Agrasen
Author : Ch Reyansh Singh
Agrasen (अग्रसेन) was a legendary Indian king of Agroha. He is credited with the establishment of a kingdom of traders in North India named Agroha, and is known for his compassion in refusing to slaughter animals in yajnas. The Government of India issued a postage stamp in honour of Maharaja Agrasen in 1976.
विभिन्न नाम
- Maharaja Agrasen (महाराजा अग्रसेन)
- Samrat Agrasen (सम्राट अग्रसेन)
- Aggrasain
सम्राट अग्रसेन
सम्राट अग्रसेन, आग्रेय जनपद के शासक थे, जिनकी राजधानी वर्तमान का अग्रोहा थी, तथा इनके पिता का नाम राजा वल्लभ और माता का भगवती देवी था.[1] इसके अतिरिक्त आगरा जनपद भी सम्राट अग्रसेन द्वारा स्थापित/बसाया गया था।[2]
अस्वीकरण
नोट रखें, यह लेख मात्र एक शोध पर आधारित है जिसके सोधकर्ता चौ.रेयांश सिंह है, इस लेख का किसी भी व्यक्ति या समुदाय की भावनाओं को किसी भी प्रकार की कोई ठेस पहुंचाने का उद्देश्य नहीं है, यह लेख मात्र एक सच को उजागर करने के लिए लिखा गया है, जिसमें लेखक ने सिर्फ़ अपने विचार व्यक्त किए हैं, अन्यथा इसका कोई दूसरा मकसद नहीं है, धन्यवाद्।
श्री अग्रसेन जी महाराज
अग्रसेन महाराज, यह आग्रेय गणराज्य के संस्थापक थे और इसके शासक भी, अग्रवाल समाज इन्हें अपना पूर्वपुरुष व पूर्वज मानता है, जिस बात का हम बड़ा आदर करते हैं।
क्योंकि यह अग्रवाल जाती के पूर्वपुरुष रहे, इसलिए इन्हें आज भी सिर्फ़ इसी जाती से जोड़कर बताया जाता है, जो कि हर तरह से ग़लत है, यदि में कहूं कि सम्राट यदु स्वयं में यदुवंशी था तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी?? जिस प्रकार यदु के वंशज यदुवंशी कहलाए परन्तु इससे यदु के पूर्वज या वो स्वयं तो यदुवंशी नहीं हो गया? कोई स्वयं का वंशज नहीं होता, यह इतिहासकारों की बड़ी भूल का नतीजा है।
उदाहरण के तौर पर, जैसा कि हम सब जानते हैं कि सम्राट इस्वकु के वंश में सम्राट रघु का जन्म हुआ और सम्राट रघु से रघुवंश प्रचलित हुआ, यदि मैं कहूं कि सम्राट रघु स्वयं में रघुवंशी थे, या छोड़ो अगर मैं कहूं कि सम्राट इस्कवकु भी रघुवंशी थे तो यह कहना एक बेवकूफी से कम नही जो मुझे ही एक मूर्ख सिद्ध करने के लिए काफी होगी, क्योंकि इस्कवकु के समय तो सम्राट रघु थे ही नहीं, तो उनसे पहले ही उनका वंश कैसे चल पड़ा और फिर उनसे पहले के सम्राट(उन्हीं के पूर्वज) को हम उनका वंशज या रघुवंशी कैसे कह सकते हैं???
ठीक उसी प्रकार सम्राट अग्रसेन जी के वंशज(चाहे वो कोई भी हों) उन्हें अपना पूर्वज कह सकता है, जिस बात का मैं अदर करता हूं लेकिन वो उनपर अपनी जाती नहीं थोप सकता, ये तो वही बात हो गई, की यदु एक चंद्रवंशी राजा थे उनसे यदुवंश का उद्गम हुआ और इस हिसाब से पूरा चंद्रवंश ही यदुकुल है, यह फिर से एक बेतुकी बात है, तो फिर कैसे यदि अग्रवाल समाज उनके वंशज हैं, अर्थात् उनके बाद में आए तो उनको अपनी जाती का कैसे बता सकते हैं, वंशज तो बादमें आते हैं या फिर पहले?
प्रारम्भ
इस शोध पर सोच की शुरुआत कुछ इस प्रकार हुई, इतिहासकार विजयेंद्र कुमार माथुर द्वारा इस प्रकार का वर्णन् किया गया, "अग्रोहा वर्तमान अग्राहा या अग्रोहा प्राचीन अग्रोदक या अग्रोतक है। अगरोहा हरियाणा के हिसार ज़िले में स्थित नगर जो आग्रेय गणराज्य की राजधानी था। स्थानीय किंवदंती के अनुसार महाभारत काल में यहां राजा अग्रसेन की राजधानी थी और स्थान का नाम अग्रसेन का ही अपभ्रंश है। यवन-सम्राट अलक्षेंद्र के भारत पर आक्रमण के समय (327 ई. पू.) यहां आग्रेय गणराज्य था। चीनी यात्री चेमाङ् ने भी अग्रोदक का उल्लेख किया है।[3]
अतः यहां पर एक शब्द आया "आग्रेय गणराज्य" और लेखक के अनुसार यह राजा के पूरे साम्राज्य का नाम था, जिसे कि उन्होंने आग्रेय नाम दिया, यह नाम आग्रेय क्यों रखा गया??
और वहीं संध्या जैन, हिसार के इस जनपद का नाम अग्रेय लिखतीं हैं।[4]
"अग्रेय" अब सवाल उठता है कि अग्रेय क्या है?? हम पहले ही अग्रवाल जाती के विषय में बात कर चुके हैं, और श्री अग्रसेन जी के बारे में बात करने के लिए हमें उनके समय की कोई जाती से उनको जोड़कर देखना पड़ेगा कि सबूत किसके पास हैं?? अग्रेय यह एक जाट गोत्र है जिसे की वर्तमान में अग्रे भी कहते हैं। नोट रखें, हमें नहीं भूलना चाहिए कि आत्रे और आत्रेय दोनों एक ही जाट गोत्र के दो अलग अलग नाम हैं,[5] ठीक उसी प्रकार अग्रे और अग्रेय एक ही जाट गोत्र के दो अलग अलग नाम हुए,
यहाँ प्रकाश डालने के लिए एक तथ्य यह भी है की, गोत्र को पहले 'य' प्रत्याय जोड़कर परिचित किया जाता था जिसे की आज 'आ' अथवा 'अ' से लिखा जाता है, जैसा कि इतिहाकार बीएस दहिया द्वारा भी वर्णित है।[6] जिस हिसाब से अग्रे और अग्रेय दोनों एक ही गोत्र के दो अलग नाम हुए।
अर्थात् उनका गणराज्य अग्रेय (अथवा आग्रेय) कुछ और नहीं बल्कि उनके वंश का परिचय देता है।(आगे पढ़िए)
इस विषय में डॉ०नवल वियोगी ने कुछ इस प्रकार का प्रकाश डाला,[7] .... [p.378]: Mound of Agroha is situated on the metalled road between Hissar and Fatehabad at a distance of 14 miles from the former. A series of rolling mounds of varying heights being about 87 feet above the surrounding ground level occupy about 650 acres of land towards the north-west of the village known by the name of Agroha. Tradition avers that Raja Agra later named Aggrasain , used to live here and the remains of fort on the top of the mound are connected with his residence.[8]
It can be said with a certain degree of accuracy that Agroha owes its origin to Agra and eancient name of the town was Agrodaka, as marked on the coins found in the excavation. The fort, however, on the top was constructed by Dewan Nannomal, who was an Aggarwal by caste and was the employee of Raja Amar Singh of Patiala (1765-1781). (Griffin, Punjab Rajas and Panjab state Gazetteers Vol XVII A).[9]
Agroha appears to have been mentioned by Ptolemy, who calls it Agara, which can not be identified with Agra (U.P.) In the medieval period Zia-u-d-din Barani[10] Afif have described Agroha or Agrah as a flourishing town forming an important division of the newly laid town of Hisar-i-Firuza. The severe famine in Muhammad Tughluq's time had caused considerable havoc at Agroha and it was deserted city as evidenced by Ibn-i-Batuta.[11] Its excavation work was conducted by M.C.J. Rodgers in 1888-89 and again in 1938-39 by H.L. Srivatava joint director of Archaeology in India. One sculpture pieced together found in 7L/4 at a depth of 9.4 represents an image standing on lotus supported by Nagas[12] and one of the terracotta Mahisasurmardini, a seated image with a female standing by, proves that residents were Nagas and mother goddess worshippers.
A small hoard[13] of five silver coins buried in a pottery vase was found in square 7 P/3 at a depth of 14', It contained one coin each of Antiolkidas, Apollodotos, strabo, Amyntos, and one Punch marked coin with solar and tree symbol. The other hoard of 51, mostly rectangular coins, buried in a wide mouthed pottery vase was found in the same square and at the same depth. These coins contained the inscription Agodaka Agācha janapadas with tree in railing on the obverses and bull, lion and in three instances composite with part of the same inscription on the reverse. These coins established the identity of Agroha with the ancient Agrodaka founded by Agra, the reputed fore-father of the Aggrawals. [14]
These were Sanghas or republicans of ancient period, who met with Alexander as cited earlier. The recovery of Indo-greek coins and the Agodaka coins in the pit have so far established the antiquity of the site
[p.379]:to about second century BC. [15] It seems Agrasenis migrated from west Punjab and settled here. Solar symbol on coins shows that they were worshippers o Sun god or Baal.
अर्थात् यहां उन्होंने भी बहुत सी जानकारी प्रदान की है, जैसे कि अग्रेय का नाम अग्रोदका भी रहा है (विक्रमादित्य के समय) और अलग अलग समय अलग अलग लेखकों द्वारा अलग अलग नामों से लिखा गया आदि आदि परन्तु यहां वह यह भी स्वीकारते हैं कि अग्रोदका को राजा अग्र (mentioned as 'Raja Agra' by the writer) द्वारा बसाया गया था जो कि आगे चल कर अग्रसेन नाम से जाने गए? अत: स्पष्ट होता है कि अग्रसेन भी अपने आप में कोई नाम नहीं था, वह राजा साहब को वहां राज करने के बाद दी गई उपाधि थी, इतिहासकारों ने सभी बातों को पूर्ण रूप से लिखा परन्तु आधा अधूरा, अग्रसेन उपाधि का प्रयोग अग्रे जाटों के गणराज्य के गणध्यक्ष व गणपति के लिए प्रयुक्त होता था, ना की वह कोई नाम था, इतिहासकारों ने यह तो लिखा कि अग्रसेन कोई नाम नहीं है परन्तु यह नहीं लिखा कि यह उपाधि किसकी है और इसका प्रयोग कौन व किसके लिए करते हैं(या थे)!
यहां भी हम पक्के तौर पर उन्हें जाट नहीं कह सकते, लेकिन यह यकीन पक्का जब हो जाता है, जब हम इनके सिक्कों पर खोजबीन करनी प्रारंभ करते हैं। इतिहासकार निरंजल लाल गौतम के अनुसार[16] इनकी मुद्राओं पर ब्रह्मलिपि में "अगोदका अगाच जनपद" लिखा पाया गया, उनके अनुसार इसका अर्थ था कि अगाच (नामक) जनपद की अग्रोहा राजधानी की मुद्रा थी।" यहां पर प्रयुक्त 'अगाच' शब्द हमारे शक को यकीन में बदल देता है, क्योंकि यह अपितु कुछ और नहीं बल्कि अग्रे जाटों का ही एक पर्यावाची नाम है, अर्थात् अग्रे और अगाच एक ही गोत्र के दो अलग अलग नाम हैं आज भी हाथरस में कई ऐसे गांव गिनाए जा सकते हैं, जहां के अग्रे जाट खुदको बड़े गर्व से अगाच चौधरी लिखते हैं।
अतः इतना तो स्पष्ट है कि सम्राट अग्रसेन और अग्रोहा का इस अग्रे जाट गोत्र से कोई ना कोई संबंध तो अवश्य था, और फिर अग्रवाल जाती के विषय में हम पहले भी बात कर चुके हैं कि उस वक्त तो यह जाती अस्तित्व में भी नहीं थी, हमें इस बात को भी ध्यान रखना चाहिए कि अग्रवाल अपने आप में एक जाट गोत्र भी है(जैसा कि डॉ॰पेमाराम के लेखों को पढ़ने से स्पष्ट होता है![17]), जिसे की अगावली/अगरवाल/अगच आदि कई नामों से जाना जाता है।
इसके अतिरिक्त जाटों में अग्रोहे नामक गोत्र भी पाई जाती है, जिसका निकास अग्रोहा से हुआ है, वर्तमान में इस गोत्र के जाट मुज्जफरनगर में भी निवास करते हैं।
इनके सिक्कों(मुद्राओं) पर इंकित शब्द "अगाच" का उल्लेख तो बहुत से इतिहासकारों ने किया है, अभी ऊपर ही डॉ॰नवल वियोगी के अंग्रेज़ी लेखों में भी इसका वर्णन् है, इनके अतिरिक्त इतिहासकार विरजानंद दैवकरणि भी यही मानते हैं।[18] ऐसे इतिहासकारों की कोई गिनती नहीं।
अग्रवाल समाज
ऊपर लिखे सभी लेखों से इस बात की पुष्टि होती है यदि अग्रवाल समाज के लोग श्री अग्रसेन जी के वंशज थे तो वर्तमान में जाट जाती भी उनके वंशज है, और अग्रवाल समुदाय को लेकर हम पहले ही कह चुके हैं कि यह जाती सम्राट अग्रसेन जी के बाद अस्तित्व में आई तो अग्रसेन जी इस जाती के पूर्वज भलेही हो सकते हैं परन्तु इसका हिस्सा नहीं।
कुछ अन्य तथ्य
अग्रोहा गणराज्य अपनी बहादुरी और शासन प्रणाली सहित अपने राज व्यवस्था के लिए जाना जाता है। यह गणराज्य कभी यौधेयों के अधीन रहा था, इतिहासकारों(जैसे बीएस दहिया और हुकुम सिंह पंवार आदि) ने पहले ही इन्हें जोहिया जाटों का गणराज्य सिद्ध किया है, जिसके अधीन कभी अग्रेय गणराज्य रहा था।
इसके अतिरिक्त आज जो समाज यह कहकर इनपर अपनी जाती थोप देता है कि यह हमारे पूर्वज थे, यदि मैं सम्राट अग्रसेन के पूर्वजों को ही जाट सिद्ध कर दूं फ़िर??
भगवान् कुश से 34 वीं पीढ़ी में सम्राट अग्रसेन का जन्म हुआ, अब यह बताने की कोई आवश्यकता नहीं है कि श्री रामचन्द्र किस जाती में जन्मे थे, व काक वंशी जाट शासक थे।(इतिहासकार हुकुम सिंह पंवार के लेखों को पढ़ें!) इसके अतिरिक्त इतिहासकार दलीप सिंह अहलावत ने भी यही निष्कर्ष निकलते हुए सिद्ध किया कि श्री रामचन्द्र जी महाराज जाट थे।[19]
अतः साफ़ है, कोई भी समाज सिर्फ़ उनके वंशज होने के दम पर श्री अग्रसेन महाराज को अपने समाज का नहीं बता सकता।
प्रमाण
ये बेंहस दिन रात की जा सकती है, अब प्रमाण की बात कर लेते हैं। मैं जितने सबूत फिलहाल इकट्ठे कर पाया, उतने आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं जल्द ही इसमें और भी तथ्य जोड़ूंगा, कृपया प्रतीक्षा करें।
क्रम1, अग्रेय कोई जनपद नहीं, उनकी वंश(गोत्र) का नाम था। जाटों में पहले अपने गोत्र या महापुरुष के नाम पर ही उनके राज्य का नाम होता था, और गणप्रणाली के जन्मदाता जाट ही थे।[20] यौधेया गणराज्य के अधीन आने वाले मुख्य गणों में, यौद्धेय, अर्जुनायन, आग्रेय तथा भद्र नाम प्रमुख हैं। जहां यौद्धेय वर्तमान के जोहिया जाट हैं वहीं आर्जुनायनों का गोत्र कुंतल तोमर था जो कि पांडव नायक अर्जुन के वंशज थे और भद्र तो थे ही जाट।
क्रम 2. अग्रवाल जाती की उत्पत्ति अग्रोहा से रही, और जाट जाती उससे बहुत पहले से अस्तित्व में है[21] इसके अतिरिक्त अग्रवाल जाती के बहुत से गोत्र हैं जो जाट गोत्रों से मेल खाते हैं जैसे कि धारण, बंसल, और नागल इत्यादि, जो इस बात की ओर इशारा करते हैं की अग्रवालों की उत्पत्ति जाट जाती से रही होगी, क्योंकि दोनों के अस्तित्व की बात करें तो अग्रसेन से पहले अग्रवाल जाती का होना बेतुकी बातें हैं, मगर जाट तो अस्तित्व में थे और यदि अग्रवाल समाज वास्तव में श्री अग्रसेन का वंशज है तो इसकी उत्पत्ति जाट समाज से रही है क्योंकि श्री अग्रसेन के पूर्वज श्री रामचन्द्र जी महाराज जाती से जाट थे। और फिर वैसे भी गिनती में ऐसे इतिहासकारों का कोई अंत नहीं जिन्होंने इन्हें क्षत्रिय लिखा है, स्वयं अग्रवाल इतिहासकारों के नाम प्रदान कराए जा सकते हैं। फिर उस समय जब इन्होंने राज किया था, तब क्षत्रिय वर्ण में भला दूसरी जाती ही कौनसी थी??
इस बात से निष्कर्ष यह निकलता है कि अग्रवाल समाज की उत्पत्ति जाट समाज से हुई है,अब इसके आगे डीएनए साइंस ही हमें कुछ और नई जानकारी इस विषय में प्रदान कर सकती है।
क्रम 3, सम्राट का असल नाम अग्र था जैसा कि डॉ॰नवल वियोगी द्वारा लिखित है, और अग्रसेन के नाम से इनको बादमें जाना गया, तब अग्रसेन तो वैसे ही अग्रे जाटों की उपाधि थी, और इतिहास के लेखक देवीशंकर प्रभाकर लिखते[22] हैं कि आग्रेय गणराज्य के गणपति एवं गणाध्यक्ष को अग्रसेन उपाधि से अलंकृत किया जाता था। जो आज तक इन अग्रे जाटों की उपाधि है।
क्रम4- अग्रोहा से अग्रवाल जाती की उत्पत्ति हुई, यह उनका जन्मस्थान है, लेकिन जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं अग्रवाल जाती की उत्पत्ति जाटों से रही है, क्योंकि जहां एक ओर जाटों में अग्रवाल गोत्र पाई जाती है वहीं अग्रवाल समाज में जाट नामक कोई गोत् नहीं।(आगे पढ़िए)
ताजुक की बात है जिस गणराज्य ने सदा स्वतंत्र रहने के लिए, सिकंदर तक कि सेनाओं से तकराने में कोई जीझक नहीं दिखलाई वह गण कई सालों तक कुषाणों(काश्विन), मौर्य(मोर), गुप्त(धारण) इत्यादि वंशो के अधीन था, यह सभी अपने आप में जाट वंश थे, इससे एक बात और पता चलती है कि जाट कभी दूसरे के नीचे कार्य नहीं करता(यहां आग्रेय गणराज्य की बात हो रही है), उन्होंने अलेक्जेंडर की सेनाओं का डटकर मुकाबला किया व इतनी आसानी से बिना कोई युद्ध बिना संघर्ष के इन जाट वंशों के अधीन कैसे चले गए?
सिकंदर के आक्रमणों के दौरान भी आगरा, मथुरा, दिल्ली व सहारनपुर इत्यादि यौद्धेय गणराज्य के जौधे(जोहिया) जाटों के अधीन था।[23]
इससे एक और बात जो पता चली, की यौद्धेय गण के बाद भी वह सिर्फ़ अन्य जाट गण(अथवा साम्राज्य) ही थे, जिनके अधीन यह गणराज्य रहा, अन्यथा बाकी आक्रमणकारियों को यहां बहुत हानि उठानी पड़ी परन्तु इन्होंने कभी किसी जाट से युद्ध नहीं लड़ा! सवाल अभी भी वही है कि इतनी आसानी से अन्य जाट वंशों के अधीन कैसे रहे, अतः व स्वयं में भी जाट थे इस सबूत को और पक्का होते हम देख सकते हैं।
क्रम5- हम जानते हैं कि यौद्धेय गण के सभी योद्धा जाट थे, इतिहासकार बीएस दहिया के लेख पढ़िए। अग्रेय गणराज्य के प्राप्त हुए सिक्कों पर अगाच शब्द, इनके इसी वंश अग अथवा अघा का परिचय देते हैं जिसे की संस्कृत में अग्रे कहते हैं और महाभारत काल में इसका वर्णन् अग्रेय के रूप में मिलता है।
अग्रेय शब्द को लेकर, लेखक दामोदर महतो लिखते हैं.... अग्रेय: 'अग्र भव:' इस अर्थ में 'अग्र' शब्द से 'अग्राद्यत्' सूत्र से 'यत्' प्रत्यय (अग्र-यत्>य), 'यचि भम्' में 'अग्रे' की 'भ' संज्ञा, 'यस्यती च' में आकार लोप (अग्र्+य)=अग्र्य, प्रथमा एकवचनम में 'अग्र्य:'।[24]
अतः अग्रय भी अग्रे का ही अपभ्रंश (उसका अग्र भव) है।
इसमें एक तथ्य यह भी है कि वर्तमान जाटों की नागवंशी अघरिया गोत्र जो कि अघासुर नामक एक असुर से उत्पन्न हुआ है, जिसका ज़िक्र भगवत पुराण में भी मिलता है, और पुराण में उसे कंस का सेनापति बताया गया था[25], उसके नेतृत्व में उसकी अघा सेना ने(जिसकी उपाधि अघारिया थी) कंस महाराज का साथ दिया था। यदि अघासुर पर चर्चा करें तो, यह अघ+असुर बना है, अब आप समझ गए होंगे कि इसे अघा जाटों से क्यों जोड़ा जा रहा था, डॉ चंदवीर के अनुसार पुराणों में वर्णित सभी असुर व सुर जाट ही थे, तो अघासुर की सेना में अघा और वो अघाओं का राजा एक असुर था तो इस हिसाब से वह जाट असुर हुआ, अघा जाट असुर(अर्थात् अघा गोत्र का)। तो वहीं इस अघा सेना को संध्या जैन[26], अग्रेय पीपल(लोग) कहकर, इनका ज़िक्र किया है, और उन्होंने बताया कि इन्होंने महाभारत का युद्ध दोनों ओर से लड़ा था।(पाण्डवों के भी और कौरवों के भी) अतः यहां भी स्पष्ट होता है कि पुराणों और प्राचीन समय में वर्णित अघा और अग्रेय कोई अलग नहीं अपितु एक ही लोग(बहुवचन के लिए प्रयोगित) थे, और आज दोनों ही एक ही जाट गोत्र के दो अलग अलग नाम हैं, कल भी वह एक थे आज भी एक ही हैं और दोनों ही वर्तमान में जाट गोत्र हैं।(एक ही गोत्र के दो नाम) कहने का अर्थ था, की जो अघा लोगों का ज़िक्र पुराणों में कंस के साथ मिला वही लोग अग्रेय के नाम से भी विख्यात थे, दोनों कल भी एक थे और आज भी एक हैं, और वर्तमान में भी दोनों का जाट गोत्र के तौर पर मौजूद होना(अस्तित्व), अग्रोहा (आग्रेय) गणराज्य का जाट गणराज्य से होना सिद्ध करता है।
आज अग्रवाल जाती में अग्रह नामक कोई गोत्र नहीं है, इसके अतिरिक्त गंधार, भोज, अग्रे, जहिया, भद्र, तोमर(कुंतल), मल्ल(पंवार) इत्यादि ऐसे अनेकों जाट गोत्र गिनाए जा सकते हैं जो कि यौद्धेय गणराज्य से जुड़े थे और वर्तमान में सिर्फ़ जाट जाती में ही पाए जाते हैं, उल्टा अग्रवाल नामक गोत्र जाटों में है, और जाटों का अस्तित्व भी उनसे काफी पहले का है, श्री अग्रसेन के पूर्वज भी जाट ही थे।(श्री रामचन्द्र महाराज जी जाट थे.[27] जिनके 35 वीं पीढ़ी में श्री अग्रसेन जी का जन्म हुआ!)
इसके अतिरिक्त, अग्रे गोत्र का हर सूरत में जाट होने का एक बड़ा प्रमाण यह पेश करना चाहूंगा कि, कनाडा की एक शोद्ध छात्रा जिसका नाम आई सारा था ने अपने शोध में बताया[28] था कि जाट जाती युक्रेन और उज़्बेकिस्तान सहित कई अन्य देशों में निवास करती, इनकी बोली को जाटली कहते हैं, और इनमें लगभग 70गोत्र ब्रज के जाटों से भी मेल खाते हैं। आदि आदि[28] जिनमें 70 गोत्रों में से एक अग्रे भी शामिल है जिसे वहां अगे अथवा अखे(अक़े/अक़ा) भी बोला जाता है। अतः भारत से बाहर भी अग्रे लोगों का जाट होना उनके मूल रूप से प्राचीनतम जाट होने का सबसे बड़ा प्रमाण है।
क्रम 6- अग्रसेन क्या है?? हम पहले ही इस विषय में बात कर चुके हैं कि यह अग्रे जाटों की एक उपाधि है, जो उनके गणपति और गणाध्यक्ष को प्रदान की जाती थी, जिनमें से एक गणाध्यक्ष थे राजा अग्रा, जिन्होंने इस गण की स्थापना करी थी, और उनको उपाधि के तौर पर अग्रसेन कहा गया।
यदि हम इस शब्द "अग्रसेन" को तोड दें तो कुछ इस प्रकार उभर कर आता है- अग्र+सेन यहां अग्र का प्रयोग इनके कुल(अग्रे वंश/गोत्र) के लिए हुए है और सेन का अर्थ सेनापति या सेना को संभालने वाला(अध्यक्ष) से है।
क्रम 7- अग्रवाल समाज के पूर्वपुरुष श्री अग्रसेन महाराज हैं, और अग्रसेन महाराज के पूर्वपुरुष जाट हैं।
श्री अग्रसेन जी महाराजा का जन्म, श्री रामचन्द्र भगवान् के पुत्र कुश के चौंतीस वीं पीढ़ी में हुआ था।
श्री रामचन्द्र जी भगवान् स्वयं जाती से जाट थे कैप्टन दलीप सिंह अहलावत लिखते हैं-[27] प्रमाण - सूर्यवंशी वैवस्वतमनु का पुत्र इक्ष्वाकु था जो कि वैवस्वतमनु द्वारा बसाई भारत की प्रथम नगरी अयोध्या का शासक हुआ था। इक्ष्वाकु के विकुक्षी नामक पुत्र से पुरञ्जय हुआ जिसने देवासुर युद्ध में असुरों को जीत लिया, जिससे वह ‘काकुस्थ’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके इस नाम से सूर्यवंशी क्षत्रियों का एक समुदाय काकुस्थ, काकवंश प्रचलित हुआ जो कि जाटवंश है। भाषा भेद से यह काकुस्थ जाटवंश काक, काकतीय, कक्क, कुक, कुकर, कुक्कुरकक और काकराणा कहलाता है जो आज इस गोत्र के जाट भिन्न-भिन्न प्रांतों में विद्यमान हैं। जाटों के अलावा यह गोत्र किसी दूसरी जाति में नहीं है, यदि कोई मिल भी जाए तो वह जाटों में से निकली जाति है। इसी परम्परा में बहुत युगों के पश्चात् महाराज दशरथ का राजा रघु हुआ जो कि बड़ा प्रतापी सम्राट् था जिसके नाम पर इस काकुस्थवंश का एक समुदाय रघुवंशी प्रचलित हुआ जो कि जाट वंश है(काकुस्थ या काकवंश का वर्णन पिछले पृष्ठों पर देखो)
रघुवंशी जाट जो बाद में रघुवंशी सिकरवार कहलाये। इस गोत्र के जाटों की बहुत बड़ी संख्या आज भी अनेक स्थानों पर आबाद है। (इसका वर्णन देखो एकादश अध्याय में)।
1. राजा दशरथ एवं उनके पुत्र श्री रामचन्द्र जी इसी काकुस्थ और रघुवंश के जाट थे। वाल्मीकीय रामायण में इसके अनेक उदाहरण हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार से है (1) विश्वामित्र राजा दशरथ को कहते हैं - ककुत्स्थनन्दन! यदि वशिष्ठ आदि आपके सभी1. यह कैलाशपुर रियासत, जो जिला सहारनपुर में थी, के पठान काकज़ई हैं जो कि सिन्ध और बिलोचिस्तान से यहां आये थे।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-230
मन्त्री आपको अनुमति दें तो आप श्रीराम को मेरे साथ विदा कर दीजिए। (बालकाण्डे एकोनविंशः सर्गः श्लोक 16)।(2) आगे-आगे विश्वामित्र, उनके पीछे काकपक्षधारी महायशस्वी श्रीराम तथा उसके पीछे सुमित्राकुमार लक्षमण जा रहे थे। (बालकाण्डे द्वाविंशः सर्गः श्लोक 6)।(3) विश्वामित्र श्रीराम से कहते हैं - ककुत्स्थनन्दन! मैंने तुम्हें इन दोनों विद्याओं को देने का विचार किया है। (बालकाण्डे द्वाविंशः सर्गः श्लोक 20)।(4) रघुनन्दन ! तुम गौओं और ब्राह्मणों का हित करने के लिए दुष्ट पराक्रमवाली इस परम भयंकर दुराचारिणी यक्षी (ताटका) का वध कर डालो। (बालकाण्डे पंचविंशः सर्गः श्लोक 15)।(5) कबन्ध नामक राक्षस ने बतलाया - रघुनन्दन ! आप धर्मपरायण संन्यासिनी शबरी के घर जाइये (बालकाण्डे प्रथमः सर्गः श्लोक 56)। इसी प्रकार श्री रामचन्द्र जी को रघुनन्दन, रघुकुल, काकुत्स्थकुलभूषण, रघुवंशी अनेक स्थानों पर इस वाल्मीकीय रामायण में लिखा हुआ है जो कि इनके जाट होने के ठोस प्रमाण हैं।
2. मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र के ज्येष्ठपुत्र लव से सूर्यवंशी लाम्बा जाटवंश का प्रचलन हुआ। (अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, लाम्बा सूर्यवंशी-लववंशी प्रकरण)। यह भी श्री रामचन्द्र जी व लव के जाट होने का प्रमाण है।
3. मासिक पत्र हरयाणा जाट सभा समाचार व सुझाव, मुख्य कार्यालय 6-B जाट धर्मशाला हिसार 10 दिसम्बर 1987 के पृष्ठ 1 पर लेख है - भगवान् राम जाट थे। मध्यप्रदेश जाट सभा के चौधरी रामलाल जी डोगोवार निवासी ग्राम व डाकघर हरवार मन्दसौर (म० प्र०) का पत्र इस कार्यालय में प्राप्त हुआ है कि आपने लिखा है भगवान् श्रीराम व भगवान् श्रीकृष्ण जाट क्षत्रिय थे। ये राजपूत नहीं थे। राजपूत जाति का प्रादुर्भाव तो सातवीं शताब्दी से होता है एवं वह सोलहवीं शताब्दी के आसपास बोलचाल में आई। इसे आपने इतिहास के प्रमाणों द्वारा प्रमाणित भी किया है।
4. श्री रामचन्द्र जी के दूसरे पुत्र कुश से कुश जाटवंश प्रचलित हुआ। कुश को दक्षिण-कौशल का राजा बनाया गया। उसने विन्ध्याचल पर्वत पर कुशवती (कुशस्थली) नगर बसाया और उसे अपनी राजधानी बनाया। (वा० रा० उत्तरकाण्ड, सर्ग 107)| श्रीकृष्ण जी ने मथुरा को छोड़कर कुशस्थली को अपनी राजधानी बनाया और उसका नाम द्वारका रखा।
यह हमने प्रथम अध्याय में सूर्यवंशी राजाओं की वंशावली में लिख दिया है कि महाराज कुश के वंशज राजा बृहद्वल महाभारत युद्ध में लड़ते हुए अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु द्वारा मारे गये थे। बृहद्वल अयोध्या का प्रसिद्ध राजा था। सूर्यवंशज कुशगोत्र के जाटों का अयोध्यापुरी में बृहद्वल से प्रसेनजित् तक 27 राजाओं का शासन 3100 ई० पू० से 500 ई० पू० तक (2600 वर्ष) रहा। कुछ समय बाद प्रसेनजित् ने अयोध्यापुरी राजधानी को छोड़कर इसे 58 मील उत्तर में श्रावस्ती नगरी
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-231
को अपनी राजधानी बना लिया। वहां पर इसके समेत 5 कुशवंशज जाट राजाओं ने राज्य किया जिनमें अन्तिम सुमित्र था। इन जाट राजाओं का वहां पर लगभग 150 वर्ष राज्य 500 ई० पूर्व से 350 ई० पू० तक रहा। आज भी कुशवंशज के जाट बड़ी संख्या में विद्यमान हैं। (अधिक जानकारी के लिए देखो, पंचम अध्याय, सूर्यवंशीय कुशवंश जाट राज्य)।
इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि श्री रामचन्द्र जी महाराज जाट थे। समाप्त।
अतः इतिहासकार अहलावत द्वारा इस ऊपर लिखित लेख से यह सिद्ध है की रामचन्द्र जी महाराज जाट थे, तो यह निष्कर्ष निकलता है कि, उनके 35वीं पीढ़ी के वंशज राजा अग्रसेन जी महाराजा जाती से जाट थे। उनके गणराज्य का नाम अग्रेय व मुद्राओं पर अगाच लिखा पाना इस ओर इशारा देता है कि उनकी गोत्र अगाच (अघा) अथवा अग्रे थी, जिससे फिर अग्रवाल जाती की उतपत्ती हुई।
इसके अलावा, अग्रसेन गण के अन्य जाट वंशों में रिश्तेदारियां भी रहीं हैं, जिनकी हम कोई गिनती नहीं लगा सकते, उदाहरण के तौर पर अग्रसेन महाराज को ही लेलो, उनका विवाह नागवंश की राजकुमारी माधवी से संपन्न हुआ था, नागवंशी कोन होते हैं इसके लिए आप इतिहासकार बीएस दहिया की पुस्तक, "जाट प्राचीन शासक" पढ़ सकते हैं उसमें बहुत अच्छे से विद्वान् दहिया द्वारा इसी बात पर चर्चा की गई है।
नोट रखें, डिस्क्लैंबर(अस्वीकरण) ऊपर दिया गया है, उसे पहले पढ़ें, धन्यवाद्।
लेखक, चौ॰रेयांश सिंह।
संदर्भ सूची
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- ↑ श्री हवा सिंह सांगवान जाट की पुस्तक, असली लुटेरे कौन
- ↑ Read more about Jat origin in BS Dahiya's Jats the Ancient Rulers
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