Anand Muni Vanparsth/Bhim Singh

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आनन्दमुनि वानप्रस्थ

महात्मा आनन्दमुनि वानप्रस्थ हरयाणा से आर्य समाज के वैदिक सिद्धांतो के निर्भीक प्रचारक एवं समाज के लिए प्रेरणा-स्रोत रहे हैं.

महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा अपने अल्पावधि जीवनकाल में विश्व के सम्मुख वेदों का सत्य-स्वरूप प्रस्तुत करते हुए एक ऐसे समाज की परिकल्पना की थी जो सनातन परम्पराओं और वैदिक संस्कृति का अनुपालन करते हुए उसे युगों-युगों तक संरक्षित रखे.

उनके द्वारा रचित महान् ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश ने वैचारिक क्रान्ति पैदा करके अनेक मनुष्यों की जीवनधारा को नई दिशा देकर पराधीन भारतवर्ष में अनेक राष्ट्रभक्त,सन्यासी,वैदिक विद्वान तथा समाज सेवको को तैयार कर स्वाधीनता-संग्राम से लेकर आधुनिक भारत के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर डालने की प्रेरणा जन-जन के मन में भने का कार्य किया.

ऋषि दयानन्द सरस्वती के अनन्य भक्त तथा उन्हीं की भाँति समाज के लिए प्रेरणा-स्रोत, सौम्य-स्वाभावी, एवं वैदिक सिद्धांतो के निर्भीक प्रचारक महात्मा आनन्दमुनि वानप्रस्थ भी अल्पसमयावधि के लिए ही आर्य जगत के क्षितिज पर प्रकाशमान हुए, जिन्होंने दिल्ली देहात, नवविकसित कालोनियों, केन्द्रीय सचिवालय के निकट बोट क्लब, दिल्ली विश्वविद्यालय, हरयाणा और उत्तर प्रदेश के अनेक क्षेत्रो में घूम-घूम कर लोगो को सनातन वैदिक मान्यताओं एवं संस्कृति का अनुपालन करते रहने की प्रेरणा दी.

जन्म

वानप्रस्थ दीक्षा से पूर्व इनको चौ.भीम सिंह श्योराण के नाम से जाना जाता था.इनका जन्म हरयाणा प्रान्त के रोहतक जिले के किंसरेटी गाँव में एक सामान्य किसान परिवार में १५ जून १९२३ को हुआ. इनके पितामह चौ. जुगलाल ने स्वामी दयानन्द सरस्वती का साक्षात् किया था. इनके पिता चौ. श्रीचंद आर्य समाज के विभिन्न आन्दोलनों में आचार्य भगवान देव (स्वामी ओमानंद सरस्वती) के आह्वान से सक्रिय सदस्य के रूप में भाग लेते रहे तथा जेल यात्रायें भी की. पितामह एवं पिताजी की प्रेरणा से ही आर्य समाज के सदस्य के रूप में ये वैदिक धर्म के पथिक बने.

सेना में नौकरी

वर्ष १९४६ ई. में अंग्रेजी शासन की सेना में नौकरी की परन्तु बर्मा में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का स्वराष्ट्र के प्रति कर्तव्य से सम्बन्धित भाषण सुनने के पश्चात् इस नौकरी को त्यागकर दिल्ली को अपना कार्य-क्षेत्र चुना. जीवन-यापन और गृहस्थ की जिम्मेदारी निभाने हेतु इन्होने पहले कर्नल राघवेन्द्रसिंह की भू-सम्पति सम्बन्धी व्यावसायिक कम्पनी डी.एल.एफ. तथा उसके बाद १९५४ से १९८२ तक भारत सरकार के वाणिज्य मन्त्रालय के अधीन चाय बोर्ड में नौकरी की. शासकीय सेवा से सेवा-निवृत हो जाने के कुछ दिनों पश्चात् ६ मई १९८४ को स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती से वानप्रस्थ की दीक्षा लेकर वैदिक धर्म एवं समाज सेवा के कार्यों में जुट गए. अनेक महापुरुषों के सत्संग से इनके मन में ऋषि दयानन्द सरस्वती द्वारा बतलाये गए वैदिक मार्ग की ओर समाज के पथभ्रष्ट लोगों को लाने का संकल्प जागृत किया. वानप्रस्थी होकर कुछ वर्षो तक वैदिक साहित्य का स्वाध्याय किया, अपने इस नवजीवन में इन्हें आर्य जगत के तपोनिष्ठ सन्यासी, इतिहासविद्, शिक्षाविद् और राजनीतिज्ञ स्वामी ओउमानंद सरस्वती, परम विद्वान् शास्त्रार्थ महारथी अमर स्वामी, स्वामी मुक्तानन्द सरस्वती, स्वामी प्रेमानंद सरस्वती, धर्ममुनि आदि श्रेष्ठ महापुरुषों का स्नेहमयी सानिद्ध्य एवं मार्गदर्शन प्राप्त हुआ.

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