Sobraon

From Jatland Wiki
(Redirected from Subraon)
Jump to navigation Jump to search
Location of Sobraon (Patti) in Amritsar district

Sobraon (सोबराँव/ सोमरांव/सोवरांव) is a village in Patti tahsil of Amritsar district in Punjab, India. It is famous for being the site of the Battle of Sobraon.

Location

The village is located at 31°10'39N 74°51'10E with an altitude of 192 metres (633 feet).


Jat Gotras

History

Lepel H. Griffin[1] writes that Sidhu, who was, ancestor and originator of Sidhu-Jat clan, had four sons, Dhar, sometimes called Debi, Bur, Sur and Rupach. From the Dhar/Debi has descended the families of Kythal, Jhumba, Amowli and Sadhowal.

from the second the Phulkian Chiefs.

Sur, the third, has no family of any note among his descendants, who, however, are numerous in Battinda and Firozpur ;

while those of Rupach, the youngest, reside at Pir-ki-kot and Ratrya in the Firozpur district.

Bir, the son of Bur, had two sons, the eldest of whom, Sidtilkara, did not marry, but became an ascetic.

Sitrah, the younger, had two sons, Jertha and Lakumba, from the second of whom the family of Attari, in the Amritsar district, has sprung.

His son Hari, gave his name to Hariki on the Satlej, near the spot where the battle of Sobraon was fought, and also founded the villages of Bhatta and Ghima.

Thakur Deshraj writes -

....सिखों ने अंग्रेजों के साथ युद्ध करने के लिए सोवरांव पर दखल करके सुदृढ़ व्यूह बना लिया। 67 तोपों के साथ 15 हजार सिक्ख मर मिटने के लिए तथा मार-काट करने के लिए अंग्रेजी सेना के आने की प्रतीक्षा करने लगे। इधर तो सिक्ख वीर इस तरह मर मिटने को तैयार थे, उधर नमकहराम लालसिंह ने अंग्रेजों को यहां के सब समाचार लिख भेजे -

“इस युद्ध का सेनापति तेजसिंह है। पर वह चेष्टा अंग्रेजों के हित की ही करेगा। मेरे संचालन में घुड़सवार सेना है, जिसे मैंने तितर-बितर कर रक्खा है। सिक्ख छावनी का दक्षिण भाग कमजोर है, उधर व्यूह की दीवार भी मजबूत नहीं बन सकी है1।”

इस समाचार के पाने से अंग्रेजों को बड़ी प्रसन्नता हुई। अंग्रेजों ने सर राबर्ट डिक की अधीनता में सबसे पहले उसी दक्षिणी हिस्से पर आक्रमण करने की आज्ञा दी। साथ ही अन्य भागों पर भी 120 तोपें लगा दीं। सर वाल्टर डिक के दाहिने भाग में और हैरी वाल्टर के दाहिने भाग में इस भांति खड़े हुए कि एक के बाद एक परस्पर सहायता देते रहें। इस प्रकार तीनों भागों में 16 हजार राजपूत मिश्रित गोरे नियुक्त किए गए। चाहे लालसिंह ने अंग्रेजों को अपना सारा भेद बता दिया था, किन्तु अंग्रेज सशंकित उससे भी थे। इसलिए उनकी निगाह रखने के लिए भी कुछ घुड़सवार सैनिक नियुक्त कर दिए। ठीक है जो अपनों के साथ विश्वासघात कर सकता है, उसका विश्वास करना महापाप है। आपत्ति के समय सहायता देने के लिए दो


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-335


पल्टनें अंग्रेजों ने फीरोजपुर में नियुक्त कर दीं। सामने छाती से छाती भिड़ाकर अंग्रेज सिक्खों से दो बार लड़ चुके थे। उन्हें यकीन हो गया था कि सिक्खों से मुकाबले में फतह नहीं पा सकते। इसलिए (9 फरवरी सन् 1846 ई० की रात को) चुपके से सिक्ख-सेना पर आक्रमण किया, फिर मुठभेड़ होते समय तक सूर्य निकल आया। सदा के फुर्तीले सिक्खों ने तुरन्त रणभेरी बजा दी। ठीक साढ़े छः बजे अंग्रेजों की सैंकड़ों तोपें सिखों पर गोले बरसाने लगीं। कभी सिखों की हथियारों से भरी हुई गाड़ियां तोपों के गोलों से नष्ट होती थीं, कभी बालू से बनाई उनकी दीवार गिरती थी। कभी गोले फटकर पृथ्वी में दरारें कर देते थे। सिखों की लोथों पर लोथ बिछ रही थीं, किन्तु इस पर भी सिख वीरों का धीरज न छूटा।

खालसा सेना अंग्रेजों के प्रत्येक आक्रमण का उत्तर स्वाभाविक फुर्ती से देकर अंग्रेजी सेना में प्रतिक्षण हाहाकार मचा देती थी। भारत में अंग्रेजों को अनेक युद्ध करने पड़े हैं। किन्तु अन्यत्र कहीं भी सोवरॉय की भांति दुर्ज्जय वीरों की भीषण समर-लीला देखकर कहीं इतना भयभीत नहीं होना पड़ा। .......


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-336


यद्यपि अंग्रेज अभी तक पराजित हो रहे थे, किन्तु उन्होंने साहस नहीं छोड़ा। यही उनका ऐसा उत्तम गुण था, जिसके बल पर भूमंडल के सबसे अधिक भाग पर छा गए थे। उन्होंने अपनी हार से भी सबक लिया। पुनः आक्रमण के लिए वे फिर बल-संचय करने लगे। उधर सिक्ख-सेना की हालत पर दृष्टिपात करने से आंसू बहाना पड़ता है। सैनिक बिचारे स्वयम् प्रबन्ध करते हैं। उन्होंने अपने बायें ओर मध्य भाग को मजबूत बनाने के लिए दाहिने भाग को फिर निर्बल बनाया। विश्वासघाती लालसिंह यह सारा तमाशा देख रहा था। अधीन सेना ने उसे दाहिने भाग की कमजोरी कई बार बताई। किन्तु क्यों ध्यान देने लगा? चौथे आक्रमण के समय डिक-सेना ने उसी दाहिने भाग पर हमला किया। उसने बड़े वेग के साथ चलकर उस स्थान पर कब्जा कर लिया। मध्य-भाग की ओर गिलवर्ट-सेना बढ़ रही थी। उसे डिक-सेना ने बड़ी सहायता पहुंचाई। इन दोनों सेनाओं ने सिक्खों की कई तोपों को छीन लिया। इसी समय हैरी-स्मिथ-सेना ने भी सिक्खों पर आक्रमण किया। शत्रुओं के इस भीषण आक्रमण का उत्तर देने के लिए सिक्ख सिंहों की भांति अंग्रेजी दल पर झपटे। अगणित अंग्रेज सैनिक उन्होंने काट कर गिरा दिये। आगे की सेना पीछे वालों पर गिरने लगी। पर इतनी हानि होने पर भी गिलवर्ट-सेना ने डिक की सेना के सहारे सिक्ख-सेना पर हमला किया। यह दृश्य अपूर्व था। कभी अंग्रेजी सेना सिक्खों को भगाकर आगे बढ़ती, कभी सिक्ख सेना अंग्रेजी-सेना का ध्वंस करती। इसी तरह की कश्मकश में अंग्रेजों की सेना एक बार के हमले में सिक्ख-सेना के भीतर घुस गई और उसके दायें-बायें अंश अंग्रेज-सेना ने घेर लिए। इसी समय अंग्रेजी तोपों ने सिक्ख-व्यूह की दीवार पर गोले बरसाने आरम्भ कर दिये। थोड़ी देर में दीवार गिर पड़ी और अंग्रेजी सेना ने सिक्खों पर चारों ओर से हमला कर दिया। यही अवसर सेनापतियों के रण-कौशल दिखाने का था। किन्तु बेचारी सिक्ख-सेना के सेनापति तो विश्वासघातक थे। उन नराधमों ने गोलन्दाजों को बारूद देना बन्द कर दिया। जो तोपें कुछ समय पहले अग्नि वर्षा करके अंग्रेजों के दिल दहला रही थी, वे अब बिना बारूद के दगने से बन्द रह गईं। अंग्रेज सैनिक उन पर कब्जा करने लगे। उनकी नीचता की हद यहीं खतम नहीं हुई। स्वजाति-द्रोही तेजसिंह ने एक बड़ी सेना के साथ भागना शुरू कर दिया, उसने सतलज के पुल को भी तुड़वा दिया। वह चाहता था कि भागकर भी सिक्ख-सेना प्राण न बचा सके। अब सिक्ख-सेना इसके सिवाय क्या कर सकती थी कि जन्मभूमि के हित डटकर लड़े और लड़ते-लड़ते ही प्राणों का उत्सर्ग करे। उनके लड़ने के भी साधन नष्ट किए जा चुके थे। गोला-बारूद के बिना तोप-बन्दूकें बेकार साबित हो रहीं थीं। अब सिखों ने अपनी चिर-संचिनी तलवार को सम्भाला और अटारी के भीम-विक्रमी बूढ़े सरदार श्यामसिंह की उत्तेजना से, मदमत्त हस्तियों की भांति, अंग्रेजी सेना पर आक्रमण किया। सरदार


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-337


श्यामसिंह सेना के प्रत्येक भाग में आक्रमण करके अपने साथियों का उत्साह बढ़ाने लगे। अन्त में जब उन्होंने देखा कि अब सर्वनाश होने में देरी नहीं है, तब उन्होंने सिख-वीरों से ललकार-पूर्वक कहा - 'क्षत्राणियों के पुत्रो! आओ कुछ करके मरें। अंग्रेजों की 50वीं रेजीमेंट पर आक्रमण करो।' वे बड़े वेग से हवा में तलवार घुमाते हुए घोड़े को एड़ लगाते हुए अंग्रेजी रिसाले पर टूट पड़े। 50 अन्य सिख वीरों ने भी प्राणों का कुछ मोह न करके श्यामसिंह का साथ दिया। अंग्रेज सैनिकों के गोल ने उन पर गोलियों की बौछार कर दी। श्यामसिंह के सात गोलियां शरीर में लगकर पार हो गईं। किन्तु प्राण रहने तक श्यामसिंह लड़ते रहे। वे अंग्रेज-सिक्ख वीरों की लाशों के ढ़ेर के ऊपर सदैव के लिए सो गए।

सिख-सेना पीछे हटी, किन्तु बड़ी सावधानी के साथ। उसने पीठ न फेरी। अंग्रेजी फौज के सामने मुंह करके लड़ती हुई उल्टे पैरों वापस लौटी। यदि सतलज का पुल उसके विश्वासघाती सेनापतियों ने तोड़ न दिया होता, तो सिख वीर लड़ते हुए भी अपने इलाके में पुल पार करके वापिस पहुंच जाते। उन दिनों सतलज चढ़ी हुई थी। अब इसके सिवा उपाय ही क्या था। या तो वे नदी में कूदकर प्राण दें अथवा शत्रु के सामने छाती अड़ाकर अपने जीवन का निर्णय करें। वे तलवार के सहारे ही शत्रुओं का सामना करते हुए लड़कर मरने लगे। अंग्रेज आश्चर्य करते थे। इस तरह जीवन से निराश होने पर भी, उनमें से एक भी सिख, माफी मांगने के लिए तैयार नहीं है। उस सम्पूर्ण सिख-दल के रक्त से सतलज का जल रक्त-वर्ण हो गया। पानीपत के युद्ध के बाद, इतनी नर-हत्या सोमरांव युद्ध में ही हुई थी। प्रायः 8 हजार सिख उस दिन मां की आजादी की रक्षा के लिए रणखेत में शत्रु के हाथों से वीरगति को प्राप्त हुए। इतना होते हुए भी उन्होंने अंग्रेजी-सेना के दो हजार चार सौ तिरासी आदमियों को इस लोक से विदा कर दिया था। अंग्रेजों की विजय हुई। पर क्या कोई अभिमानी योद्धा यह कह सकता है कि सिख अंग्रेजों से हार गये थे?

The Battle of Sobraon

Raja Lal Singh, of First Anglo-Sikh War, 1846

The Battle of Sobraon was fought on 10 February 1846, between the forces of the British East India Company and the Sikh Khalsa Army, the army of the Sikh Empire of the Punjab. The Sikhs were completely defeated, making this the decisive battle of the First Anglo-Sikh War.

Sham Singh Atariwala , a Brar Gotra Sikh Jat and prominent zamindar from Atari village between Amritsar and Lahore, was one of the generals in the army of Maharaja Ranjit Singh. He sacrificed his life in the the Battle of Sobraon in 1846.

Notable persons

External links

References


Back to Jat Villages