Krishi Kshetra se Jude Teen Naye Kanoon-2020

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लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

कृषि क्षेत्र से जुड़े तीन नए कानून-2020

 

केंद्र सरकार ने 5 जून 2020 को एक पुराने कानून (आवश्यक वस्तु अधिनियम EC Act 1955 ) में संशोधन सहित दो नए कानूनों "द फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स प्रमोशन एंड फेसिलिएशन FPTC 2020)" और "फार्मर एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्युरेंस एंड फार्म सर्विसेज आर्डिनेंस FAPAFS 2020)” को अध्यादेश के जरिए लागू किया। बाद में सितंबर माह में आनन- फानन में विपक्षी दलों के भारी विरोध के बावजूद इन अध्यादेशों को संसद में पास करवाकर इन्हें कानूनी जामा पहना दिया। आपदा में अवसर झपटने की इससे बड़ी मिसाल और कोई नहीं हो सकती। सरकार ने किसान संगठनों से चर्चा किए बिना कॉरपोरेट्स के इशारे पर ये किसान हितों के विरोधी कानून पास करवाए। किसानों को गुमराह करने के लिए कहा गया कि इससे किसानों को उनकी उपज के सही दाम मिलेंगे और उनकी आय में बढ़ोत्तरी होगी। ये सिर्फ दावा है। हक़ीक़त इससे एकदम उल्टी है। 

गुमराह करने के लिए कहते हैं कि किसानों की आय दुगुना करेंगे। कोई उनसे पूछे, किसान की आय कितनी है? हक़ीक़त तो ये है कि खेती घाटे का सौदा साबित हो चुकी है। गाँवों में जीवनयापन का कोई और काम नहीं है, इसलिए घाटा सहन कर सारा परिवार खेती में हाड़-मांस गलाने को मजबूर है। खेती से होने वाली शून्य आय का दुगुना शून्य ही होता है । हाँ, कॉरपोरेट घरानों को कृषि क्षेत्र में मिल रही छूट एवं सरकार की किसान विरोधी नीतियों की मार से आने वाले वक़्त में खेती में घाटा जरूर दुगुना हो जाएगा।

राजस्थान के किसान मसीहा स्वर्गीय चौधरी कुम्भाराम आर्य के शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा जा सकता है कि ये कानून किसान की कोहनी पर सरकार द्वारा लगाए गए गुड़ के मानिंद हैं। हक़ीक़त तो ये है कि ये तीनों कानून किसानों के स्वाभिमान को ख़त्म करने वाले हैं। उनकी कमर को तोड़ने वाले हैं। कैसे? इन कानूनों को पढ़ लीजिए और उनके निहितार्थ को समझ लीजिए। सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा। 

ये तीन कानून क्या हैं?

पहला कानून है – किसान उत्पाद, व्यापार और वाणिज्य कानून 2020 (फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एन्ड कॉमर्स ऐक्ट- 2020)

इस कानून के तहत केंद्र सरकार ‘एक देश, एक कृषि मार्केट’ बनाने की बात कह रही है। इसके माध्यम से कोई भी व्यक्ति या कम्पनी या सुपर मार्केट किसी भी किसान का माल कहीं भी खरीद सकते हैं। खरीद करने वाले व्यापारी व फर्म को किसान को भुगतना करने के लिए तीन दिन की मोहलत भी दी गई है। किसान भी अपनी फसल कहीं भी ले जाकर बेच सकता है। 

पुराने मंडी कानूनों के अनुसार, अब तक हर व्यापारी मंडी के जरिए ही किसान की फसलों के खरीद सकता था, लेकिन अब व्यापारी मंडी से बाहर भी किसान से फसल खरीद सकता है और अब व्यापारी को कोई टैक्स भी नहीं देना होगा यानी कृषि उपज की बिक्री कृषि मंडियों में कृषि उपज विपणन समितियों (Agriculture Produce Market Committee Act - APMC ) के जरिए होने की शर्त केंद्र सरकार ने हटा ली है। 

किसानों पर सितम, बड़े व्यापारियों पर रहम। कैसे?

ये कानून हर स्तर पर किसान के हितों की कीमत पर बड़े व्यापरियों और कंपनियों को अनुचित लाभ पहुंचाने वाले हैं। इनसे मंडी बोर्ड (मंडी व्यवस्था) खत्म हो जाएगी और कॉरपोरेट जगत और बिचौलियों की पांचों अंगुलियाँ घी में होंगी। कैसे? यह ऐसे होगा।

1. ध्यान रहे कि कानून में केंद्र सरकार ने इस बात की कोई गारंटी नहीं दी है कि खरीददार द्वारा किसानों की उपज की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर होगी। सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने की कोई गारंटी नहीं दे रही है। किसानों को 'वन नेशन, वन मार्किट' नहीं बल्कि 'वन नेशन, वन रेट' ( एक राष्ट्र, एक दाम ) चाहिए। नए कानून में रेट की बात क्यों नहीं की गई है? ये इसलिए कि बड़े व्यापारी और कंपनियां अपनी मनमर्जी से रेट तय कर मजबूर किसानों से उनकी कृषि उपज खरीद सकें। मंडी व्यवस्था खत्म होने से व्यापारियों की मनमानी और बढ़ जाएगी। वे औने-पौने दाम पर किसानों की फसल खरीदेंगे क्योंकि किसानों के पास कोई विकल्प नहीं होगा।

मंडियों में किसानों की उपज की MSP पर खरीद सुनिश्चित करने के लिए और व्यापारियों पर लगाम लगाने के लिए APMC एक्ट अलग-अलग राज्य सरकारों द्वारा बनाया गया था। जैसे राजस्थान में कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम(APMC) 2003 बनाया गया। कानून के अनुसार APMC मंडियों का कंट्रोल किसानों के पास होना चाहिए लेकिन वहां भी व्यापारियों ने गिरोह बना कर किसानों को लूटना शुरू कर दिया। APMC एक्ट में कई समस्याओं के बावजूद इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसके तहत सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि किसानों की उपज की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य MSP पर हो। इसके चलते मंडियों में फसल बेचने पर उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल जाता था। अब इस नए कानून के जरिये सरकार किसानों के माल की MSP पर खरीद की अपनी ज़िम्मेदारी व जवाबदेही से पूरी तरह से पल्ला झाड़ना चाहती है।

महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जब किसानों के उपज की खरीद निश्चित स्थानों पर नहीं होगी तो सरकार इस बात पर निगरानी कैसे रख पायेगी कि किसानों के माल की खरीद MSP पर हो रही है या नहीं ?

2. खतरा यह है कि पैदावार अच्छी होने पर बड़ी-बड़ी कम्पनियां जानबूझ कर किसानों के माल का दाम गिरा देंगी और उसे बड़ी मात्रा में स्टोर कर लेंगी जिसे वे बाद में ऊंचे दामों पर ग्राहकों को बेचेंगी। दरअसल छोटे किसान नक़दी की जरूरत के कारण कृषि उपज को तत्काल बेचने को मजबूर होते हैं। ऐसे में वे मजबूरन कम दाम में अपनी उपज बेचने को विवश होंगे । बेचारा किसान बड़े व्यापारियों और कंपनियों की चालाकियों के आगे कैसे टिक पायेगा ? 

3. मंडी से बाहर व्यापारियों और फर्मों को मंडी फीस और सरकार द्वारा निर्धारित समर्थन मूल्य चुकाए बिना कृषि उपज खरीदने की छूट इस नए कानून के तहत मिल गई है। जरा सोचिए, इसमें फायदा किसको पहुंचाया गया है। सीधी सी बात है, खरीद करने वाले व्यापारियों व फर्मों को। 

4. खरीद करने वाले व्यापारी व फर्म को किसान को भुगतना करने के लिए तीन दिन की मोहलत दी गई है। इस कानून का सहारा लेकर व्यापारी किसान से खरीदे गए धान का फटाफट भुगतान नहीं करेंगे। महीने-दो महीने बाद पीछे की तारीख़ लगा चेक किसान को पकड़ा देंगे। हो सकता है कि किसान को देय राशि में भी कई तरह की कटौतियां कर लें।

मान लीजिए कुछ अच्छी क़ीमत की लालसा में चूरू जिले का कोई किसान किसी दूसरे जिले या पड़ौसी प्रान्त हरियाणा में अपना कृषि माल बेचेगा तो उसकी मजबूरी का फ़ायदा उठाकर वहाँ के व्यापारी उसको भुगतान करते समय विवाद करेंगे। किसान अपना काम छोड़कर बार- बार वहाँ किराया-भाड़ा वहन करके शिकायत करता फिरेगा। अनजान जगह पर वहाँ उसकी कौन सुनेगा? सब व्यापारी के पक्ष में बोलेंगे।

दुष्प्रभाव

इस कानून का दुष्प्रभाव ये होगा कि मंडी मार्केट व्यवस्था धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी क्योंकि कृषि उपज मंडियों में व्यापारियों को टैक्स लगते रहेंगे। मंडियों से व्यापारी दूर रहेंगे। वे मंडियों में कृषि जिंसों की खरीद करने के बज़ाय खरीद का काम बाहर ही करेंगे ताकि उन्हें टैक्स नहीं देना पड़े। मंडियां वीरान हो जाएंगी और अंततः बंद हो जाएंगी। किसानों की सामूहिक शक्ति खत्म हो जाएगी। सरकार यही तो करना चाहती है। बाजार में किसान व्यापारियों द्वारा लादी गई मनमर्जी की लागतों को चुकाने व शर्तों को मानने के लिए मजबूर हो जाएगा। करोड़ों की सम्पत्ति वाली इन बंद मंडियों को बाद में सरकार बड़े पूंजीपतियों व कॉरपोरेट घरानों की कौड़ी के भाव बेच देगी और इसे बेचना नहीं कहकर लोगों की आँखों में धूल झोंकते हुए विनिवेश ( disinvestment ) कहेगी। कॉरपोरेट घराने वहाँ अपने बड़े-बड़े गोदाम बना लेंगे। महानगरों से गाँवों तक उन्हीं की तूती बोलेगी। 

वैसे वर्तमान सरकार शब्दों से खिलवाड़ करने में माहिर है। कई उदाहरण हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में एक चालाकी और देखिए कि इसमें प्राइवेट सेक्टर का अर्थ बदलकर इसे लोकोपकारी ( philanthropic ) के समकक्ष कर दिया गया है। शब्दों के अर्थ कैसे बदले जाते हैं, इसका एक नायाब नमूना और है। प्रधानमंत्री मोदी ने गत वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र को लालकिले से संबोधित करते हुए पूंजीपतियों/ उद्योगपतियों को wealth creators अर्थात राष्ट्र के संपदा सर्जक/ स्रष्टा की संज्ञा देकर उनका गुणगान किया था। क्या सर्जक सिर्फ पूंजीपति और कॉरपोरेट घराने ही हैं? क्या सर्जन में किसान-मजदूर की कोई भूमिका नहीं है? क्या किसान-मजदूर विनाशक हैं?

किसानों का शोषण बढ़ेगा

किसानों के माल खरीदने की इस नई व्यवस्था से किसानों का शोषण बढ़ेगा। कैसे? बिहार का अनुभव इसकी पुष्टि करने के लिए पर्याप्त है। साल 2006 में बिहार सरकार ने APMC एक्ट खत्म कर के किसानों के उत्पादों की न्यूनतम समर्थन मूल्य MSP पर खरीद खत्म कर दी। उसके बाद किसानों का माल MSP पर बिकना बन्द हो गया और प्राइवेट कम्पनियाँ किसानों का सामान MSP से बहुत कम दाम पर खरीदने लगी जिस से वहां किसानों की हालत खराब होती चली गयी और उसके परिणामस्वरूप बिहार में बड़ी संख्या में किसान खेती छोड़ने को मजबूर हुए और मजदूरी के लिए दूसरे राज्यों का रुख किया। सरकार अब सारे राज्यों में किसानों के स्वाभिमान को तोड़कर उन्हें मज़दूरी की तरफ धकेलना चाहती है। कॉरपोरेट घरानों की यही चाल है।

एक उदाहरण इसी साल का है। प्रधानमंत्री मोदी जी के आपदा में अवसर ढूंढने के आह्वान पर इस वर्ष मक्का व मूंग MSP पर नहीं खरीदा गया। ये सब न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज की खरीद को बंद करने पर किसानों की प्रतिक्रिया को भांपने के लिए सोची समझी रणनीति के तहत किया गया। मूंग का न्यूनतम समर्थन मूल्य 7196 रुपये प्रति क्विंटल घोषित है। लेकिन सरकारी खरीद शुरू न होने से व्यापारी इसके मनमाने दाम लगा रहे हैं। मध्यप्रदेश में किसानों को मूंग के लिए अधिकतम 5200 रुपये प्रति क्विंटल का भाव मिल रहा है। कुछ जगह इससे से भी कम कीमत पर किसान मूंग बेचने को मजबूर हैं। मूंग को हर हाल में बेचना किसानों की मजबूरी है, क्योंकि उनके पास बारिश के इस मौसम में उसे सुरक्षित रखने की कोई जगह नहीं है। 

नया एक्ट किसान की कमर कैसे तोड़ेगा, इसे हाल ही के एक और घटनाक्रम से समझा जा सकता है। मक्का का समर्थन मूल्य 1850 रुपया प्रति क्विंटल है। पिछले कुछ दिन पहले सिवनी जिला ( मध्यप्रदेश ) के किसानों का मक्का समर्थन मूल्य से काफी कम दाम लगभग 900 से 1000 रुपया में बिक रहा था। किसानों ने सत्याग्रह भी किया। इसके बावजूद भी केंद्र सरकार ने किसानों को राहत न देते हुए मक्का से संबंधित बड़ी कंपनियों को विदेश से 5 लाख मीट्रिक टन मक्का आयात करने की छूट दे दी। अमेरिका में वर्तमान में मक्का का दाम 145 डॉलर प्रति टन मतलब 1060 रुपया प्रति क्विंटल है। कितनी बेहूदी बात है कि अपने देश की कंपनियां 1000 से 1100 रुपया क्विंटल भाव का मक्का आयात करके गोदामों में भंडारण कर लेंगी और किसान की भी फसल आज से 2 महीना बाद मार्केट में आने लगेगी तो किसान को फिर 800 से 900 रुपया का दाम मिलेगा। इससे किसान की लागत जो एक क्विंटल मक्का उगाने में 1213 रुपया बैठती है और इसे सरकार खुद मानती है, वह भी नहीं मिलेगी।

ये सारे घटनाक्रम इस बात की ओर संकेत करते हैं कि अगले कुछ सालों में केंद्र सरकार गेहूं व धान की MSP पर खरीद बन्द कर देगी और खरीदने का लाइसेंस कॉरपोरेट घरानों को जारी कर देगी। ये सब किया जाएगा किसान और गरीबों के हित की आड़ लेकर। मोदी सरकार झूठ बोलने में माहिर है ही। पिछले दिनों तक प्रधानमंत्री और रेलमंत्री बार बार कहते थे कि रेलवे का किसी तरह का निजीकरण नहीं किया जाएगा। कोविड-19 में आपदा में अवसर पर झपटा मारते हुए रेलवे के ट्रैक, प्लेटफार्म, कैटरिंग आदि सब ठेके पर दिए जा रहे हैं। 

दूसरा कानून है – आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून (एसेंशियल कमोडिटी एक्ट 1955 में संसोधन)

इस संशोधन के ज़रिए अनाज, दालों, खाद्य तेल (Edible oil), प्याज, आलू को जरूरी वस्तु अधिनियम से बाहर करके इनकी स्टॉक सीमा खत्म कर दी गई है। पहले व्यापारी फसलों को किसानों के औने-पौने दामों में खरीदकर उसका भंडारण कर लेते थे और कालाबाज़ारी व अंधाधुंध मुनाफाखोरी करते थे। उसको रोकने के लिए Essential Commodity Act 1955 बनाया गया था और इसके तहत व्यापारियों द्वारा कृषि उत्पादों के एक लिमिट से अधिक भंडारण पर रोक लगा दी गयी थी। अब इस नए अध्यादेश के तहत आलू, प्याज़, दलहन, तिलहन व तेल के भंडारण पर लगी रोक को हटा लिया गया है। 

जमाखोरी और कालाबाजारी का कानूनी अधिकार

जी, हाँ, इस नए संशोधित कानून के ज़रिए भंडारण और कालाबाजारी का कानूनी अधिकार व्यापारियों और कंपनियों को मिला है। सरकार ने ये तोहफ़ा थाली में परोसकर उन्हें दिया है। याद रहे कि किसान अपनी उपज को कितने भी दिन तक भंडारण करके इसके पहले भी रख सकता था। जो कानूनी रोक थी वो सिर्फ बड़ी कंपनियों और व्यापारियों द्वारा भंडारण करने पर थी। अब उसे हटाया गया है। कोई बताए तो सही, यह फ़ैसला किसान हितैषी कैसे हुआ ?  इससे तो सिर्फ धन्ना- सेठों को कालाबाजारी करने का पूरा पूरा मौका मिला है। इसके ज़रिए बड़े व्यापारियों और फर्मों को कालाबाजारी करने का कानूनी अधिकार दिया गया है। जमाखोरी कर मुनाफ़ा लूटना शुरू से इनकी आदत रही है। यह बाज़ार में आवश्यक चीजों का कृत्रिम अभाव पैदा कर ऊंची कीमत पर चीजों को बेचकर उपभोक्ताओं को लूटेंगे। 

सीधी सी बात है कि पहले के कानून में किया गया यह संशोधन बड़ी कम्पनियों द्वारा कृषि उत्पादों की कालाबाज़ारी के लिए लाया गया है। ये कम्पनियाँ और सुपर मार्केट अपने बड़े-बड़े गोदामों में कृषि उत्पादों का भारी मात्रा में भंडारण करेंगे और बाद में ऊंचे दामों पर ग्राहकों को बेचेंगे। इससे किसान तो बुरी तरह प्रभावित होगा ही पर देश का आम उपभोक्ता भी मंहगाई का शिकार होगा। किसानों को पिटते देखकर जो मध्यम वर्ग आज ताली बजा रहा है, इसकी मार उस पर भी पड़ने वाली है।

बता दें कि हमारे देश में 82% सीमांत यानी छोटे किसान ( दो हेक्टेयर जोत से कम का किसान ) हैं, किसानों के पास लंबे समय तक भंडारण की व्यवस्था नहीं होती है। वैसे भी किसान के पास वर्तमान में आय बहुत कम है। छोटा किसान हो या बड़ा किसान हो, वह अपनी उपज को ज्यादा दिन तक रोकने में सक्षम नहीं है क्योंकि किसान को फसल कटाई के बाद जल्द नकदी की आवश्यकता होती है।

किसान फसल बुवाई करते समय अक्सर जिस फसल के दाम अधिक होते हैं उसे चुन लेता है। बड़े पूंजीपति कृषि जिंसों के अतिरिक्त भंडारण की व्यवस्था करके रखेंगे। फसल बुवाई के समय किसी धान के रेट ज्यादा रहेंगे तो किसान उसी फ़सल की बुवाई करेगा। लेकिन जब किसान की नई फसल मार्केट में बिकने के लिए आएगी तब तक बड़े कॉरपोरेट खिलाड़ी अपने स्टॉक को फिर से मार्केट में निकालेंगे। इससे  किसान की फसल बाजार में आने तक फिर दाम बहुत ज्यादा गिर जाएंगे। ऐसे में किसान का फिर से शोषण होगा। फिर किसान की सस्ती फसल को बड़े कॉरपोरेट घराने/खिलाड़ी खरीद कर स्टॉक कर लेंगे और उसका दाम बढ़ा देंगे। यही क्रम चलता रहेगा।

तीसरा कानून है – मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा अध्यादेश, 2020 पर ‘किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) (फार्मर्स एग्रीमेन्ट ऑन प्राइस इंश्योरेंस एन्ड फार्म सर्विसेस ऑर्डिनेन्स)

इस कानून के जरिये अनुबंध आधारित खेती को वैधानिकता प्रदान की गई है ताकि बड़े व्यवसायी और कंपनियां अनुबंध के जरिये खेती-बाड़ी के विशाल भू-भाग पर ठेका आधारित खेती कर सकें। इसके तहत कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा दिया जाएगा, जिसमें बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ खेती करेंगी और किसान उसमें सिर्फ मजदूरी करेंगे। अंदेशा है कि कालांतर में किसान इन कंपनियों के बंधुआ मजदूर होने को मजबूर कर दिए जाएं।

कानून में प्रावधान किया गया है कि व्यापारी या कम्पनी और किसान के बीच विवाद होने पर उस इलाके के उपखण्ड अधिकारी (SDM ) इसकी सुनवाई करेंगे। पहले आपसी बातचीत के जरिये समाधान के लिए 30 दिन का समय दिया जाएगा। अगर बातचीत से समाधान नहीं हुआ तो एसडीएम द्वारा मामले की सुनवाई की जाएगी। उसके आदेश से सहमत न होने पर जिला कलक्टर के पास अपील की जा सकती है और उसे भी विवाद का समाधान करने के लिए 30 दिन का समय दिया गया है। ये भी ज़रूरी नहीं है कि इस अवधि में समाधान हो ही जाए।

ध्यान देने की बात है कि किसान व कम्पनी के बीच विवाद होने की स्थिति में इस अध्यादेश के तहत कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाया जा सकता है। न्याय के लिए कोर्ट में जाने का हक हर भारतीय को संविधान में दिया गया है, तो सवाल यही उठता है कि यहां किसान से संवैधानिक अधिकार क्यों छीना जा रहा है?

यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है कि प्रशासनिक अधिकारी हमेशा सरकार के दबाव में रहते हैं और सरकार हमेशा व्यापारियों व कम्पनियों के पक्ष में खड़ी होती है, क्योंकि चुनावों के समय व्यापारी और कम्पनियाँ राजनीतिक पार्टियों को चंदा देती हैं। 

इस नए कानून के तहत किसान अपनी ही जमीन पर मजदूर बन कर रह जायेगा। किसान के हितों की सुरक्षा की कोई गैरन्टी इसमें नहीं होगी। हाल में सरकार ने कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की गाइडलाइन जारी की है। इसमें कॉन्ट्रैक्ट की भाषा से लेकर कीमत तय करने का फॉर्मूला तक दिया गया है लेकिन कहीं भी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य का कोई जिक्र नहीं है। तथाकथित किसान हितैषी सरकार का ये असली चेहरा है।

केंद्र सरकार कृषि का पश्चिमी मॉडल हमारे किसानों पर थोपना चाहती है। हमारे देश के किसानों की तुलना विदेशी किसानों से नहीं हो सकती क्योंकि हमारे यहां भूमि-जनसंख्या अनुपात पश्चिमी देशों से अलग है और हमारे यहां खेती-किसानी जीवनयापन करने का साधन है, वहीं पश्चिमी देशों में यह व्यवसाय है।

हालांकि यह मॉडल हमारे देश में कोई नया नहीं है। देश में पहले से भी कांट्रेक्ट फार्मिंग किसानों से करवाई जा रही है, जिसके परिणाम किसानों के लिए हितकारी नहीं रहे हैं। मध्यप्रदेश में टमाटर और शिमला मिर्च की खेती, महाराष्ट्र में फूलों और आनर की खेती, कर्नाटक में काजू की खेती, उत्तराखंड में औषधियो की खेती इसके उदाहरण है। ये कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग किसानों के लिहाज से ज्यादा फायदेमंद साबित नहीं हुई हैं। अनुभव बताते हैं कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से किसानों का शोषण होता है। पिछले साल गुजरात में पेप्सिको कम्पनी ने किसानों पर कई करोड़ का मुकदमा किया था जिसे बाद में किसान संगठनों के विरोध के चलते कम्पनी ने वापस ले लिया था।

कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के तहत फसलों की बुआई से पहले कम्पनियां किसानों का माल एक निश्चित मूल्य पर खरीदने का वादा करती हैं लेकिन बाद में जब किसान की फसल तैयार हो जाती है तो कम्पनियाँ किसानों को कुछ समय इंतजार करने के लिए कहती हैं और बाद में किसानों के उत्पाद को खराब बता कर रिजेक्ट कर दिया जाता है।

इस एक्ट में यह गारंटी नहीं है कि किसान का माल कंपनी पूरा खरीदेगी। मान लीजिए कोई किसान अपनी मेहनत से खेत में 100 किलो प्याज की उपज होती है और कंपनी उसके 25 किलो प्याज को खराब या छोटा बताकर रिजेक्ट कर देगी तो वह किसान इन्हें कहाँ बेचेगा..?

ये कानून क्यों लाए गए हैं?

क्रोनोलॉज़ी समझिए। इन नए कानूनों को अध्यादेशों के ज़रिए लाने से एक हफ्ते पहले रिलायंस समूह कंज्यूमर गुड्स की कैटेगरी में बिजनेस करने के लिए एक नया वेंचर "जियो मार्ट" शुरू करता है। मुकेश अंबानी के रिलांयस समूह के अंतर्गत शुरू हुए इस "जियो मार्ट" से पहले अडानी विल्मर, आईटीसी और बाबा रामदेव के पतंजलि सहित कई छोटे-बड़े ब्रांड मार्केट में मौजूद हैं। अब सरकार की तरफ से किसानों के हितों पर कुठाराघात करते हुए कॉरपोरेट जगत को इस तरह थाली में रखकर सौगातें दे दी गई हैं। अब ये कंपनियां अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी मनमर्जी की रेट पर कृषि जिंसों को खरीद लेंगी या कांट्रेक्ट पर खेती करवा लेंगी। स्पष्ट है कि निजी कंपनियों और कॉरपोरेट घरानों के दबाव के कारण ही सरकार ये कानून लेकर आई है। आने वाले वक़्त में सारा देश हर चीज के मामले में अम्बानी-अडानी मय हो जाना तय है। कभी देश में ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था। देश की चुनी हुई हुक़ूमत की कारस्तानियों से हो सकता है कि आगे चलकर देश में अम्बानी-अडानी की जोड़ी का राज क़ायम हो जाए।

बस, आपदा में अवसर झपटते हुए कॉरपोरेट घरानों को उपकृत करने के लिए ये तीन अध्यादेश सरकार लेकर आई है। इन कानूनों को लाने से पहले सरकार ने किसी भी किसान संगठन से चर्चा करना मुनासिब नहीं समझा। हो सकता है सत्तारूढ़ पार्टी के किसान संगठन से गुपचुप तरीके से चर्चा कर औपचारिकता पूरी की हो। इन कानूनों की प्रकृति को देखते हुए वैसी कोई अर्जेन्सी भी नहीं जान पड़ती जो इन्हें अध्यादेश के रास्ते लाने की इतनी हड़बड़ी दिखायी गई है। लोकतांत्रिक तरीका तो ये होता कि संसद में इन पर चर्चा होती। 

कृषि राज्य-सूची के अन्तर्गत आने वाला विषय है। ये बात सच है कि खाद्य-सामग्रियों का वाणिज्य और व्यापार समवर्ती सूची के अन्तर्गत दर्ज है लेकिन अगर राज्यों को कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम को पारित करने का अधिकार है तो फिर यह मानकर चलना चाहिए कि उन्हें यह अधिनियम उलांघने का भी हक हासिल है।

=यह होता तो अच्छा होता= 

1. निःसंदेह कृषि उपज मंडी व्यवस्था में भारी सुधार की आवश्यकता है। एक अनुमान के मुताबिक अभी तक 30% किसान ही मंडी तक अपनी फसल को ले जा पाते हैं। बाकी किसान इससे बाहर बेच देते हैं।  कहने को तो 23 फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य ( MSP ) की घोषणा होती है लेकिन मंडियों में खरीद सिर्फ चार -पांच उपजों की ही होती है। एक अनुमान के अनुसार देश में कुल कृषि उपज के सिर्फ 7% ही खरीद MSP पर होती है।

अगर सरकार किसानों का हित चाहती है तो क्यों न अब सरकार को लक्ष्य रखना चाहिए कि देश भर में किसी भी गांव से 5 किलोमीटर के अंदर एक कृषि उपज मंडी हो। सारी कृषि उपज न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी जाए। मंडी प्रांगण में आधुनिक कोल्ड स्टोरेज, आधुनिक तौल काँटे, बड़े वेयरहाऊस हों, बड़ा प्रांगण हो, धान को बरसात में भीगने से बचाने की व्यवस्था हो, किसानों के वहां रुकने की व्यवस्था हो , किसानों की फसल के लिए MSP खरीद गैरन्टी कानून हो। सब जानते हैं कि वर्तमान में यह सब ढाँचा इतना बड़ा नहीं है। MSP खरीद गैरन्टी कानून नहीं है लेकिन फिर भी APMC व्यवस्था को खारिज़ नहीं किया जा सकता है।

2. अगर किसानों का फायदा करना सरकार की मंशा होती तो केंद्र सरकार को APMC एक्ट में सुधार करते हुए 1999 में तमिलनाडु में लागू की गई "उझावर संथाई" योजना पूरे देश में लागू करनी चाहिए थी। इस योजना के तहत 1999 में तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि ने किसानों एवम ग्राहकों के बीच सीधा संबंध स्थापित करने के लिए इस योजना को शुरू किया था। इसके तहत तमिलनाडु में "उझावर संथाई" मार्किट स्थापित किया गया जहां पर किसान सीधे आ कर अपना माल बेचते हैं और वहां पर ग्राहक सीधे किसानों से माल खरीदते हैं। इस योजना से खुले मार्किट के मुकाबले किसानों को 20% ज्यादा कीमत मिलती है एवम ग्राहकों को 15% कम कीमत पर कृषि उत्पाद मिलता है। इन मार्किटों के कड़े नियमों के अनुसार सिर्फ किसान ही अपना माल बेच सकता है और किसी व्यापारी को इन मार्किटों में घुसने की अनुमति नहीं होती। सम्पूर्ण दस्तावेज चेक करने के बाद ही किसान इस मार्किट में अपना सामान बेच सकते हैं। इन मार्किटों में किसानों से दुकान का कोई किराया नहीं लिया जाता एवम किसानों को अपना माल स्टोर करने के लिए राज्य सरकार द्वारा फ्री में कोल्ड स्टोरेज व्यवस्था दी जाती है। इसके साथ-साथ "उझावर संथाई" मार्किट से जुड़े किसानों को अपना माल लाने के लिए सरकारी बसों में फ्री ट्रांसपोर्ट सुविधा मिलती है।

3. 1991 में हुए आर्थिक सुधारों का खेती पर बहुत बुरा असर सामने आया है। आंकड़े बताते हैं कि 30 सालों में 3.5 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। आज भी किसानों को C2+50% के अनुसार फसलों का MSP नहीं मिल रहा है।

2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान खुद नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में कहा था कि केंद्र में भाजपा की सरकार बनते ही स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दरअसल निर्धारित फसलों के लिए एमएसपी का आकलन करने वाले कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) खेती की लागत के तीन वर्ग बनाए हैं - ए2, ए2+एफएल और सी2। ‘ए2’ में फसल उत्पादन के लिए किसानों द्वारा किए गए सभी तरह के नगद खर्च जैसे- बीज, खाद, ईंधन और सिंचाई आदि की लागत शामिल होती है. ‘ए2+एफएल’ में नगद खर्च के साथ फैमिली लेबर यानी फसल उत्पादन लागत में किसान परिवार का अनुमानित मेहनताना भी जोड़ा जाता है। उधर, ‘सी2’ में खेती के व्यवसायिक मॉडल को अपनाया गया है। इसमें कुल नगद लागत और किसान के पारिवारिक पारिश्रामिक के अलावा खेत की जमीन का किराया और कुल कृषि पूंजी पर लगने वाला ब्याज भी शामिल किया जाता है। लेकिन यूपीए की ही तरह मोदी सरकार ने भी ‘ए2+एफएल’ को फसलों का लागत मूल्य मानकर घोषणा करती है।

किसानों का राज में सीर यानी भागीदारी नहीं है।किसानों के दम पर चुनाव जीतने वाले नेताओं को न तो कृषि से सम्बंधित समुचित समझ है और ना ही उन्हें किसानों की कोई परवाह है। वर्तमान में किसान हक़ की बात करने वाला कोई नेता सत्तारूढ़ पार्टी व विपक्षी दलों में नहीं है। वे सिर्फ सरकार की हां में हां मिलना अपना परम धर्म समझते हैं। किसानों में वर्ग चेतना का अभाव है। वे ख़ुद जाति-धर्म-सम्प्रदाय के दायरों में बंटे हुए हैं। किसान वर्ग की नई पीढ़ी खेत-खलिहान पर छाए संकट से विमुख हो गई है। ऐसी स्थिति में लुटेरों का हौंसला बुलंद है। किसान का लुटना-पिटना उनकी नियति बन चुकी है।

कानून में काला क्या है?

  • कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में विवाद होने पर, सिविल कोर्ट में वाद दायर करने के न्यायिक अधिकार से किसानों को वंचित रखना, कानून में काला है।

No civil court shall have jurisdiction to entertain any suit or proceedings in respect of any matter, the cognizance of which can be taken and disposed of by any authority empowered by or under this Act or the rules made thereunder.

  • निजी क्षेत्र की मंडी को टैक्स के दायरे से बाहर रखना, कानून में काला है।
  • सरकार खुद तो न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल खरीदे और निजी मंडियों को, अपनी मनमर्जी से खरीदने की अंकुश विहीन छूट दे दे, यह कानून में काला है।
  • निजी बाजार या कॉरपोरेट को उपज की मनचाही कीमत तय करने की अनियंत्रित छूट देना, कानून में काला है।
  • किसी को भी जिसके पास पैन कार्ड हो उसे किसानों से फसल खरीदने की छूट देना और उसे ऐसा करने के लिये किसी कानून में न बांधना, कानून में काला है।
  • किसी भी व्यक्ति, कम्पनी, कॉरपोरेट को, असीमित मात्रा मे, असीमित समय तक के लिये जमाखोरी कर के बाजार में मूल्यों की बाजीगरी करने की खुली छूट देना, यह कानून में काला है।
  • जमाखोरी के अपराध को वैध बनाना, कानून में काला है।
  • जब 5 जून को देश मे लॉकडाउन लगा था, और तब आपात परिस्थितियों के लिये प्राविधित अध्यादेश का सहारा लेकर यह तीनों कानून, बना देना, यह सरकार की नीयत के कालापन को बताता है औऱ यह कानून में काला है।
  • इस कानून के ड्राफ्ट से लेकर इसे लाने की नीयत के पीछे किसानों का हित कहीं है ही नहीं। हित उनका है जो रातोरात महामारी या कोई आपदा में अवसर तलाशते हुए बड़े बड़े सायलो बनाकर भारी मात्रा में कृषि जिंसों का स्टॉक कर उपभोक्ताओं को लूटेंगे। यह कानून में काला है।
हनुमानाराम ईसराण
पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राज.

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संदर्भ