Mandara
Author:Laxman Burdak, IFS (R) |
Mandara Parvata (मंदार पर्वत) is the name of a mountain mentioned in Ramayana, Mahabharata and Puranas. Mount Mandara appears in Aphsad Inscription of Adityasena, a later Gupta King of Magadha.
Variants
- Mandara Parvata (मंदार पर्वत) (AS, p.688)
- Mandaraparvata (मंदारपर्वत) (AS, p.688)
- Mandaranchala (मंदराचल) (AS, p.688)
- Mandaranchala Parvata (मंदराचल पर्वत) (AS, p.688)
- Mandaragiri (मंदारगिरि), जिला भागलपुर, बिहार, (AS, p.690)
- Mount Mandara (मंदार पर्वत)
Origin
History
Mandara (Sanskrit: मंदार) is the name of the mountain that appears in the Samudra manthan episode in the Hindu Puranas, where it was used as a churning rod to churn the ocean of milk. Mahadev's serpent, Vasuki, offered to serve as the rope pulled on one side by a team of asuras, and on the other, by a team of devas. The Puranas refer to various sacred places on the hill that are also believed to be the abode of god Krishna as Madhusudana or the destroyer of the demon called Madhu who was killed by Krishna and then covered by the Mount Mandara.
Some legends identify Mandar Parvat, a hill in Banka district (near Bhagalpur district) in Bihar with Mount Mandara.
Kalidasa’s Kumarasambhava refers to foot marks of Lord Vishnu on the slopes of Mandara. The hill is replete with relics of bygone ages. Besides inscriptions and statues there are numerous rock cut sculptures depicting various Brahmanical images. The hill is equally revered by the Jains who believe that their 12th Tirthankara Shri Vasupujya attained nirvana here on the summit of the hill.
The depiction of the Churning of the Ocean of Milk became very popular in Khmer art, perhaps because their creation myth involved a naga ancestor. It is a popular motif in both Khmer and Thai art; one of the most dramatic depictions is one of the eight friezes that can be seen around the inner wall of Angkor Wat--the others being the Battle of Kurukshetra, Suryavarman's Military Review, scenes from Heaven and Hell, the battle between Vishnu and the asuras, the Battle between Krishna and Banasura, a battle between the gods and asuras, and the Battle of Lanka.
मंदर पर्वत
विजयेन्द्र कुमार माथुर[1] ने लेख किया है ...मंदर पर्वत (AS, p.688) वाल्मीकि रामायण किष्किंधा 40,25 में सुग्रीव ने सीता के अन्वेषणार्थ पूर्व दिशा में वानर-सेना को भेजते हुए और वहां के स्थानों का वर्णन करते हुए मंदर नामक पर्वत का उल्लेख इस प्रकार किया है, 'समुद्रमवगाढांश्च पर्वतान्पत्तनानिच, मंदरस्य च ये कोटिं संश्रिता: केचिदालया:' अर्थात जो पर्वत या बंदरगाह समुद्रतट पर स्थित हों अथवा जो स्थान मंदर के शिखर पर हों (वहां भी सीता को ढूंढना). इसी श्लोक के तत्काल पश्चात द्वीप निवासी किरातों संभवत: अंडमान निवासियों का विचित्र वर्णन है. इस स्थिति में मंदर ब्रह्मदेश या बर्मा के पश्चिमी तट की पर्वत श्रेणी के किसी भाग का नाम हो सकता है.
मंदराचल
विजयेन्द्र कुमार माथुर[2] ने लेख किया है ...मंदराचल (AS, p.688): 'श्वेतं गिरिं प्रवेक्ष्यामो मंदरं चैव पर्वतं, यत्र मणिवरौ यक्ष: कुबेरश्चैव यक्षराट्'-- महाभारत 139,5. इस उद्धरण में मंदराचल का पांडवों की उत्तराखंड की यात्रा के संबंध में उल्लेख है जिससे यह पर्वत हिमालय में बद्रीनाथ या कैलाश के निकट कोई गिरि-श्रंग जान पड़ता है. विष्णु पुराण 2.2.16 के अनुसार मंदर पर्वत इलावृत के पूर्व में है-- 'पूर्वेण मंदरोनाम दक्षिणे गंधमादन:' मंदराचल का पुराणों में क्षीरसागर-मंथन की कथा में भी वर्णन है. इस आख्यायिका के अनुसार सागर-मंथन के समय देवताओं और दानवों ने मंदराचल को मथनी बनाया था.
मंदारगिरि
विजयेन्द्र कुमार माथुर[3] ने लेख किया है ...मंदारगिरि (AS, p.690) (जिला भागलपुर (वर्तमान बांका जिला), बिहार): इस स्थान से गुप्त नरेश आदित्यसेन के दो शिलालेख प्राप्त हुए हैं. यह दोनों एक ही लेख की दो प्रतिलिपियां हैं. इसमें आदित्यसेन के नाम के पहले परमभट्ठारक तथा महाराजाधिराज की उपाध्याय जोड़ी गई है. इससे सूचित होता है कि यह है अपसढ़ अभिलेख के बाद लिखा गया है क्योंकि उसमें आदित्यसेन की ये उपाधियां उल्लिखित नहीं हैं. इस अभिलेख से जान पड़ता है कि हर्ष की मृत्यु के पश्चात राजनीतिक उथल-पुथल में मगध में गुप्त राजाओं के वंशज शक्तिशाली हो गए और आदित्यसेन स्वतंत्र राजा के रूप में राज करने लगा. इस अभिलेख में आदित्यसेन की रानी कोणदेवी द्वारा एक तड़ाग बनवाए जाने का उल्लेख है.
मंदार पर्वत
मंदार पर्वत (AS, p.688) का उल्लेख पौराणिक धर्म ग्रंथों में हुआ है। समुद्र मंथन की जिस घटना का उल्लेख हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में हुआ है, उनके अनुसार देवताओं और असुरों ने मंदार पर्वत पर वासुकी नाग को लपेट कर मंथन के समय मथानी की तरह प्रयोग किया गया था। सदियों से खड़ा मंदार पर्वत आज भी लोगों की आस्था का केन्द्र बना हुआ है। इस पर्वत को 'मंदराचल' या 'मंदर पर्वत' भी कहा जाता है।
यह प्रसिद्ध पर्वत बिहार राज्य के बाँका ज़िले के बौंसी गाँव में स्थित है। इस पर्वत की ऊँचाई लगभग 700 से 750 फुट है। यह भागलपुर से 30-35 मील की दूरी पर स्थित है। जहाँ रेल या बस किसी से भी सुविधापूर्वक जाया जा सकता है। बौंसी से इसकी दूरी क़रीब 5 मील है।
पौराणिक महत्त्व: हिन्दू धर्म में मंदार पर्वत का बड़ा ही धार्मिक महत्त्व है। माना जाता है कि जब देवताओं और असुरों ने समुद्र मंथन किया, तो मंदार पर्वत को मथनी और उस पर वासुकी नाग को लपेट कर रस्सी का काम लिया गया था। पर्वत पर अभी भी धार दार लकीरें दिखती हैं, जो एक दूसरे से क़रीब छह फुट की दूरी पर बनी हुई हैं। ऐसा लगता है कि ये किसी गाड़ी के टायर के निशान हों। ये लकीरें किसी भी तरह मानव निर्मित नहीं लगतीं। जन विश्वास है कि समुद्र मंथन के दौरान वासुकी के शरीर की रगड़ से यह निशान बने हैं। मंथन के बाद जो कुछ भी हुआ, वह एक अलग कहानी है, किंतु अभी भी पर्वत के ऊपर शंख-कुंड़ में एक विशाल शंख की आकृति स्थित है। कहते हैं भगवान शिव ने इसी महाशंख से विष पान किया था।
पुराणों के अनुसार एक बार भगवान विष्णुजी के कान के मैल से मधु-कैटभ नाम के दो भाईयों का जन्म हुआ। लेकिन धीरे-धीरे इनका उत्पात इतना बढ गया कि सारे देवता इनसे भय खाने लगे। दोनों भाइयों का उत्पात बहुत अधिक बढ़ जाने के बाद अंतत: इन्हें खत्म करने के लिए भगवान विष्णु को इनसे युद्ध करना पड़ा। इसमें भी मधु का अंत करने में विष्णुजी परेशान हो गये। हजारों साल के युद्ध के बाद अंत में उन्होंने उसका सिर काट कर उसे मंदार पर्वत के नीचे दबा दिया, किंतु उसकी वीरता से प्रसन्न होकर उसके सिर की आकृति पर्वत पर बना दी। यह आकृति यहाँ आने वाले भक्तों के लिए दर्शनीय स्थल बन चुकी है।
इतिहास: पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार मंदार पर्वत की अधिकांश मूर्तियाँ उत्तर गुप्त काल की हैं। इस काल में मूर्तिकला की काफ़ी सन्नति हुई थी। मंदार के सर्वोच्च शिखर पर एक मंदिर है, जिसमें एक प्रस्तर पर पद चिह्न अंकित है। बताया जाता है कि ये पद चिह्न भगवान विष्णु के हैं। किंतु जैन धर्म के मानने वाले इसे प्रसिद्ध तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य के चरण चिह्न बतलाते हैं और पूरे विश्वास और आस्था के साथ दूर-दूर से इनके दर्शन करने आते हैं। एक ही पदचिह्न को दो संप्रदाय के लोग अलग-अलग रूप में मानते हैं, लेकिन विवाद कभी नहीं होता। इस प्रकार यह दो संप्रदाय का संगम भी कहा जा सकता है। इसके अलावा पूरे पर्वत पर यत्र-तत्र अनेक सुंदर मूर्तियाँ हैं, जिनमें शिव, सिंह वाहिनी दुर्गा, महाकाली, नरसिंह आदि की प्रतिमाएँ प्रमुख हैं। चतुर्भुज विष्णु और भैरव की प्रतिमा अभी भागलपुर संग्रहालय में रखी हुई हैं।
संदर्भ: भारतकोश-मंदार पर्वत