Awatar Singh Sandhu

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Author: Prof. H. R. Isran

अवतार सिंह संधू (9.9.1950-23.3.1988) उर्फ पाश एक क्रांतिकारी कविताएँ रचने और व्यवस्था/ सत्ता से सवाल पूछने वाले कवि थे.

जनकवि पाश का जीवन परिचय

असली नाम: अवतार सिंह संधू

जन्म : 9 सितंबर 1950

जन्म-स्थल : पंजाब के जालंधर ज़िले के तलवंडी सलेम गांव के एक किसान परिवार में

अवतार सिंह संधू उर्फ पाश ने क्रांतिकारी कविताएँ रचने और व्यवस्था/ सत्ता से सवाल पूछने वाले कवि के रूप में अपनी पहचान स्थापित की. एक बेहद भावुक इंसान जिसका पोर-पोर संवेदनशीलता से पगा था लेकिन जिसे जिंदगी और ज़ालिम ज़माने ने वैसा रहने नहीं दिया. पाश ने खुद भी कहा है -

‘मैं आदमी हूं

बहुत-बहुत छोटा-छोटा कुछ

जोड़कर बना हूं.’

पाश जिंदगीभर इसी छोटे–छोटे बहुत कुछ को बचाने की ज़िद और इस बहाने इंसान को इंसान बनाए रखने की ललक में लहूलुहान होते रहे. शोषण, दमन और अत्याचारों से मुक्त समतावादी दुनिया का ख़्वाब उनके दिल में समाया हुआ था.

पाश की ग्रामीण पृष्ठभूमि, राजनीतिक गतिविधि और क्रांतिकारी विचारधारा ने उनकी कविता का तेवर रचा. उनकी कविताओं में गांव की मिट्टी की महक है. मेहनतकश लोगों के जीवन की कसक है. उनके जीवन की सच्चाई का कच्चा चिट्ठा पेश करती हैं पाश की कविताएं. इसलिए पंजाबी भाषा का कवि होने के बावजूद पाश को पूरी हिंदी पट्टी अपना मानती है. उनकी कविताएं बेहद तल्ख और सार्थक राजनीतिक वक्तव्य हैं. पाश ने विद्रोही कविता को इतने सरल शब्दों और सहज शैली में गढ़ा कि आज भी वे लोगों की जुबां पर चढ़ी हैं.

सबाल्टर्न कविता

बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारत में इतिहास-लेखन एवं साहित्य-लेखन कई मायनों में अधिक लोकतांत्रिक हुआ है. सामाजिक जागरूकता के बल पर उभरे इस नए रुझान को ‘‘सबाल्टर्न अध्ययन’’ ( subaltern studies ) कहते हैं अर्थात मातहत/ निचले तबक़े की जनता का अध्ययन, या यों कहें कि जन आधारित इतिहास का अध्ययन या निचले तबक़े के जीवन पर साहित्य-लेखन. वस्तुतः यह आभिजात्य, आधिकारिक स्रोत से इतर जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का इतिहास या कविता विनिर्मित करने की प्रविधि है. 'सबाल्टर्न ' से अभिप्राय ऐसे मातहत से है जिसे व्यवस्था ने शोषण का शिकार बनाकर हाशिए पर धेकेला रखा है.

पाश को पंजाबी साहित्य में सबाल्टर्न कविता या मातहतों/ निचले तबक़े की कविता ( Poetry from below ) का बिगुल बजाने वाला कवि माना जा सकता है. उनकी कविताओं में सामाजिक ढांचे में हाशिए पर धकेले गए, सत्ता द्वारा सताए गए, शोषित-दमित जनता की गुस्से से भरी आवाज सुनाई देती है.

जनकवि

जनकवि के रूप में पाश व्यवस्था के खिलाफ लगातार आवाज़ बुलंद करते रहे. उनकी कविता हमारी क्रांतिकारी काव्य -परंपरा की अत्यंत प्रभावी और सार्थक अभिव्यक्ति है. मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण पर आधारित व्यवस्था के नाश और एक वर्ग विहीन समाज की स्थापना के लिए जारी जन- संघर्ष में इसकी पक्षधरता स्पष्ट है.

देखा जाए तो लोगों के लिए देश-भक्ति के मायने अलग- अलग होते हैं. कुछ के लिए राजसत्ता का गुणगान, कुछ के लिए अतीत का गौरवगान तथा कुछ के लिए देश का नक्शा या संविधान. जनकवि 'पाश' के लिए देशभक्ति अपने देश की जनता की मोहब्बत में, उसके दुःखदर्द में बसती थी. तभी तो वे कहते हैं -

'मुझे देशद्रोही भी कहा जा सकता है लेकिन मैं सच कहता हूँ यह देश अभी मेरा नहीं है यहाँ के जवानों या किसानों का नहीं है यह तो केवल कुछ 'आदमियों' का है और हम अभी आदमी नहीं हैं, बड़े निरीह पशु हैं हमारे जिस्म में जोंकों ने नहीं पालतू मगरमच्छों ने दांत गड़ाएं हैं उठो...'

पाश ने कम्युनिस्टों की कमियों पर भी कलम चलाई. वे सर्वहारा वर्ग की बात करते हुए निम्न मध्यमवर्ग को नहीं भूलते. इसलिए वे निम्नमध्यमवर्ग को सत्ता का दलाल कहकर दुत्कारने की जगह मजदूर और किसानों के संघर्ष से जुड़ने को कहते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि निम्न मध्यमवर्ग भी सर्वहारा से ही निकला है. इसलिए पाश शिक्षक और पुलिस के सिपाही से भी संवाद कायम करने की बात कहते हैं.

भगत सिंह और पाश

हिन्दुस्तान में क्रांतिकारियों के कुनबे में भगतसिंह सबसे अधिक चमकता और चर्चित नाम है. क्रांति का संदेश देने वाले कवि पाश ने क्रांतिवीर भगतसिंह को अपना आदर्श माना. कई वजहों से दोनों का नाम एक साथ लिया जाता है. दोनों की हत्या की गई और गज़ब का संयोग देखिए कि हत्या का दिन भी एक है (23 मार्च ). दोनों के जन्म का महीना भी एक है. वही सितंबर का महीना. दोनों की पैदाइश और परवरिश भी एक ही प्रान्त (पंजाब) में हुई.

इन सबसे बड़ी बात है इन दोनों शख्सियतों के विचारों की साम्यता. समान सोच की डोर से बंधे क्रांतिकारी विचारों से उत्प्रेरित दो निडर, निराले नवयुवक. दोनों के विचार बदलाव की पैरवी करते हैं. दोनों हर स्तर पर आमूलचूल परिवर्तन के हिमायती हैं. दोनों के विचार समानता और न्याय के लिए हैं. विचार जो इंसानियत और आपसी सद्भाव व प्रेम के पक्ष में हैं. विचार जो हर तरह के शोषण की पुरजोर ख़िलाफ़त करते हैं. विचार जो पाखण्ड, अंधविश्वास व साम्प्रदायिकता के सड़ियल, संकीर्ण सोच के खिलाफ हैं. चिरकालिक महत्व के ऐसे विचार जिन्हें क़त्ल नहीं किया जा सकता.

भगतसिंह के बारे में पाश लिखते हैं-

'भगत सिंह ने पहली बार
पंजाब को
जंगलीपन, पहलवानी व जहालत से
बुद्धि‍वाद की ओर मोड़ा था
जिस दिन फांसी दी गई
उसकी कोठरी में
लेनिन की किताब मिली
जिसका एक पन्‍ना मोड़ा गया था
पंजाब की जवानी को
उसके आखिरी दिन से
इस मुड़े पन्‍ने से बढ़ना है आगे
चलना है आगे.'

पाश को भगतसिंह के इस मुड़े पन्ने को खोलकर आगे बढ़ने वाले नवयुवक के रूप में माना जा सकता है. भगतसिंह की तरह पाश ने भी पुरजोर तरीके से फर्ज़ी और खोखले धर्मवाद और राष्ट्रवाद का विरोध किया. भगत सिंह का कहना था कि उनके लिए आजादी का मतलब है कि मजदूर-किसानों का राज, न कि अंग्रेजों की जगह अभिजात्य वर्ग/ पूंजीपतियों का राज.

इसी तरह पाश के लिए भी भारत का अर्थ था- मेहनतकशों का भारत. पाश अपनी कविता 'भारत' में लिखते हैं-

'भारत —
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहाँ कहीं भी प्रयोग किया जाए
बाक़ी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं
इस शब्द के अर्थ
खेतों के उन बेटों में है
जो आज भी वृक्षों की परछाइओं से
वक़्त मापते है
उनके पास, सिवाय पेट के, कोई समस्या नहीं
और वो भूख लगने पर
अपने अंग भी चबा सकते हैं
उनके लिए ज़िन्दगी एक परम्परा है
और मौत के अर्थ है मुक्ति
जब भी कोई समूचे भारत की
‘राष्ट्रीय एकता’ की बात करता है
तो मेरा दिल चाहता है —
उसकी टोपी हवा में उछाल दूँ
उसे बताऊँ
के भारत के अर्थ
किसी दुष्यन्त से सम्बन्धित नहीं
वरन खेत में दायर है
जहाँ अन्न उगता है
जहाँ सेंध लगती है.'

इसी तरह पाश लिखते हैं-

'हां, मैं भारत हूं चुभता हुआ उसकी आंखों में
अगर उसका अपना कोई खानदानी भारत है
तो मेरा नाम उससे खारिज कर दो'

पाश की एक मशहूर कविता की पंक्तियां हैं:

'यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना जमीर होना ज़िन्दगी के लिए शर्त बन जाए
आँख की पुतली में हाँ के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दण्डवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है ...'

दरअसल पाश की दृष्टि में भारत का मतलब था मेहनतकश लोगों का भारत और उनके सपने, उनकी चिंताएँ, उनके जीवन के मसले, उनका संघर्षपूर्ण जीवन. पाश बेहतर भविष्य के सपने को जिंदा रखने के हिमायती थे इसलिए वे सपने के मर जाने को इस दुनिया के लिए सबसे खतरनाक मानते थे. पाश की कविता 'सबसे ख़तरनाक' की पंक्तियों पर गौर कीजिए:

'सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है
सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है..'
संघर्ष और जिजीविषा के कवि
पाश जिजीविषा के कवि हैं. संघर्ष उनके लिए महत्वपूर्ण है, चाहे इसके लिए कितनी ही कुर्बानी क्यों न देनी पड़े. :पाश साफ-साफ शब्दों में इसकी दृढ़ता से घोषणा करते हैं-
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की जरूरत बाकी है...
जब बंदूक न हुई, तब तलवार होगी
जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की जरूरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी...
हम लड़ेंगे
कि लड़ने के बगैर कुछ भी नहीं मिलता...

पाश सीधे-सीधे चुनौती देते हैं. ऐसा नहीं है कि उन्हें सत्ता की ताकत का अंदाजा नहीं था लेकिन सत्ता की ताकत से अधिक पाश को जनता की जिजीविषा पर भरोसा है. वे जनता की तुलना घास से करते हैं. जिस तरह घास देखने में कमजोर भले ही लगती है पर उसके अस्तित्व को मिटा पाना असंभव है, उसी तरह जनता भले ही दमित और असहाय दिखे लेकिन उसके भीतर किसी भी सत्ता की बुनियाद को हिला देने की क्षमता है. जनता की इसी क्षमता पर पाश लिखते हैं-

'मैं घास हूं
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा
बम फेंक दो चाहे विश्वविद्यालय पर
बना दो होस्टल मलबे का ढेर
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर
मुझे क्या करोगे?
मैं तो घास हूं, हर चीज ढक लूंगा
हर ढेर पर उग आऊंगा'

1980 के दशक में पंजाब में खालिस्तान के नाम पर धार्मिक राष्ट्रवाद का जोर था. पाश ने इस धर्मांधता के नाम हिंसा की मुखालफत करते हुए कई कविताएं लिखीं. उस वक्त ऐसी कविताएं लिखना एक साहस का काम था और इसकी कीमत पाश को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी.

मृत्यु

23 मार्च 1988 को महज 38 साल की उम्र में पाश की खालिस्तानी आतंकवादियों द्वारा गोली मार कर हत्या कर दी गयी. पाश की किसी से व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी लेकिन सत्ता और उनके खिलाफ लड़ रहे आतंकवादी - दोनों पक्षों – को उनकी क्रांतिकारी कविताएँ इतनी अखरने लगीं कि उन्होंने इस जनवादी कवि की असमय बलि ले ली. पाश की कलम से डरे लोगों ने उनकी जान ले ली. पर ‘पाश’ मरा नहीं करते, वो जिंदा रहते है, विचारो की दुनिया में, पीढ़ियों के ज़हन में, कविताओं की आत्मा के रूप में जो सत्ता से सवाल पूछती रहती है. न तो ब्रिटिश हुक़ूमत भगतसिंह के विचारों को मार सकी और न ही खालिस्तानी उग्रवादी पाश के विचारों का क़त्ल कर सके. भगतसिंह और पाश अब भी अपने चाहने वालों के दिलों में हैं और रहेंगे.

Author: Prof. H.R.Isran Retired Principal, College, Education, Raj.

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