वे सुरक्षित रहते हैं क्योंकि वे "प्रतिबद्धा" ज्ञानी जागरूक रहने वाले होते हैं । वे इन पीपल, वट आदि महावृक्षों के गुणों से परिचित होकर इनको औषध रूप में सेवन करते हैं तथा इन महावृक्षों की छाया, फल, फूल, दूध, पत्तों की शक्तिशाली औषध का सेवन करके मिरगी, अपस्मार, पागलपन आदि रोगों से बचे रहते हैं तथा विद्वान प्रतिबद्ध जागरूक होकर सुखी रहते हैं ।


अश्वत्थो देवसदनस्तृतीयस्यामितो दिवि ।

तत्रामृतस्य चक्षणं ततः कुष्ठो अजायत ॥

(अथर्व० कां १९, सू० ३९, म० ६)


पीपल का वृक्ष देव विद्वान् ब्राह्मण संन्यासियों और वीर क्षत्रियों के बैठने तथा ठहरने का सर्वोत्तम स्थान है । यह मध्यम वा निकृष्ठ स्थानों से सर्वथा परे है अर्थात् सर्वोत्तम है । वहां सर्व प्रकार के रोगों दुःखों की निवृत्ति होती है तथा सर्व प्रकार के रोगों से छुटकारा मिलता है और अमृत रूपी आनन्द के दर्शन, प्राप्‍ति होती है । कुष्ठ और ज्वारादि रोग दूर होते हैं । सब की पीड़ायें दूर होती हैं । इन मन्त्रों में पीपल के गुणों का अच्छा वर्णन मिलता है । विद्वान् इन पर विचार करें तथा लाभ उठायें और दुःखी जनता की सेवा करें । अगले पृष्ठों में पीपल के गुणों तथा औषध रूप सेवन से लाभादि पढ़कर लाभ उठायें ।


- ओमानन्द सरस्वती


पिप्पलः (पीपल)

पीपल के नाम धन्वन्तरीय निघण्टु में इस प्रकार दिये हैं -


पिप्पलः केशवावास्श्चलपत्रः पवित्रकः ।

मंगल्यः श्यामलोऽश्वत्थो बोधिवृक्षो गजाशनः ॥७८॥

श्रीमान् क्षीरद्रुमो विप्रः शुभदः श्यामलश्छदः ।

पिप्पलो गुह्यपत्रस्तु सेव्यः सत्यः शुचिद्रुमः ॥७९॥

चैत्यद्रुमो वन्यवृक्षश्चन्द्रकरमिताह्वयः ॥


पीपल के नाम

Peepal Tree.jpg

पिप्पल, केशवावास, चलपत्र, पवित्रक, मंगल्य, श्यामलः, अश्‍वत्थ, बोधिवृक्ष, गजाशन, श्रीमान्, क्षीरद्रुमः, विप्र, शुभद, श्यामलश्छद, गुह्यपत्र, सेव्य, सत्य, शुचिद्रुम, चैत्यद्रुम, वनवृक्ष, चन्द्रकर, मिताह्वय । इसके अतिरिक्त गुरु, गुह्यपुष्प, कपीतन, कृष्णावास, महाद्रुम, नागबन्धु, वृक्षराज, नारायणम् आदि अनेक नाम और भी इस पीपल वृक्ष के अन्य निघन्टुओं में मिलते हैं । वक्षों में सर्वश्रेष्ठ होने से वृक्षराज, धर्मवृक्ष आदि भी इसके नाम दिये हैं ।


संस्कृत भाषा में पिप्पलः, अश्वत्थः आदि दो दर्जन से अधिक नाम हैं । हिन्दी - पीपल, पीपली । गुजराती - पीप्पलो, पीपुलजरी । बंगाली - अश्वत्थ, असुद, असवट । पंजाबी - भोर, पीपल । तामील - अचुक्तम्, अटास, अरशमरस, अस्वत्तम्, कुजीरावनम् इत्यादि । तेलगू - अश्वथ्यम्, बोधि, रावीचेट्ट आदि । फारसी - दरख्त-तेरजो, अंग्रेजी - Pipal tree लेटिन - Ecus Religiuse.


इस प्रसिद्ध वृक्ष पीपल के अनेक भाषाओं में नाम ऊपर लिखकर इसके विषय में विस्तार से अगले पृष्ठों में लिखा गया है । पाठक इसके गुण-दोषों को समझकर यथार्थ में इससे लाभान्वित होंगे । इसी दृष्टि से यह छोटी सी पुस्तिका पीपल वृक्ष के विषय में लिखी गई है । इसमें अपने तथा अन्य अनेक वैद्यों के अनुभूत योग दिये गये हैं । सामान्य लोग इसे साधारण वृक्ष समझकर लाभ नहीं उठाते । कुछ अनुभवी वैद्य अच्छे-अच्छे योगों को छिपाये रखते हैं और अपने साथ ही लेकर मर जाते हैं । यह अनुदार छोटे दिलवाले व्यक्तियों की बात है । मानव को उदारचित्त होना चाहिये तभी संसार का उपकार हो सकता है । पीपल का वृक्ष स्वयं भी अत्यन्त उदार अर्थात् परोपकारी ("परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः") वृक्ष है । इसकी छाया, फल, पत्ते, वल्कल (छाल) और लकड़ी सभी प्राणियों के कार्य में आती है । इसकी दाढ़ी तो "पुत्रदा" होने से सर्वत्र प्रसिद्ध है । इसे लोग ढ़ूंढ़ते फिरते हैं क्योंकि यह किसी भी पीपल पर लगी नहीं मिलती । कभी-कभी बहुत ढ़ूंढ़ने से कोई-कोई पीपल मिलता है जिस पर यह पीपल की दाढ़ी मिलती है जो पुत्रदा होती है । इस दाढ़ी के प्रयोग आगे दिये हैं । इसके मूल से लेकर चोटी तक सब कुछ औषध रूप में कार्य में आता है । अतः इसको यज्ञिय वृक्ष कहते हैं । इसीलिए इसको देवता भी कहते हैं क्योंकि सभी प्राणियों को यह सुख ही देता है । सबको जो सुख देवे उसे देवता कहना उचित ही है । अनेक दिव्य गुणों का भंडार होने से भी यह देवता कहलाता है । वेद भगवान् ने भी फल के स्थान पर पिप्पल शब्द का ही प्रयोग किया है ।

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषष्वजाते ।

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्‍नन्नन्यो अभि चाकशीति ॥

ऋ० म० १ सू० १६४ म० २०


दो सदैव साथ रहने वाले सखा (मित्र) पक्षी हैं । दोनों एक ही वृक्ष (प्रकृति) पर निवास करते हैं । इनमें एक पक्षी जीवात्मा है जो इस वृक्ष के फल (पिप्पल) को स्वाद लेकर खाता है । दूसरा पक्षी परमात्मा इस जीव के अपने मित्र के अच्छे बुरे कर्मों को साक्षी रूप में देखता है और इसके अच्छे बुरे कर्मों का फल सुख तथा दुःख के रूप में सदैव देता ही रहता है । यहां फल के स्थान पर पिप्पल (पीपल) का प्रयोग किया गया है । प्रकृति जीवात्मा के भोग के रूप में कार्य में आती है, यही इसका पिप्पल (पीपल) रूपी फल है । पीपल के विषय में आगे विस्तार से लिखते हैं ।


पीपल भारत देश का एक प्रसिद्ध वृक्ष है जिसे आबाल वृद्ध वनिता सभी जानते हैं । अतः इसके विशेष परिचय की आवश्यकता नहीं । इस वृक्ष का विस्तार व फैलाव तथा उंचाई बहुत होती है । वह सौ फुट से भी अधिक ऊंचा देखने में मिलता है । सैकड़ों पशु वा मनुष्य उसकी छाया में विश्राम कर सकते हैं । इतना अधिक इसका विस्तार व फैलाव देखने में मिलता है । भारत में तो यह सर्वत्र ही मिलता है । इसे पौराणिक भाई बहुत पवित्र और पूज्य मानते हैं तथा इसे देववृक्ष अर्थात देवताओं का वृक्ष मानते हैं । इससे उनका अंधविश्वास व अंधश्रद्धा समझी जाती है किन्तु इसका एक मूल कारण है । इसमें अनेक दिव्य गुण हैं और प्राणवायु को शुद्ध करने का सबसे अधिक गुण इसमें पाया जाता है । इस कारण फुसफुस (फेफड़े) के रोगों, क्षय (तपेदिक), श्वास (दमा), कास (खांसी) तथा कुष्ठ, प्लेग, भगन्दर आदि रोगों पर बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ है । आर्य (हिन्दू) लोग इसे बहुत श्रद्धा से लगाते हैं, देवता समझकर प्रतिदिन जल सींचते हैं । इसीलिये जोहड़ों और घरों के अंदर तथा बाहर, ग्रामों के आस-पास तथा खेतों तक में सर्वत्र बड़ी भारी संख्या में लगाये जाते हैं तथा पाये जाते हैं ।


पश्चिमी यूरोप के देशों में तो यह प्रसिद्धि है कि भारत देश में पीपल का ऐसा वृक्ष है जो प्राणवायु (आक्सीजन) दिन तथा रात में भी प्रदान करता है, जबकि सभी वृक्ष रात्रि में विषैला घातक वायु (कार्बन) छोड़ते हैं । इसीलिये गीता में यह लिखा है:

अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारद: ।

गन्धर्वाणां चित्ररथ: सिद्धानां कपिलो मुनि: ॥

जिस प्रकार देवर्षियों में नारद और गन्धर्वों में चित्ररथ तथा सिद्धों में कपिल मुनि श्रेष्ठतम हैं उसी प्रकार सब वृक्षों में अश्वत्थ (पीपल) सर्वश्रेठ है । इससे यह सिद्ध होता है कि वृक्षों में सर्वश्रेष्ठ गुणवाला होने के कारण पीपल सर्वश्रेष्ठ वृक्ष है । इसलिये धर्मवृक्ष, शुचिद्रुम:, याज्ञिक:, श्रीमान और पवित्रक: आदि अनेक नाम पीपल वृक्ष के निघन्टुवों में दिये गए हैं । महात्मा बुद्ध ने भी इस पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या की थी । इसी कारण इसका नाम बोधिवृक्ष भी है क्योंकि इसके नीचे तपस्या करने से महात्मा बुद्ध को बोध (ज्ञान) की प्राप्‍ति हुई थी ।


ऋषि-मुनि और सारी आर्य जाति तथा इसके पूर्वज पीपल वृक्ष को सर्वश्रेष्ठ वृक्ष सदा से क्यों मानते आये हैं और सनातन धर्मी तथा पौराणिक भाई इसे पूज्य और देववृक्ष क्यों मानते हैं ? इसका कारण मुख्य एक ही है । यह यज्ञीय वृक्ष है, अर्थात इसका प्रत्येक भाग सभी प्रणियों के लिये और विशेष रूप से मानव के कल्याणार्थ है व उपादेय है । इसकी छाया बहुत शीतल और सुखद है । पत्र कोमल, चिकने हरे रंग के आंखों को सुहाने वाले लगते हैं । फल बहुत लगते हैं और पकने पर मधुर तथा स्वादु लगते हैं, औषध के रूप में इसके पत्र, त्वक, फल, बीज, दुग्ध (लाख), लकड़ी आदि इसका प्रत्येक अंग व अंश हितकर है । इसकी लकड़ियां भी यज्ञ में समिधा के रूप में काम आती हैं । पीपल वृक्ष की छोटी-छोटी तथा पतली-पतली लकड़ियां स्वयं सूख कर झड़तीं रहतीं हैं । दैनिक यज्ञ करने वाले को तोड़ने की आवश्यकता नहीं रहती, पीपल के वृक्ष के नीचे पड़ी हुई मिल जातीं हैं । पीपल वृक्ष की आयु भी लम्बी होती है । यह लम्बे समय तक सुख देने वाला है, सर्व हितकर है । इसीलिये देववृक्ष, यज्ञीयवृक्ष और पूज्य वृक्ष माना जाता है, इसी कारण आर्य जाति का सर्वप्रिय वृक्ष है । यह भारत का अद्‍भुत् वृक्ष है जो प्राणों को सबसे अधिक शुद्ध क्रने वाला तथा शक्तिदायक है । सब वृक्षों में सबसे अधिक जीवन शक्ति "आक्सीजन" प्रदान करता है इसीलिये इसको घर और मन्दिरों सभी स्थानों पर श्रद्धा से लगाया जाता है । चैत्यद्रुम (मंदिरों का वृक्ष) विप्र:, शुभद: और मंगल्य: आदि इसके नाम हैं । एक और नाम है केशवावास: अर्थात श्रीकृष्ण जी महाराज केशव, इस के नीचे आवास करते रहते थे । हाथी का प्रिय भोजन होने से गजाशन: गजभक्षक: आदि भी नाम पीपल के हैं ।

पीपल के गुण

अश्‍वत्थोऽपि स्मृतस्तद्रक्तपित्तकफापहः ॥८०॥

पीपल का वृक्ष रक्त, पित्त और कफ के रोगों को दूर करने वाला है ।


राजनिघन्टु में पीपल के गुण

पिप्पलः सुमधुरस्तु कषायः शीतलश्च कफपित्तविनाशी ।

रक्तदाहशमनः स हि सद्यो योनिदोषहरणं किल पक्वः ॥

पीपल सुमधुर (खूब मीठा स्वादिष्ट), कषायः (कषैला), शीतल (ठण्डा), कफ और पित्त रोगों का विनाश करने वाला है । रक्त सम्बंधी रोगों तथा दाह (जलन) को शान्त करने वाला है और योनिसंबन्धी स्‍त्री रोगों को तुरन्त शान्त करने वाला है ।


फलों के गुण

अश्वत्थवृक्षस्य फलानि पक्वान्यतीव हृद्यानि च शीतलानि ।

कुर्वन्ति पित्तास्रविषार्ति दाहविच्छर्दि शोषारुचिदोषनाशम् ॥१११॥

पीपल वृक्ष के पके हुये फल हृदय रोगों को शान्त करने वाले और शीतल होते हैं । पित्त, रक्त और विष के कष्ट को दूर करते हैं । दाह, वमन, शोथ, अरुचि आदि रोगों को दूर करते हैं । फल पाचक, आनुलोमिक, संकोच, विकास-प्रतिबन्धक और रक्त शोधक हैं ।


पीपली

पिप्पली लघुपत्री स्यात् पवित्रा ह्रस्वपत्रिका ।

पिप्पलिका वनस्था च क्षुद्राः चाश्वत्थसंनिभा ॥

पीपली छोटे पत्तों वाली - ह्रस्वपत्रिका भी इसका नाम है । पवित्रा, पिप्पलिका, क्षुद्रा और वनस्था इसके नाम हैं । पीपल के समान गुण वाली पिप्पलिका [पीपली] भी होती है ।


गुण

अश्वत्थिका तु मधुरा कषाया चास्रपित्तजित् ।

विषदाहप्रशमनी गुर्विणी हितकारिणी ॥११३॥

पिप्पली (पीपली) मधुर, कशाय (कषैली), रक्तपित्त के दोषों को जीतने वाली है । विष विकारों तथा दाह (जलन) को शमन करने वाली है । कुछ भारी तथा हितकारी होती है ।

गुणः - भावप्रकाश निघण्टु में पीपल को भारी, देर से पचने वाला, शीतल, कषैला, रूखा, व्रण (फोड़ों) जख्मों को ठीक करने वाला, योनि को शुद्ध करने वाला और पित्त, कफ, व्रण तथा रक्त विकार को नष्ट करने वाला कहा गया है ।


व्यवहार में


पत्र, त्वक् (छाल), फल, बीज, दुग्ध, लाख और दाढ़ी के रूप में प्रयुक्त होता है । पीपल वृक्ष को भारतवासी तो सारे जानते हैं । इसके पत्ते कोमल, चिकने, हरित पाण्डुर वर्ण के होते हैं । पत्रवृन्त (डंठल) पतला, लम्बा होता है । पत्राकृति पान के समान किन्तु विशेष नोकदार शिरापूर्ण होती है । पुष्प इसके गुह्य (गुप्‍त) होने से इसका नाम गुह्यपुष्पक है । चैत्र में (पतझड़ के काल में) इसके पत्ते झड़ जाते हैं और वर्षा से पूर्व ही कोमल पत्तों से पुनः शोभित हो जाता है । फल बहुत लगते हैं । जब कच्चे होते हैं तो हरे और पकने पर हल्के रक्त वर्ण के होते हैं । फलों का स्वाद मधुर होता है और वे गुणकारी होते हैं ।


इसका दूध बहुत ही शीघ्र रक्तशोधक, वेदनानाशक, शोषहर होता है । दूध का रंग सफेद होता है । कोमल पत्तों का लेप व्रण पर हितकारक होता है । लाख पुराने पेड़ों पर लगती है जो रक्तशोधक, रंजक, शीतल तथा ज्वर और निर्बलता को दूर करती है । लाक्षादि वा महालाक्षादि तैल में इसी पीपल की लाख का ही प्रयोग होता है, जो बहुत गुणकारी है । इस प्रकार प्रत्येक भाग पीपल का हितकारी होता है । इसी कारण पीपल का वृक्ष सब वृक्षों में श्रेष्ठ, पूज्य, पवित्र और गुणकारी माना गया है ।


मात्रा - इसके क्वाथ की मात्रा ५ से १० तोले तक है । फल और बीज के चूर्ण की मात्रा १ से २ तोले तक है । लाख के चूर्ण की मात्रा १ से ३ माशे तक है और दुग्ध की मात्रा ३ माशे से २ तोले तक है ।


वेद में पीपल


परम पवित्र वेद की वाणी में पीपल के विषय में इस प्रकार लिखा है -


अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृता ।


पीपल का नाम अश्वत्थ वेद में आया है जिसकी निरुक्ति वा अर्थ इस प्रकार किया है - "अश्वत्थः श्‍वः स्थास्यति न स्थास्यति वा" । अर्थात् जिस प्रकार असार संसार में हमें पता नहीं हम कल रहेंगे वा नहीं इसका कोई ज्ञान नहीं । इसी प्रकार पीपल वा पीपल के पत्तों का यह पता नहीं कि वह कल रहेगा वा नहीं । इसीलिये "चलपत्र" पीपल का नाम है । इसके पत्ते सदैव चलते हिलते रहते हैं, गति में रहते हैं । वे स्थायी नहीं हैं । प्रतिवर्ष पतझड़ में चले ही जाते हैं, फिर नये पत्ते फूट आते हैं । इसीलिये पीपल के पत्तों का भी पता नहीं वे कल रहेंगे वा नहीं । जब पीपल बहुत पुराना भारी हो जाता है तब इसका भी पता नहीं होता वह कल रहेगा वा नहीं । इसीलिये इस का अश्वत्थ नाम है । इस विनाशशील संसार में पीपल वा पीपल के पत्ते समान संसार में हम सब का जीवन अनित्य है । सदा रहने वाला नहीं । अतः सावधान रहकर धर्माचरण करना चाहिये । यही अश्वत्थ (पीपल) से शिक्षा मिलती है ।


आयुर्वैदिक शास्‍त्रों की दृष्टि से पीपल मधुर, शीतल, कषैला, दुर्जर, भारी, रूखा, कान्ति को उज्जवल करने वाला, कड़वा, योनिशोधक और रक्तदोष, दाह (जलन), पित्त, कफ और व्रण (फोड़ों) जख्मों को ठीक और दूर करने वाला है ।


पीपल की छाल

पीपल की छाल स्तम्भक, रक्त संग्राहक और पौष्टिक होती है । इसके पत्ते आनुमौलिक होते हैं । सुजाक में छाल प्रयुक्त होती है । इसकी छाल के अंदर फोड़े को पकाने के तत्व भी होते हैं । इसकी छाल का शीत निर्यास (घनसत्व) गीली खुजली को दूर करने के लिए मिलाया जाता है । इसकी छाल के चूर्ण का मरहम एक शोषक वस्तु के समान सूजन पर लगाया जाता है ।


इसकी ताजी जलाई हुई छाल की राख को पानी में घोल कर और उसके निथरे हुए जल को पिलाने से भयंकर हिचकी भी दूर हो जाती है । इसकी छाल का चूर्ण भगन्दर रोग में उपयोगी पाया गया है । लंका में इसकी छाल का रस दांत मसूडों की पीड़ा को दूर करने के लिए कुल्ले करने में बरता जाता है ।


इसके गुणों पर अगले पृष्ठों में विस्तार से लिखा जायेगा ।


यूनानी मत


यूनानी मत में इसके पत्ते और छाल दर्जे में शीतल तथा रूक्ष (खुश्क) होते हैं । इसकी छाल कब्ज करने वाली है, इसकी ताजी छाल को जल में भिगोकर कटि (कमर) में बांधने से शक्ति आती है । कामेन्द्रिय में उत्तेजना उत्पन्न करती है । वीर्य पुष्ट वा गाढ़ा होता है और स्तम्भन शक्ति बढ़ती है, वीर्यवर्धक है । इसका अर्क रक्त को शुद्ध करता है तथा रक्त के दोषों को दूर करता है । इसकी छाल का क्वाथ पीने से मूत्रकृच्छ्र (पेशाब) की जलन, पुराना सुजाक और हड्डी की जलन मिट जाती है ।


दन्त रोग - इसकी छाल के क्वाथ से कुल्ले करने से मसूढ़ों की सूजन तथा दांतों की पीड़ा मिटती है ।

तिल्ली (प्लीहा) - इसकी छाल को जलाकर उसकी भस्म में समभाग कलमी शोरा मिलाकर उसके चूर्ण को छिले हुये केले पर छिड़क कर प्रतिदिन खाने से तिल्ली (प्लीहा) की सूजन तथा बढ़ी हुई तिल्ली ठीक हो जाती है ।


सूजन - पीपल के पत्तों को गर्म करके सूजन पर बांधने से सूजन उतर जाता है ।


चोट पर - पीपल की ११ पत्तियों को पीसकर उसके समान गुड़ मिलाकर इसकी सात गोलियां बना लें । जिसके चोट लगी हो, उसको प्रातःकाल सात दिन खिलाने से चोट की पीड़ा मिट जाती है ।


पागलपन - पीपल की सात छोटी-छोटी और कोमल डालियों को औटा कर पिलाने से पागलपन में लाभ होता है ।

आंखों पर - पत्तों को तोड़ने पर जो दूध निकलता है उसको आंख में लगाने से पीड़ा दूर होती है ।


पीपल और श्वास रोग


अनेक साधु महात्मा श्वास वा दमे को दूर करने के लिए मुफ्त औषध बांटते हैं । कुछ तो पिसी हुई औषध खीर में खिलाते हैं । कुछ लकडी का चूर्ण खीर में खिलाते हैं । एक दिन के खाने से कभी-कभी कुछ रोगियों को लाभ भी होते देखा गया है । चौ० ईश्वरसिंह जी आर्यसमाज के प्रसिद्ध भजनोपदेशक थे, वे भी प्रतिवर्ष इस प्रकार की औषध मुफ्त बांटा करते थे । किसी रोगी को लाभ भी होता था ।


पीपल का योग

पीपल को कफ के रोगों को दूर करने वाला आयुर्वेद शास्‍त्रों में लिखा है । योग निम्न प्रकार है । श्वास कफ का ही रोग है । पीपल की अन्तरछाल को लेकर उसको कूट छानकर चूर्ण बना लें । इसमें से ६ माशे चूर्ण ले लेवें । शरद् पूर्णिमा की रात्रि में गाय के दूध की खीर बनावें और इस खीर में से १० तोला खीर ले लेवें और ऊपर वाले छाल का चूर्ण ६ माशे मिला लेवें और दो घण्टे इस क्षीर को चन्द्रमा की चांदनी (प्रकाश) में पड़े रहने देवें । यह प्रसिद्ध है इस औषध के सेवन से एक ही रात में दमा चला जाता है । किन्तु यह बात सर्वथा ठीक नहीं है, किसी-किसी रोगी को लाभ भी हो जाता है । कुछ साधु महात्मा इस प्रकार की औषध का दमे के सहस्रों रोगियों पर शरद् पूर्णिमा अथवा अन्य निर्मल पूर्णिमाओं पर भी प्रयोग करते हैं । कुछ रोगियों को लाभ भी हो जाता है ।


कास श्वासहर क्षार

१.

पीपल की लकड़ी की भस्म लेकर इसको ८ गुणा जल में भिगो देवें । दिन में चार-पांच बार हिलाते रहें । तीन दिन के बाद जल को निथार कर मन्दाग्नि पर जलाकर क्षार बना लें । मात्रा एक माशा शहद में मिलाकर दिन-रात में दो-तीन बार चटायें । खांसी दमे में लाभ होगा ।

२.

पीपल के फलों को छाया में सुखाकर चूर्ण बना लें और श्वास कास के रोगी को प्रातःकाल ताजे जल के साथ देवें । यदि कफ न निकलता हो तो गाय के धारोष्ण दूध के साथ देवें । शीघ्र ही लाभ होगा ।

३.

पीपल के पंचांग का घनसत्त्व तैयार करके उसकी गोलियां जंगली बेर के समान बना लें । प्रातः सायं एक वा दो गोली श्वास वा कास के रोगी को जल वा गोदुग्ध के साथ देवें । कुछ ही दिनों में लाभ हो जाएगा ।

४.

पीपल की अन्तरछाल १ सेर लेकर इसे कूट-छान लें । इसमें से आधा सेर छाल के चूर्ण को दो सेर जल में भिगोकर उबालें, जब १ सेर रह जाये तो उतारकर छान लें और आधा सेर अन्तरछाल के चूर्ण को मिट्टी के दो सेर के पात्र में भिगो दें । फिर इसके पानी को निथारकर उबालें, फिर क्वाथ के जल के साथ मिला कर किसी शुद्ध मिट्टी के बर्तन में सुरक्षित स्थान पर रख दें । इसमें से दो छटांक निथरा हुआ जल प्रातःकाल तथा दो छटांक जल सायंकाल श्वास के रोगी को पिलाया करें । कुछ दिन के प्रयोग से श्वास के रोगी को लाभ होगा ।

५.

पीपल के पत्तों को छाया में सुखाकर कूट-छानकर समान भाग कर मिश्री मिला लें तथा कीकर का गोंद मिलाकर चने के समान गोली बना लें । खांसी के रोगी को दो तीन गोलियां दिन में कई बार चुसायें तो रोग दूर होगा ।

६.

पीपल के हरित पत्रों को लेकर एक हांडी में भर दें तथा कपरोटी करके सुखाकर उपलों की अग्नि में फूंक देवें । सर्वांग शीतल होने पर पत्तों की भस्म निकाल लें । इसमें थोड़ा सा काला वा सैंधा नमक मिलाकर मात्रा १ माशा से ३ माशे तक शहद में मिलाकर रोगी को कई बार चटायें तो खांसी के रोगी को लाभ होगा ।

७.

पीपल के पत्तों की भस्म, बांसे के पत्तों की भस्म, केले के पत्तों की भस्म तथा अपामार्ग की भस्म चारों को समान भाग लेवें ।


मात्रा - १ माशा शहद में मिलाकर चटाने से कुत्ता खांसी, सूखी खांसी और श्वास रोग दूर होगा । यह बच्चों की कुत्ता खांसी वा सूखी खांसी की रामबाण औषध है ।


८.

उपर्युक्त पीपलादि चारों के क्षार समभाग लेकर इन चारों के समान ही सितोपलादि चूर्ण इसमें मिला लें ।


मात्रा - एक माशा से दो माशा शहद में मिलाकर दिन में तीन बार देवें । सूखी वा काली खांसी दुम दबाकर भागेगी । यह काली वा सूखी खांसी की सर्वोत्तम औषध है ।


९.

पीपल के पंचांग का घनसत्व एक छटांक सितोपलादि चूर्ण आधा पाव - दोनों को मिलाकर मधु के साथ चने के समान गोलियां बनायें । श्वास कास के रोगी को चुसायें । बहुत शीघ्र लाभ होगा ।

१०.

पीपल का घनसत्व एक तोला, त्रिकुटा १ तोला, मधु आधी छटांक मिलाकर चटनी बनायें । मात्रा १ माशा दिन-रात में रोगी को कई बार चटायें । कास, श्वास में बहुत ही लाभ होगा ।


दन्तरोग और पीपल

पीपल की दातुन प्रतिदिन करने से सभी को लाभ होता है । किन्तु पित्त प्रकृति के व्यक्ति को पीपल की दातुन विशेष रूप से हितकर है । पीपल की दातुन प्रतिदिन करने से दांतों के सभी रोग दूर होते हैं जैसे दांतों को कीड़ा लगना, मसूड़ों का सूजन (शोथ), इनसे पीप व खून निकलना, दांतों का मैला होना, दांतों की पीड़ा और दांतों का हिलना आदि सभी रोग दूर होते हैं । पीपल की दातुन करने से मुख की दुर्गन्ध दूर होती है । सब रोग दूर होकर दृष्टि भी तेज होती है ।


दन्तमञ्जन


पीपल की अंतरछाल अथवा जड़ की छाल लेकर छाया में सुखा लें, फिर कूटकर कपड़छान कर लें । इस एक छटांक चूर्ण में १ तोला सैंधा लवण मिलाकर सुरक्षित रखें । इसको दन्तमंजन के समान प्रयोग करें । इसके प्रयोग से दांतों के सभी रोग दूर होते हैं और दांतों की जड़ें मजबूत होकर इनकी आयु बढ़ जाती है । दांत अधिक समय तक टिके वा जमे रहते हैं । इसी मंजन को बिना लवण के केवल छाल मात्र से बनाया जा सकता है । यह दन्त रोगों के लिए अच्छा मंजन है ।


तृतीयक ज्वर पर दन्तधावन


विषम ज्वर में तृतीयक (तेइया) ज्वर तीसरे दिन आने वाला ज्वर होता है । अर्थात् जो एक दिन छोड़कर आता है । वैसे तो इसे बहुत ही कमजोर (निर्बल) प्रकार का ज्वर (मलेरिया) माना जाता है । जिस दिन ज्वर आने का समय हो उस दिन ज्वर आने के समय से एक-दो घंटा पहले ताजी दातुन पीपल की लेकर रोगी करना आरम्भ करे । दातुन का रस चूसता रहे और ज्वर आने के समय तक रोगी दातुन करे तो (यदि पेट में कब्ज न हो तो) तृतीयक ज्वर टल जाएगा, नहीमं आएगा । इसीलिए यह आवश्यक है कि जिस दिन ज्वर आने की बारी न हो उस दिन हल्का-सा जुलाब रोगी को देकर पेट साफ करवा दें । मृदु विरेचन हो, अधिक तेज जुलाब न हो, पेट में मल नहीं रहना चाहिए । इस प्रकार पेट साफ होने से और बारी के दिन पीपल की दातुन उपरिलिखित विधि से करने से ज्वर नहीं आयेगा ।


पीपल के फल

पीपल के फल (पीपल वटी) को इकट्ठा करके छाया में सुखा लें और सुरक्षित रखें । ताजे फल अनेक रोगों में बहुत ही लाभदायक होते हैं । किन्तु ये सदैव ताजे नहीं मिलते, अत: सब ऋतुओं में प्रयोगार्थ सुखाकर रख लें ।


मुख के स्वाद को ठीक करने के लिए


जिस व्यक्ति के मुख में दुर्गन्ध रहती हो अथवा मुख का स्वाद किसी समय भी ठीक न रहता हो तो उसके लिए पीपल के फलों को खाने से बहुत लाभ होता है । अरुचि मुख का दुस्वाद व विरसता ठीक हो जाते हैं । जिस ऋतु में पीपल के फल ताजा मिलते हों तो रोगी को प्रतिदिन दो तीन तोले प्रात: सायं खाने चाहियें । ताजा न मिलें तो छाया में सुखाये हुए ६ माशा प्रात: सायं रोगी को एक-दो मास खाने चाहियें, इससे पूर्ण लाभ होगा । जहां मुख की नीरसता और दुर्घन्ध दूर होगी वहां शरीर की दाह (जलन) ऊष्णता दूर होकर शरीर पुष्ट होगा । छाती की जलन को दूर करने के लिए पीपल के फलों का उपयोग बहुत ही लाभप्रद है ।


हृदय के लिए लाभप्रद


१.

पीपल के कोमल पत्तों का रस निकाल लें । इस में से ६ माशे से १ तोला रस लें और थोड़ी मिश्री मिलाकर प्रातः सायं लेने से हृदय को बड़ी शक्ति और शांति मिलती है । हृदय बलवान् बनता है । इस वृक्ष में हृदय को बलवान् बनाने की विचित्र शक्ति भगवान् ने भरी हुई है । यह निर्धनों के लिए मुक्ता और जहरमोहरा समझिए । इन्हीं रत्‍नों के समान गुणदायक है । लोग इसको साधारण वृक्ष समझकर इसका सेवन नहीं करते । पौराणिक भाइयों की प्रयाग की त्रिवेणी (गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम स्थान) तो कल्पित है । उसमें स्नान करने से न तो पाप से छुटकारा मिलता है न उस तीर्थ में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्‍ति होती है किन्तु पीपल, नीम और वट वृक्ष की त्रिवेणी के औषधरूप में यथोचित प्रयोग से अनेक रोगों से मुक्ति मिल जाती है । इन तीनों (त्रिवेणी) की पुस्तकें पृथक्-पृथक् लिख दी हैं, पाठक पढ़कर लाभ उठायें ।

२.

प्रवाल (मूंगे) की शाखायें अर्थात् रक्तवर्ण के मूंगे की मूल ले लें और पीपल की कोंपलों के रस की भावना देकर चन्द्रमा की चांदनी में पूर्णमासी के दिन सारी रात्रि खरल करें और इस प्रकार यदि कई भावनायें पीपल के पत्तों के रस की दे देवें तो हृदय के लिए यह अमृत तुल्य औषध तैयार हो जाएगी । इसी प्रकार लाल कमल के फूलों के रस की भी उपर्युक्त प्रकार से चन्द्रमा की चांदनी में खरल करके कुछ भावनायें दे देवें तो सोने पर सुहागे का कार्य होगा । औषध बहुत ही उपयोगी बन जायेगी । मात्रा दो रत्ती प्रातः सायं पीपल के पत्तों के रस के साथ अथवा मधु के साथ सेवन करें तो बहुत ही लाभ होगा । हृदय की धड़कन, दुर्बलता सब रोग दूर होंगे । इसका प्रयोग हृदय के सब रोगों के लिए रामबाण सिद्ध होगा ।

३.

यदि पीपल के अर्क वा पीपल के शर्बत के साथ इसका सेवन किया जाए तो और भी अधिक लाभ होगा ।


पीपल का अर्क


पीपल के १ सेर पत्तों को ८ सेर जल में मिट्टी के शुद्ध पात्र में रात्रि में भिगो देवें और भबके द्वारा इसका अर्क खींच लें । मात्रा दो तोले से ४ तोले तक लेवें । इसका अर्क अकेले भी सेवन किया जा सकता है । यदि इसके साथ प्रवालपिष्टी का सेवन करें तो बहुत शीघ्र और बहुत अधिक लाभ होगा । प्रातः सायं दो बार सेवन करने से अच्छा लाभ होगा ।


पीपल का शर्बत


४.

पीपल के अर्क वा पत्तों के स्वरस में दुगुनी शुद्ध कूजा मिश्री डालकर शर्बत तैयार करें तथा रोगी को दो तोले शुद्ध जल में दो तोले शर्बत मिलाकर दिन में दो-तीन बार पिलायें । इससे बहुत शीघ्र तथा अधिक लाभ होगा । इसके साथ प्रवालपिष्टी के सेवन कराने से आश्चर्यजनक लाभ होगा । उपरोक्त सभी औषधियों के सेवन से आश्चर्यजनक बल वा शक्ति हृदय को प्राप्‍त होगी । सेवन करें और लाभ उठायें तथा ऋषियों के गुण गायें ।

५.

मुक्ताशुक्ति की भस्म तथा मुक्तापिष्टी पीपल के पत्तों के रस से चन्द्रमा की चांदनी में तैयार की हुई सभी हृदय रोगों की अचूक औषध है । मात्रा - मुक्ताशुक्ति भस्म की दो रत्ती है तथा मुक्तपिष्टी की मात्रा एक-चौथाई रत्ती है । इसका सेवन हृदय के सभी रोगों को दूर करता तथा हृदय को अत्यन्त बल वा शक्ति प्रदान करता है ।


प्रवाल पञ्चामृत


कोड़ी भस्म, शंख भस्म, प्रवाल भस्म, सीप भस्म और मोती भस्म सब समभाग ले लेवें तथा उपरिलिखित विधि के अनुसार पीपल की कोंपलों के स्वरस से चन्द्रमा की चांदनी में (हो सके तो पूर्णमासी की रात्रि में) भावना देकर सारी रात्रि खरल करें । फिर इस की मात्रा दो रत्ती दिन में दो तीन बार पीपल के स्वरस वा मधु के साथ सेवन कराने से हृदय मस्तिष्क और उदर संबन्धी सभी रोग दूर होते हैं । हृदय के लिए अमृत तुल्य रसायन है । आयुर्वेद की यह रामबाण औषध पागलों को भी ठीक कर देती है । बहुत बार की अनुभूत औषध है


पीपल का घनसत्व


७.

पीपल का घनसत्व हृदय के तथा अन्य अनेक रोगों को दूर करने वाला है ।


घन तैयार करने की विधि - पीपल का पंचांग अर्थात पीपल के पत्ते, जड़ की छाल, फल, पीपल की दाढी व पीपल की कोंपलें सब सम भाग ले लेवें । इन सब को कूटकर सोलह गुणा जल में किसी शुद्ध मिट्टी के बर्तन में भिगो देवें । २४ घंटे तक पड़ा रहने दें और किसी कली वाले व मिट्टी के पात्र में पकायें, जब एक-चौथाई जल रह जाये और तीन-चौथाई जल जाये, तो उतारकर मल छान लें, फिर इसे मन्दाग्नि पर पकायें । गाढ़ा होने पर उतार लें और सुरक्षित रखें, यही पीपल का सत्व है । यह अनेक रोगों को दूर करने वाली अमृत तुल्य औषध व रसायन है । इस की मात्रा दो रत्ती से एक माशा तक है । इसकी गोलियां हृदय रोग को दूर करने के लिए बहुत ही अच्छी औषध है । इसका सेवन पीपल के अर्क, शर्बत व मधु के साथ करायें, बहुत शीघ्र और अत्यधिक लाभ होगा ।


इसी घनसत्व का अनेक रोगों पर देश काल पात्र देखकर चतुर वैद्य अनेक प्रयोग करते हैं । इस सत्व में पीपल के सभी गुण विद्यमान होते हैं क्योंकि यह पीपल का सार है, सार में मूल पदार्थ के सभी गुण होते हैं । केवल इस अकेले इस सत्व के भी प्रयोग से बहुत लाभ होते हैं । अन्य औषधियों के साथ मिलाकर भी प्रयोग करते हैं । इसके बनाते समय यह सावधानी रखनी चाहिये कि इसे मन्दाग्नि पर पकाना चाहिये तथा इसमें जल का भाग नहीं रहना चाहिये, नहीं तो जलांश रहने से यह सड़ जाता है । इसके सत्व में विशेष गुण यह है कि यह कोमल से कोमल प्रकृति के व्यक्तियों को निर्भय तथा निशंक होकर सेवन करा सकते हैं । एक वर्ष के बालक से लेकर सौ वर्ष के वृद्ध तक किसी को भी सेवन करायें, कोई हानि होने की संभावना नहीं । यहां तक कि गर्भवती स्त्रियों को भी निर्भयतापूर्वक इसका सेवन कराया जा सकता है अर्थात आबाल वृद्ध वनिता सभी के लिए यह हितकारी है । सत्व होने से मात्रा भी इसकी थोड़ी ही दी जाती है । सोने चाँदी के वर्क लगाकर इसकी छोटी बड़ी गोली भी बनाई जा सकती है । इस प्रकार यह साधारण और सस्ती औषध भी निर्धनों के लिए मूल्यवान रसायनों से बढकर है ।


मस्तिष्क के रोगों पर

मस्तिष्क के रोगों पर जैसे मिरगी, मूर्च्छा, उन्माद (पागलपन), भ्रम, स्मृति की न्यूनता, जुकाम, नजला (पीनस), शिर की पीड़ा वा चक्कर आना आदि रोगों में पीपल के पत्ते, कोंपल, पीपल फल, पीपल का दूध, पीपल की छाल, पीपल की दाढ़ी और पीपल का सत्त्व सभी लाभदायक हैं ।


योग - पीपल का सत्त्व १ छटांक, प्रवाल पंचामृत १ छटांक । दोनों को मिलाकर दो-दो रत्ती की गोलियां बना लें और प्रातः-सायं एक दो गोली गोदुग्ध के साथ अथवा मधु के साथ सेवन कराने से मस्तिष्क के उन्माद, मूर्च्छा आदि सभी रोग बहुत ही शीघ्र तथा समूल नष्ट होते हैं ।

२.

पीपल का सत्त्व १ तोला, शंख भस्म १ तोला, ब्राह्मी बूटी १ तोला तथा ३ तोले मिश्री सबको कूट-पीसकर कपड़छान कर लें ।


मात्रा - ३ माशे प्रातः-सायं गाय के धारोष्ण दुग्ध के साथ सेवन करायें । इसके सेवन से शीघ्र ही मस्तिष्क संबन्धी सभी रोग समूल नष्ट हो जाते हैं ।


३.

पीपल के कोमल पत्तों को छाया में सुख लें तथा कूट-छान कर समान भाग में मिश्री मिला लें ।


मात्रा - ३ माशे प्रातः-सायं गोदुग्ध के साथ १ मास तक न्यून से न्यून सेवन करायें । फिर इस सरल सस्ती किन्तु उत्तम औषध से लाभ उठाकर ऋषियों के गुण गायें । मृगी, पागलपन आदि सभी रोग दूर होंगे । यदि दूध न मिले तो मधु वा ताजे जल के साथ इस चूर्ण के प्रयोग से लाभ होगा, किन्तु थोड़ा ही लाभ होगा ।


४.

पीपल की कोमल कोंपलों का रस निकालकर एक दो तोला लेवें और यथेच्छ मिश्री मिलाकर प्रातः सायं सेवन करायें तो उपरोक्त रोग में लाभ होगा ।


५.

पीपल की कोंपलें छाया में सुखाकर कूट-छानकर सुरक्षित रखें । इसमें ६ माशे से १ तोला तक लेकर १ पाव शुद्ध जल में उबालकर क्वाथ बनायें । एक छटांक शेष रहने पर उतरकर छान लें । इसमें खांड वा मिश्री मिलाकर रोगी को पिलायें । इसमें गोदुग्ध मिलाकर भी पी सकते हैं । इसके एक-दो मास तक सेवन करने से मूर्च्छा, मृगी, स्मृति की न्यूनता भ्र ५. पीपल की कोंपलें छाया में सुखाकर कूट-छानकर सुरक्षित रखें । इसमें ६ माशे से १ तोला तक लेकर १ पाव शुद्ध जल में उबालकर क्वाथ बनायें । एक छटांक शेष रहने पर उतरकर छान लें । इसमें खांड वा मिश्री मिलाकर रोगी को पिलायें । इसमें गोदुग्ध मिलाकर भी पी सकते हैं । इसके एक-दो मास तक सेवन करने से मूर्च्छा, मृगी, स्मृति की न्यूनता भ्रमादि मस्तिष्क के रोग दूर होते हैं ।


६.

पीपल के दस-बारह कोमल पत्ते गाय के तीन पाव दूध में डालकर उबाल दें । चार-पांच बार उबाल आने पर उतारकर छान लेवें, पीने योग्य होने पर दो तोले मिश्री मिलाकर रोगी को पिलायें । इस प्रकार प्रतिदिन प्रातः-सायं एक मास तक निरन्तर पिलाने से मूर्च्छादि मस्तिष्क के सभी रोग दूर होंगे । अच्छी औषध है ।

७.

पीपल की ताजा अन्तरछाल लेकर छाया में सुखा लें । कूट छानकर चूर्ण बना लें । छः माशे चूर्ण पानी में उबालकर क्वाथ बनायें, छानकर मिश्री और गोदुग्ध मिलाकर प्रातः-सायं रोगी को पिलायें । इससे खोई हुई स्मरण शक्ति लौट आयेगी । स्मृतिभ्रम, मूर्च्छा, अपस्मार आदि सब रोग दूर होंगे ।

८.

पीपल का पंचांग उपर्युक्त प्रकार से क्वाथ बनाकर पिलाने से उन्माद, भ्रम, मूर्च्छा, मृगी सब रोग दीर्घ काल तक सेवन करने से समूल नष्ट होंगे ।


९.

पीपल के २० कोमल पत्ते १ पाव गाय दूध में पकायें । जब सब दूध जल जाये तो उसमें खांड वा मिश्री मिलाकर प्रातः-सायं दोनों समय खिलायें । इसे लगातार खिलाने से मृगी, मूर्च्छा, उन्माद (पालगपन) सब दूर होंगे ।


१०.

पीपल के पंचांग का सत्त्व १ पाव लेकर १ सेर मिश्री की चाशनी बनाकर अवलेह बना लेवें । इसमें से प्रातः-सायं छः माशे अवलेह को चाटकर गोदुग्ध पिलायें । इससे मस्तिष्क संबन्धी सभी रोग दूर होते हैं । इस अवलेह की मात्रा रोगी की शक्ति, काल, अवस्था देखकर न्यूनाधिक भी की जा सकती है । कुछ वैद्यों का मत है इसकी मात्रा १ माशे से तीन माशे तक उचित है । इसके प्रयोग से उन्माद, अपस्मार, स्मृतिभ्रंश, जुकाम, नजला, सिर दर्द आदि मस्तिष्क संबन्धी सभी रोग समूल नष्ट हो जाते हैं । पीपल की सभी औषधियां बहुत सरल, सस्ती तथा लाभदायक हैं । सेवन करके लाभ उठायें ।

मूर्च्छा को दूर करने का योग

जब किसी भी रोग के कारण मूर्च्छा का प्रभाव होकर रोगी बेहोश होकर गिर पड़ता है तो उसको सर्वप्रथम मूर्च्छा भंग करके होश में लाना, सचेत करना आवश्यक होता है । इसके लिये बहुत उपयोगी सस्ता सरल योग है -


१.

पीपल का दूध ४-५ बूंदें लेकर अचेत रोगी की नासिका छिद्रों में टपकायें । इस से मूर्च्छा दूर होकर रोगी को होश आ जायेगा ।


२.

मुख पर शीतल जल के छींटे देवें और पीपल के दूध में समभाग मधु (शहद) मिलाकर माथे पर लेप कर दें । दोनों औषध रोगी की मूर्च्छा भंग करने वाले हैं । स्त्रियों को हिस्टेरिया की मूर्च्छा में भी इन औषधों का प्रयोग करने से लाभ होता है ।


नेत्र रोग

१.

पीपल का दूध आंखों के अनेक रोगों को दूर करता है । पीपल के पत्ते व शाखा [टहनी] तोड़ने से जो दूध निकलता है उसे थोड़ी मात्रा में प्रतिदिन सलाई से लगाना चाहिये । इससे आंख से पानी व मल (ढीड) बहना, फोला, आंख का दुखना, लाली आदि रोग दूर होते हैं ।


२.

पीपल के कोमल पत्तों का रस १ तोला, मेंहदी के ताजे पत्तों का रस १ तोला - इन दोनों को मिला लें तथा थोड़ा सा मधु (शहद) इसमें मिला दें और सलाई से आँखों में डालें तो आंख दुखना, लाली, फोला आदि रोग इसके सेवन से दूर होते हैं ।


३.

कभी आंख में चोट लग जाये और चोट के कारण आंख में सख्त पीड़ा हो, लाली हो, यहां तक कि आंख खुलती न हो और आंख से दीखता भी न हो तो पीपल के पत्तों का रस तथा मेंहदी के पत्तों का रस समभाग लेकर मिला लें और उसमें रूई के एक साफ फोहे को खूब अच्छी प्रकार से भिगोकर गोघृत एक कटोरी में डाल कर इसमें कुछ देर तक इस फोहे को पकायें तथा आँखों पर बांधकर रोगी को लिटा दें । केवल दो-तीन बार इस प्रकार ऐसे फोहे को बांधने से रोगी की आंख पूर्ववत सर्वथा स्वस्थ हो जाती है । रोगी के नेत्र में कितनी ही पीड़ा हो इस फोहे को बांधने से पीड़ा दूर होकर रोगी सो जायेगा । इस प्रकार की औषध से कितनी बार हमने अनेक रोगियों की आंखें ठीक की हैं । बार-बार की अनुभूत औषध है ।


४.

पीपल के पत्तों का क्वाथ बनाकर छानकर उस को पका कर गाढा कर लें, उस में समभाग शुद्ध मधु मिलाकर शीशी में सुरक्षित रखें । प्रात: सायं सलाई से इसे आंखों में लगाने से दुखती आंखें ठीक हो जातीं हैं । आंखों की लाली तथा जलन भी दूर होती है, नेत्रों को अपूर्व सुख व शान्ति की अनुभूति होती है ।


फोले, जाले आदि पर


उपरिलिखित औषध में श्वेतपुष्प वाले पुनर्नवा की जड़ को घिसकर लगाने से फोला जाल तथा मोतियाबिन्द नष्ट होकर आंखों में नई ज्योति का संचार होता है और अन्धे व्यक्तियों को पुनः नेत्रज्योति की प्राप्‍ति होती है । जाले तथा मोतियाबिन्द की सर्वोत्तम औषध है । अनुभूत है, आंखों में लगती है किन्तु जादू के समान लाभदायक है ।


रक्त तथा चर्मरोगों पर पीपल

१.

पीपल की अन्तर्छाल का क्वाथ पिलाने से सर्वप्रकार के चर्मरोग, फोड़े, फुन्सी, खुजली, दाद नष्ट होते हैं ।


२.

पीपल के बीजों का चूर्ण बारीक पीसकर ३ माशे से ६ माशे तक शहद में मिलाकर प्रात: सायं दोनों समय चटायें - इससे कुछ दिन में रक्त शुद्ध होकर रक्त सम्बंधी सभी रोग दूर होकर रोगी स्वस्थ होगा ।


३.

पीपल के कोमल पत्ते व कोपलें दो तोले लेकर आध सेर जल में उबालकर क्वाथ बनायें, १ छंटांक शेष रहने पर उतारकर छान लें और इसमें १ तोला मधु मिलाकर प्रात: सांय रोगी को पिलायें । १ मास तक पिलाने से रक्त शुद्ध हो जायेगा और रक्त के सभी फोड़े, फुन्सी, दाद इससे दूर होंगे ।


खुजली


१.

पीपल की छाल का क्वाथ वा फांट बनाकर पिलाने से खुजली (खाज) दाद मिट जाते हैं । यह अत्यन्त रक्तशोधक है । पीपल की कोमल कोंपलें खाने से दाद, खुजली तथा अन्य चर्मरोग नष्ट हो जाते हैं ।

२.

रक्त और चर्मरोगों को दूर करने के लिए पीपल की अन्तरछाल में बहुत ही चमत्कारिक रक्तशोधक गुण पाया जाता है । इसका काढ़ा वा क्वाथ बनाकर पीने से खुजली, दाद तथा अन्य चर्मरोग नष्ट हो जाते हैं । चर्मदल (चम्बल) एक्झिमा और वात-रक्त के समान रोगों में भी इनके प्रयोग से लाभ होता है ।


फोड़े-फुन्सियों पर पीपल


१.

जो फोड़े वा व्रण (जख्म) बहुत गल सड़ जाते हैं और किसी औषध से ठीक नहीं होते उन पर पीपल की अन्तरछाल को गुलाब जल वा शुद्ध जल में घिसकर लगाने से पूर्ण लाभ होता है । इसकी छाल से मलहम भी बनती है ।


२.

पीपल की छाल की राख एक तोला, दो तोले राल, तिल का तैल चार तोले - सबको कड़ाही में चढ़ाकर पकायें । जब ये सब पककर एक रस हो जायें और मरहम बन जाये, तो उतार लें । इस मरहम का एक फोहा फोड़े पर लगाकर बांध दें, एक ही बार की पट्टी से फोड़ा पककर फूट जायेगा और उसी पट्टी से प्रायः भर जाता है । शायद ही दूसरा फोहा लगाना पड़ता है । अच्छा होने पर फोहा स्वयं उतर जाता है ।

३.

जब कोई फोड़ा निकलने लगे तो पीपल के पत्ते गर्म करके सीधी ओर से फोड़े पर बांधें तो फोड़ा वहीं का वहीं बैठ जाएगा ।


४.

पीपल के पत्तों का भुड़ता भूबल में बनाकर दो-तीन बार बांधने से कच्चा फोड़ा बैठ जाता है अथवा पककर फूट जाता है और इसी के बांधने से अच्छा हो जाता है ।


५.

पीपल की कठोर छाल (वल्कल) लेकर उसकी राख बना लें तथा पीपल का क्षार बना लें । क्षार को जल में मिलाकर फोड़े पर लेप करें । फोड़ा शीघ्र ही बैठ जायेगा अथवा पककर फूट जाएगा और इसी के बांधने से शीघ्र लाभ होगा ।

६.

केवल पीपल की छाल की राख को पानी में मिलाकर लेप करने से वा बांधने से फोड़ा शीघ्र पककर फूट जाता है ।


७.

पीपल की छाल को जल में घिसकर गर्म करके फोड़े पर लेप करने वा बांधने से फोड़ा बैठ जाता है वा पककर फूट जाता है तथा इसी के लेप से भर जाता है ।


नारुवा


पीपल के पत्ते गर्म करके बांधने से नारुवा गलकर समाप्‍त हो जाता है ।


प्यास


कई बार ज्वर आदि रोगों में रोगी को तृषा (प्यास) बहुत तंग करती है और किसी प्रकार भी बंद नहीं होती । उस अवस्था में निम्न प्रयोग करना चाहिए ।


योग - पीपल की मोटी छाल उतारकर उन्हें जलाकर कोयले बनायें । उनके निर्धूम होने पर दहकते हुये कोयलों को छानकर रोगी को पिलायें । बारम्बार पिलाने से न बुझने वाली प्यास भी शांत हो जाएगी ।


हिचकी


पीपल की छाल जलाकर इसकी भस्म बना लें और इस राख को जल में घोल देवें । इसके निथरे हुए जल को पिलाने से हिचकी बंद हो जाती है ।


पीपल क्षार

पीपल की १ सेर राख को ८ सेर पानी में भिगो देवें तथा दिन में कई बार इसे हिलाते रहें । ४८ घंटे तक इसे पड़ा रहने दें । फिर इसे निथार कर छान लेवें और अग्नि पर चढ़ाकर मन्दाग्नि जलावें । सारा जल जलने पर सफेद रंग का पीपल क्षार रह जाएगा । उसे पीस-छानकर शीशी में सुरक्षित रखें । यह अनेक रोगों में काम आता है ।


हिचकी - दो रत्ती से १ माशा तक शहद में मिलकर दिन-रात में कई बार चटायें और खट्टी वस्तु, तैल, मांस आदि से बचें । इससे हिचकी का रोग दूर होगा ।


खांसी में भी पीपल के क्षार को ऊपर लिखे प्रकार के सेवन से लाभ होगा । यह क्षार पाचन शक्ति को भी बढ़ाएगा तथा कब्ज ववासीर को भी दूर करेगा । इसी क्षार में समभाग सितोपलादि चूर्ण को मिलाकर मधु के साथ सेवन करने से सूखी तथा काली खांसी में भी लाभ होगा । इसका प्रयोग कई दिन तक करना चाहिए ।


पीपल क्षार ४ रत्ती से १ माशा तक मधु में मिलाकर बार-बार चटायें । हिचकी अवश्यमेव नष्ट हो जायेगी ।


मूत्रकृच्छ्र


१.

जिस रोगी को यह रोग होता है उसको मूत्र (पेशाब) बड़े कष्ट से आता है । ऐसी अवस्था में पीपल की छाल का क्वाथ वा फांट बनाकर पिलाने से मूत्रकृच्छ्र रोग दूर होता है ।


२.

पीपल की कोमल कोंपलें वा पत्ते १ तोला पावभर पानी में घोंटकर मिश्री मिलाकर पिला दें । इससे मूत्र के सभी कष्ट जलन, दाह, पीड़ा दूर होंगे ।


सुजाक तथा मूत्रकृच्छ्र


१.

सुजाक को संस्कृत में उष्णवात कहते हैं । इसमें रोगी को बहुत कष्ट जलन (दाहादि) के कारण होता है । कई बार तो कष्ट इतना असह्य होता है कि रोगी आत्महत्या तक इसके कारण कर डालते हैं । पीपल इस रोग की उत्तम औषध है ।


योग - पीपल की अन्तरछाल जो कोमल हो, तीन-चार तोले ले लें और इसे यवकुट करके मिट्टी के कोरे घड़े में शुद्ध जल में भिगो देवें । रात्रि भर भीगने के पश्चात् प्रातः-काल जल निथार लें और सुजाक तथा मूत्रकृच्छ्र के रोगी को पिलायें । पहले दिन लाभ होना आरम्भ हो जाएगा, कुछ दिन के प्रयोग से रोग सर्वथा दूर हो जायेगा ।


२.

पीपल के घनसत्त्व वा अवलेह के शर्बत चन्दन वा बिजोरी के साथ दो रत्ती मात्रा में अनेक बार सेवन करने से सुजाक मूत्रकृच्छ्र दूर होगा । १० दिन तक सेवन करें ।


बद्ध तथा कण्ठमाला


१.

पीपल के कोमल पत्ते गर्म करके बद्ध पर बांधें । २-४ बार इस प्रकार बांधने से बद्ध वहीं की बहीं बैठ जायेगी ।


२.

यदि फोड़ा वा बद्ध पक जाए तो पीपल की नरम-नरम कोंपलों को जलाकर इसकी राख कपड़छान कर लें । बिगड़े सड़े-गले फोड़ों और घावों पर इस राख को भुरभुराने से सब फोड़े तथा जख्म ठीक हो जाते हैं ।


३.

कण्ठमाला को गण्डमाला तथा बेल भी कहते हैं । इसकी चिकित्सा बहुत कठिन है । गण्डमाला को डाक्टर लोग राजयक्ष्मा उरःक्षत वा तपेदिक ही मानते हैं । प्रायः यह देखा गया है कि कण्ठमाला के रोगी को ज्वर हो जाता है और रोग की ठीक चिकित्सा न होने पर तपेदिक (राजयक्ष्मा) रोग रोगी को आ दबाता है । फिर बेल के रोगी राजयक्ष्मा से ही मरते हैं । कचनार, गूगल, शिरीषान आदि इसके लिए बहुत ही अच्छे सिद्ध हुए हैं । पीपल की जड़ का लेप इसके लिए बहुत ही लाभदायक सिद्ध हुआ है । कुछ वैद्यों का यह अनुभव है कि जिस पीपल की जड़ भूमि को स्पर्श न करती हो उसका लेप कण्ठमाला पर बहुत अच्छा सिद्ध हुआ है । पाठक जानते हैं पीपल का वृक्ष कई बार वृक्षों पर तथा मकानों की दीवारों, कूओं की नाल, पक्की भित्ति पर उग आता है । ऐसी अवस्था में जिस पीपल की जड़ किसी पक्की दीवार में लगी हो और भूमि पर न टिकी हो अथवा भूमि के अन्दर न गई हो उस पीपल की जड़ को जल में प्रतिदिन घिसकर कण्ठमाला के फोड़ों पर लगायें । दिन में दो-तीन बार लेप करें । इससे कण्ठमाला की गांठें दब जायेंगी अथवा पककर फट जायेंगी । यह औषध इस रोग के लिए अमृतोपम है । उत्तम रसायन है । जादू के समान कार्य करती है । यह पीपल की जड़ फोड़े फुन्सियों को भी ठीक करती है । यह जड़ रक्त रोगों और चर्म रोगों को दूर करने वाली है । इसका लेप तथा इसकी छाल का क्वाथ पीने से खूब लाभ होता है । सेवन करें तथा लाभ उठायें । बहुत सुलभ तथा सस्ती और लाभकारी औषध है ।


उदर रोगों पर

कोष्ठबद्धता - आजकल शिक्षित वर्ग में कब्ज व कोष्ठबद्धता का रोग बहुत पाया जाता है क्योंकि वे प्राय: व्यायाम व शारीरिक श्रम नहीं करते, बैठे या लेटे रहते हैं । खाया हुआ ठीक नहीं पचता और आंतें निर्बल होकर कब्ज के शिकार हो जाते हैं । रेचक औषध बार-बार लेकर आंतों को निर्बल कर डालते हैं । पीपल के पत्ते, फल तथा छाल सभी ही कोष्ठबद्धता को दूर करते हैं ।


१.

पीपल के फलों को लेकर छाया में सुखा लें । आधा पाव फल में आधा पाव देसी खांड मिला लें, इन्हें कपड़ छान कर लें और सुरक्षित रखें । और एक तोला गाय के गर्म दूध के साथ लेवें । प्रात:काल शौच खुलकर आयेगा तथा शरीर में बल शक्ति की भी वृद्धि होगी । पीपल के फल पुष्टिकारक भी हैं ।


२.

पीपल के पत्तों को छाया में सुखाकर कूटकर कपड़छान कर लें और गुड़ में जंगली बेर के समान गोलियां बना लें और रात्रि के समय १ या २ गोली गाय के गर्म दूध के साथ लेने से कब्ज दूर होगा ।

३.

पीपल के पत्तों का पंचांग का घनसत्त्व भी कब्ज को दूर भगाता है । घनसत्त्व २ रत्ती से लेकर १ माशे तक गाय के गर्म दूध के साथ सोते समय ले लिया करें । कब्ज वा कोष्ठबद्धता दूर होगी ।


अन्तरछाल वा पीपल के पंचांग का गर्म क्वाथ पीने से भी कोष्ठबद्धता दूर होती है ।


उदरशूल - पीपल के दो तीन पत्ते कूटकर गुड़ में गोली बनाकर खिलाकर गर्म जल वा गर्म गोदुग्ध पिलाने से उदर पीड़ा (पेट का दर्द) दूर होती है ।


वमन - पेट की गड़बड़ के कारण अथवा अंदर किसी कारण से वमन होता है तो पीपल की छाल को जलाकर उसके कोयलों को जल में बुझायें और निथरे हुये जल को रोगी को पिलाने से वमन वा कै बंद हो जायेगी । इससे तृषा (प्यास) भी बुझ जाती है ।


कृमिरोग - पीपल के पत्तों वा पंचांग की गुड़ में बनाई गईं गोलियां प्रात: सायं दो तीन गोलियां सौंफ व बिडंग आसव के साथ देवें तो कुछ ही दिन में कृमि मर कर सब निकल जायेंगे ।


गुर्दे का दर्द


१.

गुर्दे वा वृक्क की पीड़ा दूर करने के लिए पीपल का दूध १२ बूंदें, पोदीने के पत्ते १ माशा, अजवायन १ माशा तीनों को मिला कर टिक्की वा गोली बना लें । कागज की बत्ती वा चिलम में आग रखकर रोगी को इसका धूवां सुंघायें । तुरन्त गुर्दे की पीड़ा दूर होगी ।


२.

पीपल की दाढ़ी वा अन्तरछाल चिलम में रख कर पिलाने से वृक्कशूल (गुर्दे का दर्द) दूर होता है ।


३.

पीपल की छाल १ माशा, गुड़ २ माशे तथा मनुष्य का बाल (एक वा दो) तीनों को मिलाकर गोली बनाकर गर्म जल के साथ रोगी को देवें, तुरन्त पीड़ा शान्त होगी ।


प्लीहा (तिल्ली )

कई बार विषमज्वरादि के कारण किसी-किसी रोगी की तिल्ली इतनी सूज जाती है कि वह सारे पेट को ही घेर लेती है । रोगी को भूख नहीं लगती । खाया-पीया पचता नहीं । रोगी किसी भी कार्य के करने में असमर्थ हो जाता है । रोगी के शरीर में रक्त का नामोनिशान नहीं दिखाई देता, मुख वा शरीर पीला तथा दुबला हो जाता है । कुछ पग चलने से ही गड़बड़ हो जाती है ।


१.

पीपल का क्षार तैयार कर लें तथा समभाग गुड़ मिलाकर जंगली बेर के समान गोली बना लें । इनमें से एक-दो गोली गाय की छाछ वा गाय के मूत्र के साथ अथवा अर्क सौंफ के साथ प्रातः सायं देवें । तिल्ली की सूजन दूर होकर १० दिन वा १५ दिन में रोगी स्वस्थ होगा ।


२.

पीपल के कोमल पत्तों का छाया में सुखाया हुआ चूर्ण १ छटांक, गुड़ ५ तोले - दोनों को मिलाकर जंगली बेर के समान गोली बना लें । मात्रा - दो वा तीन गोली जल वा अर्क सौंफ के साथ वा रोहितारिष्ट के साथ भोजन के पीछे देवें । दो-तीन सप्‍ताह में तिल्ली का सूजन दूर हो जायेगा ।


३.

पीपल का क्षार १ छटांक, कलमी शोरा १ छटांक दोनों को पीसकर सुरक्षित रखें । इसमें से तीन-तीन माशे तक मूली वा केले की ताजी फली के साथ प्रातः-सायं लगाकर रोगी को खिलायें । इससे कुछ ही दिनों में रोग दूर होगा ।


४.

पीपल का क्षार १ तोला, सरफूंके का क्षार १ तोला, मूली क्षार १ तोला - इसमें तीन तोले पुराना गुड़ा मिलाकर चने के समान गोली बनायें । २ वा ४ गोली जल वा अर्क सौंफ वा रोहितारिष्ट के साथ दो बार सेवन करें । तिल्ली का सूजन काफूर के समान भाग जायेगा ।


५.

पीपल की लकड़ी का प्याला बनवायें । इसमें गाय की छाछ, अर्क सौंफ, अर्क सरफुंक्का अथवा रोहितारिष्ट डालकर पीने से भी लाभ होता है, कुछ वैद्य ऐसा मानते हैं । पीपल की राख का पानी निथरा हुआ इस प्याले में डालकर पिलाने से तिल्ली के विकार दूर होते हैं ।

६.

पीपल की राख मूली वा केले के साथ खिलाने से भी तिल्ली के विकार दूर होते हैं ।

पीलिया (पाण्डुरोग)

१.

गाय की छाछ के साथ पीपल क्षार ४ रत्ती से १ माशे तक प्रातःकाल खाली पेट रोगी को खिलाने से कुछ ही दिनों में रोगी का पाण्डुरोग दूर होता है ।


२.

पीपल की छाल कूटकर कपड़ छान कर लें तथा गाय के १ सेर दूध में उबालकर छिलके के चूर्ण सहित दही जमा देवें । प्रातःकाल मथकर इसकी छाछ को रोगी को पिलायें । इससे पीलिया रोग दूर होता है ।


३.

पीपल की अन्तरछाल को यवकुट कर लें तथा इसमें से १ छटांक लेकर मिट्टी के कोरे बर्तन में आधा सेर जल में भिगो दें । रात्रि का भिगोया हुआ जल प्रातःकाल होते निथार कर पिला देवें । १५ वा बीस दिन तक पिलायें । भोजन सात्विक तथा हल्का हो । यह जल ग्रीष्म काल में ठण्डा ही पिलायें । शीतकाल में कुछ गर्म करके पिलायें । इसके सेवन से बढ़ा हुआ पाण्डु (पीलिया) रोग शीघ्र शान्त हो जायेगा ।

४.

पीपल के पत्ते १०, लहसोड़े के पत्ते १० - दोनों को रगड़ कर जल मिलाकर ठंडाई बनाकर पिलायें । इसमें मीठे के स्थान पर सैंधा लवण मिलायें, कुछ ही दिनों में रोगी ठीक हो जायेगा ।


राजयक्ष्मा (तपेदिक)


तपेदिक वा राजयक्ष्मा में पीपल के घनसत्त्व का प्रयोग मधु के साथ करायें तथा ऊपर से गोदुग्ध पिलायें तो बहुत लाभ होगा । पीपल का घनसत्त्व अनेक रोगों को दूर करता है, यह बहुत ही अच्छा औषध है ।


पीड़ा

किसी भी प्रकार की पीड़ा हो, पीपल की छाल को जल के साथ घिसकर लेप करने से सर्व प्रकार की पीड़ा शीघ्र शान्त हो जायेगी ।


टूटी हुई अस्थि


टूटी हुई हड्डी की किसी जानकार विशेषज्ञ से ठीक पट्टी बंधवा लें, फिर उसको यह औषध खिलायें ।


१.

पीपल का घनसत्त्व ४ रत्ती प्रातः सायं रोगी को खिला दें, ऊपर से गोदुग्ध पिलावें । कुछ ही दिनों में टूटी हुई हड्डी जुड़ जायेगी और पीड़ा तो पहले ही दिन दूर होगी ।


२.

२५ पीपल के पत्ते लेवें और खूब बारीक पीसकर गुड़ में इसकी गोलियां बनायें । गोली जंगली बेर के समान बनायें । इस सारी औषध को १० दिन में खिलावें । पीड़ा भी दूर होगी तथा हड्डी भी जुड़ जायेगी ।


३.

गुरुकुल झज्जर में निर्मित संजीवनी तैल की पट्टी जानने वाले से बंधवा लें । पीड़ा भी दूर होगी तथा हड्डी भी जुड़ जायेगी । साथ-साथ पीपल के घनसत्त्व का प्रयोग कराने से सोने पर सुहागे का कार्य होगा ।

सर्पदंश और पीपल

कुछ वैद्य पीपल से सर्पदंश की चिकित्सा करते हैं । गुरुकुल झज्जर तथा कन्या गुरुकुल नरेला में भी सर्पदंश की चिकित्सा होती है । सैंकड़ों रोगियों की चिकित्सा हमारे द्वारा हुई है । हम ९९ प्रतिशत सर्पदंश के सफल चिकित्सक हैं । किन्तु हम यह विश्वासपूर्वक नहीं कह सकते कि पीपल की औषध से सर्पदंश में लाभ होता है वा नहीं । एक बार हमारे एक साथी ने पीपल से चिकित्सा करके देखी किन्तु उस समय तो सफलता मिली नहीं थी । अनुभव करके देख लें, औषध निम्न प्रकार से है ।


योग - पीपल के छोटे-छोटे पौधों की दो पतली-पतली जो कनिष्ठा (छोटी) उंगली के समान मोटी और १२ अंगुल लम्बी हों, जिनके शरीर पर अंकुर भी फूटा हो, ऐसी टहनियों के पत्ते आदि तोड़कर शिर के पास से नाखून वा चाकू से अंकुर की छाल आधा इंच के लगभग छील देनी चाहिये । फिर वह अंकुर वाला भाग सर्पदंशित मनुष्य के दोनों कानों के छिद्रों में डाल देना चाहिये और उन दोनों लकड़ियों का दूसरा सिरा बाहर से दृढ़तापूर्वक पकड़ लेना चाहिये, क्योंकि विष का प्रभाव उन लकड़ियों को अपनी ओर खींचता है । यदि लकड़ी दृढ़ता से न पकड़ी जायें तो लकड़ियां कान का पर्दा फाड़ कर भीतर चली जायेंगी । इन लकड़ियों को भीतर न जाने देने के लिये बाहर से दृढ़ता से पकड़ लेना चाहिये । इस चिकित्सा के समय दो बलवान् मनुष्यों को रोगी के हाथ पैर पकड़ के रखना चाहिये । क्योंकि जब विष का आकर्षण होता है तब रोगी पागल मनुष्य के समान चेष्टा करने लग जाता है । इसलिये उसे पकड़कर संभालना होता है । वैद्यों का कहना है कि इस प्रकार की चिकित्सा से मृतप्रायः मूर्च्छित व्यक्ति भी आधा घंटे से लेकर १ घंटे तक की इस चिकित्सा से बेहोश रोगी होश में आ जाता है । उसका विष दूर हो जाता है । उसकी थकावट दूर करने के लिये मिश्री मिला गाय का दूध तथा काली मिर्च और घी मिला कर पिला देना चाहिये और रोगी को २४ घंटे तक सोने नहीं देना चाहिये । ऐसा सभी अनुभवी वैद्य कहते हैं । इस प्रकार की चिकित्सा की घटनाओं का वर्णन भी लिखा मिलता है ।


२. पीपल के कोमल पत्तों का रस रोगी को चम्मच के द्वारा बार-बार पिलाने से सर्पदंश का विष दूर हो जाता है । ऐसी घटनायें भी लिखी मिलती हैं । हमारा अनुभव इस विषय में नहीं के समान है । सर्पदंश की अनेक औषधों का ज्ञान तथा अनुभव हमने किया है । अमृता (नाकुली) बूटी जो महाराष्ट्र में ही अधिक होती है, सर्पदंश की सर्वोत्तम औषध है । चरकशास्‍त्र का अमृतघृत सर्पदंश सभी स्थावर और जंगम विषों की रामबाण औषध है । हमारी बहुत बार अनुभूत है । हमारे यहां तैयार रहती है । मंगाकर लाभ उठायें ।


पुरुषों के विशेष रोग

पुरुषों के प्रमेह, नपुसंकता, स्वप्नदोषादि रोगों पर पीपल औषध रूप में अच्छा कार्य करता है ।


१.

प्रमेह - पीपल की अन्तरछाल का काढ़ा वा क्वाथ पिलाने से पित्तज और नील प्रमेह सर्वथा नष्ट हो जाता है ।


२.

पीपल की अन्तरछाल को छाया में सुखा लें और कपड़ छान करके इसमें समभाग मिश्री वा देशी शुद्ध खांड मिला लें । मात्रा ६ माशे प्रातः सायं गाय के धारोष्ण दूध के साथ सेवन करें । प्रमेह को शीघ्र दूर करने वाली सस्ती सुलभ और अच्छी औषध है ।


३.

पीपल का सत्त्व एक छटांक, खांड १ छटांक - दोनों को कपड़छान कर लें । मात्रा १ माशा प्रातःसायं गोदुग्ध से लेने से प्रमेह समूल नष्ट होता है । यह सर्वोत्तम औषध है ।


४.

पीपल की पीपलवटी (फल) छाया में सुखाकर कूट पीस छान कर समभाग खांड वा मिश्री इसमें मिला लें । मात्रा ६ माशे प्रातः सायं धारोष्ण गोदुग्ध के साथ सेवन करायें । लाल मिर्च, खटाई, कच्चा मीठा, अचार, तेल की वस्तुओं का सेवन न करें । अच्छी औषध है ।


५.

पीपल की दस बूंदें बताशों में डालकर लें अथवा वंशलोचन के चूर्ण में लेकर गाय का ताजा दूध पीवें । इससे प्रमेह शीघ्रपतन स्वप्नदोष दूर होता है ।


६.

वाजीकरण - पीपल की कोमल कोपलें ४ तोला लेकर ४ सेर जल में डाल कर क्वाथ करें । जब जल कर एक सेर जल रह जाय तब उसको छानकर उसमें दो सेर खांड डालकर चासनी बना लें । चासनी बनने पर छान लें और जो कोंपलें छानने पर बची थीं, वे भी इसी में डाल लें । इसका मुरब्बा बन जायेगा । यह मुरब्बा प्रातः सायं आधा छटांक मात्रा में खाते रहने से वीर्य वृद्धि तथा पुंसत्व शक्ति बढ़ती है ।


स्वप्नदोष


१.

पीपल का दूध खांड, पताशे वा वंशलोचन के चूर्ण में डालकर लेने से तथा ऊपर से गाय का धारोष्ण दूध लेने से स्वप्नदोष रोग में लाभ होता है ।


२.

बंग भस्म जो पीपल के द्वारा बनाई जाती है वह प्रमेह स्वप्नदोष को दूर करती है ।


बंग भस्म - पहले बंग कली को शुद्ध कर लें, फिर इसके छोटे-छोटे चावल के समान भाग कर लें । पीपल की छाल के बड़े-बड़े भाग उतार लें और इनको अच्छी प्रकार एक पंक्ति में बिछा देवें । इनके ऊपर बंग कली के टुकड़े रख दें तथा इनके ऊपर उसी प्रकार पीपल की छाल के टुकड़े बिछा देवें । फिर इन टुकड़ों को चारों ओर से अग्नि लगा देवें सर्वांग शीतल होने पर सारे (कलई) बंग के टुकड़े भस्म के रूप में फूले हुए मिलेंगे । इनकी मात्रा १ रत्ती गाय के मक्खन से लेवें । इससे स्वप्नदोष, प्रमेह, सुजाकादि सभी दूर होंगे ।


शीघ्रपतन


पीपल का दूध शीघ्रपतन रोग को दूर करने वाला है । प्रतिदिन आठ दस पीपल के दूध की बूंद खांड वा पताशे में डालकर प्रातः सायं ले लें । ऊपर से गाय का धारोष्ण दूध लेवें ।


पीपल का अवलेह


पीपल की अन्तरछाल, जड़, पीपल की दाढ़ी, फल और कोमल कोंपलें सब दो-दो छटांक ले लें । सब को जोकुट कर लें और दो सेर जल में उबाल कर (कलई वाले बर्तन में) क्वाथ करें । जब आध सेर रह जाय तो उतारकर छान लें और पुनः पकायें । जब यह लेही के समान गाढ़ा हो जाय तो इसके समतोल बारीक पिसी हुई मिश्री मिला दें और उतारकर सुरक्षित रखें । इसकी मात्रा २ रत्ती से ४ रत्ती तक खिलाकर ऊपर से गोदुग्ध धरोष्ण पिला दें । यह प्रमेह, स्वप्नदोषनाशक, वीर्यवर्धक, शरीर को पुष्ट करने वाली, बहुत लाभकारी उत्तम रसायन है । कीमती भस्मों के समान शक्तिशाली है । इस औषध को बहुत अधिक उत्तम बनाना हो तो स्वर्ण भस्म वा स्वर्ण पत्र इसमें मिलाकर प्रयोग करायें । यह वाजीकरण, नपुंसकता नाशक औषध है । गाय के धारोष्ण दूध के साथ सेवन करायें ।


यह उपरोक्त अवलेह पीपल के कोमल पत्तों से भी बनाया जा सकता है । पीपल का घनसत्त्व भी उपरोक्त सभी रोगों को दूर करता है । इस अवलेह तथा घनसत्त्व के साथ अनेक औषध अश्वगन्ध, शतावर विधारादि, स्वर्णभस्म, रजतभस्म आदि मिला कर इस पीपल के सत्त्व वा पीपलावलेह को बहुत अधिक गुणकारी और प्रभावशाली बनाया जा सकता है । वैसे ये दोनों औषध किसी भी औषध और कीमती भस्म से न्यून लाभदायक नहीं । सस्ती, सुलभ, और शक्तिदायक औषध हैं । शीघ्रपतन और प्रमेह, नपुंसकता आदि रोगों को समूल नष्ट करने वाली यह पीपल की औषध है । नपुंसकता दूर करने के लिए किसी अच्छी तिला का प्रयोग भी इस औषध के साथ कराया जाये तो सोने पर सुहागे का कार्य होगा ।


स्‍त्रियों के विशेष रोग

घरेलू औषधों के समान प्राचीन काल में पीपल, नीम, वट आदि वृक्षों के गुणों को भारतीय लोग भली-भांति जानते तथा उपयोग करते थे । इसलिए अपने घरों, ग्रामों, तालाबों, कूओं और खेतों में पीपल आदि तीनों वृक्षों को लगाते थे । मातायें पीपल को आज तक भी परम्परा से प्रतिदिन जल से सींचती और देववृक्ष समझती हैं । यह पीपल का वृक्ष देवियों के प्रदर वन्ध्यापन आदि रोगों को दूर करने के लिए तीर्थ ही है अर्थात् भयंकर रोगों से छुटकारा दिलाने वाला है और स्वस्थ बनाकर सुखी बनाने वाला है । इसी प्रकार तीनों वृक्ष ही सच्ची त्रिवेणी हैं । इनके गुण जान कर इनसे लाभ उठाना चाहिए । पीपल का वृक्ष अत्यन्त उपयोगी है, इस कारण इसको लगाना, सींचना तथा इससे उपयोग लेना तो बुद्धिमत्ता है, केवल देववृक्ष मानकर इसकी धोक मारना, नमस्कार करना वा पूजा करना केवल मूर्खता ही है । "परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः" भगवान् ने वृक्षों को परोपकार के लिए बनाया है और "परोपकारार्थं इदं शरीरम्" हमारा यह शरीर भी परोपकार के लिए भगवान् ने दिया है । इसलिए इन पीपल, नीम आदि वृक्षों के गुण जानकर इनके द्वारा दुःखी रोगी जनता-जनार्दन की सेवा करना मानव मात्र का परम कर्त्तव्य है । युगपुरुष महर्षि दयानन्द जी महाराज ने इसी भावना से ओतप्रोत होकर आर्यसमाज का यह नियम बनाया था "संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना ।" इसी के अनुसार हमारे पूर्वज ऋषि महर्षि कहते थे –


नार्थार्थं नापि कामार्थं अथ भूतदयां प्रति ।

वर्त्तते यश्चिकित्सायां स सर्वमतिवर्त्तते ॥


जो अर्थ काम का स्वार्थ छोड़कर सर्व प्राणियों पर दया करके सेवा करता है, चिकित्सा करता है, वह ही सबकी सेवा करता है । यथार्थ में ऐसा वैद्य वा डाक्टर सेवक ही सच्चा सेवक है और उसकी चिकित्सा ही सच्ची सेवा है । इसी परोपकार की भावना से मैं ये "घरेलू औषध" और "भारतीय जड़ी-बूटी" ग्रन्थमाला की पुस्तकें लिख रहा हूं । इसी भावना से अपने तथा अन्य वैद्यों के अनुभूत योग दे रहा हूं । हमें स्वार्थ से उठकर कार्य करना चाहिये । मातृशक्ति की सेवा मैं सर्वोत्तम समझता हूं क्योंकि यह ही "जगत् जननी" है, "माता निर्माता भवति" माता ही सन्तान का निर्माण करती है । वीर लक्षमण ने ठीक ही कहा था -

माता यस्य पतिव्रता पिता च यस्य धार्मिकः ।

एकान्ते काञ्चनं दृष्टवा तस्य न विचलेन्मनः ॥

रामायण में यह कितनी यथार्थ बात लिखी है कि जिसकी माता पतिव्रता है और जिसका पिता धार्मिक है, वह एकान्त में स्वर्ण (सोने) को भी देख विचलित नहीं होता, उसका मन वश में रहता है । सोना भी उसके मन को विचलित नहीं करता । सोना भी कैसा? एकान्त में पड़ा हुआ है । वह किसी अवस्था में चोरी आदि दूषित कर्म नहीं करता । ऐसे उत्कृष्ट व्यक्ति बनने वाली माताओं की सेवार्थ पीपल के अनुभूत प्रयोग जो माताओं के लिए हितकारी हैं, नीचे लिखे जाते हैं ।

पीपल और सन्तानोपत्ति

माताओं को सन्तानों से बहुत प्रेम होता है । सन्तान के अभाव में मातायें बहुत दुःखी रहती हैं । वन्ध्यापन को दूर करने वाले तथा सन्तानोत्पत्ति के कुछ योग लिखता हूं ।


सन्तान न उत्पन्न होने के अनेक कारण हैं कई बार पुरुषों की न्यूनता (रोगी होने) के कारण सन्तान नहीं होती । चिकित्सा व्यर्थ में स्‍त्रियों की कराते रहते हैं ।


वन्ध्यत्व का मुख्य कारण तो स्त्रियों के मासिक धर्म की गड़बड़ी ही है इसलिये इसकी चिकित्सा सर्वप्रथम वैद्य को करनी चाहिये । कुमार्यासव और अशोकारिष्ट के लगातर सेवन से मासिक धर्म तथा श्वेतप्रदरादि रोग दूर होते हैं । जब मासिक धर्म ठीक हो जाये तो तत्पश्चात निम्न योग का प्रयोग करें ।


१.

योग - पीपल की दाढी, अश्वगंध नागौरी, शतावर, कौंच के बीज, गोखरू, विधारा के बीज (शुद्ध), पीपल बड़ा - सब एक एक तोला लेकर कूटकर कपड़छान कर लें तथा सब के समभाग अर्थात ७ तोले खांड देशी व मिश्री मिला लें । मात्रा - ३ माशे से ६ माशे तक गाय के दूध से साथ प्रात:काल सायंकाल दोनों समय सेवन करें, पुरुष को भी सेवन करायें । मासिक धर्म की निवृत्ति के ११ दिन पश्चात सन्तानोत्पत्ति के लिए शास्त्रविधि से अनुसार गर्भाधान करें । यदि सन्तानोपत्ति में सफलता न मिले तो इस औषध का सेवन करते हुए स्‍त्री और पुरुष एक वर्ष ब्रह्मचारी रहें । निश्चय से सन्तान की उपलब्धि होगी ।


२.

पीपल की दाढी १० तोले तथा अश्वगंध नागौरी १० तोले तथा २० तोले देशी खांड लेवें । सबको कूटकर कपड़छान कर लें । मासिक धर्म से निवृत्ति के पीछे दस ग्यारह दिन तक वा अधिक स्त्री पुरुष दोनों सेवन करें ।


३.

पीपल की जटा ५ तोले, हाथी दांत का चूर्ण आधी छ्टांक दोनों कूटकर कपड़छान कर लें । मासिक धर्म से निवृत हो स्नान करें, फिर प्रतिदिन रात्रि को सोते समय ४ माशे चूर्ण गाय के दूध से साथ सेवन करें । हो सकता है पहली बार के सेवन से सन्तानोपत्ति हो जायेगी । प्रथम मास में यदि सफलता न मिले तो फिर इसी औषध का दूसरे मास इसी प्रकार सेवन करायें, अवश्य ही सफलता मिलेगी ।


४.

पीपल की दाढ़ी एक-एक पाव, खांड देसी एक पाव दोनों को कूट छानकर मिला लें । स्‍त्री पुरुष दोनों ही मात्रा ६ माशे से एक तोले तक गाय के धारोष्ण वा गर्म दूध के साथ १५ दिन सेवन करें । मासिक धर्म की निवृत्ति के पश्चात् ८ वा ९ दिन पीछे गर्भाधान संस्कार करें । ईश्वर कृपा से सन्तान की प्राप्‍ति होगी ।


५.

पीपल के फल (पीपलवटी) को छाया में सुखाकर कपड़ छान करके रखें । इसमें समभाग मिश्री मिला लें और मात्रा १ तोला प्रातः सायं धारोष्ण गोदुग्ध के साथ स्‍त्री पुरुष दोनों लेवें । यह औषध मासिक धर्म के पीछे लेवें । प्रथम मास में ईश्वर कृपा करेंगे । दूसरे तीसरे मास तक तो निश्चय से सफलता मिलेगी ।


६.

पीपल के फल १० तोले, अश्वगन्ध नागौरी १० तोले - दोनों को कपड़छान कर लें । समभाग खांड वा मिश्री मिला लें । फिर मासिक धर्म से निवृत्त होकर १५ दिन तक स्‍त्री पुरुष इसे धारोषण दूध के साथ प्रातः सायं ६ माशे से एक तोले तक लेते रहें । पूर्व की भांति सेवन करते हुए प्रथम वा द्वितीय मास शास्‍त्र की विधि के अनुसार गर्भाधान संस्कार करने से सन्तान की प्राप्‍ति होगी ।


७.

पीपल के सूखे फलों के चूर्ण की फांकी कच्चे दूध के साथ देने से स्त्री का बांझपन रोग मिट जाता है । किन्तु यह औषध ऋतुधर्म के पश्चात १४ दिन तक देनी चाहिये ।


मासिक धर्म की गड़बड़


मासिक धर्म को ठीक करने के लिए अशोकारिष्ट तथा कुमारी आसव का प्रयोग करना चाहिए । जो मासिक धर्म किसी भी औषध से न खुलता हो उसके दो सरल योग नीचे लिख रहा हूं । मेरे तथा अनेक वैद्यों के ये अनुभूत योग हैं ।


(१) मुरमुखी (बीजबोल) ६ माशे, हाऊबेर ६ माशे - इन दोनों को जल में उबालकर छानकर २ तोला गुड़ मिलाकर पिलायें । एक-दो बार के पिलाने से मासिक धर्म खुल जायेगा ।


'(२) सौंफ ३ माशे, हाऊबेर ३ माशे को जल में क्वाथ करें और इसमें २ तोले गुड़ का शर्बत मिलाकर पिलायें । केवल दो तीन बार के पिलाने से मासिक धर्म खुल जायेगा ।


श्वेत प्रदर


पुरुषों के प्रमेह रोग के समान स्‍त्रियों का श्वेत प्रदर घातक रोग है जो स्‍त्रियों के स्वास्थ्य को सर्वथा मिट्टी में मिला देता है । इनको खोखला करके मृत्यु के मुख में पहुंचा देता है । इसके लिए पीपल का दूध उत्तम औषध है ।


(१) पीपल के दूध की १० बूंदें बताशे वा खांड में डालकर रोगी स्‍त्री को प्रातः सायं खिला दें और ऊपर से आधा सेर धारोष्ण गाय का दूध पिला देवें । श्वेत प्रदर शीघ्र ही दूर होगा ।


(२) पीपल के फल १ छटांक, अश्वगन्ध नागौरी १ छटांक, शतावर १ छटांक, सुपारी १ छटांक, अशोक की छाल १ छटांक और इसमें ५ छटांक मिश्री - सबको कूट कपड़ छान करके मिला देवें । मात्रा - ३ मासे से ६ माशे तक गाय के धारोष्ण दूध के साथ देवें । एक दो मास इस औषध का सेवन करायें । इस काल में स्‍त्री पुरुष दोनों ब्रह्मचर्य से रहें । इस रोग से छुटकारा मिलेगा और स्‍त्री को पुनर्जीवन प्राप्‍त होगा और वह सन्तानोपत्ति के योग्य हो जाएगी ।


रक्तप्रदर वा रक्तपित्त


कई बार स्‍त्रियों का मासिक धर्म दूषित होकर ३ वा ४ दिन के स्थान पर बहुत समय तक जारी रहता है और रोगी को मार ही डालता है । ऐसी अवस्था में पीपल की लाख १ छटांक देवें । समभाग मिश्री मिला लें । मात्रा ३ माशे प्रातः-सायं शीतल जल से एक मास तक वा रोग के दिनों में १०, १५ दिन देवें । यह रक्त-पित्त वा रक्तप्रदर के लिए अच्छी औषध है । बवासीर, नकसीर आदि में रक्त को भी बन्द करती है । यह तुरन्त लाभ करने वाली औषध है । बार-बार की अनुभूत है ।


हिस्टेरिया


योग - पीपल के वृक्षों के पिण्ड (मुख्य तने) में पतले-पतले तन्तु फूटते हैं जिन्हें पीपल की दाढ़ी कहते हैं । पीपल की दाढ़ी ४ तोले, जाटामाँसी २ तोले, जावित्री २ तोले, कस्तूरी तीन माशा । पहले पीपल की दाढ़ी के छोटे-छोटे टुकड़े कर लें । उनको खूब बारीक कर डालें । बारीक होने पर कस्तूरी भी डालकर मिला लें और खूब घोटकर एक-एक रत्ती की गोली बना लें । इनमें से दो गोली प्रातः, दोपहर और सायंकाल रोगी को खिलावें और आधा घंटा पश्चात् रोगी को गाय का दूध पिलायें । इस औषध को लगातार एक मास तक खिलाने से यह हिस्टेरिया का हठीला रोग सदैव के लिए समूल नष्ट हो जाता है ।


विशेष - इस औषध में चार तोला शुद्ध पारा, गन्धक की कजली मिलाकर गोलियां बनायें तो सोने पर सुहागे का कार्य होगा । औषध अधिक प्रभावशाली बन जायेगी । यह औषध हिस्टेरिया के अतिरिक्त सभी मस्तिष्क रोगों, मृगी, उन्माद और स्मृति भ्रंश आदि के लिए भी बहुत ही लाभदायक है ।


भगन्दर


पीपल की सूखी हुई अन्तरछाल का चूर्ण किसी नली के द्वारा गुदा के भीतर फूंक देने से कुछ दिन में वह नासूर भर जाता है ।


'बिवाई - पीपल का रस वा दूध बिवाई के अन्दर भरने से यह रोग तथा इसकी पीड़ा दूर हो जाती है ।

दन्तरोग - पीपल और वट की जड़ की छाल को जल में उबालकर कुल्ले करने से दांतों की पीड़ा तथा दांतों के रोग दूर होते हैं ।

जलपीपल


यह भी एक बूटी होती है जिसकी विशेषतायें तथा गुण बहुत हैं । रक्तपित्त, नकसीरी आदि की रामबाण औषध है । कामवासना को नष्ट करने वाली है । समय मिला तो इस पर पृथक्-पृथक् पुस्तक लिखूंगा ।

पीपल के द्वारा भस्मों का निर्माण

१.

हरताल भस्म - पहले पर्याप्‍त मात्रा में पीपल की लकड़ी की भस्म तैयार कर लें । उत्तम प्रकार की हरताल लेकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर लें । फिर उन टुकड़ों को पोटली में बांधकर दोला यन्त्र में एक दिन कांजी, लौंग और त्रिफले के काढ़े में शुद्ध कर देना चाहिए । फिर हरताल को पीसकर पीपल की अन्तरछाल के क्वाथ में २० दिन तक खरल करें । फिर इसकी टिकियां बनाकर धूप में सुखा लें । फिर एक मिट्टी की हांडी को आधी पीपल की राख से भर दें । राख को भरते समय खूब दबायें, फिर उसमें हरताल की टिकियां रखकर गले तक हांडी को पीपल की राख से भर दें । हांडी पर ६, ७ कपड़ मिट्टी करके पहले से तैयार रखना चाहिए । हांडी का मुख ढ़क्कन लगाकर गुड़ और चूने से बन्द करें । इसका मुख दृढ़ता से बंद करना चाहिये । अच्छी प्रकार सूखने पर गजपुट की उपलों की आंच में फूंक देवें । शीतल होने पर निकाल लें और सावधानी से हरताल भस्म की टिकियों को निकाल लें । इन भस्म की टिकियों को लोहे की गर्म शलाकाओं पर रख दें । यदि इन में से धूआं न निकले तो समझ लो कि भस्म तैयार हो गई । यदि धूआं दे तो एक बार फिर फूंक लेनी चाहिए ।


हरताल भस्म की मात्रा १ रत्ती है । उचित अनुपात के साथ लेने से सर्वप्रकार के चर्मरोग, उपदंश, कुष्ठ, नासूरादि में लाभ होता है ।


२.

पीपल की राख बनाकर पहले तैयार रखें । इसमें से आध सेर राख लेकर कढ़ाई में चढ़ायें तथा उसके ऊपर शुद्ध हरताल वरकिया की दो तोले की डली रखें । फिर उस पर १ सेर राख डाल कर दबा दें और आध आध सेर राख बचाकर रखें और कढ़ाई के नीचे पीपल की लकड़ी की आग जलायें । जब कहीं से फटकर धूंआं निकले वहां राख डालकर बन्द कर दें । दोपहर में परमात्मा की कृपा से हड़ताल की भस्म अच्छी बन जायेगी । शीतल होने पर निकाल लें । पुराने बुखार वा अजीर्ण ज्वर के लिए अच्छी औषध है । मात्रा - १ रत्ती शहद में दिन में दो तीन बार देवें ।


अन्य भस्में


इसी प्रकार संखिया सिंगरफ की भस्में भी बनाई जाती हैं । अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए निम्न प्रकार औषधों की भावना देवें वा उसमें खरल करें ।


हरताल वरकिया - हरताल वरकिया की बढ़िया भस्म बनाने के लिए २ तोले बरकिया हरताल को १० तोला आक के दूध की भावना देवें अर्थात् आक का दूध डालकर इसमें खरल करें । फिर पांच भावना देकर अर्थात् पांच दिन के पीछे टिकिया बनाकर धूप में सुखा देवें । १५ दिन तक धूप में अदल-बदल कर इन्हें सुखायें और फिर एक उपले में गड्ढा करके उस पर पीपल की राख बिछा दें । दस तोले राख टिकिया के ऊपर नीचे बिछा देवें और २ सेर उपलों की आग वायु से बचाकर देवें । शीतल होने पर श्वेत रंग की लालिमा लिये हुए भस्म को निकल लें । मात्रा - १ चावल तक मक्खन, मलाई, शहद आदि में लेवें । कफ, वायु, शीतजन्य रोगों की उत्तम औषध है ।


श्वेत हड़ताल - १ पाव पीपल के पत्तों को पंचांग के क्वाथ में दो तीन दिन खरल करें और टिकिया बनाकर सुखा लें । हांडी में नीचे ऊपर टिकियों को पीपल के फलों के सूखे चूर्ण से भर देवें । बीच में टिकिया रखें । कपरोटी करके सुखाकर पीपल की लकड़ियों में गड़्ढे में गजपुट की आग दे देवें । इस हडताल में जैसे गुणों का आधान करना हो उसी प्रकार की औषधों की भावना देवें । वे ही नीचे ऊपर बिछाकर अग्नि देवें । वैसे ही गुणों वाली औषध तैयार होगी । पहले जो पीपल के गुण लिखे जा चुके हैं वे ही गुण इस हड़ताल में आ जायेंगे । बनाकर सेवन करके लाभ उठायें । ज्वरादि के लिए गोदन्ती हड़ताल की भस्म उत्तम औषध है । इसी प्रकार पारदादि की भस्म भी बनाते हैं । विधि निम्न प्रकार से लोग वर्तते हैं ।


नाग भस्म - पहले नाग को शुद्ध करके इसके सूक्ष्म पत्रे बना लें और पीपल की कोमल-कोमल कोंपलें २० तोले लेवें, इनकी कूटकर नुगदी बना लें । एक तोला वा २ तोला शुद्ध नाग के पतले बारीक टुकड़े करके नुगदी के बीच में रख दें । उन पर नीचे नुगदी बिछा दें, बाकी ढ़क देवें तथा नीचे ऊपर उपले भी भली प्रकार से लगाकर गजपुट की आग देवें । सर्वांग शीतल होने पर सावधानी से नाम भस्म जो फूली हुई मिलेगी, निकाल लेवें तथा उन्हें बारीक पीस कर शीशी में सुरक्षित रखें । मात्रा १ रत्ती मलाई वा मक्खन वा मधु के साथ प्रातः सायं देवें । रक्त शोधक तथा पुष्टिप्रद और स्तम्भक है ।


बाल रोगों पर


जिसके कारण बालक सूख-सूख कर मरते हैं, उसे सूखिया वा मसान रोग कहते हैं । इसकी औषध जहां खिलाई जाती है वहां लाक्षादि तैल वा महालाक्षादि तैल मालिश के कार्य में पर्याप्‍त सहायक होता है । बालकों की मालिश से ही सूखिया रोग दूर हो जाता है । बालक का ज्वर निर्बलातादि सभी दूर हो जाते हैं । बार-बार की अनुभूत औषध है । जीर्ण ज्वर निर्बलता को दूर करने में यह अपनी समानता नहीं रखता ।


महालाक्षादि तैल


यह तैल पुराने ज्वरों, कफ, ज्वर की निर्बलता को मालिश करने से ही दूर करता है । सभी वैद्यों की यह अनुभूत औषध है । जादू के समान प्रभावशाली ये लाक्षादि तैल और महालाक्षादि तैल आयुर्वेद के प्रसिद्ध योग हैं । कौन वैद्य है जिसने इनको आजमाया न हो । इस तैल का मुख्य भाग यह लाख ही है जो पीपल की ही होती है ।


बालकों के दस्त


योग - पीपल के पत्ते २ नग, लौंग ८ नग, दारचीनी १ माशा, सौंठ २ माशे - इनको घोट रगड़कर आधा पाव जल में मिलाकर, बालक को मिश्री मिलाकर एक समय १ चम्मच देवें । दिन में आवश्यकतानुसार चार पांच बार देवें तो वमन और दस्त सभी बंद हो जायेंगे ।


विशूचिका


योग - पीपल के पत्ते पांच, लौंग ३ माशे, सौंठ ६ माशे और दारचीनी एक तोला सबको रगड़ छानकर १ सेर जल में मिला देवें । इसे बार-बार पिलाने से हैजा तथा इसके सभी उपद्रव दूर होकर रोगी स्वस्थ होगा । १५-२० मिनट के अन्तर से २-४ घंटे पिलाते रहें । रोगी की जान बच जायेगी । इसको समय पड़ने पर आजमायें तथा लाभ उठायें ।


अन्य रोग

उदरशूल


(१) उदरशूल को दूर करने के लिये पीपल के पत्तों का चूर्ण १ तोला, सोंठ १ तोला, नौसादर १ तोला - सबको कपड़छान कर लें । मात्रा ३ माशे गर्म जल के साथ खिलायें, दो चार बार ही खिलाने से सर्व प्रकार की पेट की पीड़ा दूर होगी ।


(२) पीपल के पत्तों का चूर्ण ३ माशे, गुड़ ३ माशे - दोनों को मिला लें और पेट की पीड़ा में गर्म जल के साथ देवें । पीड़ा दूर होगी ।


पेट में जलन


पेट की दाह (जलन) में पीपल के फलों के बीज ३ माशा जल में पीसकर मिश्री और जल मिलाकर ठण्डाई बनाकर पिलाने से उदर की दाह (जलन) दूर होगी ।


पाचनशक्ति के लिए


(१) पीपल का फल जब पका हुआ हो तो रोगी को २ तोले प्रतिदिन खिलायें, अपूर्व लाभ होगा । ताजे फल सदा नहीं मिलते, अतः पके फल छाया में सुखाकर कूटकर चूर्ण बना लें, इसमें ६ माशे प्रतिदिन दूध वा जल के साथ खिलाया करें । यह पाचनशक्ति को बढ़ायेगी तथा आमाशय को बल प्रदान करेगी ।


(२) पीपल के कोमल पत्तों को छाया में सुखाकर कूट छान लें । इसमें गुड़ मिलाकर चने के समान गोलियां बनायें । एक दो गोली प्रातः-सायं गर्म जल वा अर्क, सौंफ के साथ देवें । पेट के अनेक रोग दूर होकर पाचनशक्ति बढ़ेगी ।


पीपल पुत्रदा

जो पीपल का वृक्ष किसी अन्य वृक्ष के ऊपर उत्पन्न होकर बढ़ता है, उसमें पुंसत्व की शक्ति अधिक होती है अर्थात् वह पुत्रदा होता है । वेदों में एक मन्त्र आया है । इस विषय में पहले लिख चुका हूं कि पीपल की दाढ़ी में "पुत्रदा" के विशेष गुण हैं, यह अनेक बार की अनुभूत औषध है । अब यह भी हमें अनुभव करना चाहिये कि उपरोक्त प्रकार के पीपल के पंचांग का पुत्र की कामना से प्रयोग करना चाहिये । यदि ऐसे पीपल की दाढ़ी मिल जाये तो क्या कहना । "वेद सब विद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है ।" इस पर आचरण करके हमें वेद की पवित्र वाणी से लाभ उठाना चाहिये ।


••••


Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल



Back to Arya Samaj Literature Back to Flora/Jatland Library