Valmiki
Author of this article is Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल |

महर्षि वाल्मीकि प्राचीन भारतीय महर्षि हैं। वे आदिकवि के रुप में प्रसिद्ध हैं। उन्होने संस्कृत में रामायण की रचना की जो वाल्मीकि रामायण के नाम से भी जानी जाती है। रामायण एक महाकाव्य है जो कि श्रीराम के जीवन के माध्यम से हमें जीवन के सत्य से, कर्तव्य से, परिचित करवाता है। वाल्मीकि को प्राचीन वैदिक काल के महान् ऋषियों की श्रेणी में प्रमुख स्थान प्राप्त है।
वाल्मीकि के नाम पर मिथ्या कथायें
एक ऐसी कथा प्रचलित है कि महर्षि बनने के पहले वाल्मीकि रत्नाकर के नाम से जाने जाते थे। वे परिवार के पालन-पोषण हेतु दस्युकर्म करते थे। एक बार उन्हें निर्जन वन में नारद मुनि मिले। जब रत्नाकर ने उन्हें लूटना चाहा, तो उन्होंने रत्नाकर से पूछा कि यह कार्य किसलिए करते हो, रत्नाकर ने जवाब दिया परिवार को पालने के लिये। नारद ने प्रश्न किया कि क्या इस कार्य के फलस्वरुप जो पाप तुम्हें होगा उसका दण्ड भुगतने में तुम्हारे परिवार वाले तुम्हारा साथ देंगे। रत्नाकर ने जवाब दिया पता नहीं, नारदमुनि ने कहा कि जाओ उनसे पूछ आओ। तब रत्नाकर ने नारद ऋषि को पेड़ से बाँध दिया तथा घर जाकर पत्नी तथा अन्य परिवार वालों से पूछा कि क्या दस्युकर्म के फलस्वरुप होने वाले पाप के दण्ड में तुम मेरा साथ दोगे तो सबने मना कर दिया। तब रत्नाकर नारदमुनि के पास लौटे तथा उन्हें यह बात बतायी। इस पर नारदमुनि ने कहा कि हे रत्नाकर यदि तुम्हारे घरवाले इसके पाप में तुम्हारे भागीदार नहीं बनना चाहते तो फिर क्यों उनके लिये यह पाप करते हो। यह सुनकर रत्नाकर को दस्युकर्म से उन्हें विरक्ति हो गई तथा उन्होंने नारदमुनि से उद्धार का उपाय पूछा। नारदमुनि ने उन्हें राम-राम जपने का निर्देश दिया। रत्नाकर वन में एकान्त स्थान पर बैठकर राम-राम जपने लगे लेकिन अज्ञानतावश राम-राम की जगह मरा-मरा जपने लगे। कई वर्षों तक कठोर तप के बाद उनके पूरे शरीर पर चींटियों ने बाँबी बना ली जिस कारण उनका नाम वाल्मीकि पड़ा। कठोर तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने इन्हें ज्ञान प्रदान किया तथा रामायण की रचना करने की आज्ञा दी। ब्रह्मा जी की कृपा से इन्हें समय से पूर्व ही रामायण की सभी घटनाओं का ज्ञान हो गया तथा उन्होंने रामायण की रचना की। कालान्तर में वे महान् ऋषि बने।
उपरोक्त कथा पौराणिक, काल्पनिक और मिथ्या प्रतीत होती है। हो सकता है उनके हजारों साल बाद उनके नाम का कोई दूसरा व्यक्ति डाकू या अपराधी हो और ऐसी कथा ऋषि वाल्मीकि के नाम से प्रचलित हो गई हो। महर्षि वाल्मीकि वेदों के ज्ञाता, ऋषियों के ऋषि, योगियों के योगी तथा संगीतज्ञों के संगीतज्ञ थे। ऐसे व्यक्ति का जीवन भला डाकू-कर्म में लिप्त रहा हो, ऐसी कल्पना भी कैसे की जा सकती है?
आदिकवि वाल्मीकि
एक बार महर्षि वाल्मीकि नदी किनारे बैठे एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि एक बहेलिये ने कामरत क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके इस विलाप को सुन कर महर्षि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ाः
- मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
- यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥
अर्थात् अरे निषाद (बहेलिये), तूने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक को मार डाला है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं (मा प्रतिष्ठा त्वगमः) हो पायेगी।
हुआ यह कि वाल्मीकि जी उद्वेग में उक्त श्लोक तो बोल गए, लेकिन वैदिक मंत्रों को सुनने तथा बोलने के अभ्यस्त वह सोचने लगे कि उनके मुंह से यह क्या निकल गया? उन्होंने अपने शिष्य भरद्वाज से कहा, ‘मेरे शोकाकुल हृदय से जो सहसा शब्दों में अभिव्यक्त हुआ है, उसमें चार चरण हैं, हर चरण में अक्षर बराबर संख्या में हैं और उनमें मानो मंत्र की लय गूंज रही है। अर्थात् इसे गाया जा सकता है।
आदिकवि शब्द 'आदि' और 'कवि' के मेल से बना है। 'आदि' का अर्थ होता है 'प्रथम' और 'कवि' का अर्थ होता है 'काव्य का रचयिता'। वाल्मीकि ऋषि ने संस्कृत के प्रथम महाकाव्य की रचना की थी जो रामायण के नाम से प्रसिद्ध है। प्रथम संस्कृत महाकाव्य की रचना करने के कारण वाल्मीकि आदिकवि कहलाये।
तपोवन में लव और कुश का लालन-पालन
महर्षि वाल्मीकि के जीवन में दूसरी महत्वपूर्ण घटना तब घटी जब लोकनिन्दा के डर से श्रीराम ने गर्भवती सीता को त्याग दिया और उनके आदेश पर लक्ष्मण उन्हें तमसा नदी के किनारे छोड़ आए। नदी के किनारे असहाय बैठी सीता का रोना रुक ही नहीं रहा था। उनकी इस हालत की सूचना मुनि-कुमारों के द्वारा वाल्मीकि तक पहुंची। वह स्वयं तट पर पहुंचे और विकल-बेहाल सीता को देखा। उनका पितृत्व जागा और उन्होंने वात्सल्य से सीता के सिर पर हाथ फेरा और आश्वासन दिया कि वह पुत्रीवत् उनके आश्रम में आकर रहें। सीता चुपचाप उनके साथ चल कर आश्रम पहुंची और रहने लगीं। समय आने पर सीता ने दो पु़त्रों लव और कुश को जन्म दिया। इन पुत्रों की शिक्षा-दीक्षा सम्भाली वाल्मीकि जी ने और उन्हें न केवल शस्त्र और शास्त्र विद्याओं में निपुण बनाया, बल्कि राम-रावण युद्ध और बाद में सीता के साथ अयोध्या वापसी, सीता के वनवास और सीता के पुत्रों के जन्म तक पूरी रामायण कंठस्थ करा दी। यही नहीं, सीता के आश्रम आगमन के बाद उन्होंने रामायण को आगे लिखना भी शुरू कर दिया और इस खण्ड को नाम दिया उत्तरकाण्ड।
जब रामचन्द्र जी ने राजसूय यज्ञ शुरू किया तो यज्ञ का घोड़ा वाल्मीकि के आश्रम स्थल से भी गुज़रा। जिस घोड़े को तब तक कोई राजा नहीं रोक सका था, उसे लव-कुश ने रोका और उसके साथ चल रहे लक्ष्मण तथा सैनिकबल भी उनसे मुकाबला नहीं कर सके। वापस होकर लक्ष्मण ने इन दो ऋषि वेशधारी कुमारों के साहस की कथा रामचन्द्र जी को सुनाई। जिज्ञासा वश रामचन्द्र जी ने उन्हें अपने दरबार में बुलाया और परिचय पूछा। वाल्मीकि के साथ दरबार में पहुंचे लव-कुश ने, वाल्मीकि के आदेश को मानते हुए, अपना परिचय उनके (वाल्मीकि के) शिष्यों के रूप दिया और सीता के परित्याग तक पूरी कथा उन्हें गाकर सुनाई। स्वयं वाल्मीकि ने सीता की शुचिता (पवित्रता) की घोषणा की।
रामायण - संसार की सबसे लोकप्रिय कथा
रामायण की कहानी सबसे उत्तम कहानी बनी। इस कथा पर आधारित हजारों काव्य बने जिनमें महाकवि कालिदास का रघुवंशम् और गोस्वामी तुलसीदास का रामचरितमानस अति प्रसिद्ध है। भारत के अतिरिक्त दूसरे देशों में भी (इंडोनेशिया आदि में) इसी कथा पर आधारित अनेक पुस्तकें लिखी गईं और लोकश्रुतियां आज भी चली आती हैं।
External Links
- Valmiki Ramayana - with translation - developed by IIT Kanpur
- वाल्मीकि - भारतकोष
- http://www.valmikiramayan.net/
References
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