Wazirabad
Author:Laxman Burdak, IFS (Retd.) |
Wazirabad (Urdu: وزِيرآباد), is an industrial city located in Gujranwala District, Punjab, Pakistan. Its ancient name was Sodra.
Location
Wazirabad is situated on the banks of the Chenab River nearly 100 kilometres north of Lahore on the Grand Trunk Road. It is 45 kilometres from Sialkot, 30 kilometres from the district capital - Gujranwala and about 12 kilometres from Gujrat. Wazirabad City is located near the south banks of the Chenab River near a village Chanawan where the picturesque Nala Palkhu, a snow stream from the Himalayas joins to this big river.
Jat clans
History
Wazirabad, literally the city of the Wazir, was first settled in 1542 CE. In 1636 CE Wazir Hakim Illmmudiddin, an amir of Shah Jahan constructed the first ever residential building of Wazirabad namely Musaman Burj on the bank of Palkhu Nala. During the reign of Emperor Aurangzeb another building namely Shesh Mahal at the east of Musaman Burj was built during 1705 CE. After the decline of the Mughal Empire, the Sikhs, who were natives of Punjab formed a secular empire and took charge of Wazirabad.
The town was first take over by Charat Singh around 1760 together with other towns in the District.[1] Maharaja Ranjit Singh (Punjab) occupied the town in 1809 and Avitabile was appointed as the Nazim of the city. He built an entirely new town, with a straight broad bazar running through it, and side streets at right angles.[2]
Sodara in Rajatarangini
Rajatarangini[3] tells that King Jaloka established eighteen places of worship, and built Vāravāla and other ediifices, and used to hear the Nandi Purana recited by disciple of Vyasa. He set up the god Jeshtharudra in Srinagara, and also worshipped the god Sodara.
Rajatarangini[4] tells that ....Rising from his sleep, King Sandhimati performed his morning devotions and re-paired to the celebrated shrine of Sodara. There in Nandikshetra he stood before the image of Mahadeva besmeared with ashes, his locks of hair tied, his hand holding a garland of seeds, while the old rishis looked on him with surprise. He spent his days in devotions and begging alms.
महाराजा रणजीतसिंह का गुजरात और वजीराबाद पर कब्जा
ठाकुर देशराज लिखते हैं - सन् 1809 में वजीराबाद का सरदार मर गया तो महाराज फौज लेकर वहां भी पहुंचे। क्योंकि वे जानते थे कि इस बीच कोई दूसरा सरदार कब्जा कर लेगा और इस तरह व्यर्थ उससे लड़ाई लड़नी होगी। लेकिन जोधसिंह के बेटे गंगासिंह ने एक लाख रुपया महाराज को भेंट में देकर आधीनता स्वीकार कर ली। साहबसिंह और उसके बेटे के बीच वैमनस्य था। इस वैमनस्य से लाभ उठाने के लिए महाराज ने अगले साल गुजरात पर चढ़ाई की। साहबसिंह ने भागकर जलालपुर के किले में शरण ली। महाराज ने वहां भी उसका पीछा किया। जलालपुर पर अधिकार कर लिया। साहबसिंह वहां से भी भागकर मंगलामाई में पहुंचा। इधर महाराज के जनरल अजीजुद्दीन ने गुजरात पर कब्जा कर लिया। महाराज ने खुश होकर उसके रिश्तेदार अजीजुद्दीन को गुजरात का हाकिम नियुक्त कर दिया। इसी भांति नजराना लेने के लिए फिर वजीराबाद पर धावा किया और उसे भी कब्जे में कर लिया।
सन् 1811 ई० में महाराज ने दीनानगर पहुंच कर उन पहाड़ी राजाओं से कर वसूल किये जो गुरु गोविन्दसिंह के समय में भी मुसलमानों के सहायक और सिखों के शत्रु रहे थे। नूरपुर के राजा से चालीस हजार नजराने में महाराज को मिले और उनके दीवान मुहकमचन्द और मौता डोगरा ने सुकेत, मण्डी और कुल्लू से खिराज प्राप्त किया। महाराज खूब समझते थे कि ये पहाड़ी राजा प्रजा की जान को बवाल हैं क्योंकि ये न तो अपनी प्रजा के जान-माल की रक्षा मुसलमानों से कर सकते हैं, न अपने धर्म के लिए खुद मरते-मिटते हैं। इसलिए उनकी इच्छा थी कि उनके समस्त राज्यों पर कब्जा कर लिया जाए। नूरपुर के राजा वीरसिंह को महाराज ने स्यालकोट बुलाया। किन्तु वह न आया तो इस आज्ञा-भंग के अपराध में उस पर इतना जुर्माना किया कि वह उसे पूरा न कर सका। इस पर
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-259
उसकी सारी जायदाद जब्त कर ली। वह भाग कर अंग्रेजों की शरण में पहुंचा। पर वे बेचारे उस समय इतने सशक्त न थे कि महाराज रणजीतसिंह के कार्यों में हस्तक्षेप कर सकते। उसके ससुर जबालसिंह की बहुत सी जागीर भी जब्त कर ली गई, क्योंकि उसका जामाता अंग्रेजों को उभारने के लिए उनके पास चला गया था।
इसके बाद महाराज ने माधौपुर आकर दशहरा मनाया। दशहरा की शान, शान ही थी। उसकी तारीफ करना हमारी शक्ति से बाहर है। इसी अवसर पर महाराज ने आज्ञा दी कि माधौपुर से लगाकर दरबार साहब तक एक नहर निकाली जाए। अवकाश मिलने पर फिर पहाड़ी राजाओं के देश में गये, क्योंकि उनसे आशा न थी कि ठीक समय पर खिराज भेज देंगे। सुकेत, मंडी और कुल्लू के राजे से नजराने वसूल करके वापस लौटे।
External links
References
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