Rambux Jat

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Rambux Jat

Rambux Jat is Rtd Professor, Centre of Indian Language School of Language Literature & Culture Studies Jawaharlal Nehru University, New Delhi-110067

Current Position

Professor Rtd. Professor Hindi, Centre of Indian Language School of Language Literature & Culture Studies Jawaharlal Nehru University, New Delhi-110067 w.e.f 31-01-2017 last pay about –155000/PM Principal Investigatore-PG Pathshala Hindi A major Project of MHRD and UGC

Area of Specialization (Hindi): Modern Hindi Literature, Aesthetics and Literary Criticism, Mass Communication and Journalism, e-learning Hindi

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Mobile No. +919868429470, 0783896143 Email: rambuxjat@yahoo.co.inrambux.jnu@gma

List of books authored by him

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प्रो. रामबक्ष का परिचय

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प्रोफेसर राम बक्ष की आत्मकथा “मेरी चिताणी”

Book- Meri Chitani.jpg

बक़ौल प्रोफेसर रामबक्ष ने पुस्तक की रचना प्रक्रिया और उसके कथ्य के बारे में लिखा है-

पीएचडी के लिए मैंने अपना विषय चुना —‘प्रेमचन्द और भारतीय किसान’। 1980 मे मैंने अपना कार्य पूरा किया। बादमें वह हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुआ। खूब प्रशंसा भी मिली।परन्तु मैं बैचेन रहने लगा। मुझे बराबर लगता रहा प्रेमचन्द में भारतीय किसान नहीं है। उनमें मेरे गाँव के किसान तो है ही नहीं । हालांकि मैंने उस ग्रन्थ में इशारे से यह कह दिया था। इस संदर्भ में दो स्थापनाएं की थी-

1 प्रेमचन्द सीमान्त किसानों के लेखक हैं।

2 प्रेमचन्द अंग्रेजों के जमाने के इस्तमरारी बंदोबस्त के लेखक हैं,जो उस समय पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में प्रचलित थी।

ये दोनों बातें मेरे गाँव पर लागू ही नहीं होती। फिर जाटों का तो उन्होंने कहीं जिक्र ही नहीं किया। जाटों के बिना भारतीय किसान की कल्पना कैसे की जा सकती है।इसी तरह से गूजरों का भी कहीं उल्लेख नहीं है।सिर्फ यादवों का उल्लेख है।परन्तु वे दूर दूर से देखे हुए पात्र लगते हैं।उनका अधिकतर मामलों में मजाक उड़ाया गया है। सहानुभूति से उन्हें प्रस्तुत नहीं किया गया है। इसलिये प्रेमचन्द से संतोष नहीं हो रहा था।

इसके बाद रेणु को पढ़ा। रस लेकर पढ़ा। रेणु अद्भुत लेखक हैं। मुझे ईर्ष्या होने लगी कि रेणु बिहार में क्यों हुए? मेरे जिले में होते तो क्या बात थी। कितनी कलात्मक बारीकी से वे गाँव को जिंदा कर देते हैं।

फिर मैं मन ही मन इंतजार करने लगा कि कोई कथाकार आएगा और मेरे गाँव की कहानी भी कह देगा। परन्तु ऐसा हुआ नहीं।

तब मेरे मन में आया कि मैं मेरी चिताणी के बारे में लिख दूँ।अब संकट यह था कि मैं तो कथाकार नहीं। तो क्या हुआ? मैं अपने गाँव को कथेतर गद्य की विधा में भी तो लिख सकता हूँ। यही सोचकर कलाविहीन शैली में लिख दिया। प्रेमचन्द और रेणु मेरे लिए बहुत बड़े लेखक हैं। तो क्या हुआ? कुछ तो मैंने भी उनसे सीखा ही है। प्रोफेसर राम बक्ष जाट

मेरी चिताणी में: मेरी चिताणी को किसी राजा, जमींदार या नगर सेठ ने नहीं बसाया था। जिन शहरों को किसी राजा ने बसाया था, उसे किसी दूसरे राजा ने उजाड़ दिया था। जो सुख में सोते थे, वे दुख में जागते थे। चिताणी में किसी राजा का महल, जागीरदार की हवेली या किसी गोरे-नीले साहब की कोठी नहीं है। इतिहास में चिताणी किसी नगरसेठ के भरोसे नहीं रही। चिताणी का कोई सेठ मुम्बई, कलकत्ता या गोहाटी नहीं गया। चिताणी में कोई पर्यटन स्थल,कोई पौराणिक मंदिर, किसी भृहतरी की गुफा नहीं है। किसी बड़े शहर की पड़ोसन से भी चिताणी की पहचान आच्छादित नहीं है। कोई कारखाना नहीं है। चिताणी ने अभी तक अपने भू स्वामित्व के हिस्से में खदान को भी होने नहीं दिया है। यहां का तालाब किसी धर्मात्मा की मेहरबानी से नहीं बना।

जो भी है, चिताणी की अपनी अकड़ है।

विकास चिताणी को पसन्द नहीं।: पता नहीं चिताणी के लिए अच्छा हुआ या बुरा! चिताणी में कोई पुलिस में सिपाही, थानेदार या और बड़ा अधिकारी नहीं हुआ। एक फौजी जरूर हुआ। इसलिये किसी की हत्या वगैरह करने की हिम्मत कैसे आती ? चिताणी में कोई सरकारी इंजीनियर, ओवरसियर वगैरह भी नहीं हुआ। उनसे जुड़े हुए ठेकेदार,दलाल वगैरह फिर कहां से होते ? चिताणी में कोई वकील साहब, न्यायाधीश नहीं हुए।फिर मुकद्दमें कैसे होते? चिताणी में कोई पटवारी, तहसील दार वगैरह पैदा नहीं हुए। तब भी दूसरों को नमस्कार -चमत्कार करके अतिक्रमण पर्याप्त हुए। चिताणी में किसी सांसद -विधायक की कल्पना करना तो बदतमीजी माना जायेगा। यहां तक कि किसी सांसद की कृपादृष्टि भी अब तक चिताणी पर नहीं पड़ी । किसी की नौकरी,पदोन्नति , स्थानांतरण , ठेका, पेट्रोल पंप वगैरह का कोई सिफारिशी पत्र सरकारी गलियारे में उपलब्ध नहीं है। चिताणी में कोई पत्रकार, मीडिया मैन नहीं हुआ। होता तो चिताणी की गलियों में भी मुख्यमंत्री के संस्मरण गूंजते रहते। यदि इनमें से कोई भी हो जाता तो चिताणी का कुछ विकास तो हो जाता।

चिताणी में अपने प्रयासों से कुछ शिक्षक और ऐसी ही मेहनती नौकरी करने वाले हुए। मेरा जन्म तो हुआ ही। फिर भी चिताणी की जड़ें दिल्ली, मुम्बई,हैदराबाद होते हुए वाशिंगटन डी सी,पेरिस और बर्लिन तक पसर गयी। अपनी जन्मभूमि पर लाड-प्यार ऐसे ही नहीं आता।

चिताणी में बेटी प्रकरण: मेरी माँ हमेशा कहती थी। बहुत लगाव, अपनत्व और पीड़ा से कहती थी । बेटी जाई रे जगनाथ ,ज्यांरा हेठे आया हाथ। हे ईश्वर जिसने बेटी को जन्म दिया है, उसका हाथ हमेशा हेठे अर्थात नीचे आ गया है।फिर गाँव जिसे धैर्य रखने की सलाह देता, जिसके उबाल को शांत करना होता तब उसे बेटी के बाप के रूप में संबोधित किया जाता। अनेक दुख सहन करने का सामर्थ्य जिसमें हो, वह बेटी का बाप। मेरे पिताजी की 6 बेटियां थी। मेरी बेटी का अपनी दादी से सिर्फ इस वाक्य को लेकर मतभेद रहता था। दोनों में बहस होती,अन्यथा बेटी के लिए संसार का सर्वोत्तम प्राणी उसकी दादी। आज भी वह अपने तकिए के नीचे अपनी दादी का फोटो रखकर सोती है। जो भी हो बेटी से प्रेम और बेटी की चिंता और इस कारण बेटी की डांट फटकार चिताणी का स्थायी भाव है। मैं जानता हूँ कि यह लोक का भाव है और आधुनिक नहीं है।परन्तु भारत भूमि में यह भाव विराजमान है। यह भाव बेटियों की पीड़ा का एक कारण है और पिता की भी। मेरी चिताणी से किसी की कोई बेटी भागी नहीं। कहीं किसी से प्रेम प्यार करके विवाह नहीं किया। कामदेव के प्रभाव से कुछ अल्पकालीन रिश्ते जरूर बने, जिन्हें सूझ बूझ से दफना दिया गया। ऐसा इसलिए हुआ कि चिताणी में बालविवाह का प्रचलन रहा है। बेटी जब बड़ी होने लगती है, उसकी आंखें मटकने लगती है, उससे पहले दरवाजे पर निर्धारित दूल्हा हाजिर रहता है। परंतु यह तो पिछड़ापन हुआ। उसको पढ़ाना भी तो चाहिए।

जोधपुर में हमारे एक सहयोगी थे। उनको एक बेटा और एक बेटी हुई। बेटे को उच्च शिक्षा दी और बेटी को 12 वीं तक पढ़ाकर ससुराल भेज दिया। वह प्रेम करने की उम्र से पहले मां बन गयी। यह भी द्विवेदीयुगीन मानसिकता हुई। नए जमाने में चल नहीं सकता। फिर सबसे बड़ी बात। बेटी हर नाजुक अवसर पर आपकी तरफ सवालिया निशान से देखेगी।या बैंडिट क्विन का यह राजस्थानी गाना बजा देगी- छोटी सी उमर परणाई ओ भाबोसा कांई थारो करयो मैं कसूर। अब बाप तो बाप है। बेटी का बाप।

तो फिर?

चिताणी से मेड़ता लगभग 30 किलोमीटर दूर है। यहां की मंडी में चिताणी का अनाज बिकता है।वही मेड़ता जहाँ मीरा का जन्म हुआ था। कहते हैं कि मीरा ने प्रेम किया तो उसका पीहर और ससुराल दोनों लज्जित हुए। ऐसा स्वयं मीरा ने लिखा।सब को दुखी देखकर और स्वयं दुख पाकर मीरा ने लिखा कि प्रेम करने से दुख होता है। मीरा ने यह भी लिखा कि मैं पहले नहीं जानती थी। प्रेम करने के बाद पता चला। मीरा की इन पंक्तियों का कैसा कैसा गूढ़ अर्थ साहित्य के आलोचक करते रहते हैं। फुरसत में मैं भी कर देता हूँ, परन्तु इन पंक्तियों को आज अभिधा में पढने की जरूरत है। सारे भारत के माता पिता अपनी बेटियों को समझाते समझाते हार गए। इस मामले में गाँव वाले ज्यादा समझदार निकले। उन्होंने बेटियों को समझने का मौका ही नहीं दिया। स्वयं समझ गए और हल निकाल लिया। भूल चूक तो सबसे हो जाती है,सो चोरी चोरी चुपके चुपके कुछ हो जाता है। यह अलग बात है कि कामदेव के असर की कोई काट ये लोग भी नहीं निकाल पाए। अब आप भी काम को ही प्रेम समझते हो तो बात अलग है।

इस मामले में हमारे कस्बे के लोग सबसे अधिक बेवकूफ निकले। वहां प्रेम होता है। फिर भागकर शादी होती है। फिर इज्जत चली जाती है। फिर हत्या हो जाती है। फिर तलाक भी हो जाता है। बहुत घालमेल होता है। सब कस्बों में होता है। दिल्ली मुम्बई में नहीं होता। यहाँ के माता पिता कम जिद्दी होते हैं। वे प्रेम प्यार होने देते हैं।फिर वे स्वयं शादी में शामिल हो जाते हैं। वे इस बात से खुश हो जाते हैं कि उनकी बेटी ने शादी तो की। सहजीवन में ज्यादा दिन तो नहीं रही। अपने से दुगुनी उम्र के व्यक्ति के फेर में तो नहीं पड़ी।किसी बेरोजगार ने तो इसे नहीं फंसा लिया। अच्छा ही हुआ। दहेज भी बच गया। सब पढेलिखे लोग हैं भाई। महानगर में ऐसे ही नहीं रहते।

फिर लंदन वाशिंगटन की बेटियों के माँ बाप तो देखते रहते हैं कि इसकी उम्र हो गयी ,इसने अभी तक किसी लड़के को नहीं पटाया। और जब यह शुभ कार्य हो जाता है,तब वे खुश हो जाते हैं। चलो इसने कोई समलैंगिक रिश्ता तो नहीं बनाया। अब देर सवेर यह भी विवाह कर लेगी। इस पप्पू से नहीं करेंगी तो अगले से कर लेगी। जब मन होगा तब कर लेगी।माता पिता के दुख का कोई अंत नहीं।

दरअसल दुख का कारण प्रेम है। इन माता पिता के पास कोई काम नहीं है क्या? क्यों करते हैं वे बेटियों से प्रेम? पहले प्रेम करते हैं ,फिर हक जमाते हैं। कुछ हमारे लिए भी तो छोड़ो। थोड़ी सी सांस लेने की जगह बेटियों को भी तो चाहिए। मार ताक झांक करते रहते हैं। फिर खुद दुखी होते हैं और हम बेटियों को भी दुखी करते रहते हैं। फिर उनके दुख से हमें भी दुखी होना पड़ता है। इतने बुड्ढे हो गए, कब अक्ल आएगी इन्हें। इस मरणशील धरा पर ले आये। बड़ा कर दिया। अब तो जान छोड़ो। हमें भी जीने दो। आराम से। प्रोफेसर राम बक्ष अपने शिष्यों के साथ

ठगों का गाँव कोई दूसरा होता है

चोरों ,लुच्चे-लफंगों को तो मैंने कभी पसंद नहीं किया। ठग अलबत्ता अभी तक मुझे आकर्षित करते हैं।चिताणी की लोककथाओं में ठगों का अलग गाँव हुआ करता था। वह गाँव अब कहाँ है? बचपन से मैं उस गाँव की यात्रा करने की हसरत पाले हुए हूँ। कोई है जो मुझे वहाँ ले चले। अकेला तो मैं कहीं आता जाता नहीं।

मेरा गाँव अब तक मेरे अंदर उसी तरह बसा है

अब से कई बरस पहले अर्थात 11 सितंबर 1975 को मैं चिताणी को थैले में (वह इसलिये क्योंकि तब तक मेरे जीवन में सूटकेस का उदय नहीं हुआ था।) और मन में भरकर जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में पहुंचा था। थैले में चादर, तौलिया,दाढ़ी बनाने का सामान प्रो मैनेजर पांडेय ने भरवाया था। ( मेरे पास यह सब कहां था।) प्रो नामवर सिंह ने के एम शर्मा के माध्यम से मेरे पास प्रवेश फॉर्म भिजवाया था। (मुझे फॉर्म मंगवाना कहां आता था !) के एम शर्मा के निर्देशानुसार पुरानी दिल्ली रेल्वे स्टेशन से 17 नम्बर की बस में बैठकर पुराने कैम्पस में दाखिल हुआ था। बहुत समय बीत गया,चिताणी अभी तक मेरे साथ भटक रही है। इस पुस्तक में चिताणी को पकड़ने की कोशिश की गई है।

मित्रता दिवस पर चिताणी की एक कहावत याद आई। मित्रता तो ठीक है,परंतु मेरे लिए—–

मैं अर म्हारो भँवरियो ,

अर भँवरियो अर भँवरिया री माँ।

अर्थात मेरे लिये तो सिर्फ मैं और मेरा बेटा और बेटे की माँ, यही दुनिया है। पता चला कि चिताणी व्यंग्य नहीं करती, सिर्फ मधुर परिहास करती हैं।

रक्षा बंधन और 15 अगस्त: मेरी वाली चिताणी में ये दोनों त्यौहार इस तरह से नहीं मनाए जाते थे । सीधी बात है। 15 अगस्त स्कूलों में मनाया जाता था और चिताणी में तो स्कूल ही नहीं था। फिर कैसे मनता!अब स्कूल खुली है ,इसलिये अब चिताणी में भी 15 अगस्त और 26 जनवरी होती है।मैंने सेनणी स्कूल में पहली बार 15 अगस्त मनाया था और मनाते हुए देखा था।

और रक्षाबंधन ! इस दिन चिताणी में बहनें भाइयों के राखी नहीं बांधती।सेनणी से एक पण्डित जी आते थे। सुबह सुबह ।वे सब घरवालों के राखी बांध देते थे।पिताजी उनको अनाज देते थे। एकदम कैशलेश त्यौहार था। बहनों द्वारा भाइयों के राखी बांधने की प्रक्रिया अब शुरू हो रही है।

चिताणी सभ्यता की दौड़ में कितनी पीछे थी! ऐसे ही आज याद आया।”


लोग कहते तो रहते हैं कि नाम में क्या रखा है! परन्तु इस अवसर पर मेरे नाम की भी चर्चा हो गयी।अब तक मेरे लेखन में मेरा नाम रामबक्ष छपता रहा है। इस पुस्तक में मेरा नाम रामबक्ष जाट प्रकाशित हुआ है।प्रश्न उठ सकता है कि ऐसा क्यों हुआ? अब,नाम के साथ जाट लिखने की जरूरत क्यों पड़ी?

दरअसल मेरा जन्म 6 बहनों के बाद हुआ। माता पिता निराश हो गए थे कि अब उनके कोई बेटा होगा ही नहीं। गाँव के एक व्यक्ति ने व्यंग्य कसा कि मूली अभी दो पतों की ही है।बेटे की चाहत भारतीय समाज की अपनी विशेषता है।यह गलत है।इसे हम अब कह सकते हैं।उस समय जब मेरा जन्म हुआ तो यह माना गया कि मुझे राम जी ने बख़्श दिया है। यह बख़्श शब्द नागौर पर सूफियों का प्रभाव रहा है। हिन्दू परम्परा के अनुसार मेरा नाम रामदत्त होना चाहिए था,लेकिन हुआ रामबख्श।इसको भाषा विज्ञान ने रामबक्स कर दिया। इस नाम को लेकर मैं प्राथमिक पाठशाला सेनणी गया। सेनणी में कोई पण्डित जी शिक्षक थे। उत्तरप्रदेश से आयात किये गए थे। उनको यह सूफी प्रभाव पसन्द नहीं आया। वे रामदत्त तो नहीं कर पाए,पर बख़्श को बक्ष कर दिया। फिर उनके अवचेतन में जातिवाद रहा होगा। इसलिये रामबक्ष के साथ जाट लगा दिया। ऐसा उन्होंने नाई, खाती,कुम्हार आदि सभी बहुजन छात्रों के नाम के साथ किया। कक्षा 10 से पहले तक मेरा नाम देवनागरी अक्षरों में ही लिखा जाता था। जब स्वयंपाठी छात्र के रूप में परीक्षा फॉर्म भरने गया तो मेरे नाम का अंग्रेजी रूपांतरण करना जरूरी हुआ। जितनी मेरी बुद्धि थी उसके अनुसार मैंने अंग्रेजी में लिखा rambux jat बक्ष का सही रूप baksh होना चाहिए था,परंतु मैंने लिखा bux

फिर जब शहर में आया। साहित्य की दुनिया में आया तो जाति मुक्त होने का प्रयास किया और अपना लेखन रामबक्ष के नाम से करने लगा। रॉयल्टी का चेक आता तो प्रमाणित करने से खाते में जमा होने लगा। धीरे धीरे भूमंडलीकरण का असर हुआ। अब नाम से पहले सरनेम जरूरी हुआ।सरनेम के बिना पासपोर्ट भी नहीं बन सकता। जब तकनीकी का विकास हुआ तो नाम का अर्थ हुआ आधिकारिक पूरा नाम रामबक्ष जाट। अंग्रेजी में RAM BUX JAT फिर जब अमेरिका का वीसा लेने गया तो उन्होंने कहा राम और बक्ष के बीच खाली जगह है या नहीं। जब इतनी बारीक जांच होती है तो पूरा सरकारी नाम लिखना ही ठीक रहेगा। अब मुझे रिपोर्टिंग करने वालों को बताना पड़ता है कि हिंदी और अंग्रेजी में मेरा नाम अलग अलग है।

जहां तक जन्मतिथि का प्रश्न है। उस काल के सभी ग्रामीण भारतीयों को अंग्रेजी तारीखों का ज्ञान ही नहीं था। सब विक्रम सम्वत का प्रयोग करते थे,परंतु स्कूल में अंग्रेजी सन का प्रयोग होता था,जिन्हें सिर्फ अध्यापक जानते थे। इसलिए अंदाज से लिख देते थे। बरसों तक बच्चे अपनी जन्मतिथि गलत भर देते थे। कई बरसों बाद सबको समझ में आया कि कक्षा दस के प्रमाण पत्र में जो तिथि है ,वही अंतिम रूप से सही मानी जायेगी।जब नामवर सिंह की जन्मतिथि गलत अंकित हो गयी थी तो किसी की भी जन्मतिथि गलत हो सकती है। बाद में में सबने मान लिया कि जो लिखी है, वही सही है। होने को आप चाहे जब पैदा हुए हों।कुछ राज्यों में तो अधिकतर बच्चे 1 जनवरी और 1 जुलाई को ही पैदा हो गए।इस दृष्टि से मेरी जन्मतिथि 4 सितंबर कम संदेहास्पद है।शिक्षित जनता की पहली पीढ़ी पता नहीं कब पैदा हुई और कब दर्ज हो गयी।

पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर कहा गया कि यह पुस्तक सम्पूर्ण भारतीय गांवों का प्रतिनिधित्व नहीं करती। इस पुस्तक में कोई मुस्लिम आबादी नहीं है। यह तो सही है। जब चिताणी में नहीं है ,तो मैं कैसे लिखता?

जो नहीं है, उसका गम क्या?

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References

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