Bhagwat Dayal Sharma

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Pt. Bhagwat Dayal Sharma

Pt. Bhagwat Dayal Sharma or B.D. Sharma (1918–1993), locally known as Panditji, was the first Chief Minister of Haryana (1966-67).

He was born in Beri, a tahsil town in Jhajjar district of Haryana, on 26 January 1918. Bansi Lal, Bhajan Lal and many other noted politicians learned politics under his guidance.

Panditji was appointed first CM of Haryana on 1 November 1966, the day Haryana got a separate statehood, after division of Punjab. After first elections for Haryana's Vidhan Sabha in March 1967, he became Chief Minister on 10 March 1967 but resigned shortly thereafter, to be replaced by Rao Birender Singh on 24 March 1967.

He was Rajya Sabha member from 1968–74. Later, (in 1977), he was also appointed Governor of Odisha. He was subsequently transferred to Madhya Pradesh since the Odisha climate did not suit his health.

Foreign travels

During his career, Panditji travelled to Switzerland, the UK, the USSR, Germany, USA, and a number of other European countries.[1]

Bio Data

The following bio-data of Pt. Bhagwat Dayal Sharma has been copied from the website of Rajya Sabha -

SHARMA, SHRI BHAGWAT DAYAL: M.A.; Congress (O) (Haryana); s. of Pandit Murari Lal; b. January 26, 1918; m. Shrimati Savitri Devi, 3 s. and 3 d.; Member, Haryana Legislative Assembly, 1966-67; Chief Minister, Haryana, November, 1966 to March, 1967; Member, Rajya Sabha, 2-8-1968 to 1-8-1974; President, (i) Punjab P.C.C., 1963 and 1964-66 and (ii) Haryana P.C.C., 1966; Died. Obit. on 23-2-1993.

Dalip Singh Ahlawat writes

1 नवम्बर 1966 को हरयाणा प्रान्त का निर्माण होने पर इसी दिन पं० भगवतदयाल शर्मा केन्द्रीय नेताओं के साथ अपनी सांठ-गांठ तथा भूतपूर्व पंजाब प्रदेश की कांग्रेस के अध्यक्ष होने की स्थिति का लाभ उठाते हुए, हरयाणा के प्रथम मुख्यमन्त्री बन बैठे। वह तो पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष के नाते हरयाणा राज्य के निर्माण का विरोध करते आ रहे थे। इस स्थिति परिवर्तन से हरयाणा के अधिकारों के लिए पिछले कई वर्षों से लड़ाई लड़ने वाले चौ० देवीलाल का मुख्यमन्त्री बनने का वास्तविक अधिकार था। पंजाब के भूतपूर्व मुख्यमंत्रियों से हरयाणा के हकों के लिए लड़ाई लड़कर कष्ट झेलने वालों में देवीलाल के अतिरिक्त किसी और का नाम खोजने पर भी नहीं मिलता।

चौ० देवीलाल हरयाणा के बनते ही हरयाणा के हितों तथा स्वाभिमान की रक्षा के लिए सन् 1962 में स्वेच्छा से छोड़ी कांग्रेस में अपने अनुयायियों समेत पुनः मिल गये थे। श्री भगवतदयाल शर्मा राज्य की राजनैतिक स्थिति का लाभ उठाते हुए देवीलाल के प्रभाव को शून्य कर देना चाहते थे। अपनी स्थिति और सुदृढ़ करने के लिए 18 नवम्बर 1966 को श्री रामकिशन गुप्ता को राज्य कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित करवा लिया।

सन् 1967 के आम चुनाव में चौ० देवीलाल ने विपरीत दिशा को देखकर कांग्रेस टिकट का प्रत्याशी बनना ठीक नहीं समझा। कुल 81 सदस्यों के सदन में 48 स्थान प्राप्त करके 7 सदस्यों के बहुमत से पं० भगवतदयाल शर्मा दूसरी बार मार्च 10, 1967 को हरयाणा के मुख्यमन्त्री निर्वाचित हुए। उन्होंने 11 सदस्यों को मन्त्रिमण्डल में ले लिया। मुख्यमन्त्री बनते ही पण्डित जी ने जात-पात का भेदभाव पैदा कर दिया। उन्होंने एक सम्मेलन में, जो रोहतक अनाज मण्डी में हुआ था, अपने


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-973


भाषण में खुले तौर पर कहा कि “अब मैं इन चौधरियों की नहीं चलने दूंगा। इनके डोगे (लाठी या बैंत) खूंटियों पर रखवा दूंगा आदि आदि।” इनका तात्पर्य जाटों से था। इससे हरयाणा की जाट जाति एवं एम० एल० ए० सभी मुख्यमन्त्री से नाराज हो गये। मन्त्रिमण्डल के गठन के बाद 17 मार्च 1967 को स्पीकर के चुनाव के अवसर पर पंडित जी के प्रतिनिधि श्री दयाकिशन को विरोधी पक्ष के उम्मीदवार राव वीरेन्द्रसिंह के मुकाबले में 3 मत कम मिले। भगवतदयाल के विरुद्ध विद्रोह की यह योजना गुप्त रूप से दिल्ली में तैयार की गई थी।

इस आकस्मिक नाटक के सूत्रधार चौ० देवीलाल उस समय विधानसभा की दीर्घा में बैठे थे। चौधरी साहब के छोटे पुत्र श्री प्रतापसिंह पहली बार जिला सिरसा के रोड़ी निर्वाचन क्षेत्र से जीतकर हरयाणा के विधायकों की श्रेणी में शामिल हुए थे। उस दिन अपने दल के नेता भगवतदयाल के विरुद्ध विद्रोह का झंडा ऊंचा करने वाले 12 कांग्रेसी विधायकों में से यह भी एक थे।

पं० भगवतदयाल 17 मार्च के दिन विधानसभा सदन में अपने मन्त्रिमण्डल की निर्णायक हार के बाद मन्त्रिमण्डल की बागडोर चौ० हरद्वारी लाल को सौंपकर स्वयं केन्द्रीय नेताओं से विचारविमर्श करने दिल्ली चले गये। केन्द्रीय नेताओं ने कांग्रेस दल के इस अपमान के लिए पण्डित जी को ही उत्तरदायी ठहराया। इधर चण्डीगढ़ में संयुक्त मोर्चे का विधिवत् गठन हो चुका था। संयुक्त मोर्चे के नेताओं ने तत्कालीन उपमुख्यमन्त्री चौ० हरद्वारीलाल को अपने यहां मन्त्री पद का प्रलोभन देकर फुसला लिया। चौ० हरद्वारीलाल ने पहले तो मन्त्रिमण्डल के अन्य सदस्यों से यह कहा कि दिल्ली से पण्डित जी का फोन आया है कि मेरे हाथ मजबूत करने के लिए सब लोग अपना त्यागपत्र लिखकर मेरे पास दिल्ली भिजवा दें। जब सबके त्यागपत्र उनके कब्जे में आ गये तो राज्य के गवर्नर को पेश करके पण्डित जी का मन्त्रिमण्डल भंग करवा दिया। अब पण्डित जी को त्यागपत्र देने के सिवाय अन्य कोई रास्ता नहीं रह गया था। अतः उन्होंने 22 मार्च, 1967 को अपना त्यागपत्र राज्यपाल के पास भिजवा दिया। इस तरह से पं० भगवतदयाल का शासन तेरहवें दिन समाप्त हो गया। इसके पश्चात् वे हरयाणा के मन्त्रिमण्डल में नहीं आ सके।[2]

In Latest News

सोनीपत में भगवत दयाल ने कहा था-बंसी बजाई, भजन गाया, अब करूंगा देवी पूजा

(दैनिक भास्कर, 21-4-2019)
चुनाव में पार्टियां बदलने का दौर नया नहीं है। कई रोचक किस्से ऐसे हैं, जब दिग्गज खुले मंच पर समर्थन देकर वापस लौट गए।...

चुनाव में पार्टियां बदलने का दौर नया नहीं है। कई रोचक किस्से ऐसे हैं, जब दिग्गज खुले मंच पर समर्थन देकर वापस लौट गए। ऐसा ही एक किस्सा सोनीपत का है। 12 अक्टूबर 1986 को विशाल जनसभा हुई। इसमें कांग्रेस से दूरी बनाकर देवीलाल के समर्थन में उतरे प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री पं. भगवत दयाल शर्मा ने मंच से कहा कि मैंने बंसी बजाकर भी देख ली, भजन गाकर भी देख लिए, अब देवी पूजन करूंगा। उन्होंने देवीलाल को खुला समर्थन देकर जनता में माहौल गर्म कर दिया। चुनाव की तारीख घोषित होने के बाद देवीलाल ने पं. भगवतदयाल की सिफारिश पर हरियाणा में कोटे से अधिक 12 ब्राह्मण प्रत्याशी बनाए। इस समय बंसीलाल को हार दिखाई देने लगी तो राजीव गांधी के माध्यम से पं. भगवत दयाल पर दबाव बनाकर वापस बुला लिया। देवीलाल फिर भी सत्ता लेकर आए। बंसीलाल सरकार के दौरान वर्ष 1986 में देवीलाल के न्याय युद्ध अभियान ने जनता के बीच माहौल बदल दिया। उस समय पं. भगवत दयाल शर्मा हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री, मध्यप्रदेश और उड़ीसा के राज्यपाल रहकर अपने घर शांत बैठे थे। वह हरियाणा के तीनों लालों चौ. बंसीलाल, चौ. देवीलाल और चौ. भजनलाल को समय-समय पर अपने तेवर दिखाकर विरोधी बना चुके थे। पं. भगवत दयाल शर्मा ने 1987 के विधानसभा चुनाव से पहले फिर राजनीतिक अंगड़ाई ली। देवीलाल के संघर्ष से वे लालायित हो उठे। राजनीतिक टीस में उन्होंने देवीलाल से हाथ मिलाने की ठानी। तत्कालीन वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि इसका माहौल तैयार करने के लिए 19 अगस्त, 1986 को भिवानी में एक विशेष बैठक बुलाकर भगवतदयाल ने ब्राह्मण समाज के प्रमुख लोगों का दिल टटोला और सत्ता में भगीदारी के लिए उकसाया। इसके बाद देवीलाल से उनकी भेंट हुई। राष्ट्रीय लोकदल का हरियाणा में नेतृत्व कर रहे देवीलाल भी जानते थे कि पं. भगवतदयाल साथ आएं तो 1987 के विधानसभा चुनाव की नैया पार लगाई जा सकती है। बंसीलाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद कांग्रेस में भजनलाल भी खफा थे। देवीलाल के साथ उनकी भी बैठक हुई लेकिन राजीव गांधी ने तुरंत भजनलाल को बुलाकर राज्यसभा की खाली सीट नियुक्ति दी और बाद में केंद्र में मंत्री बनाकर उनके बागी तेवर रोक लिए।

पं. भगवत दयाल शर्मा

ब्राह्मणों को देवीलाल ने दी 12 सीट

पं. भगवतदयाल शर्मा और चौ. देवीलाल के बीच हुए समझौते के अनुसार सोनीपत में जनसभा कर भगवत दयाल ने मंच से देवीलाल के समर्थन की घोषणा की। उन दिनों राष्ट्रीय लोकदल के प्रधान तथा पूर्व प्रधानमंत्री चौ. चरण सिंह के बीमार होने के चलते हेमवती नंदन बहुगुणा राष्ट्रीय लोकदल के कार्यकारी प्रधान थे। चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह को देवीलाल की बढ़ती लोकप्रियता हजम नहीं हुई और उन्होंने रोहतक में चरणसिंह समर्थकों की बैठक बुलाकर विरोध में उतर आए। बाद में अजीत सिंह ने राष्ट्रीय लोकदल से अलग दल बनाना पड़ा। 17 जून 1987 में हरियाणा विधानसभा चुनाव की तारीख तय हुई। देवीलाल ने पं. भगवतदयाल शर्मा की सिफारिश पर कोटे से अधिक 12 ब्राह्मणों को पार्टी प्रत्याशी बनाया। बाद में राजीव गांधी के दबाव में पं. भगवतदयाल शर्मा ने समर्थन वापस ले लिया। हालांकि देवीलाल द्वारा घोषित ब्राह्मण प्रत्याशियों ने लोकदल से ही चुनाव लड़ा और अधिकतर जीते भी। देवीलाल और उनकी समर्थित पार्टी भाजपा को 90 में से 85 सीटें मिली।[3]

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References