Bahadurshah Zafar

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Author of this article is Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल

Mirza Abu Zafar Sirajuddin Muhammad Bahadur Shah Zafar (Also known as Bahadur Shah II and simply Bahadur Shah Zafar, was the last Mughal emperor of Delhi. He became the successor to his father on 28 September 1837. He used Zafar (translation: victory) a part of his name as an Urdu poet and wrote many Urdu ghazals. He was a nominal Emperor, as the Mughal Empire existed in name only and his authority was limited only to the city of Delhi. Following his involvement in the Indian Independence Movement of 1857, the British exiled him to Rangoon in British-controlled Burma, after convicting him on conspiracy charges in a kangaroo court. He died at Yangon in 1862 at the age of 87.

Bahadur Shah Zafar presided over a Mughal Empire that barely extended beyond Delhi's Red Fort. The Maratha Empire had brought an end to the Mughal Empire in the 18th century and the regions of India under Mughal rule had either been absorbed by the Marathas or declared independence and turned into smaller kingdoms. The East India Company had became the dominant political and military power in mid-nineteenth century. The emperor was respected by the Company and had given him a pension. The emperor permitted the Company to collect taxes from Delhi and maintain a military force in it. Zafar never had interest in statecraft or had any imperial ambition.

Rebellion of 1857

When the victory of the British became certain, Zafar took refuge at Humayun's Tomb, in an area that was then at the outskirts of Delhi. Company forces surrounded the tomb and Zafar surrendered on 20 September 1857. However, British forces had to fight a tough battle with Raja Nahar Singh of Ballabhgarh who had encircled British forces near the Humayun Tomb.

By an act of treachery, Britishers imprisoned Nahar Singh who was later hanged to death on 9 January 1858.

The next day (21 Sept. 1857) British forces shot Zafar's sons Mirza Mughal and Mirza Khizr Sultan, and grandson Mirza Abu Bakr at the Khooni Darwaza near the Delhi Gate, the main road which is now known as Bahadur Shah Zafar Marg.

बहादुरशाह जफर और जाट

(सन् 1837-1857 ई०)

सन् 1857 ई० में भारतीय क्रांतिकारी वीरों ने अंग्रेज शासकों से भारत की स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ी। इस स्वाधीनता संग्राम का अनेक लेखकों ने ‘गदर’ या ‘विद्रोह’, ‘सैनिक विद्रोह’, ‘हिन्दू मुस्लिम संगठित षड्यन्त्र’, ‘महान् क्रांति’ तथा ‘प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम’ आदि विभिन्न नामों से पुकारा है। किन्तु वास्तव में वह ‘गदर’ या ‘विद्रोह’ नहीं, अपितु एक राष्ट्रीय और शुद्ध धार्मिक युद्ध था। अंग्रेज इतिहास लेखक जस्टिन मैक्कार्थी ने इस सत्य की संपुष्टि की है। वह लिखता है “A National and Religious War” (History of our own times, Vol. iii)

वीर सावरकर तथा अशोक मेहता के लेखों अनुसार यह “प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम था जिसका उद्देश्य भारत से ब्रिटिश शासन को समाप्त करना था। यह युद्ध स्वराज्य तथा स्वधर्म के लिए लड़ा गया। इस युद्ध में भारतीय वीर सैनिकों एवं देश के विभिन्न भागों के लोगों ने भाग लिया। दुर्भाग्य से यह युद्ध सफल न हो सका।”

सन् 1857 ई० के स्वतन्त्रता संग्राम के संक्षिप्त मुख्य कारण -

‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ के सेनापति लार्ड क्लाईव ने जून सन् 1757 ई० में बंगाल के नवाब


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-595


सिराजुद्दौल को प्लासी के युद्ध में पराजित किया और उसे कम्पनी ने बंगाल का गवर्नर नियुक्त कर दिया। सन् 1757 से लेकर सन् 1857 ई० तक अंग्रेजों ने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सैनिक क्षेत्रों में इस प्रकार की नीति अपनाई थी कि भारतीय लोग, सैनिक तथा देशी शासक उनके विरुद्ध होते गये और अंग्रेजों के शासन के प्रति अशान्ति तथा असन्तोष की भावनायें प्रति वर्ष बढ़ती गयीं। इस प्रकार सन् 1857 ई० से पहले तुरन्त आग पकड़ने वाली सामग्री काफी मात्रा में इकट्ठी हो चुकी थी। सेना में चर्बी वाले कारतूसों के मामले ने तो दियासलाई का काम किया।

(क) राजनीतिक कारण

(1) अंग्रेज गवर्नर-जनरलों की यह नीति थी कि युद्ध अथवा कूटनीति द्वारा भारत के विभिन्न भागों में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार किया जाये। लार्ड वेलज़ली तथा लार्ड हेस्टिंग्ज ने अपनी सहायक प्रणाली (सबसीडियरी सिस्टम) द्वारा देशी राज्यों में विदेशी प्रभुत्व फैलाना आरम्भ किया। सहायक प्रणाली के शिकार निम्नलिखित देशी राज्य थे - हैदराबाद, मैसूर, तंजौर, अवध, कर्नाटक, नागपुर, ग्वालियर, इन्दौर, बड़ौदा, भोपाल, जयपुर, जोधपुर आदि। इन राज्यों में प्रभाव के साथ-साथ कई पर अपना अधिकार भी जमा लिया। इसी प्रकार विलियम बैंटिक ने कुर्ग व कछार को और एलिनबरा ने सिन्ध को अपने हाथों में ले लिया और साम्राज्यवादी डाल सम्पूर्ण भारत में अत्याचारों से फैलने लगा। परन्तु अंग्रेजों की इस कुटिल साम्राज्यवादी नीति का देशी राज्यों और भारतीय लोगों ने विरोध किया और इन्हें भारत की भूमि से हटाने का प्रयास करने लगे।

(2) डलहौजी का लैप्स (राज्य हड़पने) का सिद्धान्त - डलहौज़ी ने अपने सन् 1848 से 1856 ई० के शासनकाल में राज्य हड़पने का सिद्धान्त बहुत ही निर्दयता से लागू किया। इस नीति का यह अभिप्राय था कि कोई भी सन्तानहीन देशी नरेश, नवाब या राजा ब्रिटिश सरकार की आज्ञा के बिना किसी बालक को गोद नहीं ले सकता था। कुछ देशी रियासतों के राजाओं की सन्तान नहीं थी। उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के लिए डलहौजी से आज्ञा मांगी, उन्होंने नहीं दी और उनका राज्य अपने साम्राज्य में मिला लिया। लैप्स सिद्धान्त के अनुसार उसने 1848 ई० में सतारा, 1850 ई० में जैतपुर, सम्भलपुर और बघाट, 1852 ई० में उदयपुर, 1853 ई० में झांसी और 1854 ई० में नागपुर को अपने प्रभुत्व में ले लिया। डलहौजी की इस साम्राज्यवादी नीति से भारत में आतंक छा गया और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई अपनी झांसी को पुनः प्राप्त करने के लिए अंग्रेजों का विरोध करने लगी। इस नीति ने 1857 ई० के स्वतन्त्रता युद्ध की रूपरेखा बना दी थी।

(3) नाना साहिब की पेन्शन बन्द करना - लार्ड डलहौजी ने तंजोर तथा कर्नाटक के शासकों की उपाधियां तथा पेन्शन समाप्त कर दीं। सन् 1852 में जब अन्तिम पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु हुई तो डलहौजी ने उसके गोद लिए पुत्र धोंदूपन्त अथवा नाना साहिब की पेन्शन भी बन्द कर दी। सन् 1857 के आरम्भ में यही नाना साहिब क्रान्तिकारियों का प्रमुख अगुआ बना था।

(4) अवध का विलय - लार्ड डलहौजी ने सन् 1856 ई० में अवध के नवाब वजीर वाजिद अलीशाह को गद्दी से उतार दिया तथा अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। इससे अवध


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का नवाब एवं उसके साथी ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध हो गये और उन्होंने बड़े उत्साह से 1857 ई० की क्रान्ति में भाग लिया।

(5) मुगल सम्राट् के प्रति अनादरभाव - लार्ड हेस्टिंग्ज ने मुगल सम्राट् को उपहार देने बन्द कर दिये और कुछ समय के बाद ब्रिटिश सम्राट् के नाम पर सिक्के चलाने आरम्भ कर दिए। लार्ड एलिनबरा तथा लार्ड डलहौजी ने तो मुग़ल सम्राट् बहादुरशाह को राजमहल, किले तथा उपाधि से वंचित करने की भी योजनाएं बनाईं। इससे बहादुरशाह अंग्रेजों का शत्रु बन गया। मुसलमान अंग्रेजों के विरुद्ध भड़क उठे। अतः 1857 ई० में दिल्ली विद्रोहियों का कार्यालय तथा केन्द्र बना।

(ख) प्रशासनिक कारण

  1. भारत पर इंग्लैंड से शासन।
  2. अंग्रेज कर्मचारियों का भारतीयों से बुरा व्यवहार।
  3. भारतीयों को उच्च नौकरियों से वंचित करना।
  4. कानून-निर्माण कौंसिल में भारतीयों को स्थान न देना।
  5. ब्रिटिश न्याय-प्रणाली का अप्रिय होना।

(ग) आर्थिक कारण

  1. देश का आर्थिक शोषण। उद्योग-धन्धों का ह्रास।
  2. विलियम बैंटिक की भूमियां छीनने की नीति।
  3. जैकसन का अवध के ताल्लुकदारों से कठोर व्यवहार।
  4. लोगों में बेकारी तथा गरीबी।

(घ) भारतीय शिक्षा का सर्वनाश

अंग्रेजों के भारत में आने से पूर्व यूरोप के किसी भी देश में शिक्षा का इतना प्रचार नहीं था जितना कि भारतवर्ष में था। मुख्य-मुख्य नगरों में विद्यापीठें स्थापित थीं। छोटे बालकों की शिक्षा के लिए प्रत्येक गांव में पाठशालायें थीं, जिनका संचालन पंचायतों की ओर से किया जाता था। इंगलिस्तान पार्लियामेंट के सदस्य केर हार्डी ने अपनी पुस्तक ‘इण्डिका’ में लिखा है - “मैक्समूलर ने, सरकारी उल्लेखों और मिशनरी की रिपोर्ट के आधार पर जो बंगाल पर कब्जा होने से पूर्व वहां की शिक्षा अवस्था के सम्बन्ध में लिखी गई थी, लिखा कि उस समय बंगाल में 80,000 पाठशालायें थीं।”

भारत के जिस-जिस प्रान्त में ‘कम्पनी’ का राज्य स्थापित होता गया, उस-उस प्रान्त में सहस्रों वर्ष पुरानी शिक्षा सदा के लिए मिटती चली गई। हमारे प्राचीन इतिहास और साहित्य को नष्ट कर उसके स्थान में मिथ्या इतिहास लिखवाकर भारतीय स्कूलों में पढ़ाना प्रारम्भ किया गया। सखेद लिखना पड़ता है कि वही मिथ्या इतिहास स्वतन्त्र भारत में आज भी पढ़ाया जा रहा है। प्रारम्भ में प्रायः सभी अंग्रेज शासक भारतीयों को शिक्षा देने के कट्टर विरोधी थे। जे० सी०


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मार्शमैन ने 15 जून 1853 ई० को पार्लियामेन्ट की सिलेक्ट कमेटी के सम्मुख साक्षी देते हुए कहा था - “भारत में अंग्रेजी राज्य के कायम होने के बहुत दिन बाद तक भारतवासियों को किसी प्रकार की भी शिक्षा देने का प्रबल विरोध किया जाता रहा।”

अंग्रेजों ने हमारे इतिहास, साहित्य और शिक्षा प्रणाली का सर्वनाश कर डाला।

(ङ) भारतीयों को ईसाई बनाने की आकांक्षा

सन् 1857 ई० से बहुत पूर्व से ही कूटनीतिज्ञ अंग्रेजों को भारतीयों को ईसाई बनाने में ही अपने राज्य की स्थिरता दिखाई देती थी। ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ के अध्यक्ष मिस्टर मैंगल्स ने 1857 में पार्लियामेन्ट में कहा था - “परमात्मा ने हिन्दुस्तान का विशाल साम्राज्य इंगलिस्तान को सौंपा है, इसलिए ताकि हिन्दुस्तान के एक सिरे से दूसरे सिरे तक ईसा मसीह का विजयी झण्डा फहराने लगे। हम में से प्रत्येक को अपनी पूरी शक्ति इस कार्य में लगा देनी चाहिए जिससे समस्त हिन्दुस्तान को ईसाई बनाने के महान् कार्य में देशभर के अन्दर कहीं पर भी किसी कारण थोड़ी-सी भी ढील न होने पाये।”

इसी का समकालीन एक दूसरा विद्वान् अंग्रेज रेवरेण्ड कैनेडी लिखता है - “हम पर कुछ भी आपत्तियां क्यों न आयें, जब तक भारत में हमारा साम्राज्य है तब तक हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा मुख्य कार्य इस देश में ईसाई मत को फैलाना है। जब तक कन्याकुमारी से लेकर हिमालय तक सारा हिन्दुस्तान ईसा के मत को ग्रहण न कर ले और हिन्दू तथा मुसलमान धर्मों की निन्दा न करने लगें तब तक हमें निरन्तर प्रयत्न करते रहना चाहिए। इस कार्य के लिए हम जितने प्रयत्न कर सकें, हमें करने चाहियें और हमारे हाथ में जितने अधिकार और जितनी सत्ता है, उसका इसी के लिए उपयोग करना चाहिए।”

यही विचार लार्ड मैकाले के लेखों में भी पाये जाते हैं जिसने भारतीय शिक्षा-प्रणाली का सबसे अधिक नाश किया। वह लिखता है -

“हमें भारत में इस प्रकार की एक श्रेणी पैदा कर देने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए जो कि हमारे और उन करोड़ों भारतीयों के बीच जिन पर हम शासन करते हैं, समझाने-बुझाने का काम करें। ये लोग ऐसे होने चाहियें जो कि केवल रक्त और रंग की दृष्टि से हिन्दुस्तानी हों किन्तु अपनी रुचि, भाषा, भाव और विचारों की दृष्टि से अंग्रेज हों।”

भारत में पादरियों ने ईसाई धर्म का प्रचार आरम्भ किया। सेना में ईसाई बनने का विचार काफी जोर पकड़ चुका था। अकाल के समय एवं निर्धन लोगों को ईसाई बनाया गया। जन-साधारण में यह बात फैल गई थी कि नवीन गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग को भारतवासियों को ईसाई बनाने के लिए भारत भेजा गया है। अपने धर्म की रक्षा के लिए भारतीयों ने 1857 ई० में एक क्रान्ति को जन्म दिया जिसमें सेना में भी यह भावना आई।

(च) सैनिक कारण

(1) भारतीय सैनिकों को यूरोपियन सैनिकों से हीन समझा जाना।
(2) भारतीय सैनिकों के कम वेतन तथा भत्ते।
(3) जिन रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया गया उनके सैनिक बेरोजगार हो गये।

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(4) चरबी वाले कारतूसों का मामला - सन् 1856 ई० में सरकार ने पुरानी बन्दूकों के स्थान पर सैनिकों को नई बन्दूकें जिन्हें ‘एन्फील्ड राईफ़ल्ज’ (Enfield Rifles) कहा जाता था, देने का निश्चय किया। इन राईफलों के कारतूसों में सुअर और गाय की चरबी प्रयोग की जाती थी और सैनिकों को राईफलों में गोली भरते समय कारतूस के ऊपर के सिरे को अपने दांतों से काटना पड़ता था। इस पर हिन्दू तथा मुसलमान सैनिक भड़क उठे। उन्हें यह विश्वास हो गया था कि अंग्रेज सरकार उनके धर्म को नष्ट करना चाहती है। अतः उन्होंने बड़े साहस तथा उत्साह से अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतन्त्रता संग्राम आरम्भ कर दिया।
नोट
अंग्रेजी इतिहासकार सर जान के (Kaye) भी स्वीकार करते हैं कि “दिसम्बर 1853 ई० में कर्नल टकर ने बहुत साफ शब्दों में इस बात को लिखा था कि नए कारतूसों में गाय और सुअर दोनों की चर्बी लगाई जाती थी।” तथा स्वयं सर जान के (Kaye) स्वीकार करते हैं कि “इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस चिकने मसाले के बनाने में गाय की चर्बी का उपयोग किया गया था।”[1]

References


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