Choudhary Bahadur Singh Bhoubhia: Kisan Koum me Shiksha Kranti ke Praneta

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लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

चौधरी बहादुरसिंह भौभिया
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चौधरी बहादुरसिंह भौभिया: किसान क़ौम में शिक्षा-क्रांति के प्रणेता

जाने वो कैसे लोग थे जो जिए और मरे औरों के लिए। आइए, ज़रा झांकिए इतिहास के झरोखे से और जानिए उन हस्तियों के बारे में जिन्होंने बेज़ुबानों को ज़ुबान दी। सैल्यूट उन शख़्शियतों को जिन्होंने अशिक्षा की अंधेरी सुरंग में छटपटाती मेहनतकश क़ौम के लिए पढ़ाई-लिखाई की लौ जलाई। ज़ुनूनी थीं वो विभूतियां जिन्होंने मुसीबतों की आंधियों से मुकाबला करते हुए शिक्षा-दीप की लौ को बुझने से बचाये रखा।

समाज में जागृति का बिगुल बजाया

भूल गए हैं हम हमारी विरासत के शिल्पकारों को जिन्होंने समाज में जागृति का बिगुल बजाने, शिक्षा का उजाला फैलाने और समाज- सुधार के लिए ख़ूब कष्ट सहे, कंटकाकीर्ण राह के राही बने। "दुनिया में केवल एक चीज अच्छी है- ज्ञान। केवल एक ही चीज बुरी है- अज्ञान।" सुकरात के इस कथन के मर्म को शायद उन्होंने समझा होगा। इसीलिए वे हाशिए पर धकेले गए और दमित-वंचित वर्ग की आवाज़ बनकर उभरे ।

भावी पीढ़ियों को शिक्षा के ज़रिए सशक्त कर उन्हें अपने हक़ की हुंकार भरने की हिम्मत देने में हमारे पूर्वजों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। उन परवानों को परवाह नहीं थी अपने आज की। उन्हें तो परवाह थी भावी पीढ़ियों के बेहतर कल की। ये वो दीवाने थे जो ज़माने से आगे की सोचने वाले थे। विज़न था उनके पास। ज़ुनूनी थे वो। जीवटता और जुझारूपन की मिसाल क़ायम करने वाले थे। ख़ुद को ख़ुद के परिवार तक समेटे रखना उनकी फ़ितरत में नहीं था। समाज के हितसाधक बनकर हर क़िस्म की जोख़िम उठाई और इतिहास रच गए। जो ठान लिया वो करके ही दम लिया। डरे नहीं, डिगे नहीं, झुके नहीं, थके नहीं, बिके नहीं। जिंदगी की अंतिम सांस तक संघर्ष के डगर पर आगे बढ़ते रहे। हर ओर बिखरी अड़चनों से जूझते रहे। औरों के लिए वे पगडंडी, सीढ़ी और पुल बने जिनसे होकर पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोग गुज़र कर मंज़िल हासिल कर रहे हैं, जयी हो रही हैं। ऐसी कर्मठ हस्तियों की कर्म-साधना का वृतान्त पढ़कर उनसे प्रेरणा प्राप्त की जा सकती है। उनकी जीवनी यही सीख देती है कि संघर्ष और लगन है जहाँ, सफलता है वहाँ। संघर्ष, सफलता की जननी है।

पढ़िए कौन थे चौ. बहादुर सिंह ? बहादुरी का क्या काम किया उन्होंने? क्या-क्या कष्ट सहे और किसके लिए सहे?

जन्म: 2 अप्रैल 1882 खेती-किसानी कर जीवनयापन करने वाले एक साधारण किसान परिवार में जन्म। माता का नाम श्रीमती लिछमा ( लक्ष्मी ) और पिता का नाम था श्री मोतीराम भौभिया। जन्मस्थान: गांव-बिड़गखेड़ा ( तत्कालीन जिला -फिरोजपुर, पंजाब ) देहावसान: 1 जून 1924

चौधरी बहादुरसिंह भौभिया नाम है उस बहादुर शिक्षा- सेनानी का जिसने निरकुंश राजशाही के ज़माने में किसान क़ौम की कारुणिक व दारुण दशा का मूल कारण अशिक्षा को मानते हुए राजस्थान के उत्तरी- पश्चिमी इलाके में शिक्षा से वंचित जाट समाज के नाम से पहला स्कूल 9 अगस्त 1917 को खोल कर बहादुरी का परिचय दिया। समाज में शैक्षणिक जागृति के अगुवा बनकर उन्होंने अपना जीवन शिक्षा से वंचित वर्ग के लिए शिक्षा की ज्वाला प्रज्ज्वलित करने में झोंक दिया।

पारिवारिक पृष्ठभूमि

श्री बहादुरसिंह जी के पिता श्री मोतीराम भौभिया मूलतः गांव जैतसीसर ( तहसील- सरदारशहर, जिला- चूरू ) के रहने वाले थे परंतु वहां के ठिकानेदार के जुल्म का प्रतिरोध करने के कारण उन्हें इस गाँव से बेदख़ल कर दिया। नतीज़तन उन्हें यह गांव छोड़ कर बीकानेर स्टेट की उतरी चौकी संगरिया के पास स्थित अंग्रेजी राज्य के गांव बिड़गखेड़ा जाकर बसना पड़ा।

बाल्यकाल में बहादुरसिंह ने प्रारंभिक पढ़ाई गांव कुलार ( पंजाब ) में अपने ननिहाल में मामा के घर रहकर की। गंभीर प्रवृत्ति के इस अध्ययनशील बालक ने अल्पायु में ही हिसाब-किताब एवं पत्र- व्यवहार का सलीका सीख लिया। इसके साथ- साथ संस्कृत व उर्दू का कामचलाऊ ज्ञान भी अर्जित कर लिया।

छोटी उम्र में ही शादी के बंधन में बंध कर खेत-खलिहान के लिए अपनी जिंदगी को गिरवी रख देना उस ज़माने में गाँव-देहात के हर बालक की नियति थी। लेकिन शादी के बंधन में बंध जाने के बाद भी विद्रोही स्वभाव के बालक बहादुरसिंह को घर पर टिक कर पुश्तैनी काम में ज़िंदगी खपा देना रास नहीं आया।

बहादुर युवा

किशोरावस्था की सीढ़ी चढ़ चुका बहादुरसिंह ज़माने की जरूरत के हिसाब से पढ़ा-लिखा होने के कारण अपनी प्रतिभा का सदुपयोग किसी नौकरी- पेशे से जुड़कर करना चाहता था। दिल में यह तम्मना सँजोकर बीकानेर रियासत की निज़ामत सूरतगढ़ की ओर प्रस्थान कर दिया। उस ज़माने में चारों ओर पसरे अज्ञानता के घुप अंधेरे में कामचलाऊ पढ़े-लिखे युवा की भी बड़ी पूछ होती थी। वहाँ यौवन की दहलीज पर पांव रखते ही श्री बहादुरसिंह को बीकानेर स्टेट में पटवारी की नौकरी मिल गई।

श्री बहादुरसिंह ने अपनी निडरता से "यथा नाम तथा गुण" वाली कहावत को अपने जीवन में चरितार्थ कर दिखाया। सामंती और जातीयता की दूषित मानसिकता से पोषित राजशाही में बहादुरसिंह नाम रखना सिर्फ एक जाति विशेष का विशेषाधिकार था। स्वघोषित जातीयता श्रेष्ठता का यह एक नमूना भर है। श्री बहादुरसिंह भौभिया की जिस इलाके में पटवारी के पद पर तैनाती थी, उस इलाके के तहसीलदार का नाम भी संयोगवश ठाकुर बहादुरसिंह था। जाट जाति के पटवारी का नाम बहादुर सिंह होने की जानकारी मिलते ही तहसीलदार साहब ने हुक्म दे दिया: "उस जाट के छोरे को कहो कि वह अपना नाम बदल कर भादरराम लिख दे।" पटवारी बहादुरसिंह को नश्तर चुभाने वाला हुक्म था यह। जब स्वाभिमानी बहादुरसिंह पटवारी को तहसीलदार ठाकुर बहादुरसिंह के हुक्म का पालन करने को कहा गया तो उसका सीधा सा जवाब था: "मैं बहादुरसिंह भौभिया ही रहूंगा और ठाकुर से कह दो वह अपनी मूंछो को नीचे कर सकता है, मैं आज से ही मूंछ ऊपर की तरफ तनी हुई रखूंगा।" सामंतशाही की हेकड़ी को ठेंगा दिखाते हुए युवा बहादुरसिंह ने अपने नाम और मूंछ के स्वाभिमान को कायम रखने के लिए पटवारी की नौकरी छोड़ दी।

संवेदनशील एवं चिंतनशील सैनिक

सन 1914 में प्रथम विश्व युद्ध छिड़ जाने पर यह बहादुर युवक बीकानेर स्टेट की फ़ौज में भर्ती हो गया और कुछ ही दिनों में अपनी काबिलियत से हवलदार के पद पर तैनात हुआ। युद्ध के उस दौर में हष्टपुष्ट जवानों को फौज में भर्ती होने के लिए प्रेरित किया जाता था। बीकानेर रियासत की फ़ौज में नौकरी करते हुए हवलदार बहादुर सिंह ने हजारों ग्रामीण युवकों को फौज में भर्ती करवाकर बीकानेर रिसाले को ब्रिटिश हुक़ूमत द्वारा आवंटित कोटा पूरा करवाया था। इस कार्य के लिए फौज के बड़े अफसर उससे खुश थे लेकिन छोटे अफसर जाति के आधार पर उसके साथ ईर्ष्यावश बदसलूकी करते थे। जाति सूचक अपशब्द इस्तेमाल कर उन्हें अपमानित किया जाता था। स्वाभिमानी एवं विचारशील युवा बहादुर सिंह को यह सब बर्दाश्त नहीं था।

रियासती सेना के काबिल सैनिक होने के बावजूद बहादुर सिंह को हवलदार से आगे तरक्की नहीं दी गई। व्यथित मन से उन्होंने बीकानेर रियासत के अफसरों से पत्र- व्यवहार किया। वहां से संतोषजनक उत्तर नहीं मिलने पर उन्होंने वॉइस राय और commander-in-chief से सीधा पत्र-व्यवहार करने का दुःसाहस कर लिया। उसी दौरान 1915 ईस्वी में बीकानेर स्टेट के महाराजा गंगासिंह का हनुमानगढ़ दौरा हुआ और उन्हें इस बात का पता चला। इस पर उन्होंने इस बहादुर सैनिक को अपने पास बुलवाया और पीठ थपथपा कर कहा, "शाबास बहादुर सिंह, जिस्यो नाम, बिस्यो ही गुण है।" ( ठाकुर देशराज: रियासती भारत की जाट जनसेवक, 1949 ई. पृष्ठ 127 )

बावज़ूद इसके इस बहादुर सैनिक को बीकानेर स्टेट की फौज में हवलदार के ओहदे से आगे की तरक्की नहीं दी गई। बेइंसाफी और गुलामी के प्रति उसके युवा मन में रोष उत्पन्न हो गया। सामंती अफसरों की किसान वर्ग के सैनिकों के स्वाभिमान को आहत करने की प्रवृत्ति से क्षुब्ध होकर बहादुरसिंह जी ने वहां से भी नौकरी छोड़ दी और झांसी पहुंचकर वहां 82 नंबर पलटन भर्ती हो गए। वहां उन्हें सूबेदार का रैंक देकर रंगरूट भर्ती करने का जिम्मा सौंपा गया। अपनी इस हैसियत का इस्तेमाल कर उन्होंने किसान परिवारों के अनेक युवाओं को फ़ौज में भर्ती किया।

नौकरी के सिलसिले में दूर-दूर की यात्रा करने एवं अँग्रेजी राज्य और रियासती राज्यों की हालात में फ़र्क देखकर चौधरी बहादुरसिंह समझ चुके थे कि देशी रियासतों के राजा अपनी प्रजा को अनपढ़ रखकर अपना राजपाट सुरक्षित रखना चाहते हैं और किसान वर्ग की पीठ को तो ऊंट की तरह सवारी के लिए इस्तेमाल करते रखना चाहते हैं।

एक घटना का यहाँ ज़िक्र करना मुनासिब होगा। अप्रैल 1917 में चौधरी बहादुर सिंह जब स्वामी मनसा नाथ के साथ हरिद्वार कुंभ के मेले में जा रहे थे तो अंबाला जंक्शन के रेलवे प्लेटफार्म पर भोले- भाले व अनपढ़ यात्रियों के साथ हो रही खुल्लम- खुल्ला बदसलूकी से वे व्यथित हो गए। वहां पर सूरतगढ़ - हनुमानगढ़ इलाके के सैकड़ों यात्री दो-तीन दिन से रुके पड़े थे क्योंकि अंबाला से हरिद्वार जाने वाली गाड़ी में यात्रियों की अत्यधिक भीड़ थी। पुलिस अनपढ़ और आम लोगों की भीड़ को रेल में चढ़ने से रोक कर दूर खदेड़ रही थी, जबकि जमीदारों, कर्मचारियों और चाटुकारों को रेलवे स्टेशन पर आम लोगों से बाद में पहुंचने के बावज़ूद भी उनसे कुछ रिश्वत लेकर उन्हें ट्रैन में बैठाने की व्यवस्था कर रही थी। यह सरासर बेइंसाफी देखकर स्वामी जी ने कहा "देखो, बहादुर सिंह! ये सब लोग तुम्हारे इलाके के हैं। बिना शिक्षा के इनकी कैसी दुर्गति हो रही है।"

इस घटना से चौधरी बहादुरसिंह उद्वेलित हो गए। तत्काल अपनी सैनिक वर्दी पहनकर अंग्रेज स्टेशन मास्टर के पास गए और उन्हें सारी स्थिति से अवगत कराया। इस पर स्टेशन मास्टर ने ट्रैन में अलग से डिब्बे लगवा कर दो-तीन दिनों से वहाँ रुके हुए यात्रियों को रेल से हरिद्वार जाने का प्रबंध करवा दिया। इस घटना ने चौधरी बहादुर सिंह के दिल में एक टीस पैदा कर दी। उन्होंने संकल्प कर लिया कि शैक्षिक रूप से इस पिछड़े इलाके में शिक्षा की ज्योत जलाने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे।

इतिहासकार ठाकुर देशराज लिखते हैं कि 'जब चौधरी बहादुरसिंह हरिद्वार गए तो वहां उन्हें एक साधु ने समझाया कि यहां क्या खोजते हो, तुम्हारा देश और जाति तो अज्ञान के अंधकार में डूबी पड़ी है। तुम्हें कुछ करना है तो वहीं जाकर शिक्षा का प्रचार करो।' बस यहीं से चौ. बहादुरसिंह के दिमाग़ में स्वामी जी की यह बात जीवन-संदेश बनकर बैठ गई।

ये वो दौर था जब रेगिस्तानी इलाके में दूर-दूर तक पढ़े- लिखे इंसान के दर्शन दुर्लभ होते थे क्योंकि उस समय पढ़ाई -लिखाई केवल सामंतों, सेठों और पंडितों तक ही सीमित थी। देहाती इलाके के गरीब किसानों की शिक्षा का बीकानेर रियासत की ओर से कोई प्रबंध नहीं था। बीकानेर से बठिंडा तक बीच में कोई हाई स्कूल या मिडल स्कूल नहीं था। हालांकि सूरतगढ़ एक निज़ामत थी, लेकिन वहाँ भी सिर्फ़ एक प्राइमरी स्कूल था। देहातों में तो 800 वर्ग मील ( लगभग 1300 वर्ग किमी ) के क्षेत्र में एक भी स्कूल नहीं था। रियासती राज में गाँवों में किसानों को पढ़ने की न तो इजाजत थी और ना ही कोई व्यवस्था।

शिक्षा-सेनानी

जीवन में क़िस्म- क़िस्म की ठोकरें खाने से युवा बहादुरसिंह को यह बात समझ में आ गई थी कि समाज की प्रगति और खुशहाली की कुंजी शिक्षा है। शिक्षा के बिना कोई समाज व देश उन्नत नहीं हो सकता। शिक्षा के अभाव में शोषण और उत्पीड़न की शिकार किसान-क़ौम को शिक्षा के ज़रिए सशक्त बनाने की ललक श्री बहादुर सिंह के दिल में परवान पर चढ़ चुकी थी। अशिक्षा के अंधेरे से घिरे देहाती इलाकों में शिक्षा का उजाला फैलाने का संकल्प लेकर उन्होंने फ़ौज से छुटकारा ले लिया। शिक्षा के ज़रिए समाज जागृति की मुहिम के इस अग्रदूत ने जान लिया था कि रूढ़िवादिता, पिछड़ेपन और दरिद्रता को दूर करने की रामबाण औषधि शिक्षा ही है। सशक्तिकरण की कुँजी भी शिक्षा है। समाजोत्थान के लिए शिक्षा की अलख जगाना जरूरी है।

चौधरी बहादुरसिंह की प्रवृत्ति में सद् विचार संपन्न सज्जनों की संगति करना, जलसों व मेलों में शिरकत करना, दूरदराज के इलाकों की यात्रा करना आदि शामिल थे। इन सबके फलस्वरूप उनके व्यक्तित्व की चमक बढ़ती गई और सोच का दायरा विशाल होता गया। संयोग था कि चौधरी बहादुर सिंह को नाथ संप्रदाय के परोपकारी और उदारमना स्वामी मनसानाथ का सानिध्य सुलभ हुआ। त्याग, उदारता, हर आंख का आँसू पोंछना, सन्मार्ग के मार्ग पर चलते रहना आदि गुण चौधरी बहादुर सिंह ने स्वामी मनसानाथ से ग्रहण किए।

मरुधर के मेघ चौधरी बहादुर सिंह भौभिया ने अपने मजबूत मनोबल के सहारे तथा स्वामी मनसानाथ का सानिध्य एवं मास्टर ललता प्रसाद का संबल पाकर 9 अगस्त 1917 को हनुमानगढ़ टाउन में भटनेर के ऐतिहासिक किले के पास स्थित सर्राफों की धर्मशाला में 'जाट एंग्लो संस्कृत मिडिल स्कूल' की स्थापना कर समाज के प्रथम शिक्षा पुरोधा बनने का श्रेय प्राप्त किया।

गौर करने वाली बात है कि चौ. बहादुरसिंह द्वारा इस स्कूल के शुरू करने का दिन और वर्ष दोनों ऐतिहासिक दृष्टि से ख़ास महत्व रखते हैं। सन 1917 में विश्व इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक रूस की क्रांति हुई थी, जिसके परिणामस्वरूप रूस से ज़ार के स्वेच्छाचारी शासन का अन्त हुआ। 9 अगस्त की तारीख़ भारतीय इतिहास में अपना ख़ास महत्व रखती है। राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में बात करें तो महात्मा गांधी के आह्वान पर समूचे देश में "अंग्रेजों, भारत छोड़ो" आंदोलन की व्यापक पैमाने पर शुरुआत 9 अगस्त 1942 को हुई थी। यह जान लेना जरूरी है कि 8 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के मुम्बई ( बम्बई ) अधिवेशन में 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का प्रस्ताव पारित होते ही इस आंदोलन का सूत्रपात हो गया था। इस आंदोलन के नारे की तर्ज़ पर कहें तो चौ. बहादुरसिंह ने 9 अगस्त 1917 को यह स्कूल स्थापित करते हुए शायद यह आह्वान किया होगा, ' किसानों, अंधेरा छोड़ो, उजाले की ओर बढ़ो।' 9 अगस्त की एक ख़ासियत यह भी है कि इस दिन विश्व आदिवासी दिवस ( International Day of the World's Indigenous Peoples ) भी मनाया जाता है।

चौधरी बहादुरसिंह की अगुवाई में स्थापित 'जाट एंग्लो संस्कृत मिडिल स्कूल' में शुरुआत में सिर्फ़ 28 छात्र भर्ती हुए। देहाती बालकों के लिए इस स्कूल के खुलने की भनक लगते ही सामंतशाही के गुर्गे धर्मशाला के मालिक को डराने- धमकाने के ओछे हथकंडे अपनाकर स्कूल को बंद करवाने की साज़िश रचने लगे। परंतु धुन के पक्के बहादुर सिंह जी अपनी मंजिल की तरफ सधे कदमों से आगे बढ़ते चले। 1 जनवरी 1918 ई. को इस स्कूल को विद्यार्थियों सहित हनुमानगढ़ से हटाकर संगरिया में सेठ बजरंगदास हिसारिया धर्मशाला में स्थानांतरित कर दिया। यह इलाका उन दिनों नहर से जुड़ा हुआ नहीं था। गर्मी के दिनों में चलने वाली लू के साथ इतनी धूल उड़ती थी कि धूल के गुब्बार से दिनभर रात का सा अंधेरा छाया रहता था। धूल से आसमान आच्छादित हो जाता था। दूर-दूर तक हरियाली का कोई नामोनिशान नहीं। पानी को तरसता बंजड़ ज़मीन। हर तरह से अभाव ग्रस्त इलाका।

संगरिया में स्कूल-भवन का निर्माण

चौधरी बहादुरसिंह के दमख़म से प्रभावित होकर उनके फ़ौज के साथी ठाकुर गोपाल सिंह राठौड़ ( जागीरदार पन्नीवाली, हनुमानगढ़ ) ने तत्कालीन घोर जातीय विद्वेष को दरकिनार करते हुए संगरिया में अपनी 14 बीघा 3 बिस्वा भूमि 'जाट एंग्लो संस्कृत मिडल स्कूल' के लिए उदारतापूर्वक दान कर दी। 'राजस्थान में यह पहला अवसर था जब किसी व्यक्ति ने विद्यालय के लिए भूमि दान किया था और वह भी एक राजपूत द्वारा एक जाट संस्था के लिए। वास्तव में यह एक अनुकरणीय उदाहरण था।' ( रियासती भारत के जाट जनसेवक, 1949 ई., पृष्ठ118 )

उल्लेखनीय है कि जनकल्याणकारी कार्यों में अभिरुचि से सुसम्पन्न ठा. गोपाल सिंह मूलतः चूरू के निकट स्थित लोहसना ठिकाने के ठा. बन्नेसिंह के सुपुत्र थे। बीकानेर में विवाह होने के बाद वे वहीं सेना में भर्ती हो गए। लंबे अरसे तक सेना और पुलिस में तैनात रहे। इसके बाद उनको अंग्रेजी राज्य की सीमा पर पन्नीवाला में जमींदारी मिल गई। इस स्थान का ताल्लुक़ उनकी पत्नी से था। ठा. गोपालसिंह पहले सेना में और बाद में सिविल में रहते हुए जाटों के कठोर परिश्रम, विपरीत परिस्थितियों से जूझने की क्षमता, उनकी साफ़गोई और कर्मठता के क़ायल हो चुके थे।

संगरिया में ठा. गोपालसिंह से भूमि का संबल पाकर तथा स्वामी मनसा नाथ की की प्रेरणा एवं मास्टर ललताप्रसाद के सक्रिय सहयोग से चौधरी बहादुर सिंह ने संगरिया में जाट स्कूल की नींव रख दी। बता दें कि ये वो जमाना था जब बीकानेर के इस इलाके में ही नहीं बल्कि उसकी सरहद से मिलते पंजाब के इलाके में भी शिक्षा का घोर अंधेरा पसरा था। 'इस इलाके के लगभग आठ सौ मील के घेरे में संगरिया का यह जाट स्कूल ही यहाँ पर एकमात्र विद्या- केंद्र था।'

इस इलाके के नहर से जुड़ने से पहले इस स्कूल में पानी का बड़ा संकट था। स्कूल में पानी सुलभ करवाने में शुरू में चौधरी आसाराम का बड़ा योगदान था। वे संगरिया से सात किलोमीटर दूर स्थित गांव चौटाला ( अब हरियाणा में ) से दो बैलों की जोड़ी से खींची जाने वाली गाड़ी पर पानी लाते थे। बैलगाड़ी में एक बार पानी ढो कर लाते समय रास्ते में एक बैल के मर जाने पर आसाराम जी ख़ुद बैल के स्थान पर जुत कर पानी लाए। बाद में पानी के इस भयावह संकट का समाधान अलखपुरा निवासी कोलकाता प्रवासी दानवीर सेठ छाजूराम द्वारा ₹ दस हजार के दान से प्राणसरोवर नामक 40 फुट व्यास का और 20 फुट गहरा कुंड बनवाकर किया गया। इस कुंड में सारे मैदान का वर्षा का पानी एकत्र कर लिया जाता था जिससे उन दिनों लगभग सारी साल के लिए काम चल जाता था।

संस्था के लिए चंदा इक्कठा करने के सिलसिले में गाँव-गाँव घूमते हुए चौधरी बहादुर सिंह भौभिया 26 जनवरी 1918 को मिरजावाले पहुंचे , जो उन दिनों तहसील का मुक़ाम था। चौधरी हरिश्चंद्र नैण ने अपनी दैनिक डायरी में चौधरी बहादुर सिंह से उस दिन हुई प्रथम मुलाकात का वर्णन इन शब्दों में किया है, "चौधरी बहादुर सिंह धुन के पक्के और कठोर परिश्रमी थे। इस तेजस्वी पुरुष में गजब की आकर्षण शक्ति थी। उन्होंने अपना तन- मन- धन देश को शिक्षित बनाने के दृढ़व्रत में होम दिया। मिर्जेवाला तहसील में मैं वकालत करता था... उस जादूगर ने अपना मंत्र मुझ पर भी चला दिया और मेरे कान में भी फूंक मार दी...मैं आयु भर के लिए इस संस्था में बंध गया उस तपस्वी ने मेरी भावनाओं को भी जगा दिया और मेरी रग-रग में बिजली का संचार कर दिया मैं उनके साथ हो लिया।"

संगरिया में स्कूल का भवन और छात्रावास का निर्माण करने के उद्देश्य से चौधरी बहादुर सिंह ने 1919 ईस्वी में दस हज़ार रुपये इकट्ठा करने की एक अपील जारी की। अकाल की मार से त्रस्त मरू भूमि के किसानों की आर्थिक स्थिति बदतर होने के कारण इस वांछित धनराशि का संग्रह नहीं हो सका। दृढ़ निश्चय से ओतप्रोत शिक्षा- सेनानी बहादुर सिंह ने प्रतिज्ञा कर ली कि 1921 ईस्वी के वार्षिकोत्सव तक यदि दस हज़ार रुपये इकट्ठे नहीं हुए तो वे प्राण त्याग देंगे। इस पर केवल बीकानेर के ही नहीं अपितु पंजाब तक के लोगों में हड़कंप मच गया। तत्समय क़ौम के मसीहा के रूप में सुविख्यात चौधरी सर छोटूराम के सभापतित्व में 27 मार्च 1921 को संगरिया स्थित इस स्कूल में भारी जलसा हुआ और उनकी अपील पर समाज बंधुओं ने अपनी जेबें खाली कर दीं। परिणाम यह हुआ कि दस हज़ार रुपये के स्थान पर ग्यारह हजार रुपये एकत्रित हो गये। ( ठाकुर देशराज: रियासती भारत के जाट जनसेवक, 1949 ई., पृष्ठ 128 )

चौधरी हरिश्चन्द्र नैण की डायरियों से पता चलता है कि चौधरी बहादुरसिंह के संस्था में जीवनदान देने के बाद उनके घर की आर्थिक स्थिति बेहद डाँवाडोल हो गई थी। उनके पिता चौधरी मोतीराम का स्वर्गवास तो बहुत पहले ही हो गया था। उनके छोटे भाई लेखराम की युवावस्था में ही 1918 ईस्वी में असामयिक मृत्यु हो गई। सन 1919 की 'कात्तिकवाली बीमारी' में उनके एक पुत्र, दो पुत्रियां और एक बहिन मौत की भेंट चढ़ चुके थे। ऐसी स्थिति में उनके अलावा घर में खेती करने के लिए कोई पुरुष बचा नहीं था। ऐसी विकट परिस्थिति में उनकी माता जी लिछमा को ही खेती-बाड़ी का ध्यान रखना पड़ता था। यदा-कदा संगरिया आकर माता जी उलाहना देते हुए कहती, " अरे, बहादुरसिंह! तूने तो घर की तरफ पीठ ही कर ली है...घर- बार जला कर तो कोई तीर्थ नहीं करता है।" दृढ़- प्रतिज्ञ चौधरी बहादुरसिंह का जवाब होता, "माँ! तुम जानो और घर जाने...मेरे संस्था छोड़ने से बड़ी कठिनाई से जलाया गया यह दीपक बुझ जाएगा। मेरे लिए समाज मेरे परिवार से कहीं बड़ा है।" स्पष्ट है कि चौधरी बहादुरसिंह ने अपने परिवार का हित समाज हित पर बलिदान कर दिया और ऐसा कार्य बहादुरसिंह जैसा दृढ़ प्रतिज्ञ पुरुष ही कर सकता था।

उल्लेखनीय है कि जाट स्कूल अपनी स्थापना के समय से ही जात -पात के संकुचित दायरे से मुक्त रही है। इसमें दलित समाज सहित सभी जातियों के बालकों को समानता के सिद्धांत के आधार पर प्रवेश सुलभ होता रहा है। चौधरी बहादुर सिंह ने अपना जीवन इस स्कूल को समर्पित कर रखा थे। कई गाँवों में इसकी शाखा पाठशालाएं खोली गई। संगरिया स्कूल में पुस्तकालय, औषधालय और गौशाला जैसी प्रवृत्तियां प्रारंभ की गईं। स्कूल के लिए अध्यापकों की व्यवस्था करना, पढ़ाई- लिखाई और छात्रावास का प्रबंध देखना, कच्चे भवनों का निर्माण व रखरखाव करना, पीने के लिए पानी की व्यवस्था करना, इन सब के ऊपर संस्था के खर्चे के लिए चंदा इत्यादि हेतु सब जगह भागदौड़ करना आदि सभी काम चौधरी बहादुर सिंह को ही करने पड़ते थे। मटीली, घमुड़वाली, गोलूवाला आदि में खोली गई शाखा स्कूलों का काम भी उन्हें ही देखना पड़ता था। काम के बढ़ते बोझ की वजह से चौधरी बहादुर सिंह का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा परंतु उन्होंने इसकी कोई परवाह नहीं की। रात-दिन की भागदौड़ का विपरीत प्रभाव उनके स्वास्थ्य पर पड़ना लाज़िम था। 1924 ईस्वी के मई महीने में वे चंदे की जुगाड़ में गांव- गांव घूम रहे थे। तबियत खराब हुई। खानपान का समुचित प्रबंध था नहीं। नतीज़तन मलेरिया बुखार की चपेट में आ गए। उन दिनों उपचार के साधन भी दूर-दूर तक सुलभ नहीं होते थे। मलेरिया की बीमारी बिगड़ कर मोतीझरा में तब्दील हो गई। कपटी काल के क्रूर हाथों ने 1 जून 1924 ईस्वी को इस स्वाभिमानी, शिक्षा- अनुरागी, बहादुर शिक्षा-सेनानी को क़ौम से छीन लिया। उनके पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार स्कूल परिसर में किया गया ताकि आगे आने वाली पीढ़ियां उनके आदर्शों से प्रेरणा ले सकें।

'मुश्किलों के झंझावात को बहादुरी सेझेलते रहे, वक्त से आगे चले और वक्त से पहले छोड़ चले।'

देश और समाज की सेवा का सर्वोत्तम मार्ग शिक्षा को मानते हुए चौधरी बहादुर सिंह ने शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए अपना जीवन ही दान कर दिया। अदम्य साहस, सूझ-बूझ और दूर दृष्टि से सुसम्पन्न इस शूरवीर ने विषम परिस्थितियों के तूफानों में पीढ़ियों के उत्थान के लिए शिक्षा की मशाल जलाकर समाज की प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया। शिक्षा के बल पर वर्तमान में समाज की प्रगति की भव्य इमारत के वे नींव की ईंट बन गए।

राजस्थान में जाट समाज के नाम से पहली स्कूल खोल कर शिक्षा का उजियारा फैलाने वाला एवं किसान वर्ग और इलाके की जागृति के लिए 'प्रकाश -स्तंभ' तथा 'प्रेरणा-पुंज' के रूप में पहचान स्थापित करने वाला यह पुरोधा मरकर भी मौजूद है। पीढ़ियों के लिए प्रगति का पुल बनाने वाले पीढ़ियों तक जिंदा रहते हैं।

चौधरी बहादुरसिंह द्वारा रोपित और सिंचित इस स्कूल रूपी पौधे ने कालांतर में एक वटवृक्ष का रूप और विस्तार प्राप्त कर असंख्य लोगों के जीवन को शिक्षा की ज्योति से रोशन किया है। चौधरी बहादुरसिंह के देहावसान के बाद इस स्कूल के संचालन का दायित्व चौधरी हरिश्चंद्र नैण ने दक्षतापूर्वक निभाया। 18 दिसम्बर 1932 को सम्पन्न हुई इस संस्था की कार्यकारिणी की बैठक में इस संस्था के विकास और समुचित संचालन का जिम्मा स्वामी केशवानंद को सौंप दिया गया। कालांतर में इस संस्था का नाम परिवर्तित कर 'ग्रामोत्थान विद्यापीठ' कर दिया गया और स्वामी जी के अथक प्रयासों का प्रतिफल था कि इस संस्था ने राष्ट्रीय स्तर पर 'राजस्थान का शांतिनिकेतन' के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की।

संदर्भ:

1. ठाकुर देशराज: रियासती भारत के जाट जनसेवक, 1949 2. पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ( प्रधान संपादक ) , ठाकुर देशराज ( संपादक ): स्वामी केशवानंद अभिनंदन ग्रंथ, मार्च 1958 3. प्रो. पेमाराम एवं डॉ. विक्रमादित्य: जाटों की गौरव गाथा, 2008 4. श्री लक्ष्मण बुरड़क ( मॉडरेटर ): जाटलैंड विकिपीडिया 5. प्रो. शेरसिंह तूर का लेख--ग्रामोत्थान विद्यापीठ संगरिया के संस्थापक चौधरी बहादुर सिंह, चौधरी 6. बहादुर सिंह समाज जागृति परमार्थ ट्रस्ट प्रकाशन, स्मारिका 1999, 2000 7. कर्मयोगी शिक्षा- संत स्वामी केशवानंद, चैरिटेबल ट्रस्ट प्रकाशन, पृष्ठ 38-39

✍️✍️ Prof. H. R. Isran Retired Principal, College Education, Raj.


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