Aitihasik Sthanavali/Prastavana
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Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur: Aitihasik Sthanavali is a book by Vijayendra Kumar Mathur in Hindi. Vaigyanik tatha Takaniki Shabdawali Ayog, Goverment of India, 1990, Rajasthan Hindi Granth Akadami, Jaipur. (p.1040)
ऐतिहासिक स्थानावली: प्रथम संस्करण: 1969, द्वितीय संस्करण: 1990
लेखक - विजयेन्द्र कुमार माथुर, वैज्ञानिक तथा तकनिकी शब्दावली आयोग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार, प्रकाशक - राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर (p.1040)
प्रकाशकीय भूमिका
[p.iii]:राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी अपनी स्थापना के 20 वर्ष पूरे कर के 15 जुलाई, 1989 को 21 में वर्ष में प्रवेश कर चुकी है. इस अवधि में विश्व साहित्य के विभिन्न विषयों के उत्कृष्ट ग्रंथों के हिंदी अनुवाद तथा विश्वविद्यालय के शैक्षणिक स्तर के मौलिक ग्रंथों को हिंदी में प्रकाशित कर अकादमी ने हिंदी जगत के शिक्षकों, छात्रों एवं अन्य पाठकों की सेवा करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है और इस प्रकार विश्वविद्यालय स्तर पर हिंदी में शिक्षण के मार्ग को सुगम बनाया है.
अकादमी की नीति हिंदी में ऐसे ग्रंथों का प्रकाशन करने की रही है जो विश्वविद्यालय के स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों के अनुकूल हो. विश्वविद्यालय स्तर के ऐसे उत्कृष्ट मानक ग्रंथ जो उपयोगी होते हुए भी पुस्तक प्रकाशन की व्यवसायिकता की दौड़ में अपना समुचित स्थान नहीं पा सकते हों और ऐसे ग्रंथ भी जो अंग्रेजी की प्रतियोगिता के सामने टिक नहीं पाते हों, अकादमी प्रकाशित करती है. इस प्रकार अकादमी ज्ञान-विज्ञान के हर विषय में उन दुर्लभ मानक-ग्रंथों को प्रकाशित करती रही है और करेगी जिनको पाकर हिंदी के पाठक लाभान्वित ही नहीं, गौरवान्वित भी हो सकें. हमें यह कहते हुए हर्ष होता है कि अकादमी ने 350 से भी अधिक ऐसे दुर्लभ और महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन किया है जिनमें से एकाधिक केंद्र, राज्यों के बोर्डों एवं अन्य संस्थानों द्वारा पुरस्कृत किए गए हैं तथा अनेक विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा अनुशंसित हैं.
राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी को अपने स्थापना काल से ही भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय से प्रेरणा और सहयोग प्राप्त होता रहा है तथा राजस्थान सरकार ने इसके पल्लवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, अतः अकादमी अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में उक्त सरकारों की भूमिका के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करती है.
[p.iv]:प्रस्तुत पुस्तक ऐतिहासिक स्थानावली वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग,दिल्ली द्वारा द्वारा प्रकाशित पुस्तक का पुनर्मुद्रण है. इसे पुनर्मुद्रित करने के लिए आयोग के आभारी हैं. पुस्तक इतिहास के शोधार्थियों के लिए एक उपयोगी संदर्भ ग्रंथ सिद्ध होगा, ऐसी हमारी प्रत्याशा है.
अध्यक्ष, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी एवं शिक्षा मंत्री (उच्च शिक्षा) राजस्थान सरकार, जयपुर
प्रस्तावना (द्वितीय संस्करण)
[p.v]:भारतीय भाषाओं को स्नातक तथा स्नातकोत्तर स्तर पर शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाने के लिए आवश्यक है कि इन भाषाओं में न केवल विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाले शब्दों के पर्याय ही उपलब्ध हों बल्कि उच्च कोटि के प्रामाणिक ग्रंथ पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हों. इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भारत सरकार के आदेश पर सन् 1961 में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग की स्थापना हुई. आयोग अब तक विज्ञान, सामाजिक विज्ञान तथा मानविकी, वानिकी, रक्षा विज्ञान, इंजीनियरी, कृषि एवं आयुर्विज्ञान के लगभग 5 लाख शब्द पारिभाषिक शब्द संग्रह (अंग्रेजी-हिंदी) के रूप में प्रकाशित कर चुका है. हिंदी अंग्रेजी क्रम से भी शब्द संग्रह प्रकाशित किए गए हैं.
आयोग ने हिंदी माध्यम से पठन-पाठन करने वाले छात्र-शिक्षकों के उपयोग के लिए अब तक विभिन्न विषयों के 34 परिभाषा कोश और पूरक सामग्री के रूप में लगभग 20 पाठमालाएं, चयनिकाएं, पत्रिकाएं, पाठ-संग्रह आदि भी प्रकाशित किए हैं.
आयोग ने अखिल भारतीय शब्दावली परियोजना का कार्य भी हाथ में लिया है, जिसमें अखिल भारतीय शब्दों की पहचान की जाती है. अब तक विभिन्न विषयों के लगभग 15,000 ऐसे शब्दों की पहचान की जा चुकी है जो कि देश की सभी या अधिकांश भाषाओं में प्रचलित हैं अथवा उन्हें स्वीकार्य हो सकते हैं. इन विषय वार शब्दावलियों को प्रकाशित करके निशुल्क वितरित किया जा रहा है.
भारतीय भाषा में ज्ञान-विज्ञान की सभी शाखाओं में पर्याप्त ग्रंथ उपलब्ध कराने के उद्देश्य से केंद्र सरकार के अनुदान से सभी राज्यों में अकादमियाँ अथवा राज्य-पाठ्य पुस्तक मंडल स्थापित किए गए हैं. इनके कार्य-कलापों के बीच तालमेल रखने और इनकी प्रगति का जायजा लेते रहने का उत्तरदायित्व आयोग को सौंपा गया है. ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न विषयों में हिंदी माध्यम से अध्ययन-अध्यापन के कार्य को सुगम बनाने के लिए आयोग विश्वविद्यालय के अध्यापकों के लिए शब्दावली
[p.vi]: कार्याशालाएँ/ प्रशिक्षण कार्यक्रम भी संचालित करता है इस प्रक्रिया में प्राध्यापकों तथा प्रयोक्ताओं से आयोग द्वारा विकसित शब्दावली के संबंध में फीडबैक (प्रति सूचना) प्राप्त होता है.
आयोग हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध समस्त वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली के प्रचार-प्रसार हेतु कंप्यूटर आधारित डाटा बेस तैयार कर रहा है जिसका उपयोग प्रस्तावित “राष्ट्रीय शब्दावली बैंक” की धारणा को मूर्त रूप देने के लिए किया जाएगा. इससे आयोग प्रयोक्ताओं को उक्त शब्दावली के बारे में अधिकृत जानकारी सुगमता से उपलब्ध करा सकेगा.
आयोग हिंदी माध्यम की विश्वविद्यालय स्तरीय पाठ्य पुस्तकें तथा तकनीकी साहित्य विभिन्न राज्यों में स्थित हिंदी ग्रंथ अकादमी के माध्यम से प्रस्तुत करता है. स्वर्गीय श्री विजयेन्द्र कुमार माथुर द्वारा लिखित प्रस्तुत ग्रंथ उसी श्रृंखला की एक कड़ी है तथा ऐतिहासिक एवं भौगोलिक दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है. यह पुस्तक अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुई है. इसका पहला संस्करण समाप्त हो गया है. इस ग्रंथ का पुनर्मुद्रण कराने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी ने इसके प्रकाशन का भार अपने ऊपर लिया है. हमें आशा है कि अकादमी इसी कोटि के ग्रंथों का प्रकाशन कर हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि करती रहेगी.
प्रो. सूरजभान सिंह
अध्यक्ष, वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग नई दिल्ली
नई दिल्ली, 1990
प्रस्तावना (प्रथम संस्करण)
[p.vii]: भारत सरकार की निश्चित और दृढ़ नीति है कि शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाओं को होना चाहिए. यह निश्चय भारतीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों द्वारा तथा संघ की संसद द्वारा अनुमोदित है और यह प्रयत्न है कि शीघ्रातिशीघ्र अंग्रेजी के स्थान पर भारतीय भाषाएं माध्यम का रूप ग्रहण करलें. इस अभिप्राय को कार्य रूप देने के लिए आवश्यक है कि भारतीय भाषाओं में पारिभाषिक शब्दावली निश्चित हो जाए और तब आवश्यक साहित्य उपस्थित किया जाए. इस आयोग की स्थापना इसी अभिप्राय से 1961 में हुई थी और तब से प्रथमत: पारिभाषिक शब्दावली का निर्माण इस आयोग का मुख्य ध्येय रहा है. यह शब्दावली अब प्राय: सर्वांश में तैयार है और इसका उपयोग ग्रंथों के निर्माण में किया जा रहा है. विश्वविद्यालय स्तर के उच्च कोटि के प्रामाणिक ग्रंथों को उपस्थित करना भी इस आयोग का उद्देश्य है. इस निमित्त आयोग ने विविध साधनों के द्वारा अंग्रेजी आदि भाषाओं से ग्रंथों का अनुवाद कराया है और कुछ मौलिक ग्रंथ भी उपस्थित किए हैं. प्रस्तुत ग्रंथ इतिहास और भूगोल की दृष्टि से बहुत महत्व रखता है. इसके पूर्व अंग्रेज विद्वानों ने इस दिशा में काम किया था. अब हिंदी में भी यह सामग्री श्री विजेयेन्द्र कुमार माथुर द्वारा प्रस्तुत की जा रही है. श्री माथुर इस आयोग में वरिष्ठ अनुसंधान अधिकारी हैं और उन्होंने इस विषय का बड़े परिश्रम से अध्ययन किया है. हमें विश्वास है कि इस ग्रंथ से हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि होगी और इसका सभी क्षेत्रों में स्वागत किया जाएगा.
बाबूराम सक्सेना
अध्यक्ष, वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग
नई दिल्ली 26 फरवरी 1969
दो शब्द (प्रथम संस्करण)
[p.ix]: प्राचीन भारतीय साहित्य की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उसमें प्रतिबिंबित जनजीवन में भौगोलिक चेतना का पूर्ण रूप से सन्निवेश है. इसका एकमात्र कारण यही हो सकता है कि हमारे पूर्वपुरुष अपने विशाल देश के प्रत्येक भाग से भली प्रकार परिचित थे तथा उनको भारत के बाहर के संसार का भी विस्तृत ज्ञान था. वाल्मीकि रामायण, महाभारत, पुराण आदि ग्रंथों तथा कालिदास आदि महाकवियों की रचनाओं में प्राप्त भौगोलिक सामग्री की विपुलता इस बात की साक्षी है. वास्तव में प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति एकता के जिन सुदृढ़ सूत्रों में निबंद्ध थी उनमें से एक सूत्र भारतीयों की व्यापक भौगोलिक भावना भी थी जिसके द्वारा सारे भारत के विभिन्न स्थान- पर्वत, वन, नदी-नद, सरोवर, नगर और ग्राम उनके सांस्कृतिक एवं धार्मिक जीवन का अभिन्न अंग ही बन गए थे. वाल्मीकि, व्यास और कालिदास के लिए हिमालय से कन्याकुमारी और सिंधु से कामरूप तक भारत का कोई कोना अपरिचित या अजनबी नहीं था. प्रत्येक भाग के निवासी, उनका रहन-सहन, वहां के जीव जंतु या वनस्पतियां और विशिष्ट दृश्यावली – ये सभी तथ्य इन महाकवियों और मनीषियों के लिए अपने ही और अपने घर के समान ही प्रिय एवं परिचित हैं. वाल्मीकि रामायण के किष्किंधाकांड, महाभारत के वनपर्व और कालिदास के मेघदूत और रघुवंश के चतुर्थ एवं त्रयोदश सर्गों के अध्ययन से उपयुक्त धारणा की पुष्टि होती है. इतने प्राचीन काल में जब भारत में यातायात की सुविधाएं अपेक्षाकृत कम थी, भारतीयों की स्वदेश विषयक भौगोलिक एकता की भावना को जगाए रखने में इन राष्ट्रीय एवं लोकप्रिय कविगणों ने जो महत्वपूर्ण योग दिया था उसका मूल्य आंकना भी हमारे लिए आज संभव नहीं है.
बौद्ध साहित्य में, विशेषकर जातको में, तथा जैन साहित्य के तीर्थग्रंथों में हमें इसी भौगोलिक चेतना के दर्शन होते हैं.
[p.x]: हमारे प्राचीन साहित्य तथा इतिहास में वर्णित स्थानों का अध्ययन उपर्युक्त सांस्कृतिक विशेषताओं का द्योतक होने के साथ ही अपने आप में भी कुछ कम महत्व का नहीं क्योंकि इन स्थानों से स्वाभाविक रूप से ही साहित्य अथवा इतिहास के परिवेश एवं परिस्थितियों का निकटतम संबंध है. वास्तव में साहित्यिक कल्पनाओं एवं ऐतिहासिक घटनाओं को तत्संबंधित स्थान-नामों द्वारा एक प्रकार का भौतिक आधार प्राप्त होता है जिसके बिना साहित्य या इतिहास का परिप्रेक्ष्य नहीं बनता और उसके उपर्युक्त अवबोधन में भी कठिनाई होती है. इस प्रकार साहित्यिक अथवा तथा ऐतिहासिक स्थानों के अध्ययन का सांस्कृतिक और शैक्षिक दोनों ही प्रकार का महत्व है. इसी दृष्टि से मैंने इस कोश की रचना का कार्य अनेक वर्ष पूर्व प्रारंभ किया था. हिंदी और अंग्रेजी में इस दिशा में कई प्रयास हुए हैं किंतु बृहद् अनुमाप पर इस प्रकार के कार्य की अपेक्षा अभी तक बनी हुई है.
प्रस्तुत कोश में लगभग चार सहस्त्र प्राचीन व मध्ययुगीन स्थान नामों का परिचय एवं विवेचना है जिनमें से अनेक प्रसिद्ध नामों पर विश्वकोशीय स्तर के विस्तृत लेख दिए हैं. प्रत्येक प्रविष्टि को ऐतिहासिक एवं साहित्यिक विवेचन की दृष्टि से पूर्ण बनाने का प्रयत्न किया गया है. वर्ण-क्रम सामान्यतः इस प्रकार है - स्थिति, अभिज्ञान, नाम की व्युत्पत्ति, साहित्य या इतिहास से कालक्रम अनुरूप उद्धरण, लोक श्रुतियों या किंवदंतियों का उल्लेख, स्थान की विशेषता तथा पुरातत्व विषयक तथ्य और वर्तमान रूप.
ग्रंथ के प्रणयन तथा कोशविधि से उसके संकलन में मुझे प्राय 12 वर्षों का दीर्घ समय लगा और अनेक वर्षों तक लगातार कठोर परिश्रम के फलस्वरुप ही इतनी सामग्री का चयन तथा उसका निबंधन संभव हो सका है. अनेक स्थलों पर मैंने अपनी सद्भावनाओं का प्रतिपादन किया है, कई स्थानों के नए अभिज्ञयाान सुझाए हैं तथा कई के विषय में अब तक अज्ञात साहित्यिक उद्धरण का उल्लेख किया है. अधिकांश स्थलों पर मेरा यह प्रयत्न रहा है कि प्राचीन साहित्य का साक्ष्य देते समय केवल संदर्भ का निर्देश ही न करके, उसमें आए हुए पूरे पद्यांश को ही उद्धृत करूं. ऐसे उद्धरण मैंने वाल्मीकि रामायण, महाभारत, पुराणों तथा कालिदास के ग्रंथों से प्रचुरता से लिए हैं क्योंकि ये ग्रंथ हमारे सांस्कृतिक जीवन के आधार स्तंभ हैं. संस्कृत, पाली, अपभ्रंश तथा हिंदी एवं अन्य भाषाओं के साहित्य में वर्णित सांस्कृतिक स्थलों की इतिहास के रथ द्वारा यह यात्रा बहुत भव्य और हमारे राष्ट्र की एकता की परिचायक है. भारतीय संस्कृति के परिवेश में परिपालित बृहत्तर भारत की संस्कृतियों से संबंधित अनेक स्थान नामों को भी इस कोश में सम्मिलित कर लिया गया है. ग्रंथ के नामकरण में मैंने ‘ऐतिहासिक’ शब्द में इतिहास के अतिरिक्त प्राचीन साहित्य, परंपरा और अनुश्रुति का
[p.xi]: विन्निवेश किया है. मध्ययुगीन स्थान-नामों को भी इस कोश में रखा गया है क्योंकि भारतीय इतिहास की परंपरा के निरंतर प्रवाह ने उसकी अविच्छिन्न सांस्कृतिक एकता को सभी कालों में अनुप्राणित किया है और इस दृष्टि से सारे इतिहास की मूल धारा को कालों में विभाजित नहीं किया जा सकता. केवल आधुनिक समय (ब्रिटिश काल के पश्चात) को ही मैंने प्राचीन इतिहास के घेरे से बाहर समझा है.
ग्रंथ की रचना में मूल स्रोतों के अतिरिक्त वर्तमान समय में हिंदी, अंग्रेजी या अन्य भाषाओं में लिखे गए अनेक ग्रंथों, कोशों और पत्र-पत्रिकाओं से सहायता ली है (देखें, सहायक ग्रंथ-सूची), जिनके लेखकों के प्रति में धन्यवाद प्रकट करता हूं.
इस पुस्तक के लिखने की प्रेरणा अनेक वर्ष हुए 1946 में, प्रसिद्ध भाषाविज्ञ डॉ.सिद्धेश्वर वर्मा से मुझे मिली थी. उन्होंने इसकी प्रगति में भी सदा ही अपनी गहरी अभिरुचि रखी है और भांति-भांति के, विशेषकर स्थान नामों की व्युत्पत्ति के संबंध में, सुझाव देकर मुझे अनुगृहीत किया है. पूज्य गुरुवर डॉ बाबूराम सक्सेना (भूतपूर्व उपाध्यक्ष तथा वर्तमान अध्यक्ष वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग) ने इस पुस्तक को देखकर इसकी सराहना की तथा उसे आयोग की मानक ग्रंथ प्रकाशन-योजना के अंतर्गत लिए जाने के लिए आदेश दिया. इस कृपा के लिए मैं आभारी रहूंगा. मेरे सुपुत्र विनय कुमार, एमए ने अनेक स्थानों के विषय में ऐतिहासिक एवं अनुसंधानात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण सूचना दी है. ग्रंथ की सामग्री के विषय में कई उपयोगी सुझावों के डॉ. कृष्णदत्त वाजपेयी, प्राध्यापक, प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति, सागर विश्वविद्यालय तथा डॉ. राम कुमार दीक्षित, प्राध्यापक प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति, लखनऊ विश्वविद्यालय, को मैं हृदय से धन्यवाद देता हूं.
मेरी धर्मपत्नी श्रीमती दुर्गेशनंदिनी बी.ए. और सुपुत्री कुमारी विनीता एमए (फाइनल) ने ग्रंथ की पांडुलिपि तैयार करने में जो सहयोग दिया और तत्परता दिखाई उसके बिना पुस्तक को समय पर प्रकाशनार्थ तैयार किया जाना संभव नहीं था.
श्री महेंद्र कुमार अग्रवाल, एमए. ने पुस्तक के प्रूफ आदि देखने में मेरी जो सहायता की है उसके लिए मैं उन्हें धन्यवाद देता हूं.
[p.xii]: अपनी मातृभाषा हिंदी के विशाल मंदिर में अपनी इस अकिंचन भेंट को भक्ति पूर्वक चढ़ाते हुए मुझे जो गर्व-मिश्रित हर्ष तथा आत्मपरितोष की अनुभूति हो रही है उसे मैं कैसे व्यक्त करूं?
अंत में, मैं अपने माता-पिता की पुण्य स्मृति में इस ग्रंथ को समर्पित करता हूं.
महाशिवरात्रि, 15.2.1969