Gramin Rajasthan me Vaivahik Reeti-Rivaj
लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान |
विवाह मानव-समाज की अत्यंत महत्वपूर्ण समाजशास्त्रीय संस्था (Institution of society) है। सामाजिक व्यवस्था की सर्वाधिक आवश्यक कड़ी तथा समाज एवं परिवार का मूलाधार भी विवाह है। जीवन में सर्वाधिक दूरगामी परिणाम पैदा करने वाली सबसे ख़ास महत्व की सामाजिक प्रथा भी। यह समाज का निर्माण करने वाली सबसे छोटी इकाई जिसे हम परिवार कहते हैं, उसका मूल है। यह मानव प्रजाति के सातत्य (continuity ) को बनाए रखने का प्रधान जीवशास्त्रीय माध्यम ( Biological medium ) भी है।
पाणिग्रहण संस्कार का महत्त्व
पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है। हिंदू धर्म शास्त्रों में मानव जीवन के गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि तक जो सोलह संस्कार बताए गए हैं, उनमें विवाह संस्कार ‘त्रयोदश संस्कार’ ( 13 वां ) है। ये जो शब्द 'विवाह = वि + वाह' है, इसका शाब्दिक अर्थ है – विशेष रूप से ( जिम्मेदारी/उत्तरदायित्व का ) वहन करना। विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध माना गया है, जिसमें अग्नि के सम्मुख सात फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं।
हिन्दू धर्म- ग्रन्थ कहते हैं कि विवाह संस्कार पितृ ऋण से उऋण होने के लिए किया जाता है। विवाहित पत्नी से पुत्रोत्पत्ति आदि के द्वारा पितृ ऋण से उऋण हुआ जाता है। विवाह को गृहस्थी का मेरुदण्ड मानते हुए ही यह कहा गया है ‘धन्यो गृहस्थाश्रमः’। तात्पर्य यह है कि सद्गृहस्थ ही समाज के विकास में सहायक होते हैं तथा वे ही उत्तरोत्तर श्रेष्ठ नई पीढ़ी का सृजन करने का भी कार्य करते हैं।
विवाह में दो इंडिविजुअल (पति-पत्नी) अपने अलग-अलग अस्तित्वों को समाप्त कर एक सम्मिलित इकाई (1+1=1 ) का संगठन करते हैं। स्त्री और पुरुष दोनों में अपनी-अपनी अपूणर्ताएँ हैं। अपेक्षा की जाती है कि विवाह के जरिए सम्मिलन से पति-पत्नी एक-दूसरे की अपूर्णताओं को अपनी विशेषताओं से पूर्ण कर समाज में एक समग्र व्यक्तित्व का उदहारण प्रस्तुत करें। जीवन की गाड़ी में लगे हुए दो पहियों की तरह पति-पत्नी को प्रगति-पथ पर सतत रूप से अग्रसर रखना विवाह का उद्देश्य माना गया है।
हर अंचल व जात-बिरादरी की वैवाहिक रस्में तथा अन्य रीति-रिवाज भिन्न-भिन्न हैं। ये रस्में, रीति-रिवाज और परम्पराएं उस अंचल व जात-बिरादरी की पृथक पहचान को रेखांकित करती हैं। इन रस्मों को पूरी करते समय गाए जाने वाले गीतों की शब्दावली में भी कुछ भिन्नता है। इलाक़े की बोली के हिसाब से शब्द-रूपांतरण होना लाज़िम है। भाषान्तर हो सकता है पर भाव के स्तर पर प्रायः एकरूपता पाई जाती है।
यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं यहाँ पर जिन वैवाहिक रस्मों की रूपरेखा प्रस्तुत कर रहा हूँ और उन्हें पूरा करते समय जो गीत गाए जाते हैं, वे मेरे गाँव मेघसर व आसापस के गाँवों (जिला-चूरू) में खेतिहर-मजदूर बिरादरी से सम्बंधित है। बात भी 'तब' की कर रहा हूँ। वो ही बीते सालों की। ख़ासतौर से सन 1980 से पहले की।
रिश्ते में हैसियत का आंकलन
'तब' रिश्ते पितवाणे या परखे हुए (tested) परिवार से ही करने की परंपरा थी। इसलिए विवाह के रिश्ते अक़्सर रिश्तेदारियों में और संयुक्त परिवार की परिपाटी में बंधे परिवारों में करने को प्राथमिकता दी जाती थी। लड़की जिस घर में परणाई (विवाह करना) जाने का विचार किया जाता था उसकी हैसियत व ज़ायदाद का आंकलन करने के लिए आमतौर पर ये प्रश्न पूछे जाते थे या इनके बारे में जानकारी जुटाई जाती थी: " खेती के लिए कितनी बीघा जमीन है? घर में पशुधन में क्या-क्या है? भाई-बंधुओं में आपसी तालमेल कैसा है? लड़का या लड़की घर-बार व खेती-बाड़ी के काम करने में सक्षम है या नहीं?" कहा भी यही जाता था कि बिन खेत और बिन धीणा (दुधारू पशु) लडक़ी खाएगी क्या? जीवन की गाड़ी को ठेलते रखने की उम्मीद का सहारा भी तो 'तब' ये ही थे।
'तब' बचपन से ही बोझा ढोने में पारंगत होने के कारण अगर कोई संबंध बोझ भी बन जाता था तो भी उसे ढोते रहते थे, निभा डालते थे। कमाल की जीवटता और समझ के धनी थे। कहते भी थे कि 'जो बिंध गया सो मोती'। रिश्ते की डोर से जो बिंध (पिरोया गया) गया उसकी मोती की मानिंद क़दर करो, चाहे कंकड़ भी क्यों न हो। मनचाही मुराद पूरी नहीं होने के बावज़ूद भी रिश्तों को जात-बिरादरी का काण-कायदा (सम्मान) रखते हुए निभाते थे। रिश्तों की गहरी समझ रखते थे वे। इसलिए बात कुछ बिगड़ जाती थी तो उसे तत्काल संभाल लेते थे। बात का बतंगड़ बनाने से बचते थे।
नेगचार (परंपरागत विवाह की रस्में)
रंगीले राजस्थान में वैवाहिक रीति-रिवाजों का रंग-ढंग कुछ निराला है। ढेर सारी रस्में उत्साहपूर्वक निभाई जाती हैं। कुछ रस्में विवाह से पहले शुरू हो जाती हैं और विवाह के बाद तक चलती हैं। विवाह से सम्बंधित रीति-रिवाज अत्यंत प्रतीकात्मक हैं और उनमें कृषि आधारित जीवनप्रणाली के अनेक बिंब देखने को मिलते हैं क्योंकि उस बीते दौर में कृषि ही ग्रामीण राजस्थान की आजीविका का मुख्य साधन था। वर्षात के पुनरुद्धारक सामर्थ्य (regenerative power) का भरपूर ज़िक्र विवाह के गीतों में देखने को मिलता है। चौमासे (वर्षा ऋतु), कृषि-कर्म और पशु-धन का बार-बार उल्लेख इन गीतों में किया गया है। राजस्थान में वैवाहिक रीति-रिवाज आर्य और अनार्य दोनों परंपराओं का समिश्रण हैं। अनार्य मूल के रीति-रिवाजों में ब्राह्मण की आवश्यकता नहीं रहती जैसे चाक-पूजना, मुगदणा, तोरण मारना आदि। कुछ परम्पराएं मानव सभ्यता और क्रमिक विकास को भी प्रतिबिंबित करती हैं जैसे चाक-पूजना जो चक्का के आविष्कार और मटका निर्माण तथा पानी संग्रहण की याद दिलाते हैं।
वैवाहिक परंपराओं का संबंध इतिहास और शाही परंपराओं से भी है। बान बैठने के बाद पीठी मलने तक लड़का बनड़ा कहलाता है जिसका अर्थ होता है कि वह राजकुमार के रूप में है। उसकी बड़ी आव-भगत होती है और अच्छा खाना खिलाया जाता है। दुल्हा बनने पर वह बीन-राजा कहलाता है तब वह राजा के रूप में होता है। दुल्हन लाने का अर्थ है कि वह दूसरे राज्य की राजकुमारी को जीत कर ले आया है। दुल्हन वाले दूल्हे की बारात के सामने पड़जान लेकर कांकड़ तक आते थे जो राज्य की सीमा का प्रतीक थी। उस समय गीत गाया जाता था ...कांकड़ निरखन आयो राज... बारात द्वारा कांकड़ पर रुक कर पूजा की जाती थी कि हम सही-सलामत लौट आयें। बारात लौटते समय-दूल्हा-दुल्हन दूल्हे की कांकड़ को पूजते थे और ग्राम-देवता को धन्यवाद देते थे। चंदवा लगाना भी राजशाही परंपरा है क्योंकि राजा हमेशा छतरी में ही चलता था। इसी तरह दूल्हे की ड्रेस एक राजा की तरह ही होती थी। सिर पर कलंगी, पगड़ी, कोट और कटार या तलवार ये राजा के रूप में धारण किया जाता था। ऊँटों पर सजी बारात सेना के रूप में होती थी। मांडा रोपना नया राज्य प्रारंभ करने का प्रतीक है। ईरान में लगभग 600 बीसी में मंडा साम्राज्य का पतन हुआ था और ये लोग भारत में फैले। इन लोगों के नाम से ही मांडा रोपना और माण्डना नाम पड़े। अनेक गाँव इस मूल शब्द मंडा से शुरू हुये, जैसे मण्डोर, मण्डा वासणी, मान्डेता, मंडापुरा, मण्डासर, मण्डासी, मंडावरा, मंडावास, मण्डेला आदि।
सगाई: इसे सगापण, संबंध, मगनी या रिश्ता तय करना भी कहते हैं। हिन्दू धर्म मानने वाली प्रायः सभी जातियों में सम गोत्र में सगाई नहीं करने और सगाई तय करते समय चार गोत्र क्रमश: मां, बाप, दादी तथा नानी की गोत्रों को टालने का रिवाज़ है।
'तब' लड़के-लड़कियों की सगाई प्राय: छोटी उम्र में ही तय कर दी जाती थी। रिश्ते की बात परिजनों व सगे- संबंधियों के जरिये शुरू करवाई जाती थी। बड़े-बुजुर्ग ही सगाई तय कर देते थे। लड़के-लड़की से पूछने व उनकी रजामंदी लेने की ज़रूरत नहीं समझी जाती थी। "चट मंगनी, पट ब्याव" 'तब' आम बात हुआ करती थी क्योंकि विवाह के अवसर पर आजकल के ताम- झाम का प्रचलन 'तब' में नहीं थे। सादगी पसंद लोग हर मामले को सादगी के साथ सम्पन्न करने पर जोर देते थे। कुछ ऐसे मामले भी होते थे जिसमें कोख़ में पल रही संतान की जन्म से पहले ही सगाई सशर्त तय हो जाती थी।
सगाई की रस्म: सगाई की बात तय होने पर कन्या/ लड़की को शगुन का एक रुपया तथा खोपरा (सूखे नारियल के अंदर का कपनुमा आधा हिस्सा) दिया जाता था। दोनों पक्षों के परिवार के बुज़ुर्ग व नजदीकी रिश्तेदार तय दिन एक-दूसरे के घर जाकर चावल खा लेते थे और इसका मतलब दोनों ओर से सगाई की बात पक्की। लड़की के परिवार वाले लड़के के दादा-पिता-मामा आदि को कम्बल ओढ़ाकर अपने सामर्थ्य के अनुसार 5/ 11/ 21 रुपये देकर उनका सम्मान कर देते थे।
ब्याव माण्डना: विवाह की तिथि तय करना - वर्तमान में कानूनी रूप से विवाह हेतु लड़की की उम्र 18 वर्ष और लड़के की उम्र 21 वर्ष निर्धारित है पर 'तब' लड़के-लड़कियों का विवाह अल्पायु में ही कर दिया जाता था। सामाज इसकी संस्तुति देता था और ये रीत भी थी।
लड़के-लड़की के परिजन अपनी सहूलियत और आपसी रजामंदी से खेती व सर्दी की रुत को टालते हुए खेती का पूरा काम सलट जाने के बाद विवाह की कोई तिथि तय कर लेते थे, जो कि अक्सर होली (मार्च) के बाद से जून माह तक की अवधि में होती थी। गाँव में शादी की सीज़न के रूप में यही अवधि सर्व स्वीकार्य होती थी। आखातीज (अक्षय तृतीया) का खेती-किसानी में ख़ास महत्व होने के कारण इसे अबूझ सावा (विवाह का मुहूर्त) मानते थे, इसलिए इस दिन हर गांव-बस्ती में शादियों की भरमार होती थी।
'तब' गाँववासी जन्मपत्री मिलाने, ग्रह-नक्षत्र की दशा देखने व शुभ मुहूर्त निकलवाने के पचड़े में नहीं पड़ते थे। गाँवों में ये सब चोंचलेबाजी और 'अफण्ड' देखा-देखी नकलची बनने की होड़ में शामिल होने के बाद से शुरू हुए हैं। विवाह की तिथि तय करने से पहले अगर गाँव या आसपास के गाँव के पंडित से सम्पर्क भी करते थे तो वह मामूली पढ़ा-लिखा होने के कारण प्रपंच से परहेज़ करते हुए लड़के-लड़की के परिवार की सहूलियत के हिसाब से विकल्प सहित कुछ तिथियां सुझा देता था।
पीला चावल: सगे-संबंधियों और भायलों (मित्रों) को विवाह का औपचारिक निमंत्रण देने हेतु पीला चावल (हल्दी के पीले रंग से रंगे चावल) देकर किया जाता था। माटी के ढेले पर मौळी लपेटकर उसे गणेश जी मान लिया जाता है या फिर दीवार पर रोळी से गणेश जी का सातिया/चिह्न बनाकर पहला निमंत्रण गणेश जी को देने का रिवाज़ था।
भात नूतणां : लाडेसर (बेटे-बेटी ) के वैवाहिक-सूत्र में बंधने की तय तिथि से लगभग सप्ताह-दो सप्ताह पहले लाडेसर की मां अपने पीहर जाकर भाई-भतीजों और कुटुम्ब-कबीले को विवाह के अवसर पर उपस्थित होकर सहयोग प्रदान करने का न्यौता देती है।
विवाह के लोक गीत : विवाह के रीति-रिवाज निभाते समय गाए जाने वाले कुछ लोक गीतों को भी इस आलेख में समाविष्ट कर रहा हूँ ताकि बीते कल (yesteryear) के लोक के मन की थाह ली जा सके। इनमें उनकी आशाएं, आकांक्षाएं, आशंकाएं पढ़ी जा सकती हैं। बस, ये सब पढ़ना जानने वाला होना चाहिए।
लोक गीतों को संस्कृति का सुखद संदेश प्रवाहित करने वाली कला माना जाता है। लोक गीत राजस्थानी संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। विवाह की रस्में सम्पन्न करते समय जो लोकगीत गाए जाते हैं वे सरल तथा साधारण वाक्यों से ओत-प्रोत हैं और इसमें लय को ताल से अधिक महत्व दिया गया है। इन्हें सुनकर लोक के मन की थाह ली जा सकती है। तभी तो महात्मा गाँधी ने कहा है कि 'लोकगीत जनता की भाषा है ...... लोक गीत हमारी संस्कृति के पहरेदार हैं।'
भात के गीत: भात के अवसर पर गाए जाने वाले गीत अपनेपन के भाव से सरोबार हैं। गीत में बहन अपने भाइयों व परिजनों से सपरिवार भात भरने आने का आग्रह करती है। रीत के अनुसार कुछ गहने व गोटा-किनारी व तारों से सुसज्जित जाळ की चुनड़ी लाने का अनुरोध करती है। बहन अपने ससुराल से जब रवाना होती है व पीहर में भात न्यूतने की रस्म पूरी करती है तब औरतें ये गीत गाती हैं:
- बीरोजी म्हारे माथै ने मेमद ल्याज्यो
- बीरोजी म्हारे काना ने कुंडल ल्याज्यो
- म्हारी रखड़ी बैठ, घड़ाज्यो जी
- म्हारा रुणक-झुणक भत्ती आज्यो
- बीरा थे आज्यो-भावज ल्याज्यो
- छोटो सो भतीजो, सागै ल्याज्यो जी
- म्हारी पायल बैठ, घड़ाज्यो जी
- म्हारा रुणक-झुणक भत्ती आज्यो
- बीरोजी म्हारे माथै ने चूनड़ ल्याज्यो
- म्हारी चूनड़, जाल घलादयो जी
- म्हारा रुणक-झुणक भत्ती आज्यो।
परात/थाली में गुड़ के भेली, चावल आदि रखकर लाडेसर की माँ अपने पीहर में सभी भाई-भतीजों व परिजनों के माथे पर चांदी के सिक्के से टीका लगाती है। गीत में भाइयों व परिजनों को भात भरने के दिन जल्दी पहुंचने का आग्रह किया जाता है क्योंकि उस दिन उनकी उडीक (पलक-पांवड़े बिछाकर इंतज़ार) रहेगी। बेटी को माँ आश्वस्त करती है कि वह सबको भात में भेज देगी तथा ख़ुद अकेली घर की रखवाली कर लेगी। गीत के बोल ये हैं:
मां का जाया-बीरा बेगो आई
- मां का'र जाया-बीरा बेगो र आई
- हम घर बिड़द उतावली
- माँ की ए-जाई-मेरो आवण ना ही....
- सोई म्हारा भाई-भतीजा आईया
- इतना सा आया वीरा, बगड़ न माँया
- तंबू तो ताण्यो वीरा, चौक में
- भाई 'र भतीजा मेरा सब मिल आया
- लोभड़ मायड़ मेरी कित रही
- लोभण बेटी मेरी लोभ न करिए
- जायै को फल दिज्ये
- भाई' रभतीजा तेरी भात भरेगा
- घर रखवाली तेरी मावड़ी
कुछ इलाकों में भात का निम्न गीत भी गाया जाता है।
बीराजी बेगा भात भरण न आइज्यो
- कुंकू भरियो चोपड़ो, मोतीयां भरियो थाल।
- बीराजी बेगा भात भरण न आइज्यो म्हारा राज।
- बीराजी बेगा आइज्यो भावज न लाइज्यो साथ।
- बीराजी प्यारा भाई भतीजा न लाइज्यो साथ।
- थे बीरा उमराव घणा सगला में सिरदार।
- बीराजी म्हारा मान बढ़ावण आया म्हारा राज।
- चमचम चमके चूंदड़ी ओढ़ावण आया म्हारा राज।
- मायरो लाया धूसू म्हारो हरख्यो सो परिवार।
- भावज म्हारी गीता रो शोर मचायो म्हारा राज।
- बेनड़ हरकी ह धणी भर मोतियन रो थाल।
- टीको काढ़े चाव सू कर सोला सिणगार।
- बीराजी म्हारा हंस हंस नेग चुकाव म्हारा राज।
मुगदणा: यह खेत से खेजड़ी की छड़ियों का लादा (लकड़ी का बड़ा ढेर) व खेजड़ी की हरी डाली लेकर विवाह आयोजित होने वाले घर के दरवाजे पर लाने की रस्म है। महिलाएँ गीत गाती हुई दरवाजे पर पहुंचकर मुगदणे का स्वागत करती हैं।
बान बैठाना: पाट बैठाना/हल्दहाथ - विवाह के बंधन में बंधने वाले लाडेसर को उसके परिजन विवाह के 7 या 5 या 3 दिन पहले पाटे/चौकी पर बैठाकर बान बैठाने की रस्म पूरी करते हैं। बान बैठने के बाद लड़के को बनड़ा व लड़की को बनड़ी शब्द से संबोधित किया जाता है। बान बैठाते समय ही एक छोटे बच्चे को बिनाकिया बनाया जाता है जो बिनाकजी या विनायक को उठाते समय तक रहता है। बान और बिनाकिया शब्द बिनायक से बने हैं जो बौद्ध रीति-रिवाज को प्रतिबिंबित करते हैं। विनायक शब्द गणेश का पर्यायवाची है।
लड़के को बान के दिन से ब्याव (विवाह) के दिन तक कटार धारण करवाने का रिवाज़ था। बान बैठाने वाले दिन बनड़े-बनड़ी के पिता अपने-अपने कुटुम्ब, धड़े या मौहल्ले के घरों में एक-एक किलो गुड़ बांटता है। बान बैठने के बाद बनड़े-बनड़ी को कुटम्ब-कबीले और रिश्तेदार बान के रूप में आशीर्वाद देते हैं।
पीठी मलना: बान बैठने के बाद बनड़े-बनड़ी को दूल्हा-दुल्हन बनने तक हर रोज शाम को पाटे पर बैठाकर शरीर पर पीठी (हल्दी व आटे का उबटन) रगड़ कर स्नान कराया जाता है। पीठी मलने से पहले तेल चढ़ाने की रस्म अदा होती है। तेल चढ़ाने के बाद पीठी मलनी शुरू की जाती है। बनड़ी के पीठी नेवगण या सहेलियाँ तथा बनड़े को नेवगी(नाई ) पीठी मलता है। पीठी मलते समय औरतें गीत गाती हैं। 'तब' घर-खेती का काम करते रहने से शरीर मैल से कुछ बदरंग सा रहता था। लगातार पांच-सात दिनों तक पीठी रगड़ने से शरीर मैल की परत से मुक्त होकर सुन्दर व कोमल दिखने लग जाता था और उसमें निखार आ जाता था।
कांकड़ डोरड़ा: बान बैठने व तेल चढ़ाने के बाद बनड़े-बनड़ी के दाएँ हाथ में मौळी को बंट कर बनाया गया एक मोटा डोरा बांधा जाता है, जिसे कांकड़ डोरड़ा कहते हैं। इसमें लाख, कौड़ी और लोहे के छले डालकर बांधा जाता है। विवाह सम्पन्न होने के बाद वर के घर में वर-वधू एक दूसरे के कांकड़ डोरड़ा खोलते हैं। इस रिवाज का संबंध शाही परंपराओं से है। कांकड़ डोरड़ा दो राज्यों के एक राज्य में समाहित होने का प्रतीक है।
झोळ घालना: बनड़े के दूल्हा बनाने से पहले झोळ घालने की रस्म सम्पन्न की जाती है। इसमें बनड़े के सभी संबंधी जोड़े में कांसे के बाटके में दही लेकर पुरुष बनड़े के सिर में दही डालता है और स्त्री बाल मसलती है। आशीर्वाद स्वरूप कुछ पैसे दिये जाते हैं।
- म्हारा बापूजी झोल घलाई या
- मेहा बरसण लाग्या ए
- म्हारी माऊजी मसल नुहाई या
- मेहा बरसण लाग्या....
बनड़ा-बनड़ी का न्हाण: बनड़ा या बनड़ी झोल घालने के बाद स्नान करते हैं। स्नान के बाद मामा उनको पाटा उतारता है। उस समय पाटे के पास मिट्टी का दीपक रखकर उसको एक पैर से फोड़ा जाता है। पाटा उतार कर मामा गोद में लेकर बनड़ी को मांडे के नीचे छोड़ता है और बनडे को निकास के लिए बैठाता है।
- अलखल-अलखल नदी ऐ बहे, म्हारो बनड़ो मल-मल न्हावै जी
- गैर भगत मत नहावो रायजादा, दोपारा बीच नहावो जी।
- दोपारा तो धूप पड़त है, ढलते भगत भल नहावो जी
- कुण्यां जी रो रतन कटोरी, कुण्यां जी रो मोतीड़ा रो हारो जी।
- लीनी है म्हे रतन कटोरी, बदल्यो है मोतीड़ा रो हारो जी।
- हार सौवै म्हारे हिवड़ा रै ऊपर, मोतीड़ा दीपै ये लिलाड़ो जी।
- अलखल-अलखल नदी ऐ बहे, म्हारो बनड़ो मल-मल न्हावै जी
चंदवा ताणना: बनड़ी के पीठी मलते समय लड़कियां उसके सिर पर गुलाबी रंग के ओढ़णे के चारों छोरों को पकड़ कर चंदवा ताणती हैं। झोल घालने (कचोले में रखे दही को पिता व परिजनों द्वारा बनड़े-बनड़ी के सिर पर डालना और उनकी पत्नियों द्वारा सिर पर दही मलना) की रस्म पूरी होने पर चंदवे को बनड़ी के सिर पर बांध दिया जाता है। बनोरी लाते समय लाल लुंकार का चनवा तानते थे। बनड़ा निकासी के बाद में जब मंदिर जाता है तब भी चुनड़ी का चंदवा ताणते हैं। दूल्हा-दुल्हन के गृह प्रवेश के समय भी चंदवा ताणते हैं। अगले दिन देवी-देवता ढोकते समय भी चंदवा ताणते हैं। लड़की जब बाप के घर से शादी के बाद विदा होती है तब भी चंदवा ताणते हैं। इस रिवाज का संबंध शाही परंपराओं से है। राजा-रानी हमेशा छतरी के नीचे ही चलते हैं।
रातिजका या रातिजगा देना: विवाह के दिन की पूर्व रात्रि को बनड़े-बनड़ी के घर में रतजगा होता है, जिसमें महिलाएं कुल देवता व देवी-देवताओं के स्तुति गीत व मांगलिक गीत गाती हैं। इसी रात लाडेसर के हाथों में मेहंदी रचाई जाती है।
टूंटिया/ टून्ट्यो: दूल्हे की बारात जिस दिन निकासी करती है उस दिन सभी औरतें रातभर जागकर टूंटिया की परंपरा करती हैं जिसमें मुख्ययत: मनोरंजन किया जाता है। जिस दिन दूल्हा बरात लेकर बनड़ी के घर चला जाता है तो उस दिन की रात को दूल्हे के घर पर औरतों की एकछत्र सत्ता क़ायम हो जाती है। उस रात को औरतें स्वछंद होकर अपने मनोंजन के लिये जो कार्यक्रम करती हैं, उसे टूंटिया कहा जाता है। टूंटिया में औरतें खूब हंसी-ठठ्ठा करती हैं। बीन-बीनणी का सांग भरकर फेरा भी लेती हैं। 'तब' टाबर-टिकर (बच्चे-बालक) लुक-छुपकर टूंटिया देखा करते थे क्योंकि मनोरंजन के अवसर व साधन कभी कभार ही सुलभ होते थे। टूंटिये की रस्म पूरी करने का एक मक़सद और भी था। गाँव-बस्ती के पुरुषों के बारात में चले जाने के बाद विवाह के घर में चोरी का डर रहता था। टूंटिये की रस्म में महिलाएं मनोरंजक कार्यक्रम करते हुए पूरी रात जागती रहती थीं ताकि घर में चोरी आदि की घटना को टाला जा सके।
थापा लगाना: बान बैठने के दिन घर में सामान्यतया रसोई के पास बनड़ी या बनड़े से गीली पीठी पर अपना बांया हाथ रखकर दीवाल पर थापा लगवाया जाता है। बनड़ी या बनड़े की मां कलश में चावल-मूंग डालती है। उसी दिन शाम को बनोरे के बाद या रातीजके के दिन औरतें मेहंदी के घोल से बनड़ी या बनड़े के दायें हाथ का थापा लगवाती हैं। इस रस्म अदायगी के दौरान औरतें गीत गाती रहते हैं।
बनोरा निकालना: सगे भाई बनोरा निकालते हैं अर्थात बनड़े-बनड़ी व उसके परिजनों को सीगरी न्यौता (सारे घर के सदस्यों को निमंत्रण) देकर अपने घर भोजन परोसते हैं।
बनोरी/बिन्दोरी: विवाह के दिन की पूर्व रात्रि को बनड़े को, आजकल बनड़ी को भी, घोड़ी पर बैठकर गांव/ मोहल्ले में घुमाया जाता है और महिलाएं गीत गाती हैं। इसे बनोरी कहते हैं।
- दादोजी 'र मुलावे ये घोड़ी,
- दाद् यां निरखण आवै,
- आवेगो दादा जी रो प्यारो,
- सुत्यो शहर जगावे ऐ
- घोड़ी हलवा-हलवा चाल
- इन्दरियो धरावै ऐ घोड़ी चौमासो लगज्याय
- चौमासे की रात अंधेरी, बंधी भैंस तुड़ावे ऐ
- घोड़ी ठुमक ठुमक कर चाल
- ई नगरी रो लोग रसीलो, तन्नै नीरखण आवै
- ऐ घोड़ी मधरी-मधरी चाल
- बापूजी 'र मुलावे ए घोड़ी मांयां निरखण आवै।....
इस प्रकार परिवार के सदस्यों का नाम लेकर यह गीत पूर्ण किया जाता है। गीत में चौमासा (वर्षा ऋतु) के बिंबों की भरमार है।]
भात भरना (मायरा): विवाह के सूत्र में बंधने वाले लाडेसर (लड़के-लड़की ) के ननिहाल से उसके मामा-मामी व अन्य परिजन गांववासियों के साथ भात भरने पहुंचते हैं। लाडेसर की माँ को गाँव की बेटी मानते हुए गांववासी भात में भागीदारी करते हैं। अगर उसका प्रथम भात है तो गांव के तक़रीबन हर घर से भागीदारी होने के कारण भातियों की संख्या सैंकड़ों में होती है।
बनड़े-बनड़ी की माँ थाली में रोली-मोली-चावल व चोपड़ा रखकर घर के अंदर के दरवाज़े पर खड़ी हो जाती है। औरतें भात के गीत गाती रहती हैं। गीत में नव- निर्माण/ पुनरुद्धार के प्रतीक के रूप में मेह बरसने का ज़िक्र है। 'बरसने' का अभिप्राय ये भी है कि भाई भात में उपहारों की बारिश करेगा।
1
- ओ बीरा झेर् यो-मेर् यो बरसगो मेह जामण जाया
- नान्ही सी बूंद सुहावणी जी
- ओ बीरा ओरा न नाई क हाथ जामण जायी
- ओ बीरा औरा न चून- चावल की भेंट, जामण जाया
- थानै रे गुड़ की भेलिया जी
- ओ बीरा नूत्यो मेर ठाकुर बर को बीर जामण जाया
- राधा- रुकमण सी भावजा जी
- ओ बीरा मेरा नूत्यो मेरो जलवर जामी बाप जामण जाया
- राता देयी मावड़ी जी
- ओ बीरा नूत्यो मेर काके ताऊ की जोड़ जामण जाया
2
(इस गीत में भात में भाई की ओर से ओढाई जाने वाली चुनड़ी की भरपूर प्रशंसा की गई है)
- कांकड़ बाज्या जंगी ढोल, झालर झिणक करैजी
- आया म्हारा मा का जाया बीर, चूनड़ ल्याया मोज की जी
- नापूं तो हाथ पचास, तोलू तो तोला तीस की जी
- मैलू तो डिब्बो भर ज्याय, ओढू तो हीरा झड़ पड़े जी
- ओढा म्हारी बनड़ी के ब्याव, च्यारू पल्ला छिटकताजी-
- देखेला देवर-जेठ, राजन आवै मूलकतो जी
- आया महारा मा का जाया बीर, चूनड़ ल्याया मोज की जी
भात भरते समय भाई अपनी बहन को गले लगाकर उसे ओझरिया की बेलबूटेदार, तारा-जड़ी मनोहारी चुनड़ी ओढ़ाते हैं। सभी भातियों को चांदी के सिक्के से टीका लगाया जाता है। भात में लाडेसर के ननिहाल पक्ष द्वारा पोशाक, गहने, नकदी आदि बहुत सारे उपहार दिए जाते हैं। साथ ही बहनोई एवं उसके अन्य परिजनों की झुंवारी भी की जाती है।
न्यूता (न्यौता) लेना : लड़के की शादी में मेळ/ बढार/ प्रीतिभोज के दिन और लड़की की शादी में फेरों के दिन भाइयों, कुटुंब-कबीले, सगे- संबंधियों, स्नेहीजनों से न्यूता (payable support money ) लिए जाने का रिवाज़ रहा है। हर घर में न्यूता लिखने की बही होती है। बही में लिखना शुरू करने से पहले कुंमकुंम का सातिया (स्वास्तिक) बनाकर कुंमकुंम के छींटे डाले जाते हैं। स्वास्तिक के ऊपर 'गणेशाय नमः' जरूर लिखते हैं। इसके बाद लाडेसर का नाम व विवाह की तिथि वगैरा लिखकर न्यूता लिखना शुरू किया जाता है।
न्यूते के लेनदेन की अहमियत: बीते दौर में भाई-बंधु, रिश्तेदार, स्नेहीजन आपसी सहयोगार्थ एक-दूसरे के काण-कावे/ ठींचे ( उत्सव/ भोज ) में कुछ राशि न्यूते के रूप में एक-दूसरे के पास डिपॉजिट करवाते थे। इस डिपॉजिट (अमानत ) को सवाया/सवाई (मूल से अक्सर सवा गुणा अधिक) कर एक-दूसरे को लौटाये जाने का प्रावधन रहा है। न्यूते के ज़रिए प्राप्त इस सहयोगात्मक राशि से विवाह में होने वाले ख़र्चे के लिए आवश्यक धनराशि जुटाने में सहूलियत हो जाती थी।
एक थाली में रोली (कुमकुम), मौली, कुछ चावल, तिलक लगाने का चोपड़ा वगैरा रख दिया जाता है। न्यूता लेने का बुलावा/ निमंत्रण मोहल्ले वालों व मेहमानों के ठहरने के घरों में भिजवाया जाता है। न्यूता लेते समय औरतें गीत गाती रहती हैं। न्यूता सबसे पहले भाइयों तथा बाद में रिश्तेदारों और मोहल्ले वालों का लिया जाता है। न्यूता देने वाला ( guest ) अपनी बही में पहले ये देखकर या दिखवाकर आता है कि न्यूता लेने वाले (host) ने उसकी बही में पहले से कितने रुपये बती (अधिक) करवा रखे हैं। जितने रुपये उसकी बही में बती लिखवाए हुए हैं, उससे अधिक रुपये वह मेज़बान की बही में लिखवाकर थाली में डालता है।
मांडा या थाम्भ रोपना: लड़की की शादी में मांडा/ थाम्भ रोपना और तोरण की व्यवस्था करने का रिवाज़ है। मांडा/ थाम्भ लकड़ी का बना होता है, जिस पर चार लाल-गुलाबी खूँटियाँ लगी होती हैं। इन खुंटियों के बीच एक कलश रखकर उसके ऊपर नया लाल कपड़ा लपेटा जाता है। इनको मूंज की नई रस्सी से बांध दिया जाता है। इस थाम्भ को चंवरी में अग्नि-कुण्ड (वेदी) के पास ही जमीन में गाड़कर खड़ा किया जाता है। विवाह के बाद बरात जब वापस रवाना होती है तब दूल्हा थाम्भ पर बंधी मूंज को खोलता है। इसे जूंण (गांठ) खोलना कहते हैं। उस वक्त दूल्हे को नेग दिया जाता है। इस रिवाज का संबंध शाही परंपराओं से है। मांडा रोपना नया राज्य प्रारंभ करने का प्रतीक है।
चाक-पूजा: बनड़े-बनड़ी के घर की सुहागिन औरतें गीत गाती हुई कुम्हार के घर जाती हैं वहाँ कुम्हार के चाक की पूजा होती है और वहां से मटके सिर पर रखकर गीत गाती हुई अपने घर आती हैं। यह परम्पराएं मानव सभ्यता और क्रमिक विकास को प्रतिबिंबित करती है। चाक-पूजना चक्का के आविष्कार और मटका निर्माण तथा पानी संग्रहण की याद दिलाते हैं।
बरात का प्रस्थान
विवाह के दिन बनड़े को बीन (दूल्हा) बनाने की रस्म पूरी की जाती है। दूल्हा ऊँटों पर सज-धज कर लावलश्कर (बरात) व गाजे-बाजे के साथ दुल्हन का वरण करने के लिए प्रस्थान करता है। इस रिवाज का संबंध शाही परंपराओं से है। ऊँटों पर सज-धज कर रवाना होने वाली बारात वस्तुत: सेना के रूप में नया राज्य जीत कर लाने का प्रतीक है, वे जीत कर दुल्हन को लाते हैं और उस राज्य को अपने राज्य में समाहित कर लेते हैं।
दूल्हे के साथ जब बरात रवाना होती है, तब दूल्हे को उसकी माँ प्रतीकात्मक स्तनपान कराती है। मां जीवित नहीं होने की स्थिति में दूल्हे की बड़ी भोजाई स्तनपान कराती है। इस प्रतीकात्मक स्तनपान के ज़रिए मां अपने बेटे को यह संदेश देती है कि 'बेटा दूध की लाज़ रखना।' बड़ी भोजाई का स्तनपान कराने का आशय यह है कि बड़ी भोजाई को मां के बराबर दर्जा दिया जाता है।
ऊँटों का लवाजमा: ये वो जमाना था जब बरात ऊँटों पर सवार होकर जाती थी। दूल्हा जिस ऊँट पर सवार होता था, उसकी गिनती तेज दौड़ने वाले ऊँटों में होती थी। इसके साथ ही वह बलिष्ठ होता था और दिखने में मनोहारी भी। उसकी कतराई भी कमाल की होती थी। कई डिज़ाइन बनाए जाते थे। उसके घुटनों पर पैजनियाँ बांधी जाती थी। गले में रंगबिरंगे रिबन व घुंघरू की लड़ियाँ बांधकर उसे ख़ूब सजाया जाता था। उसकी पीठ पर रंगबिरंगी छेवटी बिछाकर उस पर बढ़िया जीन (saddle काठी/ ऊँट पर बैठने का चमड़े का गद्दी दार आसन ) बांधा जाता था। फिर तंगड पटिया बांधकर और पैग़ड़ा लगाकर उस पर बीन ( दूल्हा) व उस ऊँट का धणी (मालिक) बैठता था।
ऊँट की रंगबिरंगी मूरी/ मोरी (नकेल में दोनों ओर डली रस्सी) ऊँट के मालिक के हाथ में होती थी अर्थात वह ही उस ऊँट का ड्राइवर होता था। अगर ऊँट को व्हीकल माने तो मूरी को स्टेरिंग माना जा सकता है।
बनड़ी के परिवार की ओर से बरात में आए ऊँटों की भी समुचित आवभगत अर्थात उनके चारे-पानी की व्यवस्था आपसी सहयोग से की जाती थी। ऊँटों के लिए चारे का जिम्मा कुटुम्ब के लोग मिलकर वहन कर लेते थे। 1975 के आसापस ट्रेक्टर ट्रॉली और फिर बस में सवार होकर बरात जाने लगी। दूल्हा भी बस में ही सवार होता था।
बरात की रवानगी के समय एक तरह से रणभूमि की ओर बढ़ने एवं वहां विजयश्री हासिल करने का सा माहौल सृजित (create) किया जाता था। एक-दो बराती देशी दुनाली बंदूक लेकर भी सवार होकर चलते थे। कूच (प्रस्थान) करने से पहले इष्ट देवता से सांई-सेती ( बिना कोई विघ्न) विवाह संपन्न होने की अरदास करते हुए नारियल पधारा? (फोड़ा) जाता है।
बरात के सजे -धजे ऊँटों के लवाजमें की दौड़ होती थी। क़ाबिल ऊँट सवार बड़े उत्साह से ऊँट दौड़ की प्रतिस्पर्धा में शामिल होते थे। बनड़ी के गाँव पहुंचकर वहाँ की गलियों में भी ऊँटों का लवाजमा दौड़ लगाते हुए कई चक्कर लगाता था। उस दौर में सबके लिए ये सब मनोहारी एवं मनोरंजक दृश्य हुआ करता था।
पड़जानी व बधाईदार: बनड़ी के गांव की कांकड़ (सीमा) में जब जान (बारात) पहुंच जाती है तो उसकी अगवानी करने बनड़ी के घर से कुछ परिजन कांकड़ पर पहुंचते थे, जिन्हें पड़जानी कहा जाता है। वे पथ-प्रदर्शक की भूमिका में बरात को सम्मान सहित गाँव में रुकने के डेरे पर पहुंचाते हैं। बरात को रुकने का नियत डेरा बता दिया जाता है। इसे जनवासा भी कहते हैं। बारात का एक आदमी बनड़ी के घर पहुंचकर बारात के पहुंचने की सूचना व बधाई देता है, उसे बधाईदार कहते हैं।
उल्लेखनीय है कि बीते दौर में गाँव में ठसक रखने वाले या पंच-पटेली करने वाले घर की बरात पांच बीसी( 5×20=100 ) जरूर होती थी। अर्थात बरातियों की संख्या एक सौ होती थी। चर्चा भी होती थी कि अमुक के यहाँ पांच बीसी बरात आई है। उस ज़माने में लगभग सभी ग्रामीण अनपढ़ होने के कारण 20 से अधिक गिणती नहीं जानते थे। इसलिए वे अपनी गिणती की ऊपरी सीमा 20 के हिसाब से ही जोड़-बाकी-गुणा कर बताते थे।
बात चली है तो बता रहा हूँ कि बहुत पुराने जमाने में अंग्रेज भी इसी तरह गणना करते थे। विलियम शेक्सपियर का एक दुखांत नाटक है King Lear, जिसमें राजा ख़ुद अपनी उम्र का ज़िक्र इन शब्दों में करता है:
LEAR Pray, do not mock me.
I am a very foolish fond old man,
Fourscore and upward, not an hour more nor less.
अंग्रेजी में score का मतलब 20 भी होता है। राजा कहता है कि मैं 80 साल (Fourscore=4× 20 = 80) की उम्र का बूढ़ा आदमी हूँ।
मनबहलाव (pastime): फ़ुर्सत भरे उस दौर की बात ही कुछ अलग थी। ठहराव उस दौर की एक खूबी थी। बरात का दो दिन तक रुकना आम बात थी। तेज़ होड़ाहाड़ी ( rat-race ) के वर्तमान दौर में मिल-बैठकर बतियाने की फ़ुर्सत किसी को नहीं। अगर फ़ुर्सत है भी तो आपसी तालमेल और सामंजस्य का भाव नहीं। 'अब' तो एक छत के नीचे बैठे लोग भी मोबाइल फोन पर नज़रे गड़ाए ख़ुद को ख़ुद तक सीमित रखने को तरज़ीह देते हैं। सामूहिक बातचीत और कहानी-किस्सों का आदानप्रदान बीते दिनों की बात हो चली है।
जानी ( बराती ) अपना मनबहलाव आज से बिल्कुल अलग ही एक निराले अंदाज में करते थे। सजे-धजे ऊंटो पर बराती अपने ऊँटों की दौड़ करवाकर दिखाते थे कि किसका ऊँट कितना तेज दौड़ता है। इस दौड़ के कई दौर चलते थे। बराती ( members of a marriage party/wedding guests ) एवं मांडेतियों ( wedding hosts ) के बीच ज़ोर आजमाइश की मुक़ाबले जैसे कुश्ती, माला लगाना (weight lifting), कब्बडी, गिंडी का खेल आदि होते थे। प्रायः हर गाँव के गुवाड़ में शारीरिक ताकत आजमाइश के लिए एक भारी पत्थर रखा रहता था जिसे माला (heavy weight ) कहते थे। इसे हाथ से उठाकर सीधे सिर से ऊपर उठाकर दिखा देने को माला लगाना कहते थे। इससे ये दिखाया जाता था कि बरात में कितने बलवान लोग हैं। पहलवानी जांचने के लिए कुश्तियां होती थीं। गाँव के ऊंचे पेड़ों पर चढ़ने की करामात दिखाने का अवसर भी सुलभ होता था।
बूढ़े -बड़ेरे चिलम -हुक्का के ख़ूब शौक़ीन होते ही थे। उनकी महफ़िलें घण्टों तक एक घर से दूसरे घर में ख़ूब जमती थीं। खेती-किसानी के बातों के अलावा क़िस्से-कहानियों की भी भरमार उनकी महफ़िलें में होती थी। स्वस्थ हंसी- मजाक के दौर चलते रहते थे। 'पूछो तो जानें' प्रतिस्पर्धा के अंतर्गत दोनों पक्षों की ओर से पहेलियाँ पूछी जाती थीं। धमाल भी गाते थे। पशुधन की मोल- मुलाई भी करते थे।
बड़े-बुज़ुर्ग बराती मांडेतियों के खेतों का 'निरखण( निरीक्षण ) करके आते थे। प्रयोजन होता था ये जानना कि उनके खेत कितने उपजाऊ हैं और उनमें 'बागर/ छुंरिये (बाज़रे की कड़बी कटाई कर बांधे गए पुल्लो [ bundles ] का तरतीबवार लंबा आयताकार / गोलाकार ख़ूब ऊंचा जमावड़ा ) और कीड़े ( पशुओं के चारे के ऊंचे ढेर ) कितने लगे हुए हैं? संसाधनों की संपन्नता का आंकलन इसी आधार पर किया जाता था।
बरात में गए बालक भी मांडेतियों के हमउम्र बालकों के साथ ख़ूब घुलमिल जाते थे। पेड़ों से झूलने व अन्य खेल खेलने में मशगूल हो जाते थे।
बूढ़े-बड़ेरे, सगे-संबंधियों की नज़र किसी भावी कमाऊ बालक पर टिक जाती थी तो वे उसकी सगाई का प्रस्ताव तत्काल विचारार्थ प्रस्तुत कर देते थे। बड़े-बुज़ुर्ग बराती जात-बिरादरी के घरों के बारे में पूरी खोज-ख़बर कर अपने परिवार के एक-दो बालकों का रिश्ता करने की बात को परवान चढ़ा कर आते थे।
बस, यों मान लीजिए कि 'तब' ग्रामीणों का सैर सपाट (outing) ये ही होता था। उनके लिए गोवा व मुम्बई ये गाँव ही थे।
खीचड़ी (बरात हेतु भोज)
बनड़ी (कन्या) के विवाह में आई बरात को जो भोज दिया जाता है, उसे 'तब' खिचड़ी कहा जाता था। ये वो दौर था जिसमें बरात दो दिन तक दुल्हन के गांव में रुकती थी। चर्चा ये होती थी कि अमुक के विवाह में कितनी खिचड़ी दी? 1960 के दशक में चार खिचड़ी, 70 के दशक में तीन और फिर ज़िंदगी में भागमभाग बढ़ने से 80 के दशक में दो और फिर एक खिचड़ी तक सिमट गई। खेती का सारा काम सलटने के बाद शादी का सीजन शुरू होता था, इसलिए बरात गांव में निश्चिंत होकर रमती थी।
बरात गाँव के कई घरों में, लगभग 10 -15 बराती प्रति घर के हिसाब से, ठहराई जाती थी। उन घरों में चारपाई की व्यवस्था गाँव के हर घर से एक-एक चारपाई इकट्ठा करके कर दी जाती थी। ऊँटों के लिए चारे की व्यवस्था भी उन घरों में पहले कर दी जाती थी। बाकी सारी व्यवस्था करने का जिम्मा घर के मालिक का होता था। घर पर रुके हुए बरातियों को सुबह छाछ-राबड़ी, दही और बाज़रे कि रोटी का कलेवा उस घर वाले ही करवाते थे।
खिचड़ी के पकवान: बरात का दोपहर और शाम का भोजन मांडे/ कन्या की शादी वाले घर में होता था। लड़की के विवाह में लड़की के ताऊ-चाचा बरात के लिए एक-एक टाइम के खाने का जिम्मा लेते थे। ये उधारी-पांति का मामला होता था। भाई-बन्धु आपस में एक-दूसरे की लड़की के विवाह में ऐसा सहयोग करना अपना फ़र्ज़ समझते थे।
खाना एकदम देशी और सादा होता था। बुज़ुर्ग कहते थे कि 1950 के दशक तक तो खीचड़ा,बाजरिया (गुड़ मिलाकर पकाया गया बाजरा), घूघरी (उबला हुआ बाजरा मय शक्कर) आदि बरातियों के लिए पकवान के रूप में परोसे जाते थे। 60 के दशक में लापसी, गांव व आसपास के गांवों से संग्रहित दूध की खीर, गुड़ डले चावल आदि और 70 के दशक में चावल-शक्कर/ देशी खांड, बाद में गुड़ / खांड का हलवा परोसा जाने लगा। कालांतर में लड्डू और साग-पूड़ी ने प्रिय पकवान बनकर गांव में अपने पाँव जमा लिए। लेकिन दुनिया का ये उसूल है कि यहाँ स्थाई रूप से कोई नहीं टिकता। वक़्त बदला और कालांतर में लड्डू को बेदखल कर गाँवों में भी कई प्रकार के व्यंजन अपनी घुसपैठ करने में सफल हो गए।
एक बात और, विवाह आदि के मौक़े पर गाँव में हलवाई या टेंट का कतई प्रवेश नहीं था। खाने की समझ रखने वाले गांववासी ही उस दौर के पॉपुलर पकवान आपसी सहयोग से बना लेते थे। थालियां गाँव के घरों से इक्कठी कर ली जाती थीं। भोजन पंगत में बैठाकर आगे पाटे पर थाली रखकर परोसगारे (परोसिया/परोसने वाले ) द्वारा बड़े लाड़-चाव से परोसा जाता था।
घी का परोसगारा
यादाश्त को खंगालकर 'तब' गाँवों में आयोजित होने वाले प्रीतिभोजों में घी के परोसगारे का चरित्र-चित्रण कर रहा हूँ। 1960 के दशक के आसपास तक घी का परोसकारा गूणिये (नीचे से चौड़ाई लिया हुआ गोलाकार एवं ऊपर से संकड़ा पीतल का बर्तन ) से घी उड़ेलकर थाली में परोसता था। 1970 के दशक के बाद घी परोसने के लिए गूणिये के स्थान पर लोटे का इस्तेमाल किया जाने लगा। बीते दिनों में गूणिये का घरों में दैनिक इस्तेमाल अक्सर पशुओं का दूध निकालने के लिए होता था पर वर्तमान में यह बर्तन घरों में प्रचलन से बाहर हो चुका है। सच तो ये है कि अब ये एक एंटीक आइटम बन चुका है।
जीमणवार में थाली में घी परोसने की जिम्मेदारी किसी रुतबेदार 'चतुर सुजान' गांववासी को सौंपी जाती थी। निःसंदेह वह बड़ा तज़ुर्बेदार व रौबदार होता था। वो कोई पंच-पटेल या चौधर करने वाला ही होता था। भृकुटि उसकी तनी हुई होती थी। मूंछों को अक्सर ताव देकर रखता था।
घी से भरा लोटा लेकर जब वह प्राधिकृत पुरुष (privileged person ) जीमण के आँगन पर अपनी चिर -परिचित शैली में एंट्री करता था तब सभी की नज़रें उस पर टिक जाती थीं। वह आकर्षण का केंद्र (centre of attraction ) बनकर उभरता था। जीमण की पंगत में बैठा हर कोई इस 'पूज्य पुरुष' की कृपा दृष्टि का पात्र बना रहना चाहता था। इस अधिकारवादी पुरुष (possessive person ) की चाल-ढाल में उस दिन ख़ासा बदलाव देखने को मिलता था। मरोड़ व दंभ सातवें आसमान पर। बालकों एवं एरे-ग़ैरे सबको घुड़की देने के अधिकार से सुसम्पन्न होता था। मज़ाल है कोई उसके सामने चूं भी कर सके। सत्ता-सम्पन्न शख्स अपना जलवा कैसे बिखेरता है, ये दृश्य उस समय साक्षात देखने को मिल जाता था। उसकी हां में हां मिलाने में ही सब अपनी भलाई समझते थे। कोई उससे नाराज़गी मोल लेने की गुस्ताख़ी नहीं करता था।
असल में घी का परोसिया मुंजी (कंजूस/मितव्ययी) क़िस्म का आदमी होता था। खुर्राट क़िस्म का आदमी होता था वो। बच्चों व औरतों से दबी जुबान में उसकी रूँगस या पक्षपात (favouritism) के किस्से भी यदाकदा सुनने को मिलते थे। वह जीमण की पंगत में बैठेने वाले की 'हैसियत' को नाप-तौल कर उसकी थाली में घी परोसता था। यों कह सकते हैं कि वह भलीभांति जानता था कि किसकी थाली में कितना घी उड़ेलना है।
दीवाना बादल तो नहीं जानता कि किस छत को भिगोना है और किस छत से बच निकलना है। पर 'तब' का घी का परोसिया तो भलीभांति जानता था कि किस थाली को घी से तरबतर करना है और किस थाली पर कुछ छींटे डालकर जल्दी से आगे बढ़ जाना है। बड़ो पर नज़रें इनायत जबकि छोटों को नजरअंदाज करने में पारंगत। ख़ास और आम में फ़र्क करना वो बख़ूबी जानता था। बड़े-बुज़ुर्गों और ख़ास रिश्तेदारों की थाली पर पहुंचते ही वह बड़ा उदार दिल हो जाता था। लेकिन बच्चों व औरतों की थालियों के पास पहुंचते ही उस पर कंजूसीपना हावी हो जाता था। यह भी कि वहाँ उसकी आगे बढ़ने की गति के पंख लग जाते थे।
सर्दी की रुत में किसी जीमणवार में बेचारा कोई सीधा-साधा आदमी सर्दी से बचाव करते हुए भाखला ओढ़कर थाली पर बैठा होता था तो वो खुर्राट घी परोसिया भाखला ओढ़े आदमी को एरा-गैरा आदमी समझकर उसकी थाली में कम घी उड़ेलता था। शायद ऐसी ही किसी कटु अनुभव से गुज़रे भावप्रवण व्यक्ति ने ये दोहा रचा होगा:
- "भाखल मेरो रंग-रंगीलो गुण गोविंद का गावे,
- मेह-आंधी टाल़े पण ओ तो घी थोड़ो घलावे।"
घी पर कहावतें
'तब' भोजन में घी की प्रमुख भूमिका होने के कारण इस पर कई कहावतें प्रचलित हुईं। पकवान के रूप में अक़्सर खिचड़ी या चावल बनते थे और उस पर घी- शक्कर परोसा जाता था। कुछ कहावतें बानगी के तौर पर पेश हैं:
"घी घल्योड़ो तो अँधेरा में बी छानों कोनी रैवे !" अर्थात थाली में घी की मौजूदगी का अहसास अँधेरे में भी आसानी से हो जाता है। आशय यह है कि अच्छाई या क़ीमती चीज़ अपनी मौजूदगी का अहसास किसी भी स्थिति में करवाने में सक्षम होती है।
'पांचों अंगुलियाँ घी में' अर्थात बल्ले- बल्ले होना। ख़ूब खुशहाली की स्थिति में होना।
'तेरे मुँह में घी-शक्कर होना' यानी काश! आपकी बात सही हो! भगवान करें, आप जो कह रहे हैं वो सच साबित हो May it happen what you said! मानव स्वभाव को रेखाँकित करने के लिए घी पर आधारित ये कहावत भी प्रचलित है:
" दूसरे की थाली में घी ज़्यादा दिखे।"
नेगचार (परंपरागत विवाह की रस्में) (जारी)
मेळ/ बढ़ार (प्रीतिभोज): फेरों के अक़्सर पहले दिन बनड़े के परिजनों द्वारा दिया जाने वाला प्रीतिभोज को आम बोलचाल की भाषा में मेळ/बढार कहा जाता है। 'तब' मेळ में आमतौर पर घर के सामर्थ्य के अनुसार पकवान पकाया जाता था। सामान्यतया मेळ में वैसे ही पकवान बनाए जाते थे, जो कन्या के विवाह में खिचड़ी में बनाए जाते थे। इसका विवरण कन्या की शादी में दी जाने वाली 'खिचड़ी' के अंतर्गत ऊपर दिया गया है।
सेळा/ कोरथ (सहेला): इस रस्म अदायगी में विवाह के सूत्र में बंधने वाली बनड़ी के परिजन दूल्हे के मांगलिक टीका लगाते हैं और नेगचार करते हैं। पहले ये रस्म गांव के गुवाड़ में दरी बिछाकर की जाती थी। आजकल जहाँ बारात रुकती है, उसी डेरे पर यह रस्म अदायगी कर दी जाती है। इसी रस्म के दौरान दूल्हा-दुल्हन पक्ष से दोनों समधी गले मिलते हैं। इसे मिलनी कहते हैं।
तोरण मारना: तोरण लकड़ी का बना हुआ होता है और इसमें पांच चिड़ियाँ बनाई हुई होती हैं। तोरण एक प्रकार का मांगलिक चिह्न है। पहले ये गांव का खाती बनाकर लाता था। 'तोरण मारने' की रस्म दुल्हे द्वारा बनड़ी के घर के दरवाजे पर निभाई जाती है। दूल्हा जब बरात लेकर बनड़ी के घर पहुँचता है तो घोड़ी पर बैठे हुए ही घर के दरवाजे पर बँधे हुए तोरण को तलवार से छूता है, जिसे तोरण मारना कहते हैं।
तोरण मारने की इस रस्म अदायगी के दौरान महिलाएं मांगलिक गीत गाती हुई दरवाज़े पर उपस्थित रहती हैं।
- कांकङ आयो राईबर अंबर थर थर कांप्यो राज
- बूझो सिरदार बनी ने, कामण कुण करया है राज।'
दूल्हा घोड़ी से उतर कर चौकी पर खड़ा होता है। सास तिलक करके, दही लगाकर चांदी का रुपया दूल्हे के मस्तक के लगाती है। थाली में रखे नैतरे/नैतणे (बिलोवने की रस्सी जो पहले चमड़े की होती थी) से दूल्हे की छाती को नापती है। इसके बाद दूल्हे के कोट/ शेरवानी पर लगी तणी को खोलकर थाली में रखती है। इस रस्म अदायगी के दौरान दूल्हे के जिज्ञासु दोस्त व हमउम्र परिजन पीछे खड़े मुलकते (मुस्कान बिखेरते) रहते हैं। इस रिवाज का संबंध शाही परंपराओं से है। दुल्हन के संबंधी स्त्रियाँ इस नेगचार के दौरान दूल्हे का पूरा निरीक्षण और मूल्यांकन करती है। छाती मापने की पीछे मक़सद दूल्हे की बाहादुरी और हिम्मत आंकना है। इसे यों भी समझ सकते हैं कि यह रस्म बनड़ी के घर में दूल्हे का एक तरह का एंट्री पास है। दूल्हे के तोरण मारने के एक सबूत के रूप में दूल्हे के कोट पर लगी तणी खोलकर सुरक्षित रखी जाती है।
नीम झुंआरी:
हथलेवा: विवाह में फेरों के समय दूल्हे के बायं हाथ की ओर दुल्हन को बिठाया जाता है। अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में भी पत्नी को पति के बायें तरफ बैठाए जाने का रिवाज़ है। मौली (कलाई पर बांधे जाने वाला लाल लाल धागा) भी स्त्रियों के बायं हाथ पर ही बांधी जाती है। फेरों के दौरान दूल्हा-दुल्हन का हाथ दूल्हे के हाथ में पकड़वाने की रस्म है। पाणिग्रहण संस्कार की यह खास रस्म है। दोनों के हाथ आपस में मिलाकर उसके चारों ओर कपड़े में गांठ लगा दी जाती है।
गठजोड़ा/गंजोडा: अग्नि के समक्ष सात फेरे लेने से पहले दूल्हा-दुल्हन का गठजोड़ा किया जाता है। दरअसल गठजोड़ा की रस्म के पीछे बहुत गहरी सोच छुपी है। विवाह संस्कार का प्रतीक गठजोड़ा है। विवाह के समय सात फेरे लेते समय दूल्हे के कंधे पर दुपट्टा रखकर दुल्हन के साड़ी के पल्लू से बांधा जाता है। यही गठजोड़ा है। जिसका अर्थ यह है कि अब दोनों एक दूसरे से जीवन भर के लिए बंध गए हैं।
फेरा (सप्तपदी): विवाह-संस्कार में फेरे (पाणिग्रहण संस्कार) की रस्म सबसे महत्वपूर्ण होती है। इसे विवाह-संस्कार का चरमोत्कर्ष (climax ) कहा जा सकता है। ज़िंदगी का सबसे ख़ास पल भी। ज़िंदगी की यात्रा का एक ऐसा टर्निंग प्वाइंट जो जिंदगी की दिशा व दशा दोनों बदल देता है। ये वो घड़ी है, जिसका असर दो इंसानों की ही नहीं अपितु दो परिवारों की जिंदगी पर जिंदगी भर देखने को मिलता है।
दुल्हन के घर पर रोपे गए मांडे/ थाम्भ के नीचे चँवरी सजाई जाती है। पंडित जी द्वारा हवन-वेदी प्रज्जवलित कर उसमें मंत्रोचार के साथ आहुति दी जाती है। मंत्रोच्चारण के बीच अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मानकर दूल्हा-दुल्हन तन और मन से एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। औरतें मंगल गीत गाती हैं। पहले तीन फेरों में दुल्हन आगे रहती है और पंडित जी के निर्देश में दूल्हा-दुल्हन चँवरी की तीन परिक्रमा लगाते हैं। चौथी परिक्रमा में दूल्हा आगे होकर परिक्रमा करता है। दुल्हन का मामा सेवरा देता है।
सेवरा का गीत
- मामो बाई का सेवरड़ा बल दैसी
- बनड़े सू पैली बनड़ी न दैसी
- मामोजी म्हारो अजरावला होसी
- मामीजी म्हारी बूढ़ सुहागण होसी।
फेरों का गीत
- पहलो फेरो लाड़ी, दादा, ताऊजी री प्यारी।
- दूजो तो फेरो लाड़ी, पापा, चाचीजी री प्यारी।
- तीसरा तो फेरो लाड़ी, भैया, मामाजी री प्यारी।
- चौथा तो फेरो लाड़ी, जीजा, फूफाजी री प्यारी।
- पांचवो तो फेरा लाड़ी, नानाजी री प्यारी।
- छठवें तो फेरा बन्नी, बन्ना री प्यारी।
- सातवों तो फेरा, बन्नी हुई है पराई।
(गीत के बोल स्पष्ट करते हैं कि किस तरह एक-एक फेरे के साथ कन्या (बनड़ी) 'अपनी' से 'पराई' होती जा रही है। पास वालों से चरणबद्ध तरीके से दूर वालों की ओर प्रस्थान करने का उल्लेख इस गीत में है। )
सात फेरे लेकर अग्नि को साक्षी मानकर पंडित के मंत्रोच्चार पर दूल्हा-दुल्हन एक - दुसरे को पति - पत्नी के रूप में स्वीकार करते हैं।
कन्यादान: कन्या (बनड़ी) के पिता द्वारा कन्या का हाथ वर के हाथ थमा दिया जाता है और परिजनों द्वारा इस अवसर पर कन्यादान के रूप में दी गई राशि भी वर पक्ष को सौंप दी जाती है।
कंवर कलेवा: इस रस्म की अदायगी में इलाक़े व जाति के हिसाब से भिन्नता है। चूरू और इसके आसपास के इलाके की किसान जातियों में रात को फेरा सम्पन्न होने के बाद सुबह वधू को विदा करने से पहले वर को जो कलेवा कराया जाता है, उसे 'कंवर कलेवा' कहते हैं। कुछ जातियों व इलाके में बरात पहुंचने पर दुल्हन के घर तोरण मारने से पहले जो नाश्ता/ कलेवा कराया जाता है उसे कंवर कलेवा कहते हैं।
बरी-पडळा: समठूणी से पहले वर-पक्ष की ओर से वधू के लिए जो गहने, मेवे ,मिठाई, फल और वस्त्र उपहार स्वरूप दिए जाते हैं उसे बरी-पडला कहते हैं। फेरों के समय दूल्हा-पक्ष की ओर से प्रदत परिधान को पहनकर ही दुल्हन फेरे लेती है। पडले में दुल्हन की पोशाक – लहंगा, ब्लाउज, साड़ी एवम् श्रृंगार का सामान (कांच, कंघा, टीकी, नेल-पॉलिश, लिपस्टिक, काजल की डिब्बी, रिबन वगैरा) थालियों में सजाकर लाए जाते हैं जिनमें पतासे और खारक, मिस्री, खोपरे आदि रखे रहते हैं । दुल्हन द्वारा पहनी जाने वाली पोशाक को बरी कहते हैं। भेंट किए गए कपड़ों को 'पड़ले का बेस' कहते हैं और इसे फेरों के समय इन्हें पहना जाता है। दूल्हा-दुल्हन द्वारा पहने जाने वाली जूतियां अर्थात फुटवियर को बिनौटा कहते हैं।
समठूणी / पहरावणी : बरात की विदाई से पूर्व दुल्हन पक्ष द्वारा विवाह में दूल्हे पक्ष को दिए गये दहेज का दिखावा समठूणी कहलाता है। दायजा ( दहेज़ ) में डिजाइनदार बुनावट का ''माचा( चारपाई ) व 'पीढ़ा, चरखा, कांसी का बाटका ( कचौला ) व थाली, बाल्टी, पीतल की टोकणी, एक दुधारू पशु, खेती के काम व परिवहन के लिए टोरड़ा ( young he camel ) या टोरड़ी ( young she camel ) दिए जाने का रिवाज़ था। पढ़ाई करने वाले लड़कों को 1975 के आसपास दहेज़ में फिलिप्स का ट्रांजिस्टर ( जिसका लाइसेंस लेकर उस पर देय एंटरटेनमेंट फीस हर साल पोस्टऑफिस में जमा करवानी होती थी ) व एच. एम. टी. की कलाई पर बांधने की घड़ी भी दी जाने लगी। याद आता है कि 1975 में कॉलेज में पढ़ने वाले हमारे एक सहपाठी को उसके फ़ौजी ससुर ने दहेज़ में बाइसिकल दी थी। विस्मय के साथ इसकी चर्चा कई दिनों तक होती रही। इससे स्पष्ट है कि 'तब' और 'अब के दहेज़ के सामान में आमूलचूल परिवर्तन आ चुका है।
दहेज़ में दुल्हन के परिजन अपने सामर्थ्य के अनुसार कांसी के कचोले में नगद राशि भी मौली में लपेटकर दूल्हे के परिवार के बुज़ुर्ग को दी जाती है। इसी दौरान वधू पक्ष द्वारा वर व उसके परिजनों का सम्मान करते हुए उनकी झूंआरी (तिलक कर नक़द राशि देने की परंपरा) की जाती है और साथ में उन्हें कम्बल ओढाई जाती है। सगे-संबंधियों को टीका (तिलक) निकालते वक़्त वर के परिवार में उनकी हैसियत/ प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए झूंआरी की रकम दी जाती है। नज़दीकी व बुज़ुर्गों को ज्यादा तथा जवान-बच्चों को कुछ कम । शायद ऐसी ही स्थिति को ध्यान में रखते हुए "मुँह देखकर टीका काढ़ना" वाली कहावत प्रचलित हुई होगी।
पहरावणी लेते समय जब समधी पाटे/ चौकी पर बैठते हैं तो महिलाएं चुहलबाजी करती हुई ये गीत गाती हैं:
- सगो जी बैठ्या पटड़ै, पहरावणी मांगै
- पैर नाचण को घागरो, घमकावत डोलै
- जूंवा भरियो घाघरो, झड़कावत डोलै
- बेटी को बाप लखेसरी, पहरावणी देवै
बेटे को बाप तपेसरी, पहरावणी लेवै
- चुहलबाजी की धार देखिए।
- (गीत में शब्द-चयन और तुकबंदी दोनों मनोरंजक हैं।)
विदाई: 'तब' विवाह के बाद ऊँटों पर बरात की वापसी के समय का दृश्य भी अनूठापन लिए होता था। स्पष्ट है कि विवाह के बाद दूल्हे को ससुराल में जंवाई शब्द से संबोधित किया जाता है। मांडे वाले घर के आगे परिवार की महिलाएं जंवाई की झुँवारी करने के लिए इक्कठी होकर गीत गाती थीं। ऊँट सवार अपने ऊँट पर जंवाई को सवार करवाकर ऊँट को दौड़ाते हुए मांडे के घर तक लाता था और ऊँट पर बैठे हुए जंवाई को मांडे वाले परिवार की महिला झुँवारी के रुपये पकड़ा देती थी। उस ऊँट को फिर वहाँ से दौड़ाकर गली के अगले छोर तक ले जाया जाता था। वहाँ से फिर दौड़ते हुए ऊँट वापिस लौटता था। वापिस घर के द्वार पर पहुंचते ही परिवार की दूसरी महिला जँवाई की झुँवारी करती थी। ऊँट को फिर दौड़ाकर दूर ले जाया जाता था और दौड़ाकर ही वापिस लाया जाता था। एक-एक करके परिवार की सभी महिलाओं द्वारा जँवाई की झुँवारी इसी तरह करने तक ये क्रम बीसों बार ऐसे ही दोहराया जाता था।
- बनड़ी छोड़ दादोजी री आंगली
- लाडली छोड़ दादीजी रो हेत
- कोयल बाई सिध चाली
- म्हे थाने बुझा म्हारी कंवर बाई
- लाडली किस्यो ए बापूजी रो हेत
- कोयल बाई सिध चाली
- लाडली आयो सगा को सुंवटो
- लेग्यो टोली म से टाल
- कोयल बाई सिध चाली।
(दादा-दादी, माँ- बाप के लाड़-प्यार की छांव में पली- बढ़ी लाड़ली सबसे हेत तोड़कर जन्म-घर से अपने 'पिया' ( पति ) संग प्रस्थान करती है तो गीत के माध्यम से औरतें पूछती हैं कि 'कोयल बाई' कहाँ जा रही हो? फिर समधी के सुंदर बेटे की सराहना करते हुए कहती हैं कि उसने टोली में से सबसे सुंदर और गुणी को अपनी जीवनसंगिनी चुना है। ) वर-वधू दोनों गठजोड़ किए हुए घर से रवाना होते हैं।
कुछ अन्य जगहों पर यह बिदाई गीत निम्नानुसार गाया जाता है:
- लाडेली छोड़ दादाजी रो हेत
- हेत लगाई रे बाळक बीन से,
- लाडेली छोड़ बाबाजी रो हेत
- हेत लगाई रे बाळक बीन से,
- लाडेली छोड़ काकाजी रो हेत
- हेत लगाई रे बाळक बीन से,
- लाडेली छोड़ मामाजी रो हेत
- हेत लगाई रे बाळक बीन से,....
इस प्रकार इस गीत में बेटी को विदा करते हुये समझाया जाता है कि वह अब अपने परिजनों से मोह के बंधन को छोड़ते हुए अपने पति से हेत को प्रमुखता प्रदान करे। ऊँट पर नव वधू की सवारी: मांडे के घर से विवाह के बाद नव वधू जब ससुराल के लिए प्रस्थान करती थी तो उसे बरात में आए परिवार के स्याणे (समझदार) आदमी के साथ पूरी तरह नियंत्रण में रहने वाले ऊँट पर बैठाया जाता था। बता दें कि उस दौर में महिलाओं के घाघरे का घेर अधिक होता था। छः या सात पल्लों का घाघरा जरूर होता था ताकि उन्हें ऊँट पर सवार होने में सहूलियत हो सके।
बीनणी (वधु) का ससुराल में आगमन: वर जब वधू के साथ अपने घर पहुंचता है तो घर-परिवार में उल्लास छा जाता है। औरतें यह गीत गाती दरवाजे के पास पहुंचती हैं:
- केसरियो बनड़ो जीत्यो जी,
- ओ तो जित्यो-जित्यो दादोजी के पाण
- केसरियो बनड़ो जित्यो जी,
- ओ तो जित्यो-जित्यो बापूजी रे पाण,
- केसरियो बनड़ो जीत्यो जी।....
दूल्हे की अगुवाई में बरात की रवानगी एक तरह से रणभूमि की ओर बढ़ने और वहां विजयश्री हासिल करने का सा उपक्रम होता है। दुल्हन का वरण करने के पश्चात जब दूल्हा जीत का सेहरा बांधकर अपने घर लौटता है तो इसे जीत घोषित कर उसकी इस जीत में उसके दादा-पिता व अन्य परिजनों के योगदान का बखान इस गीत में किया गया है।
दूल्हे के माता-पिता दोनों वर-वधू को बड़े लाड़-प्यार से हाथ पकड़कर वाहन से उतारते हैं। वधू की नणद आरते की थाली लेकर वर-वधू का आरता करती है। उस समय निम्न गीत गाया जाता है:
- भवड़ हेलो मारियो,
- सुसरोजी.... थे जागियो जी।
- भवड़ हेलो मारियो,
- सुसरोजी... थे जागियो जी।
- भवड़ हेलो मारियो,
- जेठजी... थे जागियो जी।
संकट के समय नव वधू द्वारा आह्वान करने पर परिजनों को उसकी रक्षा के लिए तत्पर रहने की बात इस गीत में कही गई है।
बाड़ (बार/द्वार रुकाई): वर जब वधू को लेकर घर में प्रवेश करता है तो उसकी बहिन दोनों हाथ फैलाकर बाड़ रुकाई मांगती है। उन्हें घर में तब तक प्रवेश करने नहीं देती जब तक उसे मुँह माँगा नेग नहीं दिया जाता। वर के पिता को इस अवसर पर अपनी अंटी ढीली करनी पड़ती है।
वर-वधू के घर के आँगन में प्रवेश करने से पहले वहाँ सात थालियां रख दी जाती हैं। वर- वधू दोनों धीरे-धीरे थालियों की ओर बढ़ते हैं। दूल्हा अपनी कटार से थाली को एक तरफ खिसकाता चलता है। गठ-जोड़ा में जुड़ी वधू थालियां एक-एक कर उठाती है। इस रस्म के ज़रिए शायद यह परख की जाती है कि नवेली वधू का घरेलू काम करने के सलीका कैसा है? अगर थालियां धीरे से बिना आवाज़ किए उठाकर रखी जा रही हैं तो संकेत मिल जाता है कि वधू तहज़ीब को तरज़ीह देने वाली है।
- ना खड़काई ना भड़काई
- सास-बहू म होई लड़ाई
- ना खड़काई ना भड़काई
- बहू ए म्हारी चतर आई।
इस गीत के माध्यम से नवेली वधू को ससुराल में सौहार्दपूर्ण माहौल बनाए रखने की सीख दी गई है। घर में कोई तक़रार होने पर वह भड़काने या खड़काने से ख़ुद को दूर रखे, ऐसी सलाह भी इस गीत में समाहित है। तदुपरान्त वर-वधू दोनों थापे के पास जाकर पूजा करते हैं।
सुहागरात: सुहागरात को वर के घर में रातिजगा दिया जाता है। सुबह नवेली वधू सास के पास पहुंचकर, पाँव छूती है। सास ये आशीर्वाद देती है: ' बूढ़ सुहागण हो, दूधा न्हावो, पूतां फलो।' अर्थात वह सदा सुहागिन रहे, घर में दूध की भरमार रहे और पुत्र प्राप्ति से घर फलता- फूलता रहे!
पेसगारा/ सुहागथाल (पैैसारा) व कुल देवता पूजा: वधू जब वर के घर पहुंच जाती है तो उसके अगले दिन पेसगारा/ सुहागथाल (पैैसारा) व कुल देवता की धोक लगाने की रस्में पूरी की जाती हैं। इस दिन वर पक्ष की ओर से भाई-बंधुओं व सगे- संबंधियों को जो भोज दिया जाता है उसे पेसगारा/ सुहागथाल' कहते हैं। सुहागथाल एक खास लोकाचार है, जिसमें घर की सभी औरतें एक साथ एक थाल में भोजन करती हैं।
देवी-देवता की धोक: विवाह सांई-सेती (बिना किसी विघ्न के) सम्पन्न हो जाने पर देवी-देवताओं के धोक लगाई जाती है। घर पर नवेली वधू के आगमन पर वर के परिजन वर-वधू को देवरों पर ले जाकर देवी- देवताओं की धोक दिलवाते हैं। इस अवसर पर लापसी-चावल पकाया जाता है। इसी दिन वर-वधू वर के गाँव के सभी मन्दिरों में जाकर धोक लगाने जाते हैं। महिलाएं साथ चलते हुए मांगलिक गीत गाती हैं:-
- कूण चिणायो ओ बालाजी थारो देवरो, कुण दिराई गज नींव
- बाबा बजरंग जी रो बंगलो हद बण्यो
- राजाजी चिणायो म्हारो देवरो, सेवंगा दिरायी गज नींव
- बाबा बजरंग जी रो बंगलो हद बण्यो
- जातण आवै थारे कुल बहू, गोद झडूला जी पूत
- बाबा बजरंग जी रो बंगलो हद बण्यो
- जातरी तो आवे थारे दूर का, सांवलिया मोट्यार
- बाबा बजरंग जी रो बंगलो हद बण्यो
- चढ़े-चढ़ावै थारे चूरमो, रोक रुपईयां री भेंट
- बाबा बजरंग जी रो बंगलो हद बण्यो
सोटा-सोटी खेलना: सुहागथाल के दिन ही 'तब' वर-वधू के बीच की शर्म-झिझक को दूर करने हेतु 'तब' उनके मध्य कुछ खेल आयोजित करवाये जाते थे! उनमें प्रमुख था सुटकी/ सोटा-सोटी (बेंत मारना) का खेल। इस खेल में ज़ाळ के पेड़ की हरी लचीली डाली (शाखा) तोड़कर उसे बेंत के रूप में इस्तेमाल करते हुए उससे एक दूसरे को सात-सात सुटकी मारते थे! वर की भाभी वर-वधू दोनों के हाथ में जाल की बेंत पकड़ा कर दोनों को चक्कर लगाते हुए एक दूसरे पर उसका वार करने को कहती थी। नव-नवेली वधू को पति थोड़ा तेज से बेंत मारता था जबकि वधू बहुत धीरे-धीरे अपने पति को बेंत मारती थी।
यह रस्म पत्नी की अपने पति के प्रति सहृदयता को इंगित करती है। आज की पीढ़ी इसे यों समझ सकती है कि उस दौर में ये रस्म वर-वधू की एक क़िस्म की रैगिंग थी। वधू अपने देवर के साथ भी सुटकी खेलती थी।
वर-वधू जब एक दूसरे का कांकड़-डोरड़ा खोलते हैं तब वर को एक हाथ से और वधू को दोनों हाथों से खोलने की इजाजत होती है। कांकड़-डोरड़ा खोलने के बाद दही और पानी से भरे मिट्टी के बर्तन में वर की भाभी चाँदी की अंगूठी और कांकड़-डोरड़ा डाल देती है। वर-वधू को उसमें से अंगूठी ढूँढने को कहा जाता है। जो ज्यादा बार ढूँढता है, जीत उसकी मानी जाती है। इसके बाद वर द्वारा यही अंगूठी वधू को पहना दी जाती है। वर इस कांकड़-डोरड़ा को अपनी माँ को सौंप देता है। वर की माँ कांकड़-डोरड़ा को अपने लूगड़े के पल्ले में ले जाती है और इसे मिट्टी के कलश में संभाल कर रखती है।
मुँह-दिखाई: पेसगारा/ सुहागथाल के दिन पगा लागणी (पाँव छूना) परंपरा के तहत जब नवेली वधू अपने सास-ससुर व ससुराल पक्ष के अन्य लोगों के चरण- स्पर्श करती है तो वे आशीर्वाद देकर उसको कुछ रुपए देते हैं, उसे मुंह दिखावणी कहते हैं। पग पकड़ाई रस्म के तहत जब नवेली वधू ससुर के पाँव पकड़ती है और ससुर उसको कुछ कुछ धनराशि देता है।
पीहर के लिए विदाई: नवेली वधू को उसका भाई ससुराल से लाने आता है। ससुराल पक्ष की औरतें उसे ये बधावा गीत गाकर विदा करती हैं:
- पहले बधावे ए सईयो मोरी म्हे गया गया राज
- गया म्हारे बाबोजी री पोल, मोरी सईयो ए
- चढ़ती बहू न ए सूण भला होया राज.....
फेर मोहड़ा: सुहागथाल के अगले दिन वर दुबारा अपने ससुराल जाता है, उसे फेर मोहड़ा/ पिछोकड़ कहते हैं। ससुराल में पहुंचते ही जंवाई के सम्मान में गीत आंखड़ली गीत गाए जाते हैं और ख़ूब मनुहार की जाती है।
आंखड़ली गीत: यह गीत महिलाओं द्वारा जंवाई के ससुराल आने पर गाया जाता है. पहली बार जब जंवाई ससुराल आता है तब उसके घर में पैर रखते ही यह गीत शुरू किया जाता है. बाद में जब वह ससुराल आता है तो यह गीत रात के समय गाया जाता है.
फेर मोहड़ा के अगले दिन जब जंवाई अपनी नवविवाहिता पत्नी को अपने घर ले जाता है तो वहाँ ये बधावा गीत गाया जाता है:
- म्हारे आंगण आय, पिछोकड़ मरवौ-- ओर घर सदा ए सुहावणौ
- तू चाल लिछमी जा घर चाला, जा घर बधावणा
- जठै बड़ा नै' र बड़ाई देस्या, दूणो सो मान सवासण्या
- कुल बहुआ ने आदर दीस्या, सास- नणद गुण मानस्या
- म्हारे गाय गवाड़ै, भैंस बाड़े, सोवण थाम बिलोवणो
- बिलोवणौ म्हारे घेर घमके, आंगण छबके कुल बहू
- सुखसैज सायब पूत जायो, करो ना राजीनड़ा मनरली संसार को सुख आज देख्यो, धीय जंवाई लेय गयो
- सुखवर नींद आज लेस्या, धीय परण घर पूगगी।
इस गीत में बेटी को जंवाई के साथ भीर (विदा) करते समय माता-पिता उसे अपने ससुराल में सास-ससुर, नणद आदि सभी को मान-सम्मान देने तथा सभी घरेलू काम मुस्तैदी से करने और कुल का मान बढ़ाने की सीख दी गई है। विवाह के बाद बेटी अपने ससुराल पहुंचकर सुखी रहेगी, इस बात से आश्वस्त होकर माता -पिता कहते हैं कि वे अब सुख की नींद सो सकेंगे क्योंकि उनकी बेटी परणाई जा चुकी है और वह ससुराल में सुख-समृद्धि के साथ रहेगी। )
ऊँट पर महिला के बैठने का आसन- ऊँट पर महिला के बैठने का आसन परिपाटी से निर्धारित था। परिजन बेटी को विदा करने के लिए गाँव के बाहर तक आते थे। औरतें गीत गाते हुए बेटी को घर से साथ लेकर आती थीं। गाँव के बाहर ऊँट को बैठाकर बेटी व जंवाई को विदा करते थे। ऊंट पर पति आगे के आसन पर सवार होता था और पत्नी पीछे के आसन पर। इससे राहगीरों व रास्ते के गांववासियों को पता चल जाता था कि ऊँट पर सवार महिला-पुरुष का संबंध क्या है? गाँव में प्रवेश करने से पहले वे दोनों ऊँट से नीचे उतर जाते थे और वहाँ से पैदल ही घर तक आते थे। ऊँट पर सवार महिला-पुरुष का पति-पत्नी के अलावा अन्य कोई संबंध होने की स्थिति में महिला ऊँट पर आगे के आसन पर तथा पुरुष पीछे के आसन पर सवार होता था।
चूरमें की चहलक़दमी- पीहर या ससुराल से आते समय हर महिला अपने साथ बाज़रे की रोटियों में गुड़ डले चूरमें की भरपूर मात्रा फटे हुए ओढ़णे के कपड़े में बांधकर लाती थी। 'तब' गाँव में सर्वसुलभ मिठाई ये ही होती थी। घर पहुंचते ही परिवार व पड़ौस के घरों में इस चूरमें की हाँथी( share हिस्सा ) पहुंचाया जाता था। इससे उस महिला के आगमन की सूचना आस पड़ोस में पहुंच जाती थी। उस चूरमें में प्रयुक्त घी व गुड़ की मात्रा के आधार पर उस महिला की माँ या सास के कंजूसीपने या उदारता की चर्चा होती थी।
जाखड़ी गीत:
कोठयार बुहारना: विवाह सम्पन्न होने के बाद नवेली वधू का ससुर अपने नवविवाहित बेटे के ससुराल जाकर बरात आदि के लिए पकवान रखने के लिए नियत किए गए कोठयार (स्टोर रूम ) में शेष बची हुई मिठाई आदि का अवलोकन करता है। फिर उसकी साफ़-सफ़ाई करने की रस्म अदायगी करता है। इस अवसर पर उसके समधी उसे तिलक लगाकर कुछ रुपये देते हैं।
मुकलावा: वधू वयस्क/ सयानी होने पर मुकलावा की रस्म अदा की जाती है और इस रस्म के साथ ही पति- पत्नी के रूप में उनके सामाजिक जीवन की शुरुआत मानी जाती है। मुकलावे की रस्म के बाद वधू का अपने ससुराल में विभिन्न अवसरों पर आना- जाना औपचारिक रूप से अनुमत होता है। मुकलावा वस्तुतः द्विरागमन है। विवाह के बाद पति द्वारा पहले-पहल अपनी पत्नी को उसके मायके से अपने घर ले जाने की रस्म है।
मुकलावे की रस्म को पूरा करते समय ससुराल पक्ष को लाग ( नेग/देज) देनी होती है। आजकल विवाह और मुकलावा साथ ही कर दिए जाते हैं। समठूणी के वक़्त इस पेटे वर पक्ष को देज दे दिया जाता है। 'तब' मुकलावे की रस्म आमतौर पर एक साल बाद ही सम्पन्न की जाती थी अर्थात विवाह के बाद वधू एक रात ससुराल में रुकने के बाद वापिस पीहर चली जाती थी और दुबारा अपने ससुराल एक साल बाद मुकलावा किए जाने के बाद ही आती थी। तब तक वधू का अपने ससुराल आना- जाना सामाजिक रूप से संस्तुत नहीं था। वधू की उम्र कम होने की स्थिति में जब वधू उम्र में बड़ी हो जाती थी तो उसका वर अपने कुछ परिजनों के साथ ससुराल पहुंचकर उसे अपने घर ले आता है, इसे गौना भी कहते हैं।
कहावतों का समावेश क्यों?
लेखन को सलौना, सरस और जीवंत बनाने के लिए कहावतों का सहारा लिया गया है। मनुष्य जीवन का सदियों से संचित अनुभव को कहावतों की जननी कहा जाता है। कहावतें लोक जीवन की कोई न कोई घटना से उपजी हैं। वे न केवल मानव जगत को सीख देती हैं बल्कि नीति शास्त्र की तरह जीवन के समस्त कार्य- कलापों पर आधारित हैं।
राजस्थानी भाषा का भंड़ार कहावतों से समृद्ध है। इस आलेख में बात को सशक्त बनाने के लिए कई जगह राजस्थानी कहावतों का प्रयोग किया है। अंत भी राजस्थानी की इस कहावत के साथ करना चाहूंगा:
"ब्याव बिगाड़े दो जणा, के मूंजी के मेह, बो धेलो खरचे न'ई, वो दड़ादड़ देय!" अर्थात विवाह के उत्सव को बिगाड़ने व उसके रंग में भंग डालने में या तो कंजूस का कंजूसीपना या फिर मेह ( वर्षात) की ताबड़तोड़ मार जिम्मेदार होती है।
✍️✍️ हनुमाना राम ईसराण H R Isran रिटायर्ड प्रिंसीपल, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान
चित्र गैलरी
-
ऊँट पर सवार बीन-बीनणी
-
ऊँट पर सवार बीन-बीनणी