Girdhari Singh

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क्रांतिकारी लोक-कवि गिरधारीसिंह

चौधरी गिरधारीसिंह एक लोक-कवि और क्रांतिकारी भजोपदेशक थे. उन्होंने अधिकांस साहित्य का सर्जन ब्रजभाषा की ठेठ ग्रामीण बोली में रचनाएँ कर किया हैं. वे मथुरा जिले के गाँव गढ़ के रहने वाले थे. जाट समाज पत्रिका ने उन पर जनवरी-फ़रवरी २००८ के अंक को विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया है. जाट समाज पत्रिका द्वारा कुछ साहित्य उनके वंशज डॉ फौरनसिंह, आचार्य कृष्ण तीर्थ, से प्राप्त किया है. उनका शेष साहित्य भरतपुर जिले के नगला तुहीराम, अलीगढ़ जिले के बिजौली और उनके मूल गाँव गढ़ से प्राप्त किया है.

जन्म्

उनका जन्म् सन् 1869 में ग्राम गढ़ (तसींगा) परगना सादाबाद, हाथरस के एक संभ्रांत किसान परिवार में हुआ. उन्होंने कलकत्ता बोर्ड मेट्रिकुलेशन की परीक्षा सन् 1888 में उत्तीर्ण की. शिक्षा के तुरंत बाद गिरधारीसिंह की रेलवे में स्टेशन मास्टर के पद पर नियुक्ति हुई. कुछ समय टून्डला एवं आगरा में सेवारत रहे और उसी दौरान नगला पड़ी (आगरा) में एक अच्छी हवेली का निर्माण कराया और वहीं बस गए. सन 1924 में प्लेग की बीमारी में उनकी पत्नी, पुत्रवधू, पौत्र और पौत्री का स्वर्गवास हो गया. केवल एक मात्र पुत्र मुरली सिंह ही परिवार में बचे. वे प्रारम्भ में सनातनी थे परन्तु स्वामी दयानंद के प्रभाव से क्रांतिकारी हो गए.

रेलवे में सेवा

रेलवे में सेवा के समय ही उन्होंने अनेक छद्म नामों से रसिया, कविता, छंद जिकड़ी एवं संवादी भजनों तथा लीलाओं को जनगण के समक्ष रखा. विद्यार्थी जीवन से साहित्य की रूचि अपने ताऊ मुंशी ईस्वरी प्रसाद सिंह से विरासत में मिली. मुंशी जी ने आगरा शुद्धि सभा के संयोजक ठाकुर माधव सिंहजी के साथ समूचे आगरा मंडल में अर्यशुद्धि का काम किया था.

हुकूमत को जब इनके कार्यों के बारे में भनक लगी तो इनको पदावनत कर अन्यत्र ट्रांसफर किया गया. इन्होने इसपर भी अपनी विचार धारा नहीं त्यागी. काकोरी काण्ड में अंग्रेजी खजाने की ट्रेन डकेती में संदेह के आधार पर कई हिन्दुस्तानी अधिकारियों पर मुकदमे चले. इस दौरान गिराधारिसिंह को भी पदावनत कर आगरा भेजा दिया. अंत में मनगढ़ंत आरोप लगाकर इनको सेवा से निकाल दिया. इनकी लेखनी फ़िर भी चलती रही. नौकरी जाने पर कोठी गिरवी रख दी और अब विचार धारा अध्यात्म की और हो गयी.

कविताओं की विधा

लोक कवि गिरधारी ने सभी विधाओं में अपनी रचनाएं उस काल में प्रदान की. उसका समग्र मूल्यांकन एक शोध का विषय है. उनके लेखन को सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, दार्शनिक, एवं अध्यात्म में वर्गीकृत किया जा सकता है. उनकी कविताओं की विधा मुख्य रूप से भजनों की रखी है. देश के बहुसंख्य ग्रामीण क्षेत्र के श्रोताओं की रूचि के अनुरूप रामायण, महाभारत, पौराणिक कथाओं के प्रेरणा दायक प्रसंगों को उन्होंने ब्रज की परंपरागत 'जकड़ी' शैली में रचा है. उनकी कुछ रचनाएं 'संवादी' शैली में हैं. उनको हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषाओं का ज्ञान था.

इस जन कवि का समूचा जीवन ही बिखरा रहा. कभी आगरा में गुजारा किया, तत्पश्चात अपने पैत्रिक गाँव में जा बसे, जीविका के लिए रचनाओं को छोटी-छोटी पुस्तिकाओं के रूप में हाथरस, मथुरा, आगरा, आदि से प्रकाशन कराकर गुजारा किया. ऐसी परिस्थितियाँ आयीं की ब्रिटिश सत्ता ने उन्हें आगरा एवं गाँव में अधिक परेशान किया तो उन्होंने भरतपुर रियासत की तहसील कुम्हेर के अंतर्गत ग्राम नगला तुहीराम में बसे अपने कुछ परिवारजनों के यहाँ शरण ली. कुछ दिन वह अपनी पुत्री के पास अलीगढ़ जिले के गाँव बिजौली में भी रहे. बाद में उन्होंने वहीं गंगा किनारे आश्रय बना लिया. जीवन के अन्तिम समय तक वहीं रहकर साहित्य एवं ईश्वर आराधना करते रहे.

मृत्यु

उनके एक मात्र पुत्र मुरली सिंह कुछ समय तक उनकी काव्य रचना की विधा को चलाते रहे. यह एक सौध का विहाय है कि उनके द्वारा कितना काव्य रचा गया. पिता-पुत्र का देहावसान गंगा किनारे जनपद अलीगढ़ में स्थित नगला बिजौली में हुआ था, परन्तु कब और कैसे हुआ यह अभी अज्ञात है. सम्भव है की कुछ पांडुलिपियाँ वहां पर भी सुरक्षित हों. आवश्यकता है उनके द्वारा रचे गए साहित्य के खोज की.

सन्दर्भ

जाट समाजः आगरा, जनवरी-फ़रवरी २००८

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