Ek Adhuri Kranti
Ek adhūrī krānti (एक अधूरी क्रांति) is a book by Sahiram about Socio-political history of Rajasthan, particularly peasant's movement around 1947 and before. It was published in year 1995. It has become a reference book for research scholars on the peasants movements and other topics. This book was awarded a prize and citation, received rave reviews and was acclaimed by various social organizations.
'एक अधूरी क्रांति' पुस्तक से कुछ अंश
अनुक्रमणिका
- 1. शेखावाटी का संक्षिप्त इतिहास.....पृ. 1 से 15
- 2. जागीरदारी से इजारेदारी (शेखावतों का अभ्युय).....पृ. 16-35
- 3. किसान आंदोलन के कारण.....पृ. 36-95
- 4. आंदोलन के उत्प्रेरक तत्व, तात्कालिक कारण एवं स्वरूप.....पृ. 96-126
- 5. किसान आंदोलन की शुरुआत-
- (i) सामाजिक व सांस्कृतिक आंदोलन.....पृ. 127 - 163
- (ii) आर्थिक व राजनीतिक आंदोलन.....पृ. 164-291
- एक अधूरी क्रांति.....पृ. 292-322
प्रकाशकीय
लेखक, श्री सहीराम चौधरी राजस्थान विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्ति के बाद सन् 1981 में राज्य सेवा में प्रवेश किया। श्री चौधरी, छात्र जीवन में मेधावी छात्र होने के साथ-साथ, एक गहन सोच के धनी, संगठनकर्ता, अत्यंत उत्साही व सत्यनिष्ठ युवक के रूप में जाने जाते थे। राज्य सेवा में प्रवेश के बाद भी लेखक की सोच पूर्ववत बनी रही। अपने ऐशो-आराम की बजाए वह उन्हीं लोगों के संपर्क में ज्यादा रहे जिनसे उनके सामाजिक रिश्ते बने हुए थे। राजकीय कार्य का निष्ठापूर्वक संपादन करने के साथ-साथ उन्होंने सामाजिक कार्यों व संस्थाओं में बराबर रुचि कायम रखी और उनके वार्तालाप में भी बहुत ऐसे विषय ही छाए रहते हैं।
इस पुस्तक के लेखन का विचार जब वह 'एलएलम' के विद्यार्थी थे, तब ही अंकुरित हो चुका था। डॉक्टर जी एस शर्मा, प्रोफेसर, विधि विज्ञान ने एक बार उन्हें राजस्थान की प्रमुख सामाजिक आर्थिक समस्याओं का समाजशास्त्रीय अध्ययन करने हेतु कहा था। उस वक्त से लेकर आज तक लेखक अपनी डायरी में विभिन्न सामाजिक आर्थिक व राजनीतिक विषयों पर अपना लेखन जारी रखे हुए हैं। हालांकि यह दरी नियमित नहीं है लेकिन हर ऐसी घटना जो समाज को प्रभावित करती है, लेखक की कलम से अछूती नहीं है।
सन् 1989-90 में देश के राजनीतिक व सामाजिक परिवेश के बदलाव को भांपकर लेखक ने किसानों व ग्रामीण गरीबों के भविष्य पर पड़ने वाले प्रभाव का गहन अध्ययन किया। लेखक का राजस्थान के ग्रामीण जीवन वह किसानों की स्थिति से साक्षात्कार बाल्यकाल से ही था। अतः यह विचार आया की वर्तमान युवा पीढ़ी, महिलाओं व किसानों के नवधनाढ्यवर्ग को, जो अपने अतीत को भूल कर एक बार पुनः भटक गया है, इस बात से परिचित कराया जाए कि हमारे बुजुर्गों, शहीदों और गरीब किसानों ने किस प्रकार एक पुरातन व्यवस्था से संघर्ष करके राजस्थान में नवनिर्माण किया था। उपरोक्त योजना के मद्देनजर लेखक ने, पाठकों को भूत काल
का परिचय कराने के साथ ही भविष्य की और संधान करने का विचार प्रकट किया और फलस्वरूप इस कृति का जन्म हुआ।
इस कृति के प्रकाशन हेतु हमने 'वीर तेजा प्रकाशन' जयपुर का गठन किया है। जिसका उद्देश्य राजस्थान के सार्वजनिक जीवन में किसानों, गरीबों, दलितों और महिलाओं के हितार्थ कार्य करने वाले उन बलिदानी लोगों के कृत्य को प्रकाशित करना है, जिनहोने अन्याय के विरोध में व कमजोर के हिट में निस्वार्थ त्याग किए हैं। लेखक का सोच ऐसे ही विचारों का आईना है, अतः हमने इस कृति के प्रकाशन का निर्णय लिया है।
पुस्तक के प्रकाशन में अत्यंत सावधानी बरती गई है, फिर भी अनेक प्रतियां संभव हैं, जिसके लिए पाठकोन से विनम्र क्षमायाचना है।
- श्रीमती कमला
प्राक्कथन
"कलम उनकी जय बोल-
जो चढ़ गए पुण्य वेदी पर,
लिए बिना गर्दन का मोल।
साक्षी हैं जिनकी महिमा के,
सूर्य चंद्र और भूगोल।
कलम आज उनकी जय बोल। "
लेखक कलम का सिपाही होता है। वह कलम की पैनीधार को समाज की संरचना, सुनियोजन, संगठन, सुधार एवं संहार हेतु प्रयोग करता है ताकि नवनिर्माण और नव चेतना की प्रक्रिया सतत चलती रहे। परिवर्तन ही प्रकृति एवं जीवन का नियम है। 'बहता पानी निर्मला' की उक्ति के अनुसार, लेखक भी सामाजिक परिवर्तन का कर्ता होता है। उसके कलम की सार्थकता सामाजिक उपयोगिता में ही है।
यदि लेखन स्वांत: सुखाय है तब भी उसकी उपादेयता सामाजिक दिशा बोध, प्रासंगिकता एवं निर्देशन से ही आँकी जानी चाहिए। विज्ञ लेखक ने इसी कर्तव्यबोध से प्रेरित होकर शेखावाटी के किसान आंदोलन की तथ्यपूर्ण विवेचना की है। पृष्ठभूमि के रूप में शेखावाटी के संक्षिप्त इतिहास, मुगलकालीन कृषि व्यवस्था में जागीरदारी का स्वरूप, जयपुर राज्य की इजारेदारी व्यवस्था के तहत शेखावाटी का भूमि बंदोबस्त एवं शोषित किसान की दयनीय दशा का अनवेषणात्मक वर्णन किया गया है।
तदुपरांत, 20वीं सदी के प्रारंभ की नवचेतना एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान की लहर का ग्रामीण परिवेश पर प्रभाव, जिसके फलस्वरूप गांव की आर्थिक सामाजिक संरचना में आया बदलाव तथा किसान चेतना का प्रादुर्भाव एवं बढ़ते असंतोष का मार्मिक चित्रण किया है।
उपरोक्त संदर्भ में, तत्कालीन शेखावाटी में जाट किसान के उत्पीड़न, आर्थिक एवं सामाजिक शोषण का हृदयस्पर्शी आकलन किया गया है। दमन एवं अन्याय की
प्रक्रियात्मक स्वरूप जाट किसानों के असंतोष के स्वरों को लेखक ने तीव्रता से मुखरित किया है। असंतोष की यह छिपी हुई चिंगारी एक सफल किसान आंदोलन के रूप में कैसे ज्वालामुखी बनकर फट पड़ी, इसका विश्लेषणात्मक विवेचन किया गया है। किसान आंदोलन के उत्प्रेरक तत्व, तात्कालिक कारण एवं इसके स्वरूप का संक्षिप्त परंतु श्रृंखलाबद्ध विवरण दिया गया है। किसान जागृति एवं स्वाधीनता के मुख्य आंदोलन को दो धाराओं में विभक्त किया गया है- (1) सामाजिक व सांस्कृतिक आंदोलन (2) आर्थिक व राजनीतिक आंदोलन। वास्तव में, यह एक लंबी लड़ाई थी जो सन् 1922 से 1952 तक चलती रही। यह किसान की अस्मिता के लिए लड़ा गया जेहाद था।
विदेशी सरकार की हृदयहीनता, राजाओं की राजाशाही एवं जागीरदारों की निरंकुशता- इस तिहरी गुलामी से पीड़ित किसान खम्म ठोककर अपने अस्तित्व एवं स्वाभिमान के लिए संघर्षरत हो गया। किस प्रकार जुल्म की इंतिहा, आजादी के जन्म देती है, इसका सजीव चित्रण शेखावाटी के किसान आंदोलन में है। दीन-हीन किसान की अंतरात्मा, लाग-बेगार, आर्थिक शोषण एवं सामाजिक असमानता एवं तिरस्कार के विरोध में आक्रोश से भर गई। स्वामी दयानंद की स्वराज एवं सुराज की कल्पना ने जाट समाज को अनुप्राणित कर संगठन के बीज बोए, जिसके फलस्वरूप जागीरदारी प्रथा के विरोध का स्वर उठा। कालांतर में यह चेतना एवं विरोध की धारा देश के स्वाधीनता आंदोलन की मुख्यधारा से भी जुड़ गई। इस लंबे संघर्ष में किसानों ने भीषण दमनचक्र को सहा, लाठियां झेली, गोलियां खाई और शहीद हुए। शेखावाटी के शहीदों का एक गौरवपूर्ण इतिहास है। आज भी शेखावाटी के कस्बों में शहीदों की चिताओं पर हर वर्ष मेले लगते हैं।
इस सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक आंदोलन में कृषक समाज के साथ, शेखावाटी का प्रबुद्ध शहरी वर्ग भी शामिल हो गया जिससे यह जन-जन का आंदोलन बन गया। इस विशाल जन क्रांति ने शेखावाटी समाज के हर पहलू को छुआ और प्रभावित किया। शेखावाटी के इस आंदोलन ने पूरे राज्य की मानसिकता एवं राजनीतिक चेतना को प्रभावित किया।
सुयोग्य लेखक ने पुस्तक के उपसंहार में किसान की वर्तमान दशा का सांगोपांग चित्रण करते हुए निष्कर्ष निकाला है कि शेखावाटी का किसान आंदोलन, जिसे समग्र क्रांति भी कहा जा सकता है, अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सका। अतः इस अनुसंधानात्मक लेखन के अंतिम अध्याय का शीर्षक 'अधूरी क्रांति' रखा है।
इस क्रांति के फलस्वरुप राजनीतिक व्यवस्था आमूलचूल बदल गई, जबरदस्त सामाजिक परिवर्तन आया, काश्तकार मालिक बन गया, प्रजातंत्र की स्थापना हुई एवं एक व्यक्ति एक वोट का हक हासिल हुआ। परंतु लेखक ने है तथ्यात्मक विश्लेषण कर प्रतिपादित किया है कि कुर्बानी की तुलना में किसान को प्रतिफल की प्राप्त नहीं हुई, संपूर्ण समाज में अपेक्षित बदलाव नहीं आया। सत्ता का निजाम बदल गया, हकीम बदल गए लेकिन किसान का आर्थिक शोषण अब भी बरकरार रहा। किसान की समग्रमुक्ति का अर्थ है किसान पूर्ण रूप से अपना भाग्य विधाता बने, सत्ता का विकेंद्रीकरण हो एवं ग्राम स्वराज की स्थापना हो। यह सपना तभी साकार होगा जब किसान सतत वर्ग संघर्ष के कर्तव्यबोध को जीवित रखे और इस हेतु हर तरह के बलिदान के लिए तत्पर रहे। किसान के उत्थान का बस यही राजमार्ग है कि गांव-गांव, ढाणी-ढाणी चेतना की मशाल जले और किसान जागरुक होकर अपने हक के लिए लड़ता रहे।
यह पठनीय कृति, मनस्वी लेखक के विस्तृत अध्ययन, सुदीर्घ शोध, गहन मनन एवं गंभीर चिंतन का प्रतिफल है। लेखक की सत्य निष्ठा ने इस ग्रंथ को शेखावाटी के किसान आंदोलन का प्रामाणिक दस्तावेज बना दिया है, जो सुधि पाठकों और शोधार्थियों के लिए भी मननीय संग्रहणीय है। लेखक को उसके स्वाध्याय और श्रम के लिए सतश: साधुवाद। मुझे प्रस्तावना लेखन का गौरव दिया इस हेतु कृतज्ञता ज्ञापन। किसान समाज को इस पुस्तक के रूप में एक चेतना प्रदीप प्रदान किया इसलिए लेखक को हार्दिक धन्यवाद।
पटाक्षेप के रूप में, यह कहना समीचीन होगा कि आजादी की प्राप्ति संगठन और संघर्ष से होती है, साथ ही साथ अपने अधिकारों की रक्षा और शोषण के प्रतिकार के लिए निरंतर जागरूकता जरूरी है। इस संदर्भ में चेतावनी के निम्न स्वर सतत् स्मरण अयोग्य हैं:-
"गुलामी में न काम आती हैं तदबीरें न शमशीरें,
अगर हो जौकें यकीं पैदा तो कट जाती हैं जंजीरें। "
- डॉ. ज्ञानप्रकाश पिलानिया, भूतपूर्व पुलिस महानिदेशक एवं सदस्य राजस्थान लोक सेवा आयोग
भूमिका
हमारा समाज मानवता के विकास की अनवरत कहानी है। इस कहानी में हमारी सामाजिक व्यवस्थाएं व परस्पर संबंध, राजनीतिक गतिविधियां व गठजोड़, सांस्कृतिक विकास की धारा एवं धर्म की परंपरा तथा आर्थिक जीवन के पहलू इत्यादि सम्मिलित रहते हैं।
इतिहास के किसी एक काल में विशिष्ट मूल्यों की स्थापना व दूसरे काल में उनका अवमूल्यन, एक ही शासन व्यवस्था में समाज का उत्कर्ष व पतन, मानवता की प्रगति का मार्ग व उत्पीड़न का सिलसिला, समाज की एकजुटता व आक्रोश भरा बिखराव, ये सभी विरोधाभास इतिहास के तथ्य हैं। कभी संपूर्ण इतिहास यथास्थिति के पक्ष में नजर आता है तो कभी संपूर्ण व्यवस्था के बदलाव में खड़ा दिखाई देता है।
हर व्यवस्था के प्रभाव में इतिहास को दिशा देने वाली धारा का जन्म होता है। उसके साथ सभी परिस्थितियां, व्यवस्थाएं व जन शक्ति जुड़ जाती है, वह आगे बढ़ती है, सब कुछ समेटती चली जाती है और एक नई स्फूर्ति का उदय मानवता में कर जाती है। फिर एक व्यवस्था बनती है कुछ नई, कुछ पुरानी। अतः फिर नवीनता की तलाश में इंसान सोचना शुरु करता है, भटकता है, बदलाव की एक चाह उसे कचोटती है, वह सोचता है... नई योजनाएं, विकास की धारा और उनका क्रियान्वयन। फिर वही टकराहट, नए नायक, नई दिशाएं, नए समाज व व्यवस्था का जन्म।
यह एक अनवरत कहानी है, ऐतिहासिक सकते हैं। मेरी यह पुस्तक मानवता के विकास की निरंतरता की कहानी है और नवीनता की तलाश में एक शुरूआत है, फिर नई चिनगारी है, जो टकराहट को जन्म देगी, दिशाएँ ढूंढेगी, नए समाज, नई व्यवस्था को तलाशेगी।
मैं इस महान मानवता व विशाल पृथ्वी के छोटे से भू-भाग की आबादी को अपने अध्ययन का विषय बना रहा हूं। लेकिन यह मानवता के इतिहास का सत्या है, बदलाव की की कहानी है, हर भू-भाग व समाज पर समाज पर लागू होती है। हर विचारधारा व चिंतन का नजरिया साधारण व्यक्ति के सामाजिक परिपेक्ष में अंकुरित होता है। मेरी सामाजिक पृष्ठभूमि, पारिवारिक माहौल, शिक्षा, सत्संग व गुरुजनों का सानिध्य, ये सभी तत्व मेरी प्रेरणा के उत्तरदाई हैं। मुझे बाल्यकाल से ही शेखावाटी के इतिहास, समाज, अर्थ, संस्कृति व जन-जीवन का ज्ञान मेरे बुजुर्गों, गुरुजनों व सामाजिक परिप्रेक्ष्य मिलता रहा। मैं युवावस्था
तक उसे सँजोये रहा, उस पर मनन करता रहा, मेरे ज्ञान उपार्जन के हर कड़ी में उस पर चिंतन करता रहा। मेरी सोच हर पल समृद्ध होती गई और यह शेखावाटी का भू-भाग मेरी चिंतनस्थली बना रहा।
परिवर्तन के नायक चूँकि मेरे बाल्यकाल में व कुछ एक मेरी युवावस्था में भी जीवित थे अतः उनका सानिध्य मेरे चिंतन का कारण बना।
मेरा जन्म किसान क्रांति के कुछ समय बाद ही हुआ, अतः मुझे बाल्यकाल से ही गांव की चौपालों, शरद ऋतु की ठिठुरन में धूणी पर तापते बुजुर्गों, हुक्का गुड़गुड़ाते बूढ़े किसानों से क्रांति के ताजा किस्से सुनने का मौका हासिल हुआ। मैंने जाना कि मेरे जन्म से कुछ ही वर्षों पहले न केवल शेखावाटी बल्कि पूरे राजस्थान में एक अलग सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक व्यवस्था थी और मेरा जन्म एक नई व्यवस्था में हुआ है। शायद मेरी चिंतन का आधार, मेरा वही बाल्यकाल था।
पुस्तकों को 6 अध्यायों में विभाजित किया गया है। प्रथम अध्याय में शेखावाटी का संक्षिप्त इतिहास, मुगल कृषि व्यवस्था के तहत जागीरदारी का वर्णन है। द्वितीय अध्याय में इजारेदारी व्यवस्था के तहत भूमि बंदोबस्त व तृतीय भाग 20 वीं सदी के आरंभिक काल से संबंधित है, जिसमें ग्रामीण आर्थिक-सामाजिक संरचना में आए बदलाव के कारण किसानों की दशा व उनके असंतोष का जिक्र है। चौथे भाग में किसान आंदोलन के उत्प्रेरक तत्व, आंदोलन के तात्कालिक कारण व उसके स्वरूप को दर्शाया गया है। पांचवा अध्याय मुख्य आंदोलन से संबंधित है, जिसे दो भागों में विभक्त किया गया है- (1) सामाजिक व सांस्कृतिक आंदोलन (2) आर्थिक व राजनीतिक आंदोलन। छठा व अंतिम अध्याय इसका उपसंहार है और पुस्तक का मर्म भी, जिसका शीर्षक एक अधूरी क्रांति रखा गया है। यही शीर्षक पुस्तक का भी नाम है। यों तो, आंदोलन और क्रांति की परिभाषाएं अलग-अलग होती हैं लेकिन शेखावाटी के इस किसान आंदोलन को हम एक समग्र क्रांति कह सकते हैं।
30 वर्ष के लंबे काल तक चले इस आंदोलन में, इस भू-भाग के व्यक्ति व समाज के आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक सभी पहलुओं पर जंग लड़ी गई और अंततः इसकी परिणति एक जबर्दस्त सामाजिक बदलाव के रूप में सामने आई। इस आंदोलन के फलस्वरुप एक व्यवस्था परिवर्तित हुई और नए सामाजिक मूल्यों ने इस व्यवस्था का स्थान लिया। ऐसे बदलाव साधारणतया किसी क्रांति के उपरांत ही संभव हैं। लेकिन, पाठक निश्चय ही यह जानना चाहेंगे कि यह क्रांति अधूरी कैसे है? इसका जवाब मैंने पुस्तक के अंतिम अध्याय में देने की चेष्टा की है। शेखावाटी के किसानों ने
जितने बड़े मूल्य चुका कर यह जंग लड़ी, उसकी तुलना में उन्हें प्रतिफल की प्राप्ति नहीं हुई। साथ ही, इस पूरे प्रदेश व संपूर्ण समाज में भी वह बदलाव नहीं आया, जो अपेक्षित था। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि किसान इसे अंतिम परिणति तक नहीं पहुंचा सके। आज भी किसानों के आर्थिक व सामाजिक संकट बरकरार हैं।
राजस्थान की रियासतों में सर्वप्रथम बिजोलिया का किसान सन् 1918 में आंदोलित हुआ और सन 1922 तक ब्रिटिश अधिकारियों के हस्तक्षेप की वजह से वहां शांति स्थापित हो गई। दोबारा सन 1927 में उठे बिजोलिया के आक्रोश को फिर दबा दिया गया। दोनों बार किसानों को कुछ आर्थिक राहत पहुंचाई गई और वह शांत हो गए। लेकिन शेखावाटी का किसान सन 1922 में आंदोलित हुआ और सन 1952 तक लड़ता रहा। उसके अनवरत संघर्ष ने शेखावाटी समाज की जीवन का कोई भी पहलू अनछुआ नहीं छोड़ा। अतः हम इसे बीसवीं सदी का सबसे लंबा व संघर्षपूर्ण किसान आंदोलन कह सकते हैं, जिसने पूरे राज्य की राजनीति को प्रभावित किया।
इस पुस्तक का लेखन, सरकारी कामकाज की व्यवस्थाओं के कारण 5 वर्ष में पूरा हो सका। इस दौरान मुझे भी उत्प्रेरक लोगों का संबल मिलता रहा। श्री दिलसुखराय चौधरी पूर्व विधायक, श्री विद्याधर ओलखा, पूर्व प्रधान उदयपुरवाटी, श्री पूरणसिंह सुंडा (कूदन), श्री पी.आर. धायल उपायुक्त, आयकर विभाग, मुंबई व श्री मेहताब सिंह अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक, अजमेर, ऐसे लोग हैं, जो अभिभावक की तरह मुझसे लेखन के बारे में लगातार पूछ-ताछ करते रहे। श्री गोवर्धन सिंह IAS (रिटायर्ड) व श्री विजय पूनिया ने उस वक्त पर मेरी मदद की जब मैं पुस्तकों व संदर्भित लेखन का संकलन कर रहा था श्री जगदीश सुन्डा ने मेरी यात्राओं व साक्षात्कारों के लिए अपनी मारुति कार उपलब्ध कराकर, मुझे अत्यधिक सुविधा प्रदान की। मैं इन सभी महानुभावों का तहेदिल से आभारी हूं। मेरी धर्मपत्नी कमला चौधरी व पुत्र वीर तेजासिंह को भी मैं धन्यवाद देता देना चाहता हूं, जिन्होंने आपसी समझ विकसित करते हुए मेरा भरपूर सहयोग किया।
अंत में, मैं श्री रमेश गोयल (CA) ब्यावर, श्री रामप्रसाद जी कुमावत एवं श्रीमती गायत्री कुमावत प्रोप्राइटर, गरिमा आफ़सेट, एवं श्री अविनाश कुमावत (डीटीपी), गरिमा ऑफसेट, ब्यावर का भी अत्यंत आभारी हूं, जिन्होंने मेरे काम को अपना निजी कार्य समझते हुए इसे बड़ी लगब व कुशलता से पूर्ण करवाया।