Braj Kesari Raja Hathi Singh/Raja Hathi Singh Ke Uttaradhikari

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राजा हठी सिंह के उत्तराधिकारी

राजा हठी सिंह की मृत्यु के बाद सौंख गढ़ भरतपुर के अधीन चली गई थी। इस समय राजा हठी सिंह का पुत्र ठाकुर श्यामसिंह सौंख की गद्दी पर बैठा सन 1742 ईस्वी में भरतपुर रियासत की स्थापना हो चुकी थी। सभी चार डुंगो ने भरतपुर का अधिपत्य कुछ शर्तों के साथ स्वीकार कर लिया था। इन लोगो को कुछ कर में छूट के बदले भरतपुर राज्य को सैनिक सहायता उपलब्ध करानी पड़ती थी।सभी जाट पाले इस समय महाराजा सूरजमल के नेतृत्व में मुगलो से संघर्षरत थे।महाराजा सूरजमल ने ब्रज जटवाड़ा की विजय पताका को दूर दूर तक चारो तरफ स्थापित कर दी थी। राजा हठी सिंह की मृत्यु के बाद हालांकि उत्तराधिकारी होने के कारण सौंखगढ़ का अधिपति ठाकुर श्याम सिंह था लेकिन खुटेलपट्टी की सरदारी वयोवृद्ध होने के कारण अडींग के फोन्दा सिंह के पास थी।महाराजा सूरजमल जी के समय पेठा गोवर्धन की ठिकानेदारी सीताराम कुन्तल के पास थी। महाराजा सुराजमलजी का प्रधान सेनापति रामसिंह तोमर था। इनके वंशज पीपलहेड़ा में आबाद है।


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सन 1757 ईस्वी में अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध बल्लभगढ़ के तेवतिया राजा को सहायता करने के लिए कुँवर जवाहर सिंह बल्लभगढ़ पहुँचे यहां कुंवर जवाहर सिंह और अब्दाली के मध्य फरवरी अंत तक युद्ध होता रहा था। जब जवाहर सिंह को 26 फरवरी 1757 ईस्वी को सूचना मिली कि नजीब खान और जहाँन खान के नेतृत्व मे 20,000 हज़ार अफगानी सिपाही मथुरा के लिए कूच कर चुके हैं। तो कुँवर जवाहर सिंह रात्रिकाल में बल्लभगढ़ किले से सुरक्षित निकलकर मथुरा पहुँच गए थे अपने पिता महाराजा सूरजमल जी से आदेश प्राप्त करके अब्दाली की सेना का सामना करने के लिए चौमुहां में डेहरा डाल दिया था।कुंवर जवाहर सिंह की सहायता के लिए खुटेलपट्टी से कुछ हज़ार सैनिक चौमुहां पहुँचे यहां जवाहर सिंह पहले से अपने सैनिक के साथ रास्ते मे डेहरा डाले हुए थे।जब अब्दाली की सेना चौमुहां पहुँच गई तब कुंवर जवाहर सिंह भी अपने 5000 सैनिकों के साथ आक्रमणकारियों का रास्ता रोकने के लिए चौमुहां पहुँच गए जब अब्दाली की सेना मथुरा की तरफ आगे बढ़ने लगी तो जवाहर सिंह के 5000 जाट सैनिकों से अब्दाली की विशाल सेना का भयंकर संग्राम हुआ था। 28 फरवरी सन 1757 ईस्वी को सूर्योदय से लेकर 9 घंटे तक घनघोर युद्ध हुआ इस युद्ध मे सौंख के ठाकुर श्यामसिंह भी वीरगति को प्राप्त हो गए थे।


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रजवाड़े द्वारा संग्रहित एक पत्र के अनुसार "जाटों की 5000 सेना अब्दाली की विशाल 26000 सेना के साथ बड़ी बहादुरी से लड़े इस युद्ध के बाद 1200 जाट सैनिकों को लेकर जवाहरसिंह बल्लभगढ़ दुर्ग में सकुशल चले गए" ठाकुर श्यामसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र कुंवर तोफा सिंह को सौंख का मुखिया बनाया गया था। तोफा सिंह ने वयोवृद्ध फोन्दा सिंह ,सेनापति रामसिंह तोमर के साथ महाराजा जवाहरसिंह के दिल्ली विजय अभियान में भाग लिया था। इस दिल्ली विजय अभियान में ही पुष्कर सिंह पाखरिया का बलिदान हुआ था।सन 1768 ईस्वी में महाराजा जवाहरसिंह की असमय मृत्यु हो जाने से जाट डुंगो का संगठन पुनः टूट गया था। एक तरह से सभी पाले स्वतंत्र होकर मनमानी करने लगी थी। जिससे जाटों की शक्ति क्षीण होने लगी थी। मुगल जाटों की तरफ आंखे उठाकर देखने लगे थे। सौंखगढ़ का तोफासिंह भी स्वतंत्र व्यवहार करने लगा था।तोफासिंह ने अपने पराक्रम की ऐसी धाक जमाई थी की सभी लोग उससे सहायता की आस लगाए बैठे रहते थे।


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कवि चतुरानंद ने गढ़ पथैना रासो में पथेना गढ़ी(भरतपुर जिले का एक ठिकाना) में हुए मुग़ल सआदत खान और जाटों के मध्य हुए युद्ध का वर्णन किया है यह युद्ध माघ सुदी 11 सन 1777 ईस्वी के दिन लड़ा गया था। मुग़ल सेनापति अमीर उलउमरा मिर्जा नजफखां (अब्दाली का प्रतिनिधि) के साले सआदत खान को टोडाभीम के कुछ भाग की जागीरी मुगलो द्वारा प्रदान की गई थी।इस समय सौंख पर तोफासिंह का शासन था।

सआदत खान पथैना के जाट जागीरदार ठाकुर किशन सिंह जी (सिनसिनवार गोत्रीय ) से खिराज की मांग कर रहा था। भरतपुर रियासत में पथेना के जाट जागीरदार भरतपुर राजपरिवार के वंशज होने के साथ साथ बड़े वीर थे।

पथेना के जाट सरदारों ने सआदत खान को युद्ध के लिए ललकारा की तेरी इतनी हिम्मत कैसे हो गई कि तुम शेरो को झुकाने की सोच रहा है।

इस युद्ध में सभी जाट पाल(खाप) ने भाग लिया इस युद्ध मे सौंख और अडिंग के पांडव वंशी कुंतल(तोमर) जाटों ने तोफा सिंह और शीशराम सिंह के नेतृत्व में सेना भेजी थी। खुटेल सेना का संचालन तोफा सिंह ने किया था।भरतपुर महाराजा रणजीत सिंह ने भी सहायता के लिए एक सैनिक टुकड़ी कुम्हेर से पथेना भेजी थी। सआदत खान ने अपना पड़ाव भैसिना नामक ग्राम में डाला, सआदत खान भी जाटों की वीरता से परिचित था।इसलिए सआदत खान की हिम्मत जाटों पर हमला करने की नही हो रही थी। इस कारण से सआदत खान ने संधि वार्ता के लिए सेठ सवाई राम को जाटों के पास भेजा लेकिन कोई हल नहीं निकला(जाटों ने संधि प्रस्ताव को ठुकरा दिया)

इसके बाद भयंकर युद्ध हुआ जाटों ने असादत खान की सेना को परास्त कर दिया। मुगल सेना युद्ध स्थल से भाग खड़ी हुई थी। जब युद्ध ख़त्म हो गया तब सभी खाप सरदार अपने अपने गढ़ में लोट गये


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कवि चतुरानन्द ने रणभूमि में खुटेल सरदारों का मनमोहक वीरतापूर्ण वर्णन किया है

"काल खण्ड के खूटेल आये मुच्छ ऊचे को किये

द्व-द्व धरे तरबार तीखी चाव लरिब को हिये||

तोफा सिंह आइयो ल साथ खुटेल सग ही |

जो सबै रण समरथ बलि अरि काटी डारे जग ही |

दाखिल गढ़ भीतर भये जिन मुख बरसात नूर ||"

चतुरानन्द कवि ने लिखा है तोफा सिंह अपने साथ शीशराम सिंह और सैकड़ो खुटेल वीरो को रणभूमि लाया था। इन वीरो ने युद्ध में दुश्मनों को गाजर मूली की तरह काट डाला तोफा सिंह की वीरता के कारन कवि चतुरानन्द ने पथेना के युद्ध में सौंख , अडिंग के इन तोमर वंशी खुटेलो को मुगलों के लिए काल लिखा है जिन्होंने अपनी तलवार की धार से सैकड़ो मुगलों का रक्त बहा दिया था। इस युद्ध में सआदत खान के पठानों मुगलों के खिलाफ सौंख के जाट वीरो ने दोनों हाथो से तलवार चलाकर युद्ध स्थल पर जोहर दिखाए


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जब यह तोमरवंशी खुटेल पथेना गढ़ में दाखिल हुए तो इनका स्वागत किया गया उनके मुख पर रण में विजय होने की चमक थी यह जीत प्रथम पथेना युद्ध में हुई थी।

कवि चतुरानंद ने सौंख के तोफा सिंह(राजा हठी सिंह के पौत्र) की वीरता का वर्णन करते हुए लिखा है कि दुश्मनों से युद्ध मे कठिन से कठिन मोर्चे पर दुश्मन(मुगल और पठान) के रक्त से अपनी तलवार की भूख शांत की

खुटेल एक तोफा

वह चतुर सामिल भयो

वाने मारे मोरचा बढ़ो

सौंख का युद्ध सन 1777 ईस्वी

मुग़ल सेनापति अमीर उलउमरा मिर्जा नजफखां (अब्दाली का प्रतिनिधि) ने सन 1777 ईस्वी में भरतपुर किले पर हमले की योजना बनाई थी इस समय तक महाराजा जवाहर सिंह की मृत्यु के बाद सिर्फ 10 साल में ही तीन राजा (रतन सिंह, केहरी सिंह, रणजीत सिंह) गद्दी पर बैठ चुके थे | सभी जाट पाले आपस में लड़कर आंतरिक युद्धओ से अपनी ताकत को कमजोर कर रही थी| ऐसी विकट घडी में मुग़ल रूपी शत्रु ने जाटों पर हमले की योजना बनाई


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मुग़ल सेनापति अमीर उलउमरा मिर्जा नजफखां (अब्दाली का प्रतिनिधि) ने जाट राज्य पर चढ़ाई करने के उदेश्य से गोवर्धन के समीप पहुंच कर अपना सैनिक कैंप लगाया सौंख गढ़ के जाट वीरो ने गोवर्धन में नजफखां की सैनिक छावनी पर हमला करके कुछ मुग़ल सैनिको को मौत के घाट उतार दिया था |

इस घटना का जाटों से बदला लेने के उदेश्य से मुग़ल सेनापति अमीर उलउमरा मिर्जा नजफखां (अब्दाली का प्रतिनिधि) ने दिसम्बर में सन 1777 ईस्वी में सौंख के किले पर घेरा डाल दिया था| इस समय सौंख गढ़ पर राजा तोफा सिंह कुंतल (तोमर) का शासन था| मुगलों की सेना से जाटों का तीन महीने तक संघर्ष चला हर मोर्चे पर जाट मुगलों पर हावी रहे जबकि सौंख के किले की सुरक्षा सिर्फ जाटों के बाहुबल पर निर्भर थी क्योंकि सौंख के किले को प्राकृतिक सुरक्षा (पर्वत ,खाई ) का पूर्णरूप से आभाव था।

फ़्रांसी सेनापति समरु और मैडिक जो पहले भरतपुर की सेना में तैनात थे | यह दोनों जाटों से गद्दारी करके मुगलों से जा मिले थे| इन्होने गुप्त रास्ते और किले से सम्बंधित सभी गुप्त जानकारी नजब खान को दे दी थी|

अब महाराजा अनंगपाल के वंशजों ने अंतिम युद्ध से पहले अपनी कुल देवी मंशा देवी की स्तुति की राजा तोफा सिंह की सेना में 5000 सैनिक थे तो दूसरी तरफ मुगलों, पठानों और फ्रांस सेना के प्रशिक्षित कुल 70,000 सैनिक थे|।पंडित गोकुलराम चौबे के अनुसार 11 दिसम्बर 1777 ईस्वी में यह (सौंख का युद्ध) युद्ध हुआ था।

सौंख के युद्ध में अनंगपाल के वंशज कुंतल वीर जाट प्रथम पहर में मुगलों के लिए काल सिद्ध हुए प्रथम हमले में मुगलों के हरावल को जाट वीरों ने पीछे धकेल दिया था| तब समरू ने अपनी बंदूकची सेना को आगे किया और प्रशिक्षित बंदूकची सैनिकों के छुप कर किए वार से ठाकुर तोफा सिंह (हाथी सिंह के पौत्र) घायल हो गये थे|


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इस युद्ध में मुगलों की सहायता पांडिचेरी (पण्डिच्चेरी) के फ्रांसीसी गवर्नर एम० चवलियर (M.Chevalier) ने की थी| क्योंकि मुग़ल बादशाह शाहआलम ने अंग्रेजों के खिलाफ फ्रांसीसी गवर्नर को मदद करने का आश्वासन दिया हुआ था| गद्दारों ने किले की समस्त जानकारी पहले ही मुगलों को दे दी थी| इसलिए कवि ने लिखा है –

जाट हारा नहीं कभी रण में,

तीर तोप तलवारों से,

जाट तो हारा हैं,गद्दारों से

इतिहासकार जदुनाथ सरकार के अनुसार इस युद्ध में 3000 अनंगपाल के वंशज तोमर जट्ट वीरों ने वीरगति पाई थी| मुग़ल सेना को जाटों से ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा था| मुगलों के आधे से ज्यादा सैनिक या तो घायल हो गए या जाटों के हाथो से मारे गए।


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तोफा सिंह समेत सभी मुख्य सरदार इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए।| जिस कारण से सौंख के किले पर मुगलों ने कब्ज़ा कर लिया था| युद्ध के बाद सौंख के किले को भारी नुकसान पहुँचाया गया था|

इन्तखाब्बुतवारीख में लिखा है की -

डीग एक तरफ सिनसिनवार देश में था तो कुछ ही दूरी पर खुटेलपट्टी थी।नजीब खान की रसद का मार्ग जाटों में मध्य में से गुजरता था।इस समय भरतपुर के महाराजा रणजीत सिंह थे। अजान के जागीरदार ठाकुर जयसिंह कुन्तल और सांतरूक के ठाकुर हरसुख सिंह जी भरतपुर राजपरिवार के निकट रिश्तेदार थे।

नजब खान सौंख युद्ध में हुई हानि और अपने मुख्य योद्धाओं को खोने के कारण इतना अधिक विचलित हुआ कि उसने इस क्षेत्र की निर्दोष जनता पर अत्याचार करना शुरू कर दिए शेष बचे जाट वीरों ने नजब खान को इतना परेशान किया कि उसे अपनी सैनिक छावनी यहाँ से उठानी पड़ी थी|


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राजा हठी सिंह के उत्तराधिकारी अध्याय समाप्त