Lilan Ghori
Lilan (लीलण) (1074-1103) was the name of mare of folk deity Tejaji. There is also name of a train Lilan Express after this mare.
Lilan Ghodi Temple
Out side the village Kharnal there is a small temple of Tejaji at a distance of 1.5 km from big temple on the bank of Dhuwa talab. It is known as Ghodi temple where the Lilan ghodi of Tejaji reached and brought about the message of martyrdom of Tejaji. This temple is located in Dhuwa Johar, the water of which is used for drinking for villagers.
लीलण का जन्म
संत श्री कान्हाराम[1] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-173]: लक्खी बंजारा लाखा बालद ला कर अपना माल खरनाल के रास्ते सिंध प्रदेश ले जा रहा था। लाखा के पास शुभ लक्षणों से युक्त सफ़ेद रंग की दिव्य घोड़ी थी। उस घोड़ी के गर्भ में अग्नि की अधिष्ठात्री शक्ति लीलण के रूप में पल रही थी। जब लाखा अपना बलद लेकर खरनाल से गुजर रहा था तभी विक्रम संवत 1131 (1074 ई.) की आखा तीज के दिन दोपहर सवा 12 बजे लीलण का जन्म हुआ। लीलण के जन्म लेते ही उसकी मां स्वर्ग सिधार गई। लाखा ताहड़ जी से परिचित था। ताहड़ जी ने उस घोड़ी की बछिया को रख लिया। उसे गाय का दूध पिलाकर बड़ा किया।
तेजाजी की वीरगति
संत श्री कान्हाराम[2] ने लिखा है कि.... तेजाजी की वचन बद्धता: [पृष्ठ-263]: काबरिया पहाड़ी से 2 किमी दूर दक्षिण पूर्व दिशा में घनघोर जंगल के बीच नाड़ा की पाल पर खेजड़ी वृक्ष के नीचे बासाग नाग की बाम्बी पर पहुँच कर नागदेव का आव्हान करते हैं।
[पृष्ठ-264]: बासग राज अपनी बाम्बी से बाहर आते हैं और बोलते हैं कि तेजा मैं तेरे वचन निभाने के प्रण से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम जीते मैं हारा। तेजाजी ने अपना भाला जमीन पर लगाया। लीलण ने एक पैर ऊपर उठाया। नाग देव ने लीलण के पैर के लपेटा लगाते हुये ऊपर आकर भाला का सहारा लिया। तेजाजी ने अपनी जीभ बाहर निकाली। नागदेव ने बिना घायल बचे एक मात्र अंग जीभ पर डस लिया।
[पृष्ठ-265]: नाग देव ने आशीर्वाद दिया कि तेजा मैं तुझे वरदान देता हूँ कि तूँ कलियुग का कुलदेवता बनेगा। घर-घर, गाँव-गाँव तेरी देवली पूजी जावेगी, तेरा नाम लेकर तांत बांधने से काला नाग का जहर उतार जाएगा, बाला रोग (नारू) ठीक हो जाएगा, पशुओं के रोग समाप्त हो जाएंगे। तेरा नाम लेकर हल जोतने पर खूब अन्न-धन्न की वर्षा होगी। तेरे नाम की जागती जोत जलाने से गाँव में कोई रोग प्रव्श नहीं करेगा। तेरे वीरगति धाम से कोई जागती जोत लेजकर तेरा मंदिर बनाएँगे तो वहाँ तेरा वास हो जाएगा। तू कलियुग का अवतारी सच्चा देव कहलाएगा। यही मेरी अमर आशीष है।
[पृष्ठ-265]: तेजाजी के शरीर में विष का असर हुआ। वे निढाल होकर घोड़ी से नीचे गिरने लगे। लीलण की आँखों से आँसू टपकने लगे। आज भाद्रपद शुक्ल दशमी शनिवार विक्रम संवत 1160 (तदनुसार 28 अगस्त 1103) के तीसरे प्रहर का समय था। वर्षा रुक चुकी थी। पास ही अपनी ऊंटनी चराते आसू देवासी को तेजाजी ने आवाज लगाई। आसू देवासी पास आए तो तेजाजी ने बताया – जो संकट की घड़ी में काम आता है वही अपना होता है। इस घोर जंगल में तूही आज मेरा अपना है। यह मेरा मेंमद मोलिया (साफा के साथ लगाया जाता था) शहर पनेर ले जाकर रायमल जी मुहता की पुत्री और मेरी पत्नी पेमल को दे देना। यहाँ जो तूने देखा है वह ज्यों का त्यों बता देना।
[पृष्ठ-266]: आसू देवासी ऊंटनी पर चढ़कर पनेर की तरफ दौड़ा।
लीलण को सम्बोधन: टप-टप आँसू बहाती लीलण को तेजाजी ने कहा – लीलण ! तूने मेरा हर सुख-दुख में साथ दिया। अब तेरा मेरा विछोह निश्चित है। मेरा एक काम ओर कर देना। मेरी जन्म भूमि खरनाल जा कर अपने नैनों की भाषा में मेरी जननी, मेरी बहिन, मेरी बस्ती को विगत हुई की सूचना दे देना।
लाछा का पेमल के पास जाना – जब तेजाजी लाछा को बासग नाग को दिये वचन का कहकर वापस वन में चले जाते हैं, तब लाछा दौड़कर पेमल के पास जाती है। उसे सारी बात बताती है। इतनी देर में आसू देवासी भी मेंमद मोलिया लेकर आ जाता है। अपनी आँखों देखी सारी घटना बताता है। पेमल सुनकर जमीन पर गिर पड़ती है। पूरी बस्ती में सन्नाटा छा जाता है। समझदार लोगों को अपने द्वारा तेजाजी का साथ नहीं देने का मलाल खटकता है।
[पृष्ठ-267]: अब पेमल की मूर्छा टूटी। पेमल ने रोना बंद कर दिया। अपनी माँ से सत का नारियल मांगा। पेमल की भाभी ने उसको सत का नारियल दिया। लाछा व देवासी के साथ ऊंटनी पर चढ़कर पेमल वन में नागदेव की बाम्बी की ओर चल पड़ी। पूरे जंगल तथा शहर पनेर और तेजाजी के ननिहाल त्योद में सब जगह खबर फ़ैल गई। लोग दौड़कर नागराज की बाम्बी की तरफ चल पड़े। पेमल के पहुँचने तक तेजाजी के कंठ अवरुद्ध हो चले। पेमल ने मूंह पर हाथ फेरा। चरणों में माथा टेका। तेजाजी ने बुदबुदाते हुये कहा पेमल विधाता के लिखे को टाल नहीं सकते। पेमल सबूरी कर।
तेजाजी का दाह संस्कार – आसू देवासी के नेतृत्व में वन के ग्वालों ने चीता चिनाई। पेमल ने तेजाजी को गोद में ले सूर्य नारायण से अरदास की। अग्नि प्रज्वलित हुई। वन के पूरे ग्वाल तेजाजी की पुण्य काल की घड़ी में मौजूद थे। तब तक पनेर और त्योद से भी लोग पहुँच गए थे।
पेमल का श्राप एवं आशीष - [पृष्ठ-268]: पेमल जब चिता पर बैठी तो लीलण घोडी को सन्देश देती है कि सत्य समाचार खरनाल जाकर सबको बतला देना। कहते हैं कि अग्नि स्वतः ही प्रज्वलित हो गई और पेमल सती हो गई।
पेमल ने श्राप दिया – शहर पनेर ने अपने जंवाई तथा मेरे सुहाग की रक्षा नहीं की। पनेर उजड़ जाएगा। माता तू वन की रोजड़ी (मादा नील गाय) होना। भूखी प्यासी भटकना। ढोली ने बारहवां थाप नहीं बजाया। माली ने फूल नहीं चढ़ाये। मेरे पीहर पक्ष झांजर गोत्र व गुर्जरों ने तेजाजी का साथ नहीं दिया अतः ये चारों कुनबे पनेर में कभी नहीं पनपेंगे। मेरे पिता ने पत्नी के दबाव में तेजाजी का साथ नहीं दिया। अतः जंगल में रोझ बन कर भटकना।
पेमल का अमर आशीष – पेमल ने भाई भाभी को फलने फूलने की अमर आशीष दी। लेकिन पनेर छोडने के बाद फलेंगे फूलेंगे। पनेर स्थित झांझर गोत्र को मेरा शाप लग चुका है। लाछा को अमर आशीष दी कि तूने हर संकट में मेरा साथ दिया। तेजाजी के साथ तेरा भी अमर नाम होगा। लीलण को आशीष दी कि तूने तेजाजी का आजीवन साथ दिया। अब देव गति को प्राप्त होना। तेजाजी के साथ तेरा भी नाम अमर रहेगा। आसू देवासी सहित सभी ग्वालों को अमर आशीष दी कि फलना फूलना। तेजा का नाम लेने से ग्वालों तथा पशुओं का दुख दूर हो जाएगा। लोगों ने पूछा कि सती माता तुम्हारी पूजा कब करें तो पेमल ने बताया कि - "भादवा सुदी नवमी की रात्रि जागरण करना और दसमी को तेजाजी के धाम पर उनकी देवली को धौक लगाना, कच्चे दूध का भोग लगाना। इससे मनपसंद कार्य पूर्ण होंगे। यही मेरा अमर आशीष है "
लीलण का खरनाल जाना: [पृष्ठ-269]: लीलण घोड़ी सतीमाता के हवाले अपने मालिक को छोड़ अंतिम दर्शन पाकर सीधी खरनाल की तरफ रवाना हुई। परबतसर के खारिया तालाब पर कुछ देर रुकी और वहां से खरनाल पहुंची। खरनाल पहुँचने का समय था भादवा सुदी ग्यारस रविवार विक्रम संवत 1160 (29 अगस्त 1103 ई.)। सीधी मानक चौक में जाकर खड़ी हुई। खरनाल गाँव में खाली पीठ पहुंची तो तेजाजी की भाभी को अनहोनी की शंका हुई। लीलण की शक्ल देख पता लग गया की तेजाजी संसार छोड़ चुके हैं।
तेजाजी की बहिन राजल बेहोश होकर गिर पड़ी, फिर खड़ी हुई और माता-पिता, भाई-भोजाई से अनुमति लेकर माँ से सत का नारियल लिया और खरनाल के पास ही पूर्वी जोहड़ में चिता चिन्वाकर भाई की मौत पर सती हो गई। भाई के पीछे सती होने का यह अनूठा उदहारण है। राजल की सहेली कोयल बाई भी जमीन में समा गई। राजल बाई का मंदिर खरनाल में गाँव के पूर्वी जोहड़ में हैं।
तेजाजी की प्रिय घोड़ी लीलण भी दुःख नहीं झेल सकी और अपना शरीर छोड़ दिया। लीलण घोड़ी का मंदिर आज भी खरनाल के तालाब के किनारे पर बना है।
लीलण का परबतसर खारिया तालाब पर विश्राम
संत श्री कान्हाराम[3] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-312]: परबतसर के लोग बताते हैं कि जोधपुर राज्य के राजा अभय सिंह को सोते समय तेजाजी का दर्शाव हुआ। दर्शाव में तेजाजी ने राजा से कहा कि दक्षिण में मध्य प्रदेश तक के लोग मेरी पूजा करते हैं लेकिन मारवाड़ में मुझे भूल से चुके हैं, मुझे मारवाड़ ले चलो। हाकिम ने पनेर अथवा सुरसुरा से तेजाजी की मूर्ति उखाड़कर परबतसर लेजाने की कोशिश की, किन्तु सफलता नहीं मिली। इस पर जोधपुर महाराजा अभयसिंह ने सारी स्थिति बताकर परबतसर शहर से पश्चिम में खारिया तालाब की पाल पर एक चबूतरा (थान) बनाकर तेजाजी की मूर्ति स्थापित कर प्राण-प्रतिष्ठा करा दी गई। तब से पनेर में लगने वाला पशु मेला परबतसर में लगने लग गया।
[पृष्ठ-313]: मंदिर से सटाकर पिछवाड़े में में खाड़या खेजडा अब भी खड़ा है। यह आधा सूखा और आधा हरा है। इस मंदिर में तेजाजी की दो प्रतिमाएँ स्थापित हैं। जिन पर संस्कृत भाषा में खुदा है -
- "विक्रमी संवत 1791 (1734 ई.) भादों बदी 6 शुक्रवार महाराज अभयसिंह के राज में प्रधान भण्डारी विजयराज ने यह तेजाजी की मूर्ति बनाकर प्रतिष्ठा की।"
तब से परबतसर भी तेजाजी का प्रमुख स्थल बन गया है। भादवा की शुक्ल पक्ष में 5 से 15 तक विशाल मेला भरता है।
मंदिर के वर्तमान पुजारी रामस्वरूप पारीक हैं। पुजारी के अनुसार जोधपुर महाराजा द्वारा मंदिर बनाने के बाद पूजा के लिए जोधपुर से उनके परदादा प्रह्लाद पारिक को भेजा गया था । तेजाजी ने वचन दिया कि जहाँ लीलण, खारिया तालाब, में रुकी थी वहां मैं जाऊंगा। राजा ने पूछा, हम चाहते हैं कि आप हमारी धरती पर पधारो। पर आप कोई सबूत दो कि पधार गए हैं। तेजाजी ने दर्शाव में राजा को विश्वास दिलाया कि -
- (1) परबतसर तालाब के पास जहाँ लीलण खड़ी हुई थी वहां जो खारिया तालाब है उसका पानी मीठा हो जायेगा
- (2) टीले पर जो हल का जूडा पेड़ के पास लटका है वो हरा हो जायेगा तथा यह खेजडा बनकर हमेशा खांडा खेजड़ा रहेगा
- (3) मेले में मच्छर मक्खी व बीमारियाँ नहीं फैलेंगी।
तीनों बातें अक्षरशः सिद्ध हो गई। हल का जूडा हरा हो गया, खड्या खेजड़ा हरा-भरा है। खारिया तालाब का पानी चमत्कारी ढंग से मीठा हो गया, जो आज तक मीठा है। वर्षा में कीचड़ होने के बावजूद मेले में मच्छर मक्खी व बीमारियाँ नहीं फैलती।
[पृष्ठ-314]: लीलण के खरनाल वापस जाने की घटना बड़ी रोचक है। पशु लगभग आए खोजों पर ही वापस लौटता है। लीलण ने खरनाल वापस जाते समय नदी पार नहीं की, बल्कि पनेर नदी के उत्तर साइड के किनारे-किनारे खरनाल की राह पकड़ी। क्योंकि लीलण जिस मोकल घाट से होकर आई थी, वह नदी के किनारे चलते हुये साफ नजर आ रहा था। अतः लीलण ने बहती नदी को पार करने का जोखिम नहीं उठाया। लीलण बहुत थकी हुई थी और वह जोश भी नहीं था। लड़ाई की थकान और मालिक के बलिदान से लीलण टूट चुकी थी। वह नदी के तीर-तीर चलकर परबतसर के प्रसिद्ध खारिया नामक तालाब की पाल पहुंची। वहाँ कुछ विश्राम किया और सरपट दौड़ कर मोकल घाट को पार किया और आगे बढ़ी।
[पृष्ठ-315]: तेजाजी के मेले को पनेर से परबतसर विस्थापित करने के पीछे अभय सिंह का तेजाजी प्रेम के बजाय आर्थिक कारण अधिक परिलक्षित होते हैं। तेजाजी द्वारा राजा अभय सिंह को सपने की कहानी तेजाजी के नाम से परबतसर में पशु मेला अपने राजस्व प्राप्ति के लिए गढ़ी गई लगती है। क्योंकि पनेर में जब मेला भरता था तो राजस्व किशनगढ़ रियासत में चला जाता था। जबकि पशुधन अधिक जोधपुर राज्य का बिकने आता था। अभय सिंह (1707-1749 ई.) ने ही हाल ऑफ हीरोज (Hall of Heroes) का निर्माण मंडोर में करवाया था जिसके लिए 1730 ई. में चूना पकाने के लिए खेजड़ली गाँव की खेजड़ी वृक्षों को काटा गया था और 363 विश्नोइयों ने जान दी थी। हाल ऑफ हीरोज मंडोर में अजय सिंह ने जिन 16 वीरों की मूर्तियाँ और लोक-देवताओं की मूर्तियाँ लगाई गई उनमें न तो तेजाजी को स्थान दिया और न ही विश्नोइयों के ईष्ट देव जंभाजी को।
लीलण का अगला पैर ऊपर क्यों
सदैव लीलण सखी का अगला पैर ऊपर क्यों दिखाया जाता है?
एक बहुत छोटी मगर सारगर्भित, एतिहासिक व जीवनोपयोगी बात बताना चाहूंगा।
क्या आपने कभी सोचा है, कि वीर तेजाजी महाराज की किसी भी फोटो अथवा मूर्ती में सदैव लीलण सखी का अगला पैर ऊपर क्यों दिखाया जाता है?
मैंने कुछ मित्रों से पूछा तो बोले महाराणा प्रताप के चेतक का भी तो उपर है।
अब उन भौले मानसों को कौन समझाये की तेजाजी महाराज तो प्रताप से 500 बरस पहले ही इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो गये थे। कहां वीर तेजाजी और कहां प्रताप।....
मित्रों सर्प/नाग जाती के जीवों की एक मर्यादा होती है कि वे चौपायों (चार पावों वाली वस्तु या जीव) पर कभी नहीं चढा करते।
बड़े बुजुर्ग भी कहते है कि कभी भी खाट या कुर्सी पर बैठकर भौजन नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से खाट की आण (मर्यादा) टूट जाती है, जिससे नागदेवता खाट पर चढ सकता है।
इसिलिए जब नागदेवता "वीर तेजाजी महाराज" को डसने के लिए तैयार होते है तब दिव्यात्मा सखी लीलण मर्यादा को जीवंत रखने के लिए अपना अगला पैर उठा लेती है, और नागदेवता उस पर असवार होते हैं।
यह जानकारी ऐतीहासिक भी थी और आम जीवन के लिए भी प्रेरणादायक।.....Balveer Ghintala 'तेजाभक्त' मकराना नागौर, +91-9414980415
तेजल राजकुमार सब भाईयों में छोटे व सबके चहेते थे। इसलिए वे लीलण के साथ पूरा पूरा दिन खेलते। उसे सखा सा प्यार व मां सा दूलार देते। अपनी भौजाई व माता के आभूषणों से कई बार खेल खेल में लद देते। पूरा गणराज्य इन दोनो का प्रेम देखकर अभीभूत हो उठता था। आभूषणों से सुसज्जीत वह प्यारी बछिया जब तेजस्वी राजकुमार को सवारी करवाती तो बरबस प्रजा के मुख से निकल पड़ता की "तेजल सखी सिणगारी" .. इसलिए लीलण का अन्य नाम "सिणगारी" भी कहा जाता है। वक्त गतीमान है। बिना रूके चलता है। वक्त के साथ साथ दोनो सखा बड़े होते गये। भूपती पुत्र होने के नाते "तेजल राजकुमार" के लिए शिक्षा व शस्त्र कला में पारंगत होना आवश्यक था। अत: राजकुमार को ननिहाल "त्योद" (किशनगढ) भिजवा दिया गया। वहां भी वे अपनी प्यारी सखी लीलण को साथ लेकर गये। एक परछाई की भांती लीलण जीवन पर्यन्त अपने स्वामी के संग रही। तेजल राजकुमार जंगल में गाये चराने जाते तो सभी गायों की अगुवाई करती। उनके साथ संवाद करती, क्रिड़ा करती। तेजाजी के साथ बैठकर गुरू "मंगलनाथ जी" के उपदेशों को ह्रदय में उतारती। तेजल राजकुमार के मामाश्री के संरक्षण में तेजल वीर को घुड़सवारी सिखाई गई। लीलण को युद्धक्षेत्र की विभिन्न कलाओं में पारंगत किया गया। इस प्रकार ननिहाल में दोनों सखाओं ने साथ साथ शिक्षा दिक्षा ग्रहण की।
तत्पश्चात "भूपती ताहड़देव जी' की हत्या, तेजाजी का ननिहाल से वापस आना। गणराज्य का भार संभालना। पहली बरसात में माता द्वारा बीजारी करने का कहना, भाभी के साथ गुस्सा होना, बहन राजल को पिहर लाना, व तमाम प्रतिरोधों के बावजूद अपनी अर्द्धांगीनी 'पेमल को लेने ससुराल शहर पनेर जाने जैसी घटनाएं होती है। शहर पनेर जाते वक्त इंद्रदेव के प्रकोप से रास्ते रोकते नदी नालों से स्वामिभक्त लीलण ने ही वीर तेजल को तरा था। पनेर के रायमल मूहता के बगीचे को लीलण द्वारा तहस नहस करने के हास्य वृतांत आज भी बड़े बुजुर्ग बड़े चाव से सुनाते है, तेजागायक मीठी आवाज में इस घटना को लयबद्ध करते है। तत्पश्चात 'लाछा गूजरी' के गौधन रक्षार्थ युद्ध क्षेत्र में वीर तेजाजी के साथ रणकौशल दिखा शत्रुओं को नाश करना जैसे अनेको वृतांत मारवाड़-मेरवाड़ा के कण कण में विसरे पड़े है। वचनबद्ध तेजाजी जब नागदेवता की बांबी पर जाते है तब ससम्मान अपना अगला पैर उपर उठाकर नागदेवता को अपने उपर असवार होने का निमंत्रण देने जैसे प्रसंग अन्यत्र कही नही मिलते। नागदेवता द्वारा तेजाजी को डसने के बाद जब "तीजल-लीलण संवाद" होता है। वह इस अनमोल जीवन चरित्र का सबसे ह्रदय विदारक पल है। बहुत ही मार्मिक कि अगर बंद आंखो से उस पल का काल्पनिक चित्रण करे तो निश्चित ही आंखो से अश्रूधारा फूट पड़े। लीलण को तेजल वीर ने अंतिम कार्य अपनी विरगती का समाचार गांव खरनाल पहुंचाने का सौंपा।
माता पेमल लीलण से बोली-कि तू बहुत सौभाग्यशाली जो इस देवपुरूष के साथ जन्म से रही। अभागी तो में हू जो घड़ी दो घड़ी का ही साथ मिला।
- "बूढा बडां ने कहिजै पांवाधौक म्हारी लीलण ऐ,
- सासुजी ने किजै पगां लागणां,
- नणदल राजल न मिलणो कहिजै लीलण म्हारी ऐ,
- धीरज धारण की कहीजै अरजड़ी"
खरनाल जाते वक्त सखी सिणगारी ने परबतसर तालाब की पाल पर जल ग्रहण करके कुछ पल आराम किया था। भादवा सुदी 11 वि स 1160 को लीलण खरनाल राज्य के माणक चौक में आके जड़वत सी खड़ी हो गई। उनके नयनों से निरंतर अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। परिवार जनों ने उस बेबस सखी के दुख तो समझ लिया। माता रामकुंवरी के चरणों में शीश नवाजकर, बहन राजल की गोदी में सर रखकर अपने अश्रुमोती डालने के पश्चात लीलण खरनाल के "धुवा तालाब" की पाल पर आकर बैठ गई। और अपने स्वामी, सखा और अपने प्राणों से प्यारे तेजल को याद करते अपना देह त्याग दिया। जिस स्थान पर लीलण ने प्राण त्यागे वहां आज छोटा मगर भव्य मंदिर बना हुआ है। जिसका निर्माण आज से 5-6 वर्ष पूर्व तेजाजी के वंशज "हरिराम जी पुत्र पदमाराम जी धौलिया" ने करवाया था।
Ref - Balveer Ghintala 'तेजाभक्त' तेजा दर्शन मीडिया प्रभारी मकराना नागौर, 91-9414980415,9785755539]
लीलण एक्सप्रेस
रेल मंत्रालय ने 28 मई 2015 को आदेश जारी कर जयपुर-जैसलमर इंटरसिटी एक्सप्रेस का नाम लीलण एक्सप्रेस कर दिया है। नागौर के खरनाल में पैदा हुये लोक देवता वीर तेजाजी की घोड़ी का नाम लीलण था। यह जाटों के लिए अच्छी खुश खबरी है। [4]
External links
Gallery
References
- ↑ Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. p. 173
- ↑ Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp. 263-269
- ↑ Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp. 312-315
- ↑ 'Jat Privesh', June 2015,p. 14